पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”
“यह बात भी सही है।”
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[भाग 1] [भाग 2] अब आगे की कहानी:
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।
“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।
“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”
मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।
“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।
“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”
“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”
“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:
मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”
“यह बात भी सही है।”
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।
“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।
“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”
मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।
“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।
“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”
“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”
“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:
मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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