Wednesday, May 5, 2010

सीरिया की शराब - देवासुर संग्राम 1


इस साल की शुरूआत होते-होते डॉ. अरविन्द मिश्रा ने जब सुर असुर का झमेला शुरू किया तब हमें खबर नहीं थी कि हम भी इसके लपेटे में आ जायेंगे. लेकिन हम भी क्या करें, दूर देश के झमेलों में टंगड़ी उड़ाने की आदत अभी गयी नहीं है पूरी तरह से. उस पर तुर्रा ये कि डॉ. साहब ने एक पोस्ट और लिखी थी जिसका हिसाब करना बहुत ज़रूरी था. इस आलेख का शीर्षक था - असुर हैं वे जो सुरापान नहीं करते!

जब अपने ही खाने में कोई रूचि न हो तो दूसरे लोग क्या खा पी रहे हैं इसमें हमें क्या रूचि हो सकती है फिर भी सुरापान की बात से लगा कि इस विषय पर रोशनी तो पड़नी ही चाहिए वरना कई भाई लोग अँधेरे का दुरुपयोग कर लेंगे. सो भैया वार्ता शुरू करते हैं दूर देश से जिसका नाम है सुरस्थान. इस राष्ट्र को विभिन्न कालों में लोगों ने अपने-अपने जुबानी आलस के हिसाब से अलग-अलग नामों से पुकारा है. इतिहासकारों के हिसाब से सुरस्थान के उत्तर में उनका पड़ोसी राष्ट्र था असुरस्थान. कभी यह द्विग्म सुरिस्तान-असुरिस्तान कहलाया तो कभी सीरिया-असीरिया. असीरिया के निवासी असीरियन, असुर या अशुर हुए और सुरिस्तान के निवासी विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुए. जिनमें एक नाम सूरी भी था जिसका मिस्री भाषा में एक रूप हूरी भी हुआ. संस्कृत/असंस्कृत का स और ह का आपस में बदल जाना तो आपको याद ही होगा. तो हमारा अंदाज़ ऐसा है कि अरबी परम्पराओं की हूर का सम्बन्ध इंद्रलोक की अप्सराओं से है ज़रूर.

यह दोनों ही क्षेत्र प्राचीनतम मानव सभ्यताओं की जन्मस्थली कहे जाने वाले मेसोपोटामिया के निकट ही हैं. वही मेसोपोटामिया जहां कभी सुमेरियन सभ्यता खाई खेली. बल्कि फारसी भाषा के सुरिस्तान-असुरिस्तान तो ठीक वहीं हैं. क्या देवासुर संयुक्त समुद्र मंथन अभियान में सुमेरु पर्वत का प्रयुक्त होना कुछ अर्थ रखता है? अभी तो पता नहीं मगर आगे देखेंगे हम लोग. वैसे यवन लोग सुमेरु और असीरिया लगभग एक ही स्थान को कहते थे. सत्य जो भी हो परन्तु इन सभी स्थानों की भौगोलिक स्थितियों में काफी ओवरलैप तो है ही. हिब्रू भाषा में असुरिस्तान को अस्सुर और पहलवी में अथुर कहा गया है. बाद में अरबी में सीरिया को अल-शाम और असीरिया को अल-जज़ीरा कहा गया.

इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक खनन और खोजें हुई हैं जिनकी जानकारी इंटरनेट पर सर्वत्र उपलब्ध है. उदाहरण के लिए ढाई हज़ार साल पहले के असीरियन राजा असुर बनिपाल के बारे में जानकारी यहाँ विकिपीडिया पर है.

हम संस्कृत को देवभाषा कहते हैं. क्या होता अगर इसे सुरवाणी कहते? क्या सुरवाणी शब्द का तद्भव सुरयानी हो सकता है? अगर हो सकता है तो ध्यान रखिये कि असीरिया की भाषा को अरबी में सुरयानी कहते हैं. एक संभावना यह भी है कि निरंतर चलते देवासुर संग्राम के कारण इनकी सीमाएं गड्डमड्ड होती रही हों. यह तो था भारत से बाहर एक भौगोलिक दर्शन. अगले अंक में देखेंगे एक वैदिक आश्चर्य! तब तक के लिए आपकी ज्ञानपूर्ण टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा.

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Monday, May 3, 2010

अहिसा परमो धर्मः

आधी रात थी. मैं दिल्ली फ़ोन लगा रहा था. भारत का कोड, दिल्ली का कोड, फ़िर फ़ोन नम्बर. सभी तो ठीक था - ९१-११-२५२.... पहली बार में फोन नहीं लगा. उसके बाद कितनी भी कोशिश की, डायल टोन ही वापस नहीं आयी. कुछ ही क्षणों में किसी ने बहुत बेरहमी से दरवाजा खटखटाया. समझ में नहीं आया कि इतनी रात में कौन है और घंटी न बजाकर दरवाज़ा क्यों पीट रहा है. जब तक दरवाज़े तक पहुँचा, घंटी भी लगातार बजने लगी. देखा तो काले कपडों में साढ़े छः फ़ुट का एक पुलिस अधिकारी एक हाथ में पिस्टल और दूसरे में टॉर्च लेकर खड़ा था. मुझे देखकर बड़ी विनम्रता से कुशल-क्षेम पूछने लगा.

उसके बताने पर समझ आया कि दिल्ली फ़ोन करने के प्रयास में गलती से आपदा-सहायता नम्बर ९११ डायल हो गया था. चूंकि मैंने फ़ोन पर कुछ बोला नहीं इसलिए आपात-विभाग ने तुंरत ही एक पुलिसकर्मी को भेज दिया. मैंने स्थिति का खुलासा किया तो वह खलल डालने के लिए क्षमा मांगकर वापस चला गया. इसी प्रकार जब मेरे एक सहकर्मी को दफ्तर में दौरा पड़ा तो प्राथमिक चिकित्सा कर्मियों को पहुँचने में १० मिनट भी नहीं लगे.

मुझे ध्यान आया जब १० साल पहले दिल्ली में हमारे घर में चोरी हुई थी तो १०० नम्बर काफी समय तक व्यस्त ही आता रहा था. २०० कदम की दूरी पर स्थित थाने से दो पुलिसकर्मी घर तक पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा लगा था और तफ्तीश के बारे में तो सोचना ही बेकार था. इसी तरह दिल्ली में बीमार के घर पर चिकित्सा सुविधा पहुँचाना तो दूर, सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए अधिकाँश लोगों की मौत सिर्फ़ समय पर चिकित्सा न मिलने से ही हो जाती है. यह हाल तो है राजधानी का. थोड़ा दूर निकल गए तो फ़िर तो कहना ही क्या.

प्रशासन तंत्र की कुशलता अमेरिका की एक विशेषता है. कुछ लोग इसका कारण समृद्धि बताएँगे. ग़लत नहीं है, मगर इसमें समृद्धि से ज़्यादा काम मानवीय दृष्टिकोण का है. नाभिकीय समझौते की बाबत हमारे एक नेता ने हाल ही में अमेरिका को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया. जब मैंने अपने पाकिस्तानी मुसलमान मित्र से इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि जितने बेखौफ वे और उनका परिवार अमेरिका में महसूस करते हैं उस स्थिति की पकिस्तान में उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उनकी बात एक आम मुसलमान के लिए बिल्कुल सच है. आम अमेरिकी आपको इंसान की तरह देखता है - हिन्दू या मुसलमान की तरह नहीं.

महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर ज़ुल्म हुए. दशकों बाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली-यूपी में वही इतिहास सिखों के ख़िलाफ़ दोहराया गया. मजाल तो है कि अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को ३००० लोगों की नृशंस हत्या के बाद भी आम जनता किसी एक समुदाय या राष्ट्रीयता के ख़िलाफ़ क़त्ले-आम करने निकली हो. उलटा मेरे अमेरिकी हितैषियों ने बार बार यह पूछा कि कभी मेरे साथ कहीं किसी तरह का भेदभाव तो नहीं हुआ. जनता जागरूक थी और प्रशासन मुस्तैद था तो दंगा और आगज़नी कैसे होती?
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः  (महाभारत - आदिपर्व ११।१३)
कई बरस पहले की बात है. मेरी नन्ही सी बच्ची भारत वापस बसने की बात पर सहम सी जाती थी. मैंने कई तरह से यह जानने की कोशिश की कि आख़िर भारत में ऐसा क्या है जिसने एक छोटे से बच्चे के मन पर इतना विपरीत असर किया है. बहुत कुरेदने पर पता लगा कि भारत में उसने बहुत बार सड़क पर लोगों को बच्चों पर और ग़रीबों पर, खासकर ग़रीब चाय वाले लड़के या रिक्शा वाले के साथ मारपीट करते हुए देखा. उसको हिंसा का यह आम प्रदर्शन अच्छा नहीं लगा. यह बात सुनने पर मुझे याद आया कि बरसों के अमेरिका प्रवास में मैंने एक बार भी किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर हिंसा करते हुए नहीं देखा. अगर देखा भी तो बस एकाध भारतीय माता-पिता को ही अपने मासूमों के गाल पर थप्पड़ लगाते देखा.

भारत में बच्चे तो बच्चे, कई वयस्क(?) भी हर समस्या का हल तानाशाही और सशस्त्र आन्दोलनों में ढूंढ रहे होते हैं. बच्चों के साथ स्कूलों में कई मास्टर कसाई की तरह पेश आते हैं तो घरों में कई अभिभावक. सड़क के किनारे खुले में बनी मांस की दुकानों पर, ढाबों, ठेलों व खोखों पर भी छोटे-छोटे बच्चों को बचपन से ही हिंसा दिखाई देती है. अमेरिका में अधिकाँश लोगों के मांसाहारी होने के बावजूद भी वह हिंसा कत्लगाह से बाहर खुली सड़क तक नहीं आ सकती है. इसके उलट भारतीय बच्चे परिवार, विद्यालय, आस-पड़ोस सब जगह ताकतवर को कमज़ोर पर हाथ उठाते हुए देखते हैं और धीरे-धीरे अनजाने ही यह हिंसा उनके जीवन का एक सामान्य अंग बन जाती है.
परम धरम श्रुति विदित अहिंसा। पर निंदा सम अध न गरीसा।।
सभी जानते हैं कि अमेरिका में बन्दूक खरीदने के लिए सरकार से किसी लायसेंस की ज़रूरत नहीं होती है. यहाँ के लोग बन्दूक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर देखते है. निजी हाथों में दुनिया की सबसे ज्यादा बंदूकें शायद अमेरिका में ही होंगी. मगर हत्याओं के मामले में वे अव्वल नंबर नहीं पा सके. २००७-०८ में अमेरिका में हुए १६,६९२ खून के मुकाबले शान्ति एवं अहिंसा के देश भारत में ३२,७१९ मामले दर्ज हुए. इस संख्या ने भारत को क़त्ल में विश्व में पहला स्थान दिलाया. हम सब जानते हैं कि हिन्दुस्तान में एक अपराध दर्ज होता है तो कितने बिना लिखे ही दफ़न हो जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि इनमें सब अच्छा है और हममें सब बुरा. मगर हमें एक पल ठहरकर इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि अहिंसा और प्रेम की धरती अपनी भारत भूमि को हिंसा से बंजर होने से रोकने के लिए हमने क्या किया? समय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा. आम जन के साथ साथ प्रशासन को भी जागरूक होना पड़ेगा.

[यह लेख पहले (सन् 2008 में) सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है]

मेरी हालिया जापान यात्रा पर आधारित आलेख एक तीर्थयात्रा जापान में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें

Tuesday, April 20, 2010

एक और इंसान - कहानी समापन

पिछली कड़ी में आपने पढ़ा:
साढ़े चार के करीब माहेश्वरी सिगरेट पीने बाहर आया तो मुझे भी बाहर बुला लिया। लगभग उसी समय फटी बनियान और जांघिये में वह अधबूढ़ा आदमी हाथ फैलाये अन्दर आया था। अब आगे [अंतिम कड़ी]...

***
“कुछ पैसे मिल जाते साहब ...” उसने रिरियाते हुए कहा।

“बहादुर! इसे कुछ खाने को दे दो।”

मेरी आवाज़ सुनते ही बहादुर आ गया। आगंतुक अपनी जगह से हिला भी नहीं।

“मेरा पेट तो न कभी भरा है साहब, न ही भरेगा” उसका दार्शनिक अंदाज़ अप्रत्याशित था।

“तो चाय पिएगा क्या? पैसे नहीं मिलने वाले यहाँ” मैंने रुखाई से कहा।

“आजकल तो चा की प्याली का मोल भी एक गरीब की ज़िन्दगी से ज़्यादा है साहब!”

अब मैंने उसे गौर से देखा। जुगुप्सा हुई। आँख में कीचड और नाक में गेजुए। चेहरे पर मैल न जाने कब से ऐसे घर बनाकर बैठा था कि झुर्रियों के बीच की सिलवटें उस धूल, मिट्टी और कीचड से सिली हुई मालूम होती थीं। सर पर उलझे बेतरतीब बाल। एक नज़र देखने पर बहुत बूढा सा लगा मगर सर के बाल बिलकुल काले थे। ध्यान से देखने पर लगा कि शायद मेरा सम-वयस्क ही रहा होगा। मैं उसे ज़्यादा देर तक देख न सका। उसके आने की वजह पूछी।

“खिल्लू दम्भार मर गया साहब!" उसने मरघट सी सहजता से कहा, "बहुत दिन से बीमार था। कफ़न के लिए पैसे मांग रहा हूँ।”

उसने खिल्लू दम्भार के बारे में ऐसे बताया मानो सारी दुनिया उसे जानती हो। मुझे मृतक के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। मैंने पूछना चाहा कि मृतक का उससे क्या रिश्ता था, वह कहाँ रहता था, उसके परिवार में कौन-कौन था। मगर फिर मन में आया कि यदि यह आदमी भी सिर्फ पैसे ऐंठने आया होगा तो कुछ न कुछ सच-झूठ बोल ही देगा। मैंने बटुआ खोलकर देखा तो उसमें पूरे एक सौ पैंतालीस रुपये बचे थे। मैंने तीस रुपये सामने मेज़ पर रख दिए। मेरी देखा-देखी माहेश्वरी ने भी दस का एक नोट सामने रखा। उस अधबूढ़े ने नोट उठाकर अपनी अंटी में खोंस लिए और लंगड़ाता सा बाहर निकल गया। कुणाल जो अब तक अन्दर अपने क्यूब में बैठा सारा दृश्य देख रहा था, बाहर आया और हंसता हुआ बोला, “दानवीर कर्ण की जय हो।”

“बन्दे की दो दिन की दारू का इंतजाम हो गया फ्री-फंड में।”

बात हँसी में टल गयी। हम लोग फिर से काम में लग गए।

आज काम भी बहुत था। काम पूरा हुआ तो घड़ी देखी। साढ़े छः बज गए थे। दस मिनट भी और रुकने का मतलब था, आख़िरी बस छूट जाना। जल्दी से अपना थैला उठाया और बाहर निकला। लगभग दौड़ता हुआ सा बस स्टॉप की तरफ चलने लगा। यह क्या? यह लोग सड़क किनारे क्या कर रहे हैं? शायद कोई दुर्घटना हुई है। यह तो सफ़ेद कपड़े में ढँकी कोई लाश लग रही है। अरे, लाश के पास तो वही अधबूढ़ा बैठा है। और उसके साथ ये दो लोग? गर्मी के दिन थे इसलिए अभी तक कुछ रोशनी थी। मैं थोड़ा पास पहुँचा तो देखा वह अधबूढ़ा धीरे-धीरे एक जर्जर लाश को झकाझक सफ़ेद कपड़े से ढंकने की कोशिश कर रहा था। दस-बारह साल के दो लड़के उसकी सहायता कर रहे थे। इसका मतलब है कि अधबूढ़ा सच बोल रहा था। मुझे उसके प्रति अपने व्यवहार पर शर्म आयी। मैंने घड़ी देखी। बस आने में अभी थोड़ा समय था। मैंने बटुए में से सौ रुपये का नोट निकाला और लपककर अधबूढ़े के पास पहुँचा।

“तो यह है खिल्लू दम्भार” मैंने नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए शर्मिन्दगी से कहा, “ये कुछ और पैसे रख लो काम आयेंगे।”

“नहीं साहब, पैसे तो पूरे हो गए हैं ... मैं और मेरे लड़के मिलाकर तीन लोग हैं।.” उसने अपना काम करते-करते विरक्त भाव से कहा।

“पैसे नहीं ... बस एक इंसान और मिल जाता साहब ...” उसने बहुत दीन स्वर में कहा, “... तो चारों कंधे देकर इसे घाट तक लगा आते।”

[समाप्त]