Sunday, February 21, 2010

उठ दीवार बन

नरक के रस्ते से काफी बचना चाहा लेकिन फिर भी कुछ कहे बिना रहा न गया. स्वप्न-जगत से एक छोटा से ब्रेक ले रहा हूँ. तब तक गिरिजेश राव के "नरक के रस्ते" से प्रेरित कुछ अनगढ़ सी पंक्तियाँ प्रस्तुत है:

इंसान बलिश्ते क्यूँ अवरोध दानवी क्यूँ
प्रश्न सभी अपने रह जाते अनुत्तरित क्यूँ

क्यूँ त्याग दधीचि का भूदेव भूमिगत क्यूँ
ये सुरेश पराजित है वह वृत्र वृहत्तर क्यूँ

इस आग का जलना क्यूँ दिन रात सुलगना क्यूँ
ये नरक बनाते कौन इसमें से गुज़रना क्यूँ

दिल क्यूँ घबराता है यूँ दम घुटता है क्यूँ
चल उठ दीवार बनें बेबात का डरना क्यूँ

(अनुराग शर्मा)

Friday, February 19, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [6]

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अलार्म से पहले उठना - मेरा अवलोकन
प्रतिदिन एक ही समय पर उठने की बात और है. मगर हर दिन के अलग-अलग अलार्म से कुछ क्षण पहले उठने का अजूबा? आज सुबह मेरे उठने के पल भर बाद मेरे सेलफोन का छह बजे का अलार्म बजने लगा. मैंने तुरंत उसे बंद किया और देखा कि फ़ोन में छह बजकर दो मिनट हो चुके थे. मतलब यह कि अलार्म बजने से उसके बंद होने तक 2 मिनट से अधिक (और 3 से कम) गुज़र चुके थे जो मेरे अंदाज़े के एक पल से कहीं अधिक है. स्पष्ट है कि मैं अलार्म के दो मिनट तक बजते रहने के बाद उठा था मगर मेरे दिमाग को या तो इसका कतई भान नहीं था या फिर सोने और जागृति के बीच के पल में ऐन्द्रिक (श्रवण) अनुभूति ग्रहण करने में कोई रुकावट आई थी. और मैं इसी भ्रम में जीता रहा हूँ कि अलार्म मेरे जागने के बाद बजता है. पुरानी अनालॉग टाइमपीस घड़ी में यह संवेदी देरी पहचानना आसान नहीं है खासकर जब आप उठकर जल्दी से अपनी रेल, बस या जहाज़ पकड़ने की फ़िक्र में हों. मगर आजकल डिजिटल घड़ियों ने यह काम आसान कर दिया है. समीर जी और मुसाफिर भाई, अगली बार बारीकी से समय ज़रूर चेक करिये.

एक किस्सा
आधी रात में कुछ खड़खड़ होती है और आँख खुल जाती है. देखता हूँ कि बैठक में पड़े सोफे पर सो रहा हूँ. हल्का सा आश्चर्य भी होता है, फिर याद आता है कि शाम को ज़्यादा थक गया था. सामने की दीवार पर बहुत बड़ी (लगभग 5x12 वर्ग फुट) आयताकार खिड़की है. यहाँ आमतौर पर खिडकियों, दरवाजों के बाहर लोहे की सलाख या लकड़ी की किवाड़ आदि नहीं होते हैं. खिड़की में से चांदनी छनकर अन्दर आ रही है. आसमान बहुत साफ़ है. तारे झिलमिला रहे हैं और चौदहवीं का चांद बहुत सुन्दर दिखाई दे रहा है. रात में भी खिड़की इतनी साफ़ है कि मुझे लगता है मानो उसमें शीशा हो ही नहीं. मैं ध्यान से देखता हूँ तो पाता हूँ कि शीशा सचमुच नहीं है. मतलब यह कि खिड़की के नाम पर बस दीवार में एक बड़ा सा खाली छिद्र है.

अब मुझे खड़खड़ की उस आवाज़ की फ़िक्र होती है जिसकी वजह से मेरी आँख खुली थी. मैं साँस रोककर सुनता हूँ, कुछ नहीं है, मुझे पुलिस अधिकारी फूफाजी की बात याद आती है कि फिल्मों में दिखाई जाने वाली बातों से उलट असली ज़िन्दगी में चोरी-चकारी जैसे व्यवसाय को अपनाने वाले लोग काफी काहिल और लालची किस्म के लोग होते हैं. यदि उन्हें ज़मीन पर ही कुछ चुराने को मिल जाए तो वे एक मंजिल भी नहीं चढ़ते. अगर खिड़की खुली मिल जाए तो वे ताला तोड़ने की ज़हमत नहीं करते.

उनकी बात याद आते ही मुझे इस तथ्य का संतोष होता है कि मेरा अपार्टमेन्ट पाँचवीं मंजिल पर है. फिर भी ऐसा क्यों लगता है जैसे कि सोफे के पीछे दो क़दमों की आवाज़ आयी थी? मैं फिर से सोचता हूँ, तब याद आता है कि पाँचवीं मंजिल पर तो पिछ्ला अपार्टमेन्ट था, यह वाला तो ग्राउंड फ्लोर पर ही है. मुझे अपनी इस बेवकूफी पर ताज्जुब होता है. अब मैं बिलकुल चौकन्ना होकर लेटा हूँ. आँख नाक कान सब खुले हैं. तभी...

तभी सामने का दरवाज़ा खुलता है. इसके साथ ही मैं एक क्षण गँवाए बिना "कौन है?" चिल्लाता हुआ चादर फेंककर दरवाज़े तक पहुँच जाता हूँ. देखता हूँ कि दरवाज़े पर श्रीमती जी खड़ी हैं. ताला उन्होंने अपनी चाबी से खोला था. कल रात हम सब उनकी बहन का जन्मदिन मना रहे थे. मेरा कुछ काम रह गया था सो मैं जल्दी वापस आ गया था और काम पूरा करके बाहर सोफ़े पर ही सो गया था. वे रुक गयी थीं और अभी वापस आयी थीं. पत्नी से पूछता हूँ कि क्या उन्होंने मुझे कुछ कहते सुना, उनका जवाब नकारात्मक है. बताने की ज़रूरत नहीं कि मेरे चादर फेंकने से पहले तक की हर बात एक स्वप्न का हिस्सा थी. सुबह हो चुकी थी और सोफा के सामने वाली दीवार पर कोई खिड़की नहीं थी.

स्वप्न को गतिमान करने में माहौल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. उपरोक्त स्वप्न पूरी तरह मेरी पत्नी के क़दमों की आवाज़ और दरवाज़ा खोलने के प्रयत्न से संचालित था. फूफाजी से चोरों के विषय में मेरी कोई बात कभी नहीं हुई थी. यह विचार मेरे दिमाग में ठीक उसी तरह आया जैसे कि जागृत अवस्था में आया होता. मगर ख़ास बात यह है कि यह विचार किसी बीती हुई घटना पर आधारित न होकर उसी समय की परिस्थिति की प्रतिक्रया स्वरूप बना था. हाँ स्वप्न में यह दुविधा ज़रूर थी कि अपार्टमेन्ट किस मंजिल पर है क्योंकि मैं अतीत में विभिन्न मंजिलों पर रह चुका था. वैसे यह वाला अपार्टमेन्ट पाँचवीं मंजिल पर ही था.

यह सपना किसी सामान्य सपने जैसा ही है मगर यहाँ इस विशेष सपने का ज़िक्र करना मैं बहुत ज़रूरी समझता हूँ क्योंकि यह सपना कई महत्त्वपूर्ण बातें बता रहा है. क्या आप अंदाज़ लगा सकते हैं इतना विस्तृत सपना देखने में मुझे कितनी देर लगी होगी और क्यों?

[क्रमशः]

Thursday, February 18, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [5]

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स्वप्न के बारे में आगे बात करने से पहले जल्दी से हमारे दिमाग द्वारा हमारे साथ अक्सर लिए जाने वाले कुछ पंगों पर एक नज़र डालते चलें.

अलार्म से पहले उठना
हम सभी ने अनुभव किया होगा जब हम सोने से पहले अलार्म लगाते हैं और सुबह को उससे पहले ही उठ जाते हैं. यदि आप रोज़ एक ही समय का अलार्म लगाते हैं तो आपकी जैव-घड़ी उस समय की अभ्यस्त हो चुकी है. जिन्हें काम के सिलसिले में अलग-अलग जगहों की यात्राएँ करनी पड़ती हैं उनको हर बार अलग-अलग समय का अलार्म लगाना पड़ता है. मेरे साथ ऐसा होता था और मेरी जैव-घड़ी को किसी भी अलार्म के समय के बारे में जानने या उसका अभ्यस्त होने का कोई तरीका नहीं था. फिर भी मैं लगभग हमेशा ही अलार्म से कुछ क्षण पहले उठ जाता था. अलार्म मेरे सामने बजता था और मैं आश्चर्य करता था कि मेरी जैव घड़ी को आज के समय के बारे में कैसे पता लगा. काफी खोजा, पूछा, पढ़ा परन्तु इसका स्पष्टीकरण मुझे नहीं मिला. क्या आपके साथ ऐसा हुआ है? अगली कड़ी में मैं अपना अवलोकन सामने रखता हूँ.

संज्ञानात्मक मतभेद
संज्ञानात्मक मतभेद (Cognitive dissonance) एक ऐसी दर्दनाक स्थिति है जिसमें विपरीत-धर्मी विचार एकसाथ उपस्थित होते हैं. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन का विषाद इसका उदाहरण हो सकता है. कोई और अच्छा उदाहरण ध्यान में नहीं आ रहा है. एक सतही उदाहरण की कोशिश करता हूँ जहां एक अहिंसक व्यक्ति जल्लाद की नौकरी करता है और वह अपराधी को फाँसी चढाते वक्त, "हुक्म है सरकार का, मैं बेक़सूर हूँ" कहकर आराम से घर आकर भोजन कर पाता है क्योंकि उसके मानस में यह बात पक्की है कि फाँसी का कृत्य सरकार के आदेश से और मृतक के अपराध से तय हुआ है न कि उस जल्लाद के वहाँ होने से. हमारा मस्तिष्क भी उस जल्लाद की तरह हमें संज्ञानात्मक मतभेद से बचाने का भरसक प्रयत्न करता रहता है और उसके लिए भ्रम बनाता रहता है. नतीजा यह कि कई बार हमें चीज़ें वास्तविकता से भिन्न दिखती हैं.

देजा व्यू
बहुत से लोगों ने जीवन में कभी न कभी ऐसा महसूस किया है कि जो कुछ घट रहा है वह पहले घट चुका है. कई बार तो यह अनुभव इतना अलौकिक होता है कि आप काफी देर तक पहले से यह सोच पाते हैं कि इस घटना का अगला एक्ट क्या होगा. सब कुछ एक नाटक की तरह घटता जाता है. इस घटना को देजा वू या देजा व्यू (Déjà vu फ्रेंच = पहले देखा हुआ) कहते हैं. देजा व्यू में हम जिस प्रकार से वर्तमान को अतीत में हो चुका पाते हैं वह मुझे एक तरह से एक भविष्यवक्ता स्वप्न की विपरीत (या पूरक) अवधारणा जैसी लगती है. मेरे एक अमरीकी सहकर्मी लगभग हर मास देजा व्यू का अनुभव करते हैं जबकि मुझे इसका अनुभव बचपन में सिर्फ एक बार एक प्रियजन की मृत्यु के समय हुआ था.

देजा व्यू होता है इस पर वैज्ञानिकों में कोई असहमति नहीं है. इसकी व्याख्या करने के प्रयास भी हुए हैं. उनका ज़िक्र करने से पहले एक छोटा सा प्रयोग करते हैं. आप अपने हाथ से अपनी नाक को छुएँ और बताएँ कि पहले आपका हाथ नाक से छुआ या नाक हाथ से? आप कहेंगे कि दोनों एक साथ छुए. बात सच है. दोनों एक साथ छुए हैं और आपके दिमाग ने भी यही बात आपको बिलकुल सच-सच बताई. ख़ास बात यह हुई कि सच को सच जैसा दिखाने के लिए दिमाग ने आपसे एक छोटा सा धोखा किया. आपकी नाक के स्पर्श का संकेत दिमाग तक काफी पहले पहुँच गया था मगर उसने यह राज़ आपको तब तक नहीं बताया जब तक कि उसे वही संकेत आपके हाथ से नहीं मिला. ताकि आप कहीं इस संज्ञानात्मक मतभेद में न पड़ जाएँ कि नाक पहले छुई और हाथ बाद में. इस प्रकार जिस अनुभव को आप रियलटाइम समझते हैं उन सबको आपका दिमाग कुछ देर रोककर, उनमें से सारी विसंगतियाँ हटाकर फिर आपको सौंपता है. इस घटना को संवेदी देरी (Sensory delay) कहते हैं.

जब कभी किसी कारणवश (थकान, चुस्ती या कुछ और?) संवेदी देरी का काम गड़बड़ा जाता है तो हमें देजा व्यू जैसे अजीबोगरीब अनुभव होते हैं. हाथ का सन्देश मिलने पर नाक का सन्देश याद आता है और मन कहता है कि यह घटना पहले हो चुकी है.संवेदी देरी के सन्दर्भ में विस्तार से जानने के इच्छुक डेविड ईगलमैन (David M. Eagleman) का अंग्रेज़ी में लिखा लेख "ब्रेन टाइम" पढ़ सकते हैं.

इन्द्रियारोपित सीमाएँ (Sensory limitations)
अगर कभी आपको दो तीन लोगों से एक साथ अलग अलग विषय पर बात करनी पडी हो तब आपने देखा होगा कि आपके कथन उन्हें भ्रमित कर सकते हैं क्योंकि आपका दिमाग भले ही सारी बातचीत आराम से कर पाए आपका मुँह तो एक समय में एक ही व्यक्ति से बात कर सकता है. बोलते समय जब आपके मन में विचार बहुत तेज़ी से आते हैं तो आप हकलाने लगते हैं. यह मुख की सीमा है. ऐसी ही सीमा आँखों, हाथ, पाँव आदि शरीर के सभी अंगों और इन्द्रियों की हैं. हम कुछ ही क्षणों में अपने मन में एक पूरा आलेख बना लेते हैं मगर इन्हीं इन्द्रियारोपित सीमाओं के कारण उसे ब्लॉग पर ठीक-ठाक रूप में लिखने में लंबा समय लगता है.

स्वप्न - कितना याद रहा
स्वप्न में हम इन सब इन्द्रियारोपित सीमाओं से मुक्त होकर असीमित छवियों को एक साथ अनुभव कर सकते हैं, अनेकों लोगों से एक साथ घंटों बात कर सकते हैं, मीलों चल सकते हैं, और अपने जीवन में अब तक घटे सारे महत्वपूर्ण क्षणों को एक साथ देख सकते हैं. मतलब यह कि एक नन्हे से समयांतराल का स्वप्न आपको वह सब दे सकता है जो वास्तविकता में आप लम्बे समय तक नहीं कर सकते हैं. जागने पर आप यह सब भूल जाते हैं. [क्यों भूलते हैं इस पर भी बात करेंगे, मगर बाद में.] लेकिन अगर आप स्वप्न के दौरान जग जाते हैं तो यह लंबा (जागृत समय के अनुपात में) अनुभव न तो पूरी तरह याद रह सकता है और न ही हम इसके संज्ञानात्मक मतभेद झेल सकते हैं. इसलिए जहाँ तक संभव होता है हमारा मस्तिष्क समांतर घटी अनेक असम्बद्ध घटनाओं में से याद रहे अंशों को क्रम में आगे-पीछे जोड़कर यथासंभव एक तार्किक सी कहानी बनाता है. आम तौर पर हमारा सपना वह सब नहीं है जो हमने देखा बल्कि उसके सारांश रूप बची हुयी यह कहानी ही होता है.

अगली कड़ी में अलार्म से ठीक पहले की जागृति का मेरा अनुभव, व्याख्या और एक रोचक स्वप्न पर विचार.
[क्रमशः]