Friday, May 7, 2010

देव, दैत्य, दानव - देवासुर संग्राम ४

तम उ षटुहि यः सविषुः सुधन्वा
यो विश्वस्य कषयित भेषस्य
यक्ष्वा महे सौमनसाय रुद्रं
नमोभिर देवमसुरं दुवस्य
पिछली कड़ी में हमने जिन वरुण देव को ऋग्वैदिक ऋषियों द्वारा असुर कहे जाते सुना था वे मौलिक देवों यानी अदिति के पुत्रों में से एक हैं. अदिति सती की बहन और दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं. कश्यप ऋषि और अदिति से हुए ये देव आदित्य भी कहलाते रहे हैं जबकि इनमें से कई माननीय असुर कहे गए हैं. भारत में कोई संकल्प लेते समय अपना और अपने गोत्र का नाम लेने की परम्परा रही है. जिन्हें भी अपना गोत्र न मालूम हो उन्हें कश्यप गोत्रीय कहने की परम्परा है क्योंकि सभी देव, दानव, मानव, यहाँ तक कि अप्सराएं भी कुल मिलाकर कश्यप के ही परिवार का सदस्य हैं. कश्मीर प्रदेश का और कैस्पियन सागर का नाम उन्हीं के नाम पर बना है. भगवान् परशुराम ने भी कार्तवीर्य और अन्य अत्याचारी शासकों का वध करने के बाद सम्पूर्ण धरती कश्यप ऋषि को ही दान में लौटाई थी और मारे गए राजाओं के स्त्री बच्चों के पालन,पोषण, शिक्षण की ज़िम्मेदारी विभिन्न ऋषियों को दे दी गयी थी. क्या सम्पूर्ण धरती का कश्यप को दिया जाना और दैत्य, दानव और देवों का भी उन्हीं की संतति होना उनके द्वारा किसी सामाजिक, राजनैतिक परिवर्तन का सूचक है? मुझे ठीक से पता नहीं. मगर यह ज़रूर है कि प्राचीन ग्रंथों में असुर और सुर शब्दों का प्रयोग जाति या वंश के रूप में नहीं है.

असुर शब्द का एक अर्थ हमने पीछे देखा जिससे असुरों की आसवन की कला में निपुणता का अहसास मिलता है. वारुणी भी नाम से ही उनसे सम्बंधित दीखती है. कच की कथा में असुरों द्वारा नियमित शराबखोरी के स्पष्ट वृत्तांत हैं इसलिए यह कहना कि असुर मदिरापान नहीं करते थे असत्य होगा. हाँ उसी कथा से और अन्यत्र प्रहलाद आदि की कथाओं से यह स्पष्ट है कि दैत्य क्रूर बहुत थे. उन्हें बुद्धिबल से अधिक हिंसाबल में विश्वास था. एक और चीज़ जो स्पष्ट दिखती है कि उनके शासन में शासक के अलावा किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना इस हद तक असहनीय थी कि उस अपराध में राजा अपने राजकुमार की भी जान लेने के पीछे पड़ जाता है. आस्तिकों के प्रति घोर असहिष्णुता एक प्रमुख दैत्य गुण रहा है. वे स्थापत्य और पुर-निर्माण में कुशल थे. पर उनके राज्य में सिर्फ शासकों की ही मूर्तियाँ बनती और लगती थी. क्या आज के तानाशाह उनसे किसी मामले में भिन्न हैं? सोवियत संघ में लेनिन की मूर्तियों की बाढ़ हो या कम्युनिस्ट चीन में माओ की, या क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की. लक्ष्मणपुर की आप जानो.

असुर शब्द के कुछ अन्य अर्थ:
१. तीव्र गति से कहीं भी पहुँचने वाले
२. अपने सिद्धांत से न हटने वाले
३. अपरिमित शक्ति के स्वामी
[असु का एक अर्थ अस्तित्व (जीवन) भी हो सकता है. मुझे संस्कृत नहीं आती - विद्वानों की राय अपेक्षित है - जिन विद्वानों ने संस्कृत अंग्रेज़ी में पढी हो वे क्षमा करें.]

डॉ. मिश्रा द्वारा उद्धृत रामायण की समुद्र मंथन वाली पंक्तियों में ज़रूर आदित्यों को सुर और दैत्यों को असुर के नाम से स्पष्ट चिन्हित किया गया है. तो क्या यह सही है कि उस मंथन के बाद (या वहीं से) एक नया वर्ग सुर पैदा हुआ? क्या यह मंथन दो बड़े राजनैतिक सिद्धांतों का मंथन करके एक नयी व्यवस्था निकालने का साधन था जिसमें हलाहल से लेकर अमृत तक सभी कुछ निकला? क्या अमृत देवताओं तक आने का कोई विशेष अर्थ है? यह सब आपके ऊपर छोड़ता हूँ मगर "अदिति के सुर" से इतना तय लगता है कि वरुण उस समय असुर उपाधि को छोड़कर सुर हो गए हैं. शायद वह एक नया तंत्र था जो असुरों (यहाँ से आगे असुर=दैत्य) के अब तक सामान्य-स्वीकृत तौर-तरीके से भिन्न था. वह नया तंत्र क्या था?



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Thursday, May 6, 2010

वारुणी - देवासुर संग्राम 3



असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥ 


दैत्य वे असुर, अदिति के पुत्र सुर;  प्रसन्न, स्वस्थ सुरों ने वारुणी को ग्रहण किया.

वाल्मीकि रामायण में ज़िक्र है समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई वारुणी का जिसे अदिति की संतति सुरों ने स्वीकार किया. मदमाते नयनों वाली वारुणी वरुण से (या उनके द्वारा) उत्पन्न हुई हैं और असुर (वहां पर) उन्हें नहीं लेते हैं इसके कई कारण हो सकते हैं. एक स्पष्ट कारण यह है कि वे विजेता होते हुए भी हारे हुए देवों से मिलकर समुद्र मंथन अभियान में शामिल होने के लिए सिर्फ इसलिए राजी हुए थे ताकि अमृत पा सकें न कि वारूणी. मगर एक बात और है. उस बात को बेहतर समझने के लिए पहले ऋग्वेद तक चलते हैं. वारूणी के सृजक वरुण हैं, इसलिए हम उनकी स्तुति का एक मंत्र देखें:

अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहेहिविभःकशाया
कषयन्नस्मभ्यमसुर परचेता राजन्नेनांसिशिश्रथः कर्तानि जा

यहाँ समुद्र के स्वामी वरुणदेव को असुर कहकर पुकारा गया है. यह अकेली जगह नहीं है जहां उन्हें असुर कहा गया है बल्कि ऋग्वेद में उन्हें अनेकों स्थानों पर आदर से असुर कहकर पुकारा गया है. वरुणदेव जल के स्वामी हैं. आज भी सप्त-सैन्धव के मूलनिवासी सिन्धीजन द्वारा पूजे जाते झूलेलाल उनके अवतार माने जाते हैं. झूलेलाल की सवारी मछली है और समुद्र के स्वामित्व को बताने वाला उनका एक नाम दरयाशाह भी है.

अब जब असुर वरुणदेव के नितांत अपने समुद्र का मंथन हो रहा हो तब वहां उनका एक प्रमुख स्थान होना वाजिब है और उनके अपने राष्ट्र के रत्न वारुणी में उनकी या उनके लोगों की क्या विशेष रूचि हो सकती है लिहाजा वह रत्न विपक्ष के पास गया.

भले ही आजकल हम असुर शब्द का प्रयोग किसी को गाली देने के लिए करते हों विद्वानों के अनुसार वरुण, मित्र आदि भारतीय मुनियों द्वारा पूजित बहुत से असुरों में से एक हैं और असुर शब्द में अनादर का भाव नहीं है. भारतीय ग्रंथों में मयासुर को इंद्र के वास्तुशिल्पी से भी महान बताया गया है. दूसरे अनेकों असुरों को महादेव द्वारा वरदान दिए जाने की कथाएं जहां तहां मिलती हैं. असुरराज प्रहलाद की वंशरक्षा के लिए भगवान् विष्णु स्वयं प्रतिबद्ध थे. केरल का विशु महोत्सव असुरराज बाली के पाताल लोक से वापस आने के सम्मान में ही मनाया जाता है. मैसूर राज्य का नाम ही महिषासुर के नाम पर है. भगवान् परशुराम के पूर्वज ऋषि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जैसे महारथी असुरों के गुरु यूं ही तो नहीं बन गए थे. यहाँ यह ध्यान आ गया कि शुक्राचार्य की माँ उषा (उष्णा) असुर राजकुमार प्रह्लाद की बहन थीं.

फिर भी आसुरी तंत्र और देवी तंत्र में कई बड़े अंतर हैं. आज के लिए सिर्फ दो कथाएं:

१. एक देवासुर संग्राम में बहुत सी जानें जाने के बाद भी जब कोई निर्णय नहीं हो सका तो विष्णु जी ने प्रस्ताव रखा कि युद्ध को अनंत काल तक चलाने के बजाय दोनों पक्षों से कुछ लोगों का एक छोटा सा दल लेकर उनमें प्रतियोगिता करा ली जाए. जो जीते विजय उसी की. दोनों तैयार. प्रतियोगिता थी लड्डुओं के थाल में से जल्दी-जल्दी खाकर पहले ख़त्म करने की. देवता तो ऐसी बेतुकी असंतुलित प्रतियोगिता के बारे में सुनकर ही चौंक गए. दोनों दलों को लड्डू के साथ एक-एक कमरे में बंद कर दिया गया, नियम था कि खाते समय कोहनी नहीं मोडनी है. महा पराक्रमी असुर सोचते ही रह गए जबकि देवता क्षण भर में लड्डू के थाल ख़त्म करके बाहर आ गए और विजयी हुए. कोहनी मोड़े बिना दूसरों को देना उनका नैसर्गिक गुण जो ठहरा. देव शब्द का एक अर्थ दाता ही होता है.

२. देवासुर दोनों ब्रह्मा के पास ज्ञान लेने गए और ब्रह्मा ने सिर्फ एक अक्षर कहा "द." दोनों ही प्रसन्नमन वापस आ गए. देवों ने जान लिया था कि उन्हें दमन (इन्द्रिय दमन = इंद्र की ज़रुरत इसीलिये थी) करना है जबकि असुरों ने अपने अन्दर दया की कमी को पहचाना.

ट्रान्सलिट्रेशन में संस्कृत टाइप करने में बहुत मुश्किल हो रही है, इसलिए न चाहते हुए भी यहाँ विश्राम लेता हूँ. जाने से पहले आज का सवाल - ऋग्वेद में एक देव को एक ही साथ असुर और देव दोनों ही श्रेणियों में रखा गया है - देखते हैं कि इस देव का नाम कौन बताता है.

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असुर शब्द का अर्थ - देवासुर संग्राम २



असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥

ऐसा पढने में आया कि समुद्र मंथन में पहली बार उत्पन्न हुई सुरा को स्वीकार करने के कारण देवता सुर कहलाये. आइये इस कथन पर एक बार पुनर्विचार करें. सुरा के जन्म (समुद्र मंथन) के समय सुर (देवता) पहले से स्थापित थे. इसलिए यह मानना कि सद्यजन्मा सुरा - जिसका पहले नाम ही नहीं था - उसे स्वीकार करने की वजह से देवताओं और असुरों की दोनों जातियों का ही नया नामकरण हो गया, कुछ जमता नहीं. वैसे भी उस समुद्र मंथन में एक नहीं चौदह रत्न निकले थे जिनमें से अधिकाँश सुरा से अधिक दुर्लभ और बहुमूल्य बल्कि अद्वितीय थे. उनके नाम पर कोई नामकरण क्यों नहीं हुआ?

इससे भी बड़ी बात यह है कि पहले संग्राम और बाद में समुद्र मंथन देवासुर के बीच ही हुआ था. मतलब कम से कम असुर शब्द पहले से मौजूद था. फिर सुर शब्द के असुर से व्युत्पन्न होने की संभावना है न कि सुरा से. यहाँ मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि सुर सुरापान करते थे या नहीं. मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि उनका नाम समुद्र मंथन से पहले से ही सुर था. कम से कम असुर शब्द तो पहले ही से प्रचलन में था. सुर और असुर दोनों ही शब्द ऋग्वेद में बहुत शुरू में ही प्रयुक्त हुए हैं और प्राचीन हैं.

एक नज़र देखने पर ऐसा लग सकता है जैसे सुर से असुर की व्यत्पत्ति हुई हो जबकि तथ्य इसके उलट है. असुर शब्द प्राचीन है. बाद में अ-असुरों को सुर शब्द से नवाज़ा गया था. सुर वे हैं जो असुर नहीं हैं या अब असुर नहीं रहे. आम तौर पर यह शब्द देवताओं के लिए प्रयुक्त होता है और असुर दानवों के लिए परन्तु जहां आदित्य, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि शब्द जातिसूचक (tribe/race/region) हैं वहीं सुर, असुर, देव और ऋषि शब्द उपाधियों जैसे हैं. इसीलिये कुछ असुर भी देवता हैं और कुछ मानव भी. ठीक उसी तरह जैसे ऋषि ब्राह्मण भी हैं राजा भी हैं और नारद जैसे देवता भी.

ऊपर के श्लोक का अर्थ केवल इतना ही है कि वारुणि को सुरों ने ग्रहण किया।

असुर शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है असु+र. यहाँ असु का अर्थ है द्रव शक्ति या शक्ति का रस. आसव, आसवन आदि सभी इसी के सम्बंधित शब्द हैं. "र" का अर्थ है स्वामी. अर्थात असुर वे हैं जो या तो शक्तिरस के स्वामी हैं या फिर द्रव, तरल या जल की शक्ति के स्वामी हैं.

पारसी आर्यों में परमेश्वर का नाम अहुर माजदा (असुर ?) है जिसके तीनों प्रमुख सहायक असुर ही हैं. इन तीनों असुरों में मित्र का नाम इसलिए उल्लेखनीय है कि उनकी पूजा भारत और ईरान से बाहर भी विभिन्न क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से होती रही है इसके अनेकों प्रमाण उत्खनन से मिले हैं. मित्र का ज़िक्र वेदों में भी है. तो क्या कुछ वैदिक ऋषि एक असुर के पूजक थे या फिर पारसियों ने भाषा की किसी गलती या भेद से असुर को सुर कहना शुरू किया, या फिर यह दोनों दल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से कुछ सुरासुर दोनों ही हैं? या फिर सुर, सुरा और संयुक्त समुद्र-मंथन अभियान का मतलब उससे विपरीत है हमें आधुनिक प्रगतिशील विद्वान वर्ग द्वारा समझाया जाता रहा है?

आइये अगली कड़ी में मित्र से इतर एक अन्य प्राचीन असुर से मिलकर देखें कि असुर आखिर किस शक्ति के स्वामि हैं और इस बारे में संस्कृत ग्रन्थ क्या कहते हैं. अन्य देवताओं इंद्र आदि के विपरीत उनकी पूजा आज भी होती है, वे अभी भी एक भारतीय समुदाय के अधिष्ठाता देवता हैं और असुर की पिछली परिभाषा (असु+र) पर आज भी खरे उतारते हैं. मेरे लिए वह एक वैदिक आश्चर्य है और शायद इस कन्फ्यूज़न को सुलझाने का एक सूत्र भी. क्या आप बता सकते हैं कि मैं किस असुर की बात कर रहा हूँ?

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