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शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1 से जारी ...
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सरदार भगतसिंह की बात चल रही है तो इस शिकवे की बात भी हो जाय कि गांधी जी ने नहीं कहा वर्ना भगतसिंह बच जाते। गांधी जी भारत के गवर्नर नहीं थे कि वे कह देते और देश आज़ाद हो जाता। भगत सिंह की ही तरह गांधी जी भी देश की स्वतंत्रता के लिये अपने तरीके से संघर्षरत थे। लेकिन यह सत्य है कि भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने वाइसराय से बात की थी और इस उद्देश्य के लिये अन्य राष्ट्रीय नेता अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत थे।
क्रांतिकारी और कॉंग्रेसी कार्यकर्ता एक दूसरे के साथ वैसा सहयोग कर रहे थे जैसा कम्युनिस्टों का इन दोनों ही के साथ कभी नहीं रहा। शहीद अपनी जान देने में सौभाग्य समझते हैं यह जानते हुए भी कॉंग्रेस अकेला ऐसा दल था जिसने बहुत से क्रांतिकारियों की जान बचाने के विधिसम्मत प्रयास किये। आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के बन्दी सैनिकों के मुकदमे भूलाभाई देसाई और पण्डित नेहरू ने लड़े थे उसी प्रकार भगत सिंह की जान बचाने के लिये हिन्दू महासभा के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय ने याचिका लगायी और कॉंग्रेसी मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान सभा में उनके पक्ष में बोलकर उन्हें बचाने के प्रयास किये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20 मार्च, 1931 को एक बड़ी कॉंग्रेसी जनसभा भी की थी। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भारत के अन्य वीर शहीदों की तरह ही भगत सिंह को भी कृपा पाकर बचने की कोई इच्छा नहीं थी। बल्कि वे तो फ़ांसी की जगह फ़ायरिंग दस्ते द्वारा मृत्युदंड चाहते थे। अगर हम एक देशभक्त वीर की तरह सोच सकें तो हमें यह बात एकदम समझ आ जायेगी कि अगर गांधी जी भगत सिंह की जान की बख़्शीश पाते तो सबसे अधिक दु:ख भगत सिंह को ही होता।
गांधीजी के प्रति राष्ट्रवादियों का क्षोभ फिर भी समझा जा सकता है मगर उससे दो कदम आगे बढकर कम्युनिस्ट खेमे के कुछ प्रचारवादी आजकल ऐसा भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं जैसे कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे। क्या कोई बता सकता है कि आज़ादी के छः दशक बाद एक स्वाधीनता सेनानी की आस्था को भुनाकर उसपर अपना सर्वाधिकार सा जताने वाले इन कम्युनिस्टों ने तब भगत सिंह की जान बचाने के लिये क्या ठोस किया था? आइये इसकी पड़ताल भी कर लेते हैं।
जहाँ भगत सिंह ने अपने समकालीन कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में लिखा है कि, “हमें बहुत–से नेता मिलते हैं जो भाषण देने के लिए शाम को कुछ समय निकाल सकते हैं। ये हमारे किसी काम के नहीं हैं।” वहीं उनके समकालीन कम्युनिस्ट नेता सोहन सिंह जोश ने उनके बारे में अपनी कृति 'भगत सिंह से मेरी मुलाकात' में स्पष्ट लिखा है “मैंने नौजवान भारत सभा में भगत सिंह व उनके साथियों की आतंकवादी प्रवृति से खुद को अलग चिन्हित किया है।” क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों की दूरी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पूरे स्वाधीनता संग्राम में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं जब कम्युनिस्ट अपने बदन पर दूसरों का खून लगाकर शहीद बनते रहे हैं। मुम्बई की पत्रिका करैंट (Current) ने एक खुलासे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य डांगे के आज़ादी से पहले (1924 के लगभग) लिखे गये वे पत्र प्रकाशित किये थे जिनमें उसने अंग्रेज़ी राज को सहयोग देने के वचन दिये थे।
कम्युनिस्ट विचारधारा लेनिन, मार्क्स, माओ, नक्सल, स्टालिन, पोल-पोट, कास्त्रो और अन्य अनेक नाम-बेनाम-बदनाम-छद्मनामधारी घटकों की आड़ में विश्वभर में विकास, शिक्षा, उन्नति, लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता की आशा करते गरीबों के जीवन में जिस आतंकवाद का पलीता लगाने में जुटी हुई है, उस आतंकवाद के बारे में भगत सिंह के अपने शब्द हैं, “मैं एक आतंकवादी कतई नहीं हूँ, मैं एक क्रान्तिकारी हूं जिसके विशिष्ट, ठोस व दीर्घकालीन कार्यक्रम पर निश्चित विचार हैं।” हम सब जानते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों के हाथ पर निर्दोष भारतीयों का खून तो क्या किसी निहत्थे ब्रिटिश सिविलियन का भी खून नहीं लगा है। जबकि कम्युनिस्ट जनसंहारों का अपना एक लाल इतिहास है। असेम्बली में क्रांतिकारियों ने जानबूझकर ऐसा हल्का बम ऐसी जगह फेंका कि कोई आहत न हो, केवल धुआँ और आवाज हो और वे स्वयं गिरफ़्तारी देकर जनता की बात कह सकें।
याद रहे कि भारत और अमेरिका आदि लोकतांत्रिक देश स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष, हैं जहाँ नास्तिक, आस्तिक और कम्युनिस्ट हर व्यक्ति को अपनी आस्था पालन की स्वतंत्रता है। इसके उलट कम्युनिस्ट तानाशाही तंत्र में हर व्यक्ति को जबरन अपनी धार्मिक आस्था छोडकर कम्युनिज़्म में आस्था और स्वामिभक्ति रखनी पडती है। हिरण्यकशिपु की कथा याद दिलाने वाले उस क्रूर और असहिष्णु प्रशासन में अपने कम्युनिस्ट तानाशाह के अतिरिक्त किसी भी सिद्धांत के प्रति आस्था रखने का कोई विकल्प नहीं है। सोवियत संघ, चीन, तिब्बत, उत्तर कोरिया, क्यूबा, पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों से लेकर कम्युनिस्ट दमन के दिनों के वियेटनाम और कम्बोडिया तक किसी भी देश का उदाहरण ले लीजिये, धर्म और विचारकों का क्रूर दमन कम्युनिस्ट शासन की प्राथमिकता रही है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्त चिंतन का दमन दूसरी। सोवियत संघ में ऐसी हत्याओं/आत्महत्याओं के उदाहरण मिलते हैं जब साम्यवाद के दावों के पीछे छिपी क्रूर असलियत जानने पर कार्यकर्ता या तो स्वयं मर गये या पार्टीहित में उनकी जान ले ली गयी।
कुल मिलाकर क्रांतिकारियों का जैसा मेल कॉंग्रेस व हिन्दू महासभा आदि से रहा था वैसा कम्युनिस्ट पार्टी से कभी नहीं रहा। दोनों ही पक्षों के पास इस दूरी को बनाये रखने के समुचित कारण थे। हमारे क्रांतिकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, परिवार की अवधारणा, जननी-जन्मभूमि के प्रति आदर और आस्था के सम्मान के लिये जाने जाते हैं न कि फ़िरकापरस्ती के लिये।
[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* पण्डित परमाननंद - विकीपीडिया
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद मन्दिर
* भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* अमर शहीद भगत सिंह की भतीजी – वीरेंद्र सिन्धु
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है, हमें यह शौक है देखें सितम की इन्तहा क्या है==========================
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख से क्यों ग़िला करें, सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें ।
(~सरदार भगत सिंह)
शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1 से जारी ...
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सरदार भगतसिंह की बात चल रही है तो इस शिकवे की बात भी हो जाय कि गांधी जी ने नहीं कहा वर्ना भगतसिंह बच जाते। गांधी जी भारत के गवर्नर नहीं थे कि वे कह देते और देश आज़ाद हो जाता। भगत सिंह की ही तरह गांधी जी भी देश की स्वतंत्रता के लिये अपने तरीके से संघर्षरत थे। लेकिन यह सत्य है कि भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने वाइसराय से बात की थी और इस उद्देश्य के लिये अन्य राष्ट्रीय नेता अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत थे।
क्रांतिकारी और कॉंग्रेसी कार्यकर्ता एक दूसरे के साथ वैसा सहयोग कर रहे थे जैसा कम्युनिस्टों का इन दोनों ही के साथ कभी नहीं रहा। शहीद अपनी जान देने में सौभाग्य समझते हैं यह जानते हुए भी कॉंग्रेस अकेला ऐसा दल था जिसने बहुत से क्रांतिकारियों की जान बचाने के विधिसम्मत प्रयास किये। आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के बन्दी सैनिकों के मुकदमे भूलाभाई देसाई और पण्डित नेहरू ने लड़े थे उसी प्रकार भगत सिंह की जान बचाने के लिये हिन्दू महासभा के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय ने याचिका लगायी और कॉंग्रेसी मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान सभा में उनके पक्ष में बोलकर उन्हें बचाने के प्रयास किये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20 मार्च, 1931 को एक बड़ी कॉंग्रेसी जनसभा भी की थी। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भारत के अन्य वीर शहीदों की तरह ही भगत सिंह को भी कृपा पाकर बचने की कोई इच्छा नहीं थी। बल्कि वे तो फ़ांसी की जगह फ़ायरिंग दस्ते द्वारा मृत्युदंड चाहते थे। अगर हम एक देशभक्त वीर की तरह सोच सकें तो हमें यह बात एकदम समझ आ जायेगी कि अगर गांधी जी भगत सिंह की जान की बख़्शीश पाते तो सबसे अधिक दु:ख भगत सिंह को ही होता।
गांधीजी के प्रति राष्ट्रवादियों का क्षोभ फिर भी समझा जा सकता है मगर उससे दो कदम आगे बढकर कम्युनिस्ट खेमे के कुछ प्रचारवादी आजकल ऐसा भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं जैसे कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे। क्या कोई बता सकता है कि आज़ादी के छः दशक बाद एक स्वाधीनता सेनानी की आस्था को भुनाकर उसपर अपना सर्वाधिकार सा जताने वाले इन कम्युनिस्टों ने तब भगत सिंह की जान बचाने के लिये क्या ठोस किया था? आइये इसकी पड़ताल भी कर लेते हैं।
जहाँ भगत सिंह ने अपने समकालीन कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में लिखा है कि, “हमें बहुत–से नेता मिलते हैं जो भाषण देने के लिए शाम को कुछ समय निकाल सकते हैं। ये हमारे किसी काम के नहीं हैं।” वहीं उनके समकालीन कम्युनिस्ट नेता सोहन सिंह जोश ने उनके बारे में अपनी कृति 'भगत सिंह से मेरी मुलाकात' में स्पष्ट लिखा है “मैंने नौजवान भारत सभा में भगत सिंह व उनके साथियों की आतंकवादी प्रवृति से खुद को अलग चिन्हित किया है।” क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों की दूरी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पूरे स्वाधीनता संग्राम में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं जब कम्युनिस्ट अपने बदन पर दूसरों का खून लगाकर शहीद बनते रहे हैं। मुम्बई की पत्रिका करैंट (Current) ने एक खुलासे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य डांगे के आज़ादी से पहले (1924 के लगभग) लिखे गये वे पत्र प्रकाशित किये थे जिनमें उसने अंग्रेज़ी राज को सहयोग देने के वचन दिये थे।
कम्युनिस्ट विचारधारा लेनिन, मार्क्स, माओ, नक्सल, स्टालिन, पोल-पोट, कास्त्रो और अन्य अनेक नाम-बेनाम-बदनाम-छद्मनामधारी घटकों की आड़ में विश्वभर में विकास, शिक्षा, उन्नति, लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता की आशा करते गरीबों के जीवन में जिस आतंकवाद का पलीता लगाने में जुटी हुई है, उस आतंकवाद के बारे में भगत सिंह के अपने शब्द हैं, “मैं एक आतंकवादी कतई नहीं हूँ, मैं एक क्रान्तिकारी हूं जिसके विशिष्ट, ठोस व दीर्घकालीन कार्यक्रम पर निश्चित विचार हैं।” हम सब जानते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों के हाथ पर निर्दोष भारतीयों का खून तो क्या किसी निहत्थे ब्रिटिश सिविलियन का भी खून नहीं लगा है। जबकि कम्युनिस्ट जनसंहारों का अपना एक लाल इतिहास है। असेम्बली में क्रांतिकारियों ने जानबूझकर ऐसा हल्का बम ऐसी जगह फेंका कि कोई आहत न हो, केवल धुआँ और आवाज हो और वे स्वयं गिरफ़्तारी देकर जनता की बात कह सकें।
याद रहे कि भारत और अमेरिका आदि लोकतांत्रिक देश स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष, हैं जहाँ नास्तिक, आस्तिक और कम्युनिस्ट हर व्यक्ति को अपनी आस्था पालन की स्वतंत्रता है। इसके उलट कम्युनिस्ट तानाशाही तंत्र में हर व्यक्ति को जबरन अपनी धार्मिक आस्था छोडकर कम्युनिज़्म में आस्था और स्वामिभक्ति रखनी पडती है। हिरण्यकशिपु की कथा याद दिलाने वाले उस क्रूर और असहिष्णु प्रशासन में अपने कम्युनिस्ट तानाशाह के अतिरिक्त किसी भी सिद्धांत के प्रति आस्था रखने का कोई विकल्प नहीं है। सोवियत संघ, चीन, तिब्बत, उत्तर कोरिया, क्यूबा, पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों से लेकर कम्युनिस्ट दमन के दिनों के वियेटनाम और कम्बोडिया तक किसी भी देश का उदाहरण ले लीजिये, धर्म और विचारकों का क्रूर दमन कम्युनिस्ट शासन की प्राथमिकता रही है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्त चिंतन का दमन दूसरी। सोवियत संघ में ऐसी हत्याओं/आत्महत्याओं के उदाहरण मिलते हैं जब साम्यवाद के दावों के पीछे छिपी क्रूर असलियत जानने पर कार्यकर्ता या तो स्वयं मर गये या पार्टीहित में उनकी जान ले ली गयी।
यह स्वीकार करना पडेगा कि उन्होंने अपनी ओर से यथासम्भव पूर्ण प्रयास किया ~ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (शहीदत्रयी की फ़ांसी के बाद गांधी जी के बारे में बोलते हुए)विषय से भटके बिना यही याद दिलाना चाहूंगा कि:
- भारत के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट दल के अतिरिक्त अन्य सभी राजनैतिक, धार्मिक संस्थाओं यथा कॉंग्रैस, हिन्दू महासभा आदि के निकट थे। उल्लेखनीय यह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक अशफाक़, बिस्मिल और आज़ाद के साथ उस हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य थे जिसमें बाद में भगतसिंह भी आये।
- क्रांतिकारियों के मन में राष्ट्रीय नेताओं के प्रति असीम श्रद्धा थी और लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी की मौत का बदला लेने के लिये वे मृत्यु का वरण करने को तैयार थे।
- क्रांतिकारी और राष्ट्रीय नेताओं का प्रेम और आदर उभयपक्षी था और नेताओं ने उनकी रक्षा के यथासम्भव राजनैतिक प्रयत्न किये।
- कम्युनिस्ट नेता एक ओर इन क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहकर उनसे किनाराकशी कर रहे थे दूसरी ओर छिपकर ब्रिटिश सरकार को प्रेमपत्र लिख रहे थे। "भारत-छोडो" जैसे आन्दोलनों का विरोध करने वाले कम्युनिस्ट अब क्रांतिकारियों को कम्युनिस्ट बताकर भी अपना अतीत छिपा नहीं पायेंगे।
- क्रांतिकारियों ने देश-विदेश की सफल-असफल क्रान्तियों का अध्ययन अवश्य किया और उनसे सबक लिया। इनमें राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट दोनों मामले शामिल हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे अहिंसा और सहिष्णुता त्यागकर कम्युनिस्ट हो गए और धर्म-विरोध, मानवाधिकार हनन, बंदूक-भक्ति और तानाशाही के कम्युनिस्ट मार्ग पर चल पड़े।
- क्रांतिकारी अपनी भिन्न आस्थाओं के बावज़ूद एक दूसरे की आस्था के प्रति भरपूर सम्मान रखते थे जोकि गैर-कम्युनिस्टी मतों के प्रति कम्युनिस्टी चिढ़ के एकदम विपरीत है।
कुल मिलाकर क्रांतिकारियों का जैसा मेल कॉंग्रेस व हिन्दू महासभा आदि से रहा था वैसा कम्युनिस्ट पार्टी से कभी नहीं रहा। दोनों ही पक्षों के पास इस दूरी को बनाये रखने के समुचित कारण थे। हमारे क्रांतिकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, परिवार की अवधारणा, जननी-जन्मभूमि के प्रति आदर और आस्था के सम्मान के लिये जाने जाते हैं न कि फ़िरकापरस्ती के लिये।
[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* पण्डित परमाननंद - विकीपीडिया
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद मन्दिर
* भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* अमर शहीद भगत सिंह की भतीजी – वीरेंद्र सिन्धु