Sunday, July 15, 2018

हल - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

प्लास्टिक और पॉलीथीन के खिलाफ़ आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि प्रशासन को यह समस्या हल करने के लिये आपातकालीन सभा बुलानी पड़ी। दो-चार पदाधिकारी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और बलप्रयोग के पक्ष में थे लेकिन अन्य सभी समस्या को गम्भीर मानते हुए एक वास्तविक हल चाहते थे।

“पूर्ण प्रतिबंध” गहन विमर्श के बाद सभा के अध्यक्ष ने कहा। अधिकांश सदस्यों ने सहमति में तालियाँ बजाईं।

“पॉलीथीन के बिना सामान दुकान से घर तक कैसे आयेगा?” एक असंतुष्ट ने पूछा।

“बेंत की कण्डी, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े और कपड़े के थैलों में” किसी ने सुझाया।

“खाना पकाने के लिये घी-तेल भी तो चाहिये, वह?”

“घर से शीशे की बोतल लेकर जाइये।”

“एक घर से कोई कितनी बोतलें लेकर जा पायेगा? एक पानी की, एक सरसों के तेल की, एक नारियल के तेल की, एक सिरके की, एक ...” एक सदस्या ने आपत्ति की

“तो तेल-सिरके को भी बैन करना पड़ेगा। दूध लेकर आइये और उसी से घर पर घी बनाइये।” उत्तर तैयार था।

“... दूध? लेकिन सरकारी डेयरी का दूध भी तो पॉलीथीन के पाउच में ही आता है!”

“तो हम दूध को भी बैन कर देंगे।”

“लेकिन, उससे तो बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ...”

“स्वास्थ्य के लिये दूध छोड़कर अण्डे खाइये न, वे तो दफ़्ती के डब्बों में भी मिलते हैं।”

रात बढ़ती गई, बात बढ़ती गई, प्रतिबंधित सामग्री की सूची भी बढ़ती गई।

अगले दिन अखबार में खबर छपी कि तुरंत प्रभाव से राज्य के बाज़ारों में दूध, और घरों में रसोईघर प्रतिबंधित कर दिये गये हैं। समाचार से यह तथ्य ग़ायब था कि प्रशासनिक परिषद के एक प्रमुख सदस्य राज्य ढाबा संघ के पदाधिकारी थे और दूसरे अण्डा उत्पादक समिति के।

[समाप्त]

Sunday, July 1, 2018

ब्लागिंग दिवस पर - बच्चे मन के सच्चे

The kids I have met were logical. They gained wisdom as they grew up. - Anurag Sharma

बच्चे सदा तार्किक होते हैं, बड़े होकर वे सही या ग़लत, पूरे या अधूरे निष्कर्ष निकालने लगते हैं।  - अनुराग शर्मा


एक मामले में मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ। वह यह कि बचपन से अब तक विभिन्न भूमिकाओं में मैं सदा बच्चों से घिरा रहा हूँ। जहाँ मेरा बचपन बीता, उत्तर-प्रदेश के मध्यम आकार के नगर के उस मध्य-वर्गीय आस-पड़ोस में तो हर प्रकार के बच्चे थे ही, अपना विस्तृत परिवार भी ऐसा था कि मेरे नौकरी आरम्भ करने के काफ़ी बाद तक भी मेरे आसपास बच्चे रहा करते थे। बाद में भी ऐसे बहाने सामने आते रहे जब कभी बाल-नाटिका आदि पर काम करते हुए या हिंदी पढ़ाने के लिये बच्चों से सम्पर्क बना रहा। मुझे बच्चे अच्छे लगते हैं लेकिन हमारा प्रेम पारस्परिक रहा, क्योंकि बच्चे भी अपनी इच्छा से मेरे कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहे हैं। अपनी समस्याओं का हल निकालने की भागीदारी के लिये वे मुझे बड़ों की महत्वपूर्ण बैठकों में से खींच-खींचकर भी बाहर ले जाते रहे हैं।

बच्चे स्वभाव से ही उल्लासमय और उत्साही होते हैं। जिन भाग्यशाली बच्चों को अच्छा परिवेश और संस्कार मिले, उन्हें मैंने आत्मानुशासित और विनम्र भी पाया है। जहाँ अनुभवी और शिक्षित बड़ों के कुतर्क कई बार निराश करते हैं वहीं बच्चों को  मैंने *सदा-सर्वदा* स्मार्ट पाया है। उनकी नैसर्गिक हाज़िरजवाबी, अनूठा दृष्टिकोण, और कुशाग्र तार्किकता मुझे अचम्भित करती रही है। यही तार्किकता कई बार होठों पर बरबस ही हँसी ले आती है। कहीं और, बच्चों की चर्चा चलने पर यूँ ही कुछ उदाहरण याद आ गये तो सोचा लिख डालूँ, ताकि बाद में पढ़कर मुस्कुरा सकूँ।

कोई बात समझाने पर नई-नई अंग्रेज़ी सीख रहा एक बच्चा 'आई डोंट' (I don't) कहता था। कुछ ही समय में यह पता लग गया कि उसके 'आई डोंट' (I don't) का अभिप्राय वास्तव में आई नो (I know) होता था। थोड़ी सी पूछताछ के बाद बाल-मन की तार्किकता स्पष्ट हो गई जब बच्चे ने निम्न समीकरणों द्वारा अपनी बात समझाई -

1. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ
2. नो = नहीं
3. आई डोंट नो = मैं नहीं जानता हूँ

खाते पीते घर की एक तीन-चार वर्षीय बच्ची से किसी ने पूछा कि बड़े होकर वह क्या बनेगी। बच्ची का अनपेक्षित उत्तर था, "बोझ बनूंगी।"

बदायूँ के हरप्रसाद मंदिर के बाहर प्रसाद की कतार में खड़ा एक बच्चा अपनी माँ को ज्ञान दे रहा था, "यह हरप्रसाद का मंदिर इसलिये हैं क्योंकि वे हर किसी को प्रसाद देते हैं।"

अन्यत्र एक पुरोहित जी के भोले बच्चे ने अपने तर्क से दो पल में संसार की सबसे बड़ी समस्या का समाधान करते हुए बताया कि लक्ष्मी ही सत्य हैं। लक्ष्मीनारायण ही सत्यनारायण हैं। दोनों में से नारायण हटाने के बाद निष्कर्ष लक्ष्मी = सत्य हो जाता है। तुरत समझ में आ गया कि सत्यमेव जयते के आदर्श वाक्य वाले देश में हर मुद्दे पर धनपति ही क्यों विजयी होते हैं।

दो वर्षीय अपराजिता ने अपना नाम अप्पा-जिता बताते हुए जब अपने माता पिता का नाम मम्मा-जिता और पप्पा-जिता बताया तो उन्होंने उल्लेख किया कि जिस प्रकार अप्पा का वास्तिक नाम अप्पाजिता होता है उसी प्रकार उनके मम्मा-पप्पा के नाम भी मम्मा-जिता और पप्पा-जिता होने चाहिये, नामकरण का यही तरीका है।

लगभग उसी वय की एक बच्ची ने बताया कि बच्चों के पाँव नहीं होते हैं। वे बाद में उग आते हैं। अपनी बात बताने के लिये उन्होंने डीवीडी चलाकर एक फ़िल्म का वह दृश्य दिखाया जिसमें अस्पताल में चिकित्सक कपड़ों में लिपटा नवजात शिशु पिता को सौंप रहे थे। जब मैंने कहा कि उस बच्चे के पाँव हैं लेकिन कपड़े में ढँके होने के कारण नहीं दिख रहे तो जवाब था कि पाँव होते तो बच्चे शुरू से ही चलते-फिरते नज़र आते। बड़े होने पर जब उनके पाँव उग जाते हैं, तब वे चलना आरम्भ करते हैं।

एक बच्चे को मेहमाँनवाज़ी के वक्त किसी अन्य द्वारा स्नैक्स लेना पसंद नहीं था। उनका प्रिय वाक्य था, "मैं आपे-आप खा लूंगा।" अर्थात, वयस्क हर मामले में टांग अड़ाते हैं, कम से कम, खाने-पीने के काम में मुझे आत्मनिर्भर समझा जाये।

सड़क चलते समय गिर जाने पर किसी रोते हुए घायल बच्चे का फ़ुटपाथ को थपथपाकर, "सॉरी साइडवॉक" कहना भला किसका दिल नहीं जीत लेगा। यह बात अलग है कि स्कूल के पहले दिन, घर वापस आने पर उस बच्चे का पहला वाक्य था, आई कैन डू व्हाट आई वांट टु डू (मैं जो चाहूँ कर सकता हूँ)।

मेरे विचार से बालमन की सम्भावनाओं से अपरिचित होना दुखद है। बच्चों से सम्पर्क का अवसर मिलने पर भी इन गुणों का अनुभव न कर पाना अति-दुखद है। और इन सबसे आगे, किसी भी स्थिति में बाल-मन की असीम सम्भावनाओं पर अविश्वास करना दुर्भाग्यपूर्ण है। आइये, इस ब्लॉगिंग दिवस पर किसी बच्चे से दोस्ती की जाये।

Saturday, May 19, 2018

देवासुर संग्राम 10



व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता - देव और असुर व्यवस्था का मूल अंतर


पिछली कड़ियों में हम देख चुके हैं कि देव दाता हैं, उल्लासप्रिय हैं, यज्ञकर्ता (मिलकर जनहितकार्य करने वाले) हैं। वे शाकाहारी और दयालु होने के साथ-साथ कल्पनाशील, प्रभावी वक्ता हैं। हम पहले ही यह भी देख चुके हैं कि असुर गतिमान, द्रव्यवान, और शक्तिशाली हैं। वे महान साम्राज्यों के स्वामी हैं। हमने यह भी देखा कि वरुण और रुद्र जैसे आरम्भिक देव असुर हैं। सुर-काल में असुर पहले से उपस्थित हैं, जबकि पूर्वकाल के सुर भी असुर हैं। इतने भर से यह बात तो स्पष्ट है कि सुरों का प्रादुर्भाव असुरों के बाद हुआ है। असुर सभ्यता विकसित हो चुकी है। नगर बस चुके हैं। सभ्यता आ चुकी है, लेकिन कठोर और क्रूर है। असुर व्यवस्था में एक सशक्त राज्य, शासन-प्रणाली, और वंशानुगत राजा उपस्थित हैं। और आसुरी व्यवस्था में वह असुरराज ही उनका ईश्वर है। वह असुर महान सबका समर्पण चाहता है। उसके कथन के विरुद्ध जाने वाले को जीने का अधिकार नहीं है।  यहाँ तक कि राज्य का भावी शासक, वर्तमान राजा हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भी नारायण में विश्वास व्यक्त करने के कारण मृत्युदण्ड का पात्र है। असुर साम्राज्य शक्तिशाली और क्रूर होते हुए भी भयभीत है। व्यवस्था द्वारा प्रमाणिक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य दैवी शक्ति में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों से उनकी आस्था खतरे में पड़ जाती है। वे ऐसे व्यक्तियों को ईशनिंदक मानकर उन्हें नष्ट करने को प्रतिबद्ध हैं, भले ही ऐसा कोई व्यक्ति उनकी अपनी संतति हो या उनका भविष्य का शासक ही हो। आस्था के मामले में असुर व्यवस्था नियंत्रणवादी और एकरूप है। किसी को उससे विचलित होने का अधिकार नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है। धार्मिक असहिष्णुता आसुरी व्यवस्था के मूल लक्षणों में से एक है।

आस्था की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अतिरिक्त सुर-व्यवस्था में असुरों की तुलना में एक और बड़ा अन्तर आया है। जहाँ असुर व्यवस्था एकाधिकारवादी है, एक राजा और हद से हद उसके एकाध भाई-बंधु सेनापति के अलावा अन्य सभी एक-समान स्तर में रहकर शासन के सेवकमात्र रहने को अभिशप्त हैं, वहीं सुर व्यवस्था संघीय है। हर विभाग के लिये एक सक्षम देवता उपस्थित है। जल, वायु, बुद्धि, कला, धन, स्वास्थ्य, रक्षा, आदि, सभी के अपने-अपने विभाग हैं और अपने-अपने देवता। सभी के बीच समन्वय और सहयोग का दायित्व इंद्र का है। महत्वपूर्ण  होते हुये भी वे सबसे ख्यात नहीं हैं, न ही अन्य देवताओं के नियंत्रक ही।

इंद्र  देवताओं के संघ के अध्यक्ष हैं।  इंद्र का सिंहासन पाने के इच्छुकों के लिये निर्धारित तप की अर्हता है, जिसके पूर्ण होने पर कोई भी व्यक्ति स्वयं नया इंद्र बनने का प्रस्ताव रख सकता है। पौराणिक भाषा में कहें तो, इंद्र का सिंहासन 'डोलता' भी है। असुरराज के विपरीत इंद्र एक वंशानुगतशानुगत उत्तराधिकार नहीं बल्कि तप से अर्जित एक पद है जिस पर बैठने वाले एक दूसरे के रक्तसम्बंधी नहीं होते।

एकाधिकारवादी, असहिष्णु, और क्रूर विचारधाराएँ संसार में आज भी उपस्थित हैं जिनके मूल में आसुरी नियंत्रणवाद है। यह नियंत्रणवाद अपने विचारकों-पीरों-पैगम्बरों-किताबों के कूप-मण्डूकत्व के बाहर के वैविध्य को नष्ट कर देने को आतुर है, उसके लिये किसी भी सीम तक जा सकता है। लेकिन साथ दैवी उदारवाद, वैविध्य, सहिष्णुता और सहयोग, संस्कृति  की जिस उन्नत विचारधारा का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में सुर-तंत्र के रूप में है, भारतीय मनीषियों, हमारे देवों के सर्वे भवंतु सुखिनः, और तमसो मा ज्योतिर्गमय की वही अवधारणा आज समस्त विश्व को विश्व बंधुत्व और लोकतंत्र की ओर निर्देशित कर रही है।

सुरराज वरुण के हाथ में पाश है, जबकि देवों के हाथ अभयमुद्रा में हैं - भय बनाम क्षमा - नश्वर मानव किसे चुनेंगे? सुरासुर का भेद समुद्र मंथन के समय स्पष्ट है। वह युद्ध के बाद मिल-बैठकर सहयोग से मार्ग निकालने का मार्ग है जिसमें बहुत सा हालाहल निकलने के बाद चौदह रत्न और फिर अमृत मिला है जो सुरों के पास है। सुर व्यवस्था अमृत व्यवस्था है। कितना भी संघर्ष हो, इसी में स्थायित्व है, यही टिकेगी।

[क्रमशः]