Sunday, October 14, 2012

शब्दों के टुकड़े - भाग 4

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले तीन आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।
1. स्वतंत्रता कभी थोपी नहीं जा सकती। थोपते ही वह दासत्व में बदल जाती है।
2. इतिहास अब मिटाया नहीं जा सकता और भविष्य अभी पाया नहीं जा सकता।
3. आज के लोभ को कल का लाभ देखने की फ़ुर्सत कहाँ।
4. भविष्य किसने देखा है? बहुतेरे तो भूत भी नहीं देख पाते।
5. अफ़वाहों की समय सीमा (एक्सपायरी डेट) निर्धारित होनी चाहिये।
6. गिलास आधा खाली है या आधा भरा यह शंका समाप्त करनी है तो उसे पूरा भरना होगा।
7. रिश्ते अक्सर वनवे ट्रैफ़िक की तरह होते हैं। कोई देने के भार से दुखी है कोई लेने के।
8. इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ अस्थाई है, हम भी। (सर्वम् क्षणिकम्)
9. कुछ लेख संग्रहणीय होते हैं, पढे तो बाकी भी जाते हैं।
10. पूँजीवाद का सबसे अमानवीय रूप साम्यवाद कहलाता है।

पिछले अंक में अंग्रेज़ी में लिखे दो कथन जिनका हिन्दी अनुवाद निशांत मिश्र के सहयोग से हुआ
11. गर्भधारण का झंझट न हो तो माँ-बाप बनना सहज है।
12. कला कोई मेज़-कुर्सी तो है नहीं जो अपने बूते पर टिक सके।

आज आपके लिये कुछ कथन जिसका अनुवाद मुझसे नहीं हो सका। कृपया अच्छे से हिन्दी अनुवाद सुझायें:

  • I have so many friends that I can't count. Can I count on them?
  • Every outsider is a potential insider from the "other" side!
  • What finish line? Nice guys never cared about rat race.

पिट्सबर्ग का एक विहंगम दृश्य

=================================
सम्बंधित कड़ियाँ
=================================

* शब्दों के टुकड़े - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6
मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* सत्य के टुकड़े - कविता
* खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २) - अभिषेक ओझा
==================================

Sunday, October 7, 2012

भारत बोध - कविता

(चित्र, भाव व शब्द: अनुराग शर्मा)

असम धरातल, मरु है विषम ...

इतना ज़्यादा
होकर भी कम

असम धरातल
मरु है विषम

कैसे साथ
निभायेंगे हम

कहीं मिला न
कोई मो सम

कहाँ रहे तुम
कहाँ गये हम

मन हारा और
जीत रहे ग़म

पत्थर आँख न
होती है नम

साँस बची पर
निकला है दम

ज्योतिपुंज न
बने महातम

सर्वम दुःखम
सर्वम क्षणिकम

Saturday, September 29, 2012

ये सुबह सुहानी हो - इस्पात नगरी से [60]


शामे-अवध और सुबहे बनारस की खूबसूरती के बारे में आपने सुना ही होगा लेकिन पिट्सबर्ग की सुबह का सौन्दर्य भी अपने आप में अनूठा ही है। किसी अभेद्य किले की ऊँची प्राचीर सरीखे ऊँचे पर्वतों से अठखेलियाँ करती काली घटायें मानो आकाश में कविता कर रही होती हैं। भोर के चान्द तारों के सौन्दर्य दर्शन के बाद सुबह के बादलों को देखना किसी दैवी अनुभूति से कम नहीं होता है।  
मोनोंगैहेला नदी की धारा के ऊपर वाष्पित जल की एक धारा सी बहती दिखती है। लेकिन पुल के ठीक सामने की पहाड़ी को बादलों की चिलमन ने जैसे छिपा सा लिया है। चिड़ियाघर के लिये बायें और बड़े बाज़ार के लिये दायें, जहाँ जाकर मोनोंगैहेला का संगम ऐलेगनी नदी से होगा और फिर वे दोनों ही अपना अस्तित्व समाप्त करके आगे से ओहायो नदी बनकर बह जायेंगी।

लीजिये हम नगर की ओर जाने के बजाय चिड़ियाघर की ओर मुड़ गये। सामने की सड़क का नाम तो एकदम सटीक ही लग रहा है। भाँति-भाँति के वन्य प्राणी जब नगर के भीतर एक ही जगह पर चौपाल सजा रहे हों तो उसे "वन वाइल्ड प्लेस" से बेहतर भला क्या नाम दिया जा सकता है।
अरुणोदय की आहट सुनते ही बादलों की चादर झीनी पड़ने लगती है और अब तक सोयी पड़ी लाल सुनहरी किरणों से शस्य श्यामला धरती प्रकाशित होकर नृत्य सा करने लगती है।  हरी भरी वादी के किनारे की इस सड़क पर सुबह की सैर का आनन्द ही कुछ और है।

सूर्यदेव के दस्तक देने के बाद भी जहाँ कुछ बादल छँट रहे हैं वहीं कुछ ने मानो डटे रहने का प्रण लिया है। इसी जुगलबन्दी से आकाश में बना है यह खूबसूरत चित्र। नीचे नदी और पुल दोनों ही नज़र आ रहे हैं। आकाश में भले ही कालिमा अभी दिख रही है, नदी का जल पूरा स्वर्णिम हो गया है। इस्पात नगरी है तो जलधारा की जगह लावा बहने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्लिक करके सभी चित्रों को बड़ा किया जा सकता है। 
आपका दिन शुभ हो!
  

सम्बन्धित कड़ियाँ
इस्पात नगरी से - श्रृंखला