पहली कड़ी में - मेरा खोया हुआ मित्र मुझे फेसबुक पर मिल गया था।
दूसरी कड़ी में - जब मैं तुमसे मिलने और न मिलने की दुविधा के बीच झूल रहा था, तुमने मुझे देख लिया था।
पिछले अंश में - "मेरे एजी, ओजी के बारे में तो कुछ पूछा नहीं तुमने?" तुमने इठलाकर झूठे गुस्से से कहा।
अब आगे की कहानी ...
=========================
"कौन है वह खुशनसीब?" मैंने उत्सुकता से पूछा।
"बदनसीब..." तुमने शरारतन मेरी बात काटते हुए कहा।
"खुशनसीब...," मैंने तुम्हारे पति का सम्मान बरकरार रखने का प्रयास किया।
"नहीं, बदनसीब! खुशनसीब तो शादी करते ही नहीं।" तुम पहले जैसी ही ज़िद्दी थीं।
"मेरी शादी में क्यों नहीं आये थे?" तुमने शिकवा किया, "... ओह, हाँ! तुमने तो मुझसे बातचीत ही बन्द कर दी थी।"
मैं मुस्कराये बिना न रह सका। इतने दिन बाद फिर से तुम मुझे सताने का प्रयास कर रही थीं और इस बार भी असफल रहने वाली थीं। यद्यपि, इस बार कारण अलग था। मुझे पता था कि यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। और मैं इसे सुखद और विस्मरणीय बनाकर यादों की पिटारी की तलहटी में छुपाकर सदा के लिये भूल जाना चाहता था। मैं यहाँ एक और उलझन लेने नहीं बल्कि पिछली उलझन की गिरह खोलने आया था। मुझे तुमसे और कुछ नहीं केवल मुक्ति चाहिये थी।
थोड़ा सा नाज़ नखरा करने के बाद तुमने बताना शुरू किया। अपनी आदत के अनुसार बीच-बीच में बात बदलकर यहाँ वहाँ भटकाने की कोशिश भी करती रहीं। लेकिन मैंने भी एक सजग नाविक की तरह तुम्हारी नाव को मंझधार में अटकने नहीं दिया। मुझसे हाथ छुड़ाकर उस रात तुम जिस बस में चढ़ी थीं इतने दिनों में वह तुम्हें मुझसे बहुत दूर ले जा चुकी थी।
पता लगा कि तुम्हारे हबी (पति) एक वर्कैहौलिक (कर्मठ) हैं। बातें चलती रहीं तो यह स्पष्ट होने लगा था कि तुम्हारी दुनिया में सब कुछ उतना मनोरम नहीं था जितना कि मैं सोच रहा था। तुम्हारी सास एक रक्त-पिपासु चुड़ैल थी और तुम्हारा पति ममा’ज़ बॉय (माँ की उंगलियों पर नाचने वाला) था। माँ कहे तो उठना, माँ कहे तो बैठना। उसने तो यह शादी भी माँ के आदेश के पालन के लिये ही की थी। ताकि दो पुत्रों को जन्म देकर उन्हें स्वर्ग की अधिकारिणी बना सके।
“बधाई हो, अपनी तो अभी तक शादी भी नहीं हुई और आप दोहरी माँ भी बन गयीं।”
“ऐसी मोम की गुड़िया भी नहीं हूँ मैं कि किसी और की इच्छा पूरी करने के लिये बच्चों की लाइन लगा दूँ। शुरू में बहुत लड़ाइयाँ हुईं” काले रेशमी बाल झटककर तुम ऐसे मुस्कराईं जैसे काली घटा के पीछे से सूरज चमका हो।
“फिर क्या हुआ? वे मान गयीं क्या?”
“नहीं बुद्धू, हमने अलग घर ले लिया है। खानसामा रखना पड़ा, मगर अब रोज़-रोज़ की चख-चख नहीं है... खाना मंगाऊँ तुम्हारे लिये? सुबह के भूखे होगे।”
“माई क’लाल, मेरा मतलब है ममा’ज़ बॉय मान गया?” मैंने तुम्हारी मेहमाँनवाज़ी को नज़रअन्दाज़ करते हुए बातचीत की नाव आगे बढ़ाई।”
“ससुर का बहुत पैसा है। कई घर पहले से हैं। इस वाले खाली घर पर कुछ लोगों की नज़र थी। बिकने भी नहीं दे रहे थे। मैंने कहा, कुछ साल हम रह लेते हैं। खाली रहेगा तो कोई न कोई अन्दर घुस ही जायेगा। लालची ससुर को बात पसन्द आ गयी। सास ने थोड़ा तमाशा किया लेकिन फिर सब ठीक हो गया।”
मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि तुम इतनी समझदार थीं। लेकिन वह तुम्हारी नई ज़िन्दगी थी, मुझसे और मेरे आदर्शों से बिल्कुल अलग। मेरी पहुँच से दूर। पहली बार मुझे लगा कि अब तुम्हें अपनी समस्याएँ सुलझाने के लिये मेरी ज़रूरत नहीं थी। हो सकता है पहले भी न रही हो। अनजाने ही दायाँ हाथ अपने बायें कन्धे पर चला गया। तुमने मुलाकात होने पर गीला होता था, आज बिल्कुल सूखा था।
कहाँ तो बात करने के लिये कुछ भी नहीं था और अब न जाने कितनी बातें कर रही थीं तुम। भले ही तुम्हें मेरे कन्धे की ज़रूरत न रही हो मुझे सुनाने के लिये लम्बी कहानी थी तुम्हारे पास। ससुराल के आरम्भिक दिनों में कितना कुछ सहा था तुमने। दिग्जाम सूटिंग्स के मॉडल जैसा टाल, डार्क, धनी पर औसत शक्ल-सूरत वाला तुम्हारा पति तुम्हारे मोहिनी रूप का दुश्मन हो गया था। किसी से बात करते देख ले तो ईर्ष्या से जल जाता था। और उसके बाद कैसे-कैसे आरोप-प्रत्यारोप चलते थे। किस तरह दस-दस दिन तक अबोला रहकर धीरे-धीरे पति को काबू में किया है तुमने। कितनी बार बिना बताये घर से निकलकर तीन-तीन हफ्ते तक मायके जाकर रही हो और उसके हज़ार बार नाक रगड़ने पर ही वापस आयी हो। क्या-क्या गान्धीगिरी नहीं करनी पड़ी थी तुम्हें। एक बार दफ्तर से जल्दी घर आकर उसकी सारी किताबें रद्दी में बेच दी थीं। एक बार अपना गुस्सा दिखाने के लिये रात भर जागकर तुमने शादी की एल्बम के हरेक चित्र में से अपना चेहरा काट कर निकाल दिया था।
“जो हुआ सो हुआ, अब तो सब ठीक है न?”
“पहले से काफी बेहतर है। वैसी लड़ाई नहीं होती है। मैंने तो कह रखा है कि अगर अब लड़ाई हुई तो मैं जहर खा लूंगी लेकिन उससे पहले चिट्ठी में लिख दूंगी कि ससुराल वाले दहेज़ मांगते हैं। सारा घर फाँसी चढ़ेगा या चक्की पीसेगा।”
तुमसे नज़र बचाकर मैंने अपनी चिकोटी काटी। मुझे विश्वास नहीं आ रहा था कि यह सब बातें मैं तुम्हारे मुँह से सुन रहा था। तुम फिर से मुस्कराई थीं। गुलाब की पंखड़ियों के पीछे छिपी मोतियों की माला फिर से चमकने लगी। इस बार मैंने ध्यान से देखा, तुम्हारे साइड के दो दाँत काफी नुकीले थे और बारीक नशीले होठों पर करीने से लगी हुई लाली से मिलकर काफी डरावने से लग रहे थे। क्या समय के साथ लोग इतना बदल जाते हैं? या मैंने शुरू से ही तुम्हें पहचानने में गलती की थी? शायद इतने ध्यान से कभी देखा ही नहीं था।
“कहा था न गुरु, बच गये! अब चुपचाप निकल लो ...” राजा वहाँ नहीं था, केवल मेरा भ्रम था।
“अच्छा, अब मैं चलूँ क्या?” मैंने उठने का उपक्रम किया।
“जल्दी क्या है? तुम्हारा कौन घर में इंतज़ार कर रहा है?” तुम व्यंग्य से हँसीं।
“एक दोस्त से मिलना है। सुबह से बाट जोह रहा है।” मैंने सफाई सी दी।
“लड़का या लड़की? यहाँ हम बिना बात इतने खुश हो रहे थे। लगा मुझसे मिलने आये हो। जहाँपनाह अपने दोस्त से मिलने आये हैं। जाओ कभी बात नहीं करना अब।” तुम फिर से रूठ गयी थीं। लेकिन इस बार मेरे दिमाग पर कोई बोझ नहीं था।
[क्रमशः]
===========================
मेरी कुछ और कहानियाँ
===========================