असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥
दैत्य वे असुर, अदिति के पुत्र सुर; प्रसन्न, स्वस्थ सुरों ने वारुणी को ग्रहण किया.
वाल्मीकि रामायण में ज़िक्र है समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई वारुणी का जिसे अदिति की संतति सुरों ने स्वीकार किया. मदमाते नयनों वाली वारुणी वरुण से (या उनके द्वारा) उत्पन्न हुई हैं और असुर (वहां पर) उन्हें नहीं लेते हैं इसके कई कारण हो सकते हैं. एक स्पष्ट कारण यह है कि वे विजेता होते हुए भी हारे हुए देवों से मिलकर समुद्र मंथन अभियान में शामिल होने के लिए सिर्फ इसलिए राजी हुए थे ताकि अमृत पा सकें न कि वारूणी. मगर एक बात और है. उस बात को बेहतर समझने के लिए पहले ऋग्वेद तक चलते हैं. वारूणी के सृजक वरुण हैं, इसलिए हम उनकी स्तुति का एक मंत्र देखें:
अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहेहिविभःकशाया
कषयन्नस्मभ्यमसुर परचेता राजन्नेनांसिशिश्रथः कर्तानि जा
यहाँ समुद्र के स्वामी वरुणदेव को असुर कहकर पुकारा गया है. यह अकेली जगह नहीं है जहां उन्हें असुर कहा गया है बल्कि ऋग्वेद में उन्हें अनेकों स्थानों पर आदर से असुर कहकर पुकारा गया है. वरुणदेव जल के स्वामी हैं. आज भी सप्त-सैन्धव के मूलनिवासी सिन्धीजन द्वारा पूजे जाते झूलेलाल उनके अवतार माने जाते हैं. झूलेलाल की सवारी मछली है और समुद्र के स्वामित्व को बताने वाला उनका एक नाम दरयाशाह भी है.
अब जब असुर वरुणदेव के नितांत अपने समुद्र का मंथन हो रहा हो तब वहां उनका एक प्रमुख स्थान होना वाजिब है और उनके अपने राष्ट्र के रत्न वारुणी में उनकी या उनके लोगों की क्या विशेष रूचि हो सकती है लिहाजा वह रत्न विपक्ष के पास गया.
भले ही आजकल हम असुर शब्द का प्रयोग किसी को गाली देने के लिए करते हों विद्वानों के अनुसार वरुण, मित्र आदि भारतीय मुनियों द्वारा पूजित बहुत से असुरों में से एक हैं और असुर शब्द में अनादर का भाव नहीं है. भारतीय ग्रंथों में मयासुर को इंद्र के वास्तुशिल्पी से भी महान बताया गया है. दूसरे अनेकों असुरों को महादेव द्वारा वरदान दिए जाने की कथाएं जहां तहां मिलती हैं. असुरराज प्रहलाद की वंशरक्षा के लिए भगवान् विष्णु स्वयं प्रतिबद्ध थे. केरल का विशु महोत्सव असुरराज बाली के पाताल लोक से वापस आने के सम्मान में ही मनाया जाता है. मैसूर राज्य का नाम ही महिषासुर के नाम पर है. भगवान् परशुराम के पूर्वज ऋषि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जैसे महारथी असुरों के गुरु यूं ही तो नहीं बन गए थे. यहाँ यह ध्यान आ गया कि शुक्राचार्य की माँ उषा (उष्णा) असुर राजकुमार प्रह्लाद की बहन थीं.
फिर भी आसुरी तंत्र और देवी तंत्र में कई बड़े अंतर हैं. आज के लिए सिर्फ दो कथाएं:
१. एक देवासुर संग्राम में बहुत सी जानें जाने के बाद भी जब कोई निर्णय नहीं हो सका तो विष्णु जी ने प्रस्ताव रखा कि युद्ध को अनंत काल तक चलाने के बजाय दोनों पक्षों से कुछ लोगों का एक छोटा सा दल लेकर उनमें प्रतियोगिता करा ली जाए. जो जीते विजय उसी की. दोनों तैयार. प्रतियोगिता थी लड्डुओं के थाल में से जल्दी-जल्दी खाकर पहले ख़त्म करने की. देवता तो ऐसी बेतुकी असंतुलित प्रतियोगिता के बारे में सुनकर ही चौंक गए. दोनों दलों को लड्डू के साथ एक-एक कमरे में बंद कर दिया गया, नियम था कि खाते समय कोहनी नहीं मोडनी है. महा पराक्रमी असुर सोचते ही रह गए जबकि देवता क्षण भर में लड्डू के थाल ख़त्म करके बाहर आ गए और विजयी हुए. कोहनी मोड़े बिना दूसरों को देना उनका नैसर्गिक गुण जो ठहरा. देव शब्द का एक अर्थ दाता ही होता है.
२. देवासुर दोनों ब्रह्मा के पास ज्ञान लेने गए और ब्रह्मा ने सिर्फ एक अक्षर कहा "द." दोनों ही प्रसन्नमन वापस आ गए. देवों ने जान लिया था कि उन्हें दमन (इन्द्रिय दमन = इंद्र की ज़रुरत इसीलिये थी) करना है जबकि असुरों ने अपने अन्दर दया की कमी को पहचाना.
ट्रान्सलिट्रेशन में संस्कृत टाइप करने में बहुत मुश्किल हो रही है, इसलिए न चाहते हुए भी यहाँ विश्राम लेता हूँ. जाने से पहले आज का सवाल - ऋग्वेद में एक देव को एक ही साथ असुर और देव दोनों ही श्रेणियों में रखा गया है - देखते हैं कि इस देव का नाम कौन बताता है.
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