Sunday, May 1, 2011

शब्दों के टुकड़े - भाग 2

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विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। मन में ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा चटख/क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं।

1. दोष देना सीख लिया तो कुछ और क्यों सीखें?
2. छोटी-छोटी दीमकें बडे-बडे पेड गिरा देती हैं।
3. कुछ और होने से बुद्धिमान होना अच्छा।
4. लत सही ठहराने वाले से तो लती बेहतर है।
5. परेशानी प्यार करने से नहीं, जान खाने से होती है।
6. दिशाहीन इच्छाशक्ति बेमतलब ही नहीं हानिप्रद भी हो सकती है।
7. सुनहरा दिल होना काफी नहीं है, सक्षम पाँव और कुशल हाथ भी चाहिये।
8. ज़िम्मेदारी किसकी थी कहने से समस्या हल नहीं होती।
9. जिसे दी उसे समझ ही न आये, ऐसी सलाह बेकार है।
10. दिल का दर्द शब्दों में कहाँ बंधता है?
11. अगर आप मेरी बात का कोई भाग सुन न सके हों तो वह हिस्सा दोहरा दें, ताकि में फिर कह सकूँ।
12. जो बात अनसुनी रह गयी उसका कहना बेकार गया।
13. चिंता छोडो, कर्म करो।
14. समय - कल अच्छा था, आज बेहतर है, कल स्वर्णिम होगा/करेंगे।
15. रुपए भर की कमाई जितना बडा बनायेगी, सैकड़ों की भीख नहीं।
16. सचेत रहो, दुर्भाग्य निर्मम शिकारी है।
17. कर्कश गायन मुझे नापसन्द है भले ही मेरे स्वर में हो।
18. बुद्धिमान साम्य ढूंढते है परंतु अंतर का अपमान नहीं करते।
19. सच्ची निराशा से झूठी आशा बेहतर।
20. हम संसार को अपने अज्ञान की सीमाओं में ही समझते हैं।
21. मुझे दु:ख कुछ छोडने का नहीं, खुद से छूटने का है।

... और अब, पिछली बार का छूटा हुआ अनुवाद:
It's not the food that kills, it's the company.
22. दावत तो झेल लूँ मगर यजमान को कैसे झेलूँ?

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* शब्दों के टुकड़े - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6
* मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* सत्य के टुकड़े
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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा:: Photo by Anurag Sharma]
पिट्सबर्ग में ट्यूलिप

Tuesday, April 26, 2011

शब्दों के ये अजीबोगरीब टुकड़े

किसी अदीब ने इक बार
इन्हें बताया था मोती
असलियत में तो बस
एक टूटा मुस्तक़बिल हैं

अभिषेक ओझा का "खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २)" पढा तो याद आया कि कुछ मिसरे मेरी झोली में भी हैं। अभिषेक के कथनों जितने खूबसूरत भले न हों, फिर भी उनकी अनुमति से आपके नज़रे इनायत हैं:

1. जो जूते बचाने जाते हैं, वे पैर गंवाकर आते हैं।
2. समय बाँटने के मामले में ईश्वर साम्यवादी है।
3. भविष्य प्रकाशित होगा, दिया जलाया क्या?
4. चले थे दुनिया बदलने, मांग रहे हैं चन्दा।
5. जीवन नहीं बदला है, केवल मेरी दृष्टि बदली है।
6. नाच का अनाड़ी कैसे भी एक टेढा आंगन ढूंढ ही लेता है।
7. खुद करें तो मज़ाक, और करे तो बदतमीज़ी।
8. हर रविवार के साथ एक सोमवार बन्धा है।
9. मैंने जीवन भर अपने आप से बातें की हैं। सच तो सच ही रहेगा, कोई सुने न सुने।
10. मेरे शव में से चाकू वापस निकालकर आपने मुझ पर अहसान तो नहीं किया न?
11. कितने निर्धन हैं वे जिनके पास धन के अलावा कुछ भी नहीं है।
12. जिसने दोषारोपण किया ही नहीं, उसे "फॉरगिव ऐंड फॉरगैट" जैसे बहानों से क्या काम?
13. आत्मकेन्द्रित जगत में दूसरों का सत्य घमंड लगता है और अपना कमीनापन भी खरा सत्य।
14. शहंशाह को भिक्षा कौन देगा?
15. मामूली रियायत मतलब बडी इनायत।
16. खुशी कोई चादर तो है नहीं कि दिल किया तो ओढ ली।
17. सृजन काम न आये तो अनुवाद करके देखो। वह भी बेकार जाये तो विवाद का ब्रह्मास्त्र तो है ही।
18. बोर को पता होता कि वह बोर है तो वह बोर होता ही क्यों?
(बोर वह होता है जो बोर करता है)

... और भी हैं परंतु बोरियत की एक बडी डोज़ एक ही बार में देना भी ठीक नहीं है। आज के लिये बस एक और जिसका अनुवाद नहीं हुआ है:
It's not the food that kills, it's the company.
[क्रमशः]

[डिस्क्लेमर: ऊलजलूल सोच पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है। अगर किसी महापुरुष ने मिलती-जुलती (या एकदम यही) बात पहले कही है तो उनसे क्षमाप्रार्थना सहित। हाँ मार्क ट्वेन या गुरुदत्त ने कही हो तो बात और है, वे तो मेरे ही पूर्वजन्म थे।]
[अनुवाद आभार: आचार्य गिरिजेश राव]
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* शब्दों के टुकड़े - भाग 1, भाग 2, भाग 3, भाग 4, भाग 5, भाग 6
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* सत्य के टुकड़े

Friday, April 15, 2011

नाउम्मीदी - कविता


निराशा अपने मूर्त रूप में

जितनी भारी भरकम आस
उतना ही मन हुआ निरास

राग रंग रीति इस जग की
अब न आतीं मुझको रास

सागर है उम्मीदों का पर
किसकी यहाँ बुझी है प्यास

जीवन भर जिसको महकाया
वह भी साथ छोडती श्वास

संयम का सम्राट हुआ था
बन बैठा इच्छा का दास

जिसपे किया निछावर जीना
वह क्योंकर न आता पास

कुछ पल की कहके छोड़ा था
गुज़र गये दिन हफ्ते मास

तुमसे भी मिल आया मनवा
फिर भी दिन भर रहा उदास

जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया वनवास

अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास

(चित्र ऐवम् कविता: अनुराग शर्मा)