शहीदों को तो बख्श दो की पिछली दो कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉंग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में अपनी आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉंग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉंग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था।
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
अब आगे :-
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ताज़ा हालत ही देखें तो एक ही प्रदेश बंगाल में एक दस्ता क्रांति के नाम पर निरीह जनता पर लाल माओवादी आतंक फैलाकर वसूली के बदले में बडे तस्करों, अपराधियों, वनसम्पदा-शिकारियों, हत्यारों आदि को संरक्षण देता रहा और दूसरा दस्ता ग़रीब किसानों की कृषियोग्य भूमि जबरन कब्ज़ियाकर बडे व्यवसाइयों को कृतार्थ करता रहा। मगर हिंसक राजनैतिक विचारधाराओं में जन-संहार शायद मामूली बात है, बडी चीज़ तो प्रचार है और प्रचार के लिये आवश्यकता होती है एक ब्रैंड ऐम्बैसैडर की, एक आयकन की, एक देवता की। लेकिन जिन्होंने सदा बुतशिक़नी की हो वे देवता कहाँ से लाते? जनमानस से पूरी तरह कटी हुई विचारधारा इस राष्ट्र के सबसे स्वीकृत नायकों राम, कृष्ण, परशुराम, बुद्ध, महावीर, गांधी, विनोबा, अम्बेडकर आदि और भग्वद्गीता, क़ुर'आन आदि जैसे प्रतीकों को तो पहले ही नकार चुकी थी। पार्टी ने लेनिन, स्टालिन, माओ, पोल-पोट, कास्ट्रो जैसे नृशंस तानाशाहों की बुतपरस्ती की भी मगर उन हत्यारे खलनायकों की कलई पहले ही खुल चुकी थी। तब अपना जनाधार बनाने के लिये खोज शुरू हुई ऐसे सर्वमान्य क्रांतिकारियों की जिन्हें अपने पक्ष का बताया जा सके। शहीदों में से छांटकर अपनी राजनैतिक महत्वाकान्क्षा पर फ़िट किये जा सकने वाले ऐसे व्यक्तित्व ढूंढे जाने लगे जिनकी जन-मान्यता को भुनाया जा सके। दाम का मुझे पता नहीं पर दण्ड और भेद नाकाम होने पर कम्युनिस्टों ने इस बार साम का मोहरा चलने की सोची। अफ़सोस कि अधिकांश क्रांतिकारी भी गीता से प्रेरित निकले। अब क्या हो? आशायें टिकी हैं - एक पत्र पर - सरदार भगतसिंह का पत्र – मैं नास्तिक क्यों हूँ।
किसी देशभक्त भारतीय ने अपने शहीदों का आदर करने से पहले कभी यह चैक नहीं किया होगा कि वे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आस्तिक, नास्तिक या कम्युनिस्ट में से क्या थे। हमारे लिये तो भगत सिंह भी उतने ही आदरणीय हैं जितने बिस्मिल या आज़ाद। लेकिन लगता है कि उस पत्र की आड़ लेने वाले लोग किसी आस्तिक क्रांतिकारी का आदर करने में अपनी हेठी समझ रहे हैं। इसीलिये वे एक स्वतंत्रता सेनानी को भी केवल तब स्वीकार करेंगे जब वह नास्तिक साबित हो जाय। मैं पूछता हूँ कि कल को यदि न्यायालय में यह साबित हो जाये कि विज्ञापित किया जाने वाला पत्र भगतसिंह ने कभी लिखा ही नहीं तो क्या ये पत्रवाहक शहीदे-आज़म की मूर्ति पर फूल माला चढाना बन्द कर देंगे? यदि “नहीं” तो फिर उनकी नास्तिकता पर इतना उछलना क्यों? यदि “हाँ” तो लानत है ऐसी विचारधारा पर जो अपनी मातृभूमि पर निस्वार्थ जान देने वालों का आदर करने की भी शर्तें लगाये।
कम्युनिस्ट विचारधारा समर्थकों द्वारा पिछले कुछ दशकों से भगतसिंह के व्यक्तित्व को छांटकर उन्हें एक देशभक्त हुतात्मा मानने के बजाय बार बार उन्हें एक कम्युनिस्ट या सिर्फ़ एक नास्तिक बताने के सश्रम प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसे ही एक आलेख में उन्हें सीधे कम्युनिस्ट ही कह दिया गया है। क्या किसी कामरेड के पास भगत सिंह की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता की पर्ची, रसीद, किसी आधिकारिक पत्र पर हस्ताक्षर, किसी कम्युनिस्ट सभा में भाषण का विवरण है? मगर वह सफ़ेद (या लाल?) झूठ ही कैसा जिसे सौ बार लिखकर उसे सच बनाने का प्रयास न हो। जनता के अवचेतन पर भगतसिंह की छवि बदलने के निन्दनीय प्रयास में उनके श्वेत-श्याम चित्र में उनके साफ़े को लाल रंग दिया जाता है। इंटरनैट पर एक नज़र मारने पर आपको लेनिन और माओ जैसे नृशंस दानवों के बीच बिठायी हुई भगतसिंह की तस्वीर भी आसानी से मिल जायेगी। शहीद भगतसिंह जैसे राष्ट्रीय गौरव के महान व्यक्तित्व को एक संकीर्ण विचारधारा या दल से बांधकर उनके क़द को कम करने की कोशिश बहुत बुरी है और किसी भी स्वाभिमानी देशभक्त के लिये नाकाबिले-बर्दाश्त भी।
[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* Was Bhagat Singh shot dead?
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
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"कम्युनिस्ट नेता भारत पर हमला करने वाले चीन का स्वागत करना चाहते थे।" ~ रोज़ा देशपाण्डे (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक श्रीपाद अमृत डांगे की पुत्री)क्रांतिकारियों के कारनामों और कॉंग्रेस की राजनैतिक पहल से अंततः भारत स्वतंत्र तो हुआ। टूटे दिल से ही सही विभाजन की त्रासदी स्वीकार करके तत्कालीन नेताओं ने नव-स्वतंत्र राष्ट्र को एक लम्बे चलने वाले विनाशक गृहयुद्ध से बचा लिया और पाकिस्तान को मान्यता देकर दो नये देशों के लिये एक शांतिपूर्ण भविष्य की आशा की। जिन्होंने आज़ादी से पहले राष्ट्र की पीठ में छुरे घोंपे थे उन्हें बाद में भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। भारतीय कम्युनिस्टों के एक दल ने चीन द्वारा तिब्बत हज़म करने और सिक्किम व भूटान को धमकाने के बाद भारत पर हुए अनैतिक हमले के बाद भी भारत पर ही अपना (लोकतांत्रिक?) साम्राज्यवाद चीन पर थोपने का आरोप लगाया। ऐसे मौके कम नहीं आये जब इस दल के विभिन्न घटकों ने अपने कई सशस्त्र अराजनैतिक दस्ते बनाकर देश के विभिन्न भागों में अराजकता फ़ैलाई, हत्यायें की और जन-संसाधनों का विनाश किया।
"मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट नहीं, कोई मूर्ख ही होगा जो किसी समाजवादी देश (चीन) को हमलावर मानेगा।" ~ कम्युनिस्ट नेता पी. राममूर्ति भारत पर कम्युनिस्ट चीन के हमले के सन्दर्भ में
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क्रांतिकारियों पर कम्युनिस्ट चिह्न मत थोपो |
"न तो हम आतंक के प्रणेता हैं और न ही देश पर कलंक जैसा कि नकली समाजवादी दीवान चमनलाल ने आरोप लगाया और न ही हम पागल हैं जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून व अन्य पत्रों ने जताया है" ~भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त (दिल्ली सेशंस कोर्ट में 8 जून 1929 का बयान)आजकल कम्युनिस्ट विचारकों की ओर से भगतसिंह का कहा जाने वाला यह पत्र काफी विज्ञापित किया जा रहा है। इंटरनैट पर जगह जगह सायास बिखेरे गये इस पत्र के हवाले से यह जताया जा रहा है जैसे कि भगतसिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये थे। इस पत्र पर आधारित कुछ आलेखों द्वारा ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे कि अन्य सेनानी आस्तिक होने के कारण उतने खास नहीं रहे कि विदेशी विचारधारा आयात करने वाला यह दल उनका आदर कर सके। बल्कि कई क्रांतिकारियों की तो बाकायदा छीछालेदर की गयी है। एक आम भारतीय के लिये यह समझना मुश्किल है कि कोई दल ऐसा क्यों करेगा। आखिर शहीदों में भेद डालने के प्रयास के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
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शहीदों पर लाल रंग मत लादो |
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शहीदे आज़म को हत्यारों के बीच खडा मत करो |
[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* Was Bhagat Singh shot dead?