Sunday, August 7, 2011

अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा

ज़ालिम फ़लक ने लाख मिटाने की फ़िक्र की
हर दिल में अक्स रह गया तस्वीर रह गयी
भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930

लाहौर कांग्रेस में बांटा गया "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र" हो या क्रांतिकारियों का दृष्टिकोण बताता हुआ "बम का दर्शन-शास्त्र (फ़िलॉसॉफ़ी ओफ़ द बॉम)" नामक पत्र हो, भगवतीचरण वोहरा अपने समय के क्रांतिकारियों के प्रमुख विचारक और लेखक रहे थे। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और साथियों की फ़ांसी के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने जब हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के पुनर्गठन का बीडा उठाया तब नई संस्था हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (हि.सो.रि.ए.) में पंजाब की ओर से शामिल होने वाले क्रांतिकारियों में भगवतीचरण वोहरा, सरदार भगत सिंह और सुखदेव थापर का नाम प्रमुख था। नौजवान भारत सभा के सह-संस्थापक श्री भगवतीचरण वोहरा "नौजवान भारत सभा" के प्रथम महासचिव भी थे।

वोहरा परिवार
हि.सो.रि.ए. के एक प्रमुख सदस्य और पंजाब के दल के संरक्षक श्री भगवती चरण वोहरा का जन्म 4 जुलाई सन 1904 को आगरा के प्रतिष्ठित राष्ट्रभक्त और सम्पन्न परिवार में श्री शिवचरण नागर वोहरा के घर हुआ था। इस ब्राह्मण परिवार का मूल कुलनाम नागर होते हुए भी अपनी सम्पन्नता के कारण वे लोग वोहरा कहलाते थे। वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। देशप्रेम, त्याग और समर्पण की भावना समस्त परिवारजनों में कूट-कूट कर भरी थी। विदेशी उत्पाद और मान्यताओं से बचने वाले इस परिवार में केवल खादी के वस्त्र ही स्वीकार्य थे। देश की राजनैतिक और देशवासियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये इस परिवार का हर सदस्य जान न्योछावर करने को तैयार रहता था।

भाई के अंतिम क्षण
मात्र चौदह वर्ष की आयु में, सन् 1918 में श्री भगवती चरण वोहरा का पाणिग्रहण संस्कार इलाहाबाद की पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण ग्यारह वर्षीया सौभाग्यवती दुर्गावती देवी से हुआ। पति के उद्देश्य में सदा कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने वाली यही वीरांगना दुर्गावती बाद में दुर्गा भाभी के नाम से विख्यात हुईं। खादी के वस्त्र धारण कर दुर्गावती ने पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी बीच वोहरा जी ने नेशनल कॉलेज लाहौर से बी.ए. की उपाधि ली। यहीं पर उन्होने एक अध्ययन मण्डल (स्टडी सर्कल) की स्थापना भी की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम महान क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के सम्मान में शचीन्द्रनाथ रखा गया। वोहरा परिवार लाहौर के क्रांतिकारियों का दिशा-निर्देशक रहा। क्रांतिकारियों के बीच वे क्रमशः "भाई" व "भाभी" के नाम से पहचाने जाते थे। उस समय में भी लाखों की सम्पत्ति और हज़ारों रुपये के बैंक बैलैंस के उत्तराधिकारी भाई भगवतीचरण ने अपने देशप्रेम हेतु अपने लिये साधारण और कठिन जीवन चुना परंतु साथी क्रांतिकारियों के लिये अपने जीते-जी सदा धन-साधन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति निस्वार्थ भाव से की। प्रसिद्ध नाटककार उदय शंकर भट्ट के साथ वे बरेली में भी रहे थे। लाहौर में तीन मकानों के स्वामी भाई भगवती चरण ने अपने क्रांतिकर्म के लिये उसी लाहौर की कश्मीर बिल्डिंग में एक कमरा किराये पर लेकर वहाँ बम-निर्माण का कार्य आरम्भ किया था।

9-10 सितम्बर 1928 को फ़ीरोज़शाह कोटला में हुई हि.सो.रि.ए. की गुप्त प्रथम राष्ट्रीय पंचायत में झांसी को मुख्यालय, चन्द्रशेखर "आज़ाद" को मुख्य सेनापति और भगवतीचरण वोहरा को प्रमुख सलाहकार चुना गया और उन्होंने ही संस्था के घोषणा पत्र का प्रारूप तैयार किया था। तभी नवनिर्मित संस्था द्वारा आज़ादी के उद्देश्य के लिये बमों के निर्माण और प्रयोग का निश्चय हुआ था। समझा जाता है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा दिल्ली सेशन कोर्ट में पढा गया संयुक्त बयान भाई भगवतीचरण के निर्देशन में ही तैयार हुआ था।
हमें ऐसे लोग चाहिये जो आशा की अनुपस्थिति में भी भय और झिझक के बिना युद्ध जारी रख सकें। हमें ऐसे लोग चाहिये जो आदर-सम्मान की आशा रखे बिना उस मृत्यु के वरण को तैयार हों, जिसके लिये न कोई आंसू बहे और न ही कोई स्मारक बने।
~ भगवतीचरण वोहरा
यंग इंडिया में जब गांधीजी ने क्रांतिकारियों को कायर कहकर उनके कार्य की निन्दा करते हुए "कल्ट ऑफ़ द बम" आलेख लिखा तब चन्द्रशेखर "आज़ाद" के प्रोत्साहन के साथ भगवती भाई ने "फ़िलॉसॉफ़ी ऑफ़ द बम" का प्रभावशाली और चर्चित आलेख लिखा था। यह आलेख जनता के बीच बहुत अच्छी तरह वितरित हुआ परंतु पुलिस अपने पूरे प्रयास के बाद भी इसके उद्गम का पता न लगा सकी।
मेरे पति की मृत्यु 28 मई 1930 में रावी नदी के किनारे बम विस्फोट के कारण हुई थी। उनके न रहने से भैया (आज़ाद) कहते थे कि उनका दाहिना हाथ कट चुका है। ~ दुर्गा भाभी
इस पत्र के बाद ही पण्डित मोतीलाल नेहरू ने क्रांतिकारियों की दृष्टि को पहचाना और आनन्द भवन (इलाहाबाद) में गांधीजी के साथ क्रांतिकारियों की भेंट कराई। दोनों पक्ष ही एक-दूसरे को समझाने में असफल रहे परंतु भाई भगवतीचरण की लेखनी के कारण क्रांतिकारियों को कॉंग्रेस में मोतीलाल नेहरू के रूप में एक पक्षकार अवश्य मिला।
युद्ध हमारे साथ आरम्भ नहीं हुआ है और हमारे जीवन के साथ समाप्त नहीं होगा। हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कडी मात्र होंगे जिसका सौन्दर्य कामरेड भगवतीचरण के दारुण पर गर्वीले आत्म त्याग और हमारे प्रिय योद्धा आजाद की गरिमामय मृत्यु से निखर उठा है। ~ सरदार भगत सिंह (3 मार्च 1931)
लाहौर षडयंत्र काण्ड में शहीदत्रयी को मृत्युदंड की घोषणा के बाद हि.सो.रि.ए. ने तय किया कि क़ैद क्रांतिकारियों को लाहौर जेल से न्यायालय ले जाते समय नये और अधिक शक्तिशाली बमों का प्रयोग करके उन्हें छुड़ा लिया जाये। सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह को छुड़ाने के प्रयास के लिये बनाये गये बमों के परीक्षण के समय 28 मई 1930 को रावी तट पर हुई दुर्घटना में वोहरा जी का असामयिक निधन हो गया। उनके अंतिम समय में विश्वनाथ वैशम्पायन और सुखदेव राज उनके साथ थे। यही सुखदेव राज संयोगवश आज़ाद के अंतिम समय में भी साथ रहे थे।
आज आज़ाद का कोई क्रांतिकारी साथी जीवित नहीं है। स्वतंत्र भारत में एक-एक कर उनके सारे साथियों की मौत हो गयी और किसी ने नहीं जाना। वे सब गुमनाम चले गये। उनके न रहने पर किसी ने आंसू नहीं बहाये, न कोई मातमी धुन बजी। किसी को पता ही न लगा कि ज़मीन उन आस्मानों को कब कहाँ निगल गयी।
~ सुधीर विद्यार्थी
बम विस्फ़ोट से भाई का एक हाथ कलाई से आगे पूरा उड गया और दूसरे की उंगलियाँ नष्ट हो गयीं। पेट में इतना बडा घाव हुआ कि आंतें बाहर निकल आयीं। सुखदेव राज जब तक अन्य साथियों व चिकित्सक की तलाश में गये तब तक भाई की कोख से लगातार बहते खून को रोकने के लिये विश्वनाथ ने पहने हुए वस्त्रों की पट्टियाँ बनाकर प्रयोग कीं। शरीर को रक्त की कमी से सूखने से बचाने के लिये विश्वनाथ उनके मुँह में संतरे निचोडते रहे जोकि वे लोग पहले ही अपने साथ लेकर आये थे। अपने अंत से पहले भाई ने मुस्कराकर विश्वनाथ से कहा कि अच्छा ही हुआ कि घाव उनको ही हुए, यदि सुखदेव राज या विश्वनाथ वैशम्पायन को कुछ हो जाता तो वे भैय्या (आज़ाद) को क्या जवाब देते?

प्रणम्य है उनका त्याग। कोटि-कोटि नमन है उन्हें और उनके जज़्बे को!

[इस आलेख में प्रस्तुत सभी स्कैन क्रांतिकारियों से सम्बन्धित दुर्लभ मुद्रित आलेखों की जानकारी के प्रसार के सदुद्देश्य से सादर और साभार लिये गये हैं। चित्रों पर क्लिक करके उनका बडा प्रतिरूप देखा जा सकता है। स्वर्गीय भगवतीचरण वोहरा के अंतिम क्षणों का चित्रण उनके अंतिम क्षणों के साथी विश्वनाथ वैशम्पायन की लेखनी से लिया गया है।]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* शहीदों को तो बख्श दो
* नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

Thursday, August 4, 2011

नव फ़्रांस में गांधी - इस्पात नगरी से - 44

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अंग्रेज़ों के कब्ज़े से पहले पिट्सबर्ग के किले फ़ोर्ट पिट का नाम फ़ोर्ट ड्यूकेन था और वह फ़्रांसीसी अधिकार क्षेत्र में था। जिस प्रकार भारत में अंग्रेज़ों ने फ़्रांसीसियों को निबटा दिया था उनका लगभग वैसा ही हाल अमेरिका में हुआ। यहाँ तक कि ब्रिटेन से स्वतंत्रता पाने के बाद भी अमेरिका में अंग्रेज़ी का साम्राज्य बना रहा। इसके उलट कैनैडा का एक बडा भाग आज भी फ़्रैंचभाषी है। जिस तरह संयुक्त राज्य के उत्तरपूर्वी तटीय प्रदेश का एक भाग न्यू इंगलैंड कहलाता है उसी तरह कैनैडा का एक क्षेत्र अपने को नव-फ़्रांस कहता है। आजकल (तीन अगस्त से सात अगस्त तक) कैनैडा के क्यूबैक नगर में नव-फ़्रांस महोत्सव चल रहा है। फ़्रांस में आज भले ही लोग आधुनिक वस्त्र पहनते हों, परंतु क्यूबैक में इस सप्ताह आप कहीं भी निकल जायें, आपको हर वय के लोग पुरा-फ़्रांसीसी या अमेरिकी-आदिवासी वस्त्र पहने मिल जायेंगे।

आइये, आपके साथ क्यूबैक की गलियों का एक चक्कर लगाकर देखते हैं कि यहाँ चल क्या रहा है।
आदिवासी ऐवम् फ़्रांसीसी

बच्चे, संगीतकार और तपस्वी

फ़्रैंच कुलीन का हैट पहने आदिवासी बच्ची 

दुकान के आगे तलवार भांजते सज्जन

फ़्रांसीसी भाषा में कोई ऐतिहासिक एकपात्री नाटक

हमारा तम्बू यहीं गढेगा


जॉर्ज वाशिंगटन से लेकर नेपोलियन तक जो पिस्टल चाहिये मिलेगी

सैनिक की आड में छिपा पाइरेट ऑफ़ दि कैरिबियन 

शाम की सैर

एक परिवार

सैकाजेविया?
आदिवासी और उसकी मित्र

The smartest Indian
शताब्दी का सबसे स्मार्ट भारतीय क्यूबैक संसद में  

सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Quebec photos by Anurag Sharma
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* मेरे मन के द्वार - चित्रावली

Saturday, July 30, 2011

बी. एल. “नास्तिक”

कहानी: अनुराग शर्मा
चित्र: रवि मिश्र द्वारा
आज बीस साल के बाद दिखा था बौड़मलाल। वह भी वृन्दावन में। बिल्कुल पहले जैसा ही, गोरा, गोल-मटोल। सिर पर घने बालों की जगह चमकते चांद ने ले ली थी, शेष अधिक नहीं बदला था। पहले की तरह ही धूप का चश्मा, लाल टीका। हाँ हाथ में कलावे के साथ सोने की घडी भी विराज रही थी और चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ। गले में सोने की मोटी सी लड़ और उंगलियों में आठ अंगूठियाँ।

स्कूल में मेरे साथ ही पढता था बौड़मलाल। उसे देखते ही कोई भी पहचान सकता था कि धर्मकर्म में उनका कितना विश्वास था। माथे पर टीका और अक्षत और कलाई में कलावा उनकी पहचान थी। जब दोस्तों के बीच गाली-गलौच न कर रहा हो तब धर्म-कर्म की कहानियाँ भी सुनाने लगता था। वैसे तो उसकी भक्ति  बारहमासी थी लेकिन परीक्षा से पहले उसमें विशेष बहार आ जाती थी।

पढने लिखने से ज़्यादा ज़ोर मन्दिर जाने पर होता। यह भगवान की कृपा ही थी कि हर साल उसकी वैतरणी पार हो ही जाती थी। उस साल भी परीक्षा हो चुकी थी। परिणाम बस आया ही था। हम लोग पिताजी का तबादला हो जाने के कारण नगर छोडकर जा रहे थे। जाने से पहले मैं सभी साथियों से मिलना चाहता था। बौड़मलाल के घर भी गया। उसे देखकर आश्चर्य हुआ। न भस्म न चन्दन, न गंडा न तावीज़। मेरी “राम-राम” के जवाब में अपनी चिर-परिचित “जय श्रीराम” की जगह जब उसने “@#$% है भगवान” कहा तो मेरा माथा ठनका। दो मिनट में ही बात खुल गयी कि इस नटखट भगवान ने इस बार पहली बार उसके साथ छल कर डाला। पाँच दस मिनट तक उसकी भड़ास सुनने के बाद मैं चल दिया।

नये नगर में मन अच्छी तरह लग गया। पिछ्ले स्कूल के मित्रों से पत्र-व्यवहार चलता रहा। बौड़मलाल की खबर भी मिलती रही। पता लगा कि जब भगवान ने उसे मनमाफ़िक फल नहीं दिया तबसे ही वह ईश्वर के खिलाफ धरने पर बैठा है। परमेश्वर-खुदा-भगवान से खफ़ा होकर वह नास्तिक ही नहीं बल्कि धर्म-द्रोही हो गया है। डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था। लेकिन यह सब घर के अन्दर पर्दे के पीछे की मजबूरी थी। घर के बाहर मज़ाल थी कि कोई उसके सामने भगवान का नाम ले ले। बौड़मलाल हुज्जत कर-कर के उस व्यक्ति की नाक में दम कर देता था।

कॉलेज पहुँचने पर उसकी प्रतिष्ठा एक गुमनाम राष्ट्रीय पार्टी “मुर्दाबाद” तक पहुँची और उसे छात्र संघ के चुनाव का टिकट भी मिल गया। बौड़मलाल का नया नामकरण हुआ बी. एल. “नास्तिक”। वह बड़ा वक्ता बना, हर विषय का विशेषज्ञ। “मुर्दाबाद” पार्टी ने उसकी कई किताबें प्रकाशित कराईं। कालांतर में वह पार्टी के साप्ताहिक पत्र “भाड़ में झोंक दो” का प्रबन्ध सम्पादक भी रहा।

समय के साथ मैं भी नौकरी में लग गया और बाकी मित्र भी। पता लगा कि कई साल कॉलेज में लगाने के बाद भी बौड़मलाल बिना डिग्री के बाहर आ गया। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि उसकी पार्टी ने उसे अपनी केन्द्रीय कार्यकारिणी में ले लिया। फिर सब मित्र अपने-अपने परिवार में मगन हो गये और लम्बे समय तक न उनकी कोई खबर मिली न ही बौड़मलाल की।

आज उसे यहाँ देखकर मुझे उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना उसके लाल टीके और कलावे को देखकर। पूछा तो बौड़मलाल एक गहरी सांस लेकर बोला, “अब तुमसे क्या छिपाना ... पहले वाली बात अब कहाँ?”

“क्यों? अब क्या हुआ?” मैने आश्चर्य से पूछा।

“सोवियत संघ टूटा तो पैसा आना बन्द हो गया ...” फिर कुछ देर रुककर अपनी सुनहरी घड़ी को देखता हुआ बोला, “अब चीन पर इतना दवाब है कि हथियार आने भी बन्द हो गये हैं।”

“मगर तुम्हें पैसे से क्या? तुम्हारी पार्टी तो गरीबों, मज़दूर-किसानों की है।”

“अरे वह भी कब तक हमारे लिये जान देते। उन्हें तो अब ज़मीन का एकमुश्त इतना हर्ज़ाना मिल जाता है जितना मेरे स्तर के नेता साल भर में नहीं जमा कर पाते थे। बिक गये &*$# सब के सब।”

“फिर? तुम्हारा क्या होगा?”

“दो-तीन साल से तो मैं मन्दिरवाद पार्टी में हूँ, सेठों का बड़ा पैसा है उनके पास। एक तो धार्मिक, ऊपर से अहिंसक, खून-खराबा तो क्या लाल रंग से भी बचते हैं। मुर्दाबाद पार्टी में तो हर तरफ़ खूनम-खून, लालम-लाल। हमेशा तलवार लटकी रहती थी। इधर कोई आका नाराज़ हुआ, उधर सर क़लम।”

“तो अब यहीं रहने का इरादा है क्या?”

“अरे नहीं, धर्म की दुकान देसी है। बहुत दिन नहीं चलेगी, बाहर से बहुत पैसा आ रहा है ...”

मैंने उस पर एक प्रश्नात्मक दृष्टि डाली तो धूर्तता से मुस्कराते हुए बोला, “खबर है कि सद्दाम और ओसामा एक डॉन के साथ मिलकर बहुत सा पैसा एक नई पार्टी में लगा रहे हैं।”

“तुम्हें क्यों लेंगे वे?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“क्यों नहीं लेंगे?” उसने बेफ़िक्री से एक तरफ़ थूकते हुए एक कागज़ मेरी ओर बढ़ाया, “ये देखो।”

मैंने देखा तो वह एक हलफ़नामा था जिसमें बी. राम “आस्तिक” अपना नाम बदलकर बी. ग़ाज़ी “नियाज़ी” कर रहा था।

“क्या इतना काफ़ी है?” मैंने पूछा।

“मुझे पता है क्या करना काफ़ी है और वो मैंने करा भी लिया है।”

[समाप्त]