Friday, January 2, 2009

आग और पानी [इस्पात नगरी ५]


इस्पात नगरी के धरातल के नीचे छिपकर बहने वाली ऐक्विफर नदी और सतह के ऊपर की त्रिवेणी की चर्चा मैंने इस शृंखला के चौथे खंड में की थी. चार नदियों वाले इस नगर में पानी की बहुतायत है. जैसे कि हम सब जानते हैं, जल के एक अणु में हाइड्रोजन के दो और ऑक्सिजन का एक अणु होता है. एक जलने वाला और दूसरा जलाने वाला, कोई आश्चर्य नहीं कि शायरों ने पानी और आग पर काफी समय लगाया है. पिट्सबर्ग सचमुच में आग और पानी का अनोखा संगम है. यहाँ की नदियों में जितना पानी और बर्फ है, यहाँ की पहाडियों में उतना ही कोयला है. इसीलिये शुरूआत से ही यहाँ खनन एक बहुत बड़ा व्यवसाय है. पिट्सबर्ग को इस्पात नगरी का दर्जा दिलाने में कोयले और पानी की बहुतायत का बहुत बड़ा योगदान रहा है. नदियाँ खनिजों के परिवहन का काम करती थी. और उनके किनारे खनन, परिवहन और भट्टियाँ बनीं.
[पुरानी इस्पात मीलों के उपकरण आजकल माउंट वॉशिंगटन की तलहटी में नदी के किनारे प्रदर्शन के लिए रख दिए गए हैं.]


[तीस-चालीस साल पहले तक माउंट वॉशिंगटन का यह हरा-भरा रमणीक पर्वत सिर्फ़ कोयले का एक बदसूरत और दानवाकार पहाड़ सा था.]

पुराने पिट्सबर्ग के बारे में एक प्रसिद्ध गीत है "पिट्सबर्ग एक पुराना और धुएँ से भरा नगर है..." एक ज़माने में सारा शहर कोयले के धुएँ से इस तरह ढंका रहता था कि नगर की एक ऊंची इमारत पर एक बड़ा सा टॉवर लाल बत्तियों की दूर से दिखने वाली रोशनी में जल-बुझकर मोर्स कोड में "पिट्सबर्ग" कहता रहता था. कारखाने चीन चले जाने के बाद प्रदूषण तो अब नहीं रहा है मगर वह टावर आज भी उसी तरह जल-बुझकर "पिट्सबर्ग" कहता है. बलुआ पत्थरों से बनीं शानदार इमारतें भट्टियों से दिनरात निकलने वाले धुएँ से ऐसी काली हो गयी थीं कि वही उनका असली रंग लगता था. आजकल एक-एक करके बहुत सी इमारतों को सैंड-ब्लास्टिंग कर के फिर से उनके मूल रूप में लाया जा रहा है. .

[क्लिंटन भट्टी पिट्सबर्ग ही नहीं बल्कि विश्व की सबसे पहली बड़ी भट्टी है.]


[क्लिंटन भट्टी सन १९२७ में सेवानिवृत्त हो गयी.]


[पुराने दिनों की यादें आज भी रुचिकर हैं.]



[पेन्सिल्वेनिया का कोयला उद्योग सन १७६० में माउंट वॉशिंगटन से ही शुरू हुआ था. ज्ञातव्य है कि १७५७ में अँगरेज़ हमारी धरती पर प्लासी की लड़ाई लड़ रहे थे.]
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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]

Wednesday, December 31, 2008

नव वर्ष का संकल्प

मित्रों,
बातों ही बातों में पुराना साल कब निकल गया, पता ही न चला। देखते-देखते हम नव-वर्ष की पूर्व संध्या पर आ पहुँचे हैं. २००८ में मैंने एक कविता लिखी थी "कितना खोया कितना पाया।" दुहराव के डर से उसे यहाँ फ़िर से पोस्ट नहीं करूंगा। परन्तु उत्सुक जन कविता के शीर्षक पर क्लिक कर के उसे पढ़ सकते हैं।

गत वर्ष में बहुत कुछ हुआ - हमने कोसी की विनाशलीला भी देखी और पाकिस्तान से आए हैवानी आतंकवादियों की २६ नवम्बर की कारगुजारी भी, कश्मीर में आतंकवादियों की धमकियों और बयानबाजी का मुँहतोड़ जवाब देते हुए लोगों का शांतिपूर्ण मतदान भी देखा और चंद्रयान का सफल प्रक्षेपण भी। और भी बहुत कुछ दिया है इस साल ने। मैं बूढा तो भूल जाता हूँ, आप तो युवा हैं सब याद रखते हैं।

नए साल की पूर्व-संध्या पर कुछ संकल्प लेने की परम्परा सी बन गयी है। पहले तो मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी लेकिन अब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ। यदि संकल्प लेना ही है तो खुश रहने और अपने को बेहतर बनाने का संकल्प लेना पसंद करूंगा। २००८ में हिन्दी ब्लोगिंग शुरू की और बहुत से नए मित्रों से मिला जिनके साथ और कृपा से मेरा विकास ही होना है। क्या पता मेरा २००८ का ब्लॉग लिखना २००९ में पुस्तक लेखन में ही बदल जाए।

जिन लोगों ने कभी नए साल का संकल्प नहीं लिया या फ़िर कोई नई तरह का संकल्प लेना चाहते हैं, उनके लिए अपने अनुभव से निचोड कर कुछ सुझाव रखना चाहता हूँ।

कुछ ऐसा करिए जिससे आप में और समाज में एक सकारात्मक परिवर्तन आए। कोई भी उम्र कम नहीं होती है। झांसी की रानी हों या भगत सिंह, उन्हें जीवन में इतने बड़े काम करने के लिए ३० साल का भी नहीं होना पडा था। जिन तांतिया टोपे के नाम से दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य काँप रहा था। माना जाता है कि उन्हें दो बार फांसी दी गयी थी। अपने बलिदान के समय वे १८५७ के संग्राम के युवा नायकों में सबसे बड़े थे - ३९ वर्ष के।

कोई भी पद कम नहीं है, कोई भी काम छोटा नहीं है। अंग्रेजी फौज में एक मामूली सिपाही के पद पर काम करने वाले मंगल पांडे ने चर्बी वाले कारतूस को अपने दाँत से छूने नहीं दिया। बन्दा शहीद हो गया मगर उसकी फाँसी के साथ ही मुगलों, मराठों को हराने वाली "ईस्ट इंडिया कंपनी" का कभी न डूबने वाला सूरज हमेशा के लिए डूब गया।

सतही तौर पर ऐसा लगता है कि लेना आसान है मगर देना उससे भी आसान है। अगर सत्कार्य में देने को पैसा नहीं है तो समय दीजिये। और कोई दान नहीं तो रक्त-दान कीजिये। २००८ में हमारे एक बुजुर्ग का देहांत हुआ, उन्होंने अपनी आँखें दान कीं जिससे दो बच्चों को रोशनी मिली।

हम अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें। हो सके तो तैराकी या घुड़सवारी सीखें। जिम नहीं जा सकते तो घर में योगासन शुरू करें। इस साल के वृक्षारोपण में लगाए किसी सूख रहे पौधे को पानी देकर जमने लायक बना दें। बहुत दिनों से खोये हुए किसी पुराने मित्र को अचानक मिलकर आश्चर्यचकित कर दें, किसी चाय वाले छोटू को शतरंज खेलना सिखायेे या काम-वाली बाई के बेटे-बेटी की एक साल की कापी-किताबों का इंतजाम कर दें। जिस दिन भी शुरू करेंगे, आपको पता लगेगा कि एक छोटी सी शुरूआत से ही बड़े बड़े काम होते हैं:
बात तो आपकी सही है यह थोड़ा करने से सब नहीं होता
फिर भी इतना तो मैं कहूंगा ही कुछ न करने से कुछ नहीं होता


लिखने को बहुत कुछ है मगर बातें तो होती ही रहेंगी, कहीं भूल न जाऊँ इसलिए आज बस इतना ही कहता हूँ:
आपको, आपके परिवारजनों और मित्रों को नव-वर्ष की शुभकामनाएं!

Saturday, December 27, 2008

संता क्लाज़ और दंत परी [इस्पात नगरी ४]

सेण्टा क्लॉज़, और दन्त परी 
पिट्सबर्ग पर यह शृंखला मेरे वर्तमान निवास स्थल से आपका परिचय कराने का एक प्रयास है। संवेदनशील लोगों के लिए यहाँ रहने का अनुभव भारत के विभिन्न अंचलों में बिताये हुए क्षणों से एकदम अलग हो सकता है। कोशिश करूंगा कि समानताओं और विभिन्नताओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में ईमानदारी से प्रस्तुत कर सकूँ। आपके प्रश्नों के उत्तर देते रहने का हर-सम्भव प्रयत्न करूंगा, यदि कहीं कुछ छूट जाए तो कृपया बेधड़क याद दिला दें, धन्यवाद!
क्रिस्मस के बड़े दिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
सांता निकोलस क्लाज़
पिछली पोस्ट में मैं सेंटा क्लाज़ के बारे में लिखना चाहता था मगर नदियों के बारे में किये गये सवाल ने थोडा सा भटका दिया, सो इस बार वह कमी पूरी कर रहा हूँ. अगले अंक से हम वापस इस्पात नगरी की सैर पर चल पड़ेंगे.

अमेरिका के बच्चों को सेंटा क्लाज़ में बहुत विश्वास है. उन्हें दंत परी (टूथ फेरी = Tooth Fairy) में भी उतना ही विश्वास है. सेंटा क्लाज़ तो फ़िर भी साल में एक बार ही दिखता है. दंत परी तो हर दाँत टूटने पर आ जाती है और बच्चों के टूटे हुए दाँत के बदले में चुपचाप कोई छोटा सा उपहार रख जाती है.

जब मेरी बेटी का पहला दूध का दाँत टूटा, तब भी उसे दंत परी के अस्तित्व पर विश्वास नहीं था और आज भी नहीं है. दंत-परी के उपहारों के लिए भी उसने दंत-परी के बजाय सदैव अपने माता-पिता को ही जिम्मेदार माना. मगर इस क्रिसमस पर उसने अपनी माँ से यह ज़रूर पूछा कि क्या वह (बेटी‌) पहले कभी सेंटा क्लाज़ में विश्वास रखती थी. माँ को याद नहीं था, सो उसने अपने कभी कुछ भी न भूलने वाले पिता से पूछा.

मैंने याद दिलाया कि जब हम उसके प्री-स्कूल के क्रिसमस समारोह में गए थे. सारे बच्चे खुश थे. उन्होंने अपनी अध्यापिकाओं के साथ क्रिसमस-गीत भी गाये. उसके बाद वहाँ सेंटा क्लाज़ भी आ गए. सारे बच्चे उनकी तरफ़ दौड़े. मेरी बेटी शायद उनको देख नहीं सकी है, यह सोचकर उसकी माँ ने बड़े उत्साह के साथ उसे बताया, "देखो बेटा, सेंटा क्लॉज़ आ गए." बेटी ने मुड़कर सेंटा को ध्यान से देखा और मुस्कुराकर कहा, "मुझे पता है, ... वह तो बॉब है." तब हमने ध्यान से देखा और पाया कि संता की वेशभूषा में वे स्कूल के संरक्षक बॉब ही थे.

उस प्री-स्कूल की कक्षाओं की खिड़कियों में एक तरफ़ से देख सकने वाले शीशे लगे थे ताकि माता-पिता बाहर रहकर भी कक्षा के अन्दर के अपने बच्चों को देख सकें जबकि अन्दर से बच्चे बाहर का कुछ न देख पायें. अक्सर होता यह था कि मेरी पत्नी स्कूल की छुट्टी होने से पहले ही स्कूल चली जाती थी. जब भी वे कक्षा की खिड़की के बाहर खड़ी होती थीं और अगर बेटी की नज़र इत्तेफाक से खिड़की पर पड़ जाए तो वह उंगली से हवा में उनके चेहरे का रेखांकन सा करती हुई अपनी शिक्षिका से "माय मॉम!" कहती हुई बाहर आ जाती थी. यदि शिक्षिका उसकी बात पर अविश्वास करते हुए उसको पकड़कर वापस ले जाने की कोशिश करती तो वह रोना शुरू कर देती थी थी और बाहर आकर ही दम लेती थी. शिक्षिका बाहर आकर देखती तो माँ को सचमुच वहाँ उपस्थित देखकर आश्चर्यचकित रह जाती थी.

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* सम्बन्धित कड़ियाँ *
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* एक शाम बेटी के नाम
* इस्पात नगरी से - अन्य शृंखला
* जिंगल बेल - भारतीय संस्करण - कार्टून
* क्रिस्मस के 12 दिन - कार्टून
* तेरी है ज़मीं, तेरा आसमाँ