उत देव अवहितम देव उन्नयथा पुनः
उतागश्चक्रुषम देव देव जीवयथा पुनः
हे देवों, गिरे हुओं को फिर उठाओ!
(ऋग्वेद १०|१३७|१)
देव (और दिव्य) शब्द का मूल "द" में दया, दान, और (इन्द्रिय) दमन छिपे हैं। कुछ लोग देव के मूल मे दिव या द्यु (द्युति और विद्युत वाला) मानते है जिसका अर्थ है तेज, प्रकाश, चमक। ग्रीक भाषा का थेओस, उर्दू का देओ, अंग्रेज़ी के डिवाइन (और शायद डेविल भी) इसी से निकले हुए प्रतीत होते हैं। भारतीय संस्कृति में देव एक अलग नैतिक और प्रशासनिक समूह होते हुए भी एक समूह से ज़्यादा प्रवृत्तियों का प्रतीक है। तभी तो "मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, आचार्यदेवो भवः सम्भव हुआ है। यह तीनों देव हमारे जीवनदाता और पथ-प्रदर्शक होते हैं। यही नहीं, मानवों के बीच में एक पूरे वर्ण को ही देवतुल्य मान लिया जाना इस बात को दृढ करता है कि देव शब्द वृत्तिमूलक है, जातिमूलक नहीं।
देव का एक और अर्थ है देनेवाला। असुर, दानव, मानव आदि सभी अपनी कामना पूर्ति के लिये देवों से ही वर मांगते रहे हैं। ब्राह्मण यदि ज्ञानदाता न होता तो कभी देव नहीं कहलाता। सर्वेषामेव दानानाम् ब्रह्मदानम् विशिष्यते! ग्रंथों की कहानियाँ ऐसे गरीब ब्राहमणों के उल्लेख से भरी पडी हैं जिनमें पराक्रम से अपने लिये धन सम्पदा कमाने की भरपूर बुद्धि और शक्ति थी परंतु उन्होने कुछ और ही मार्ग चुना।
द्यु के एक अन्य अर्थ के अनुसार देव उल्लसितमन और उत्सवप्रिय हैं। स्वर्गलोक में सदा कला, संगीत, उत्सव चलता रह्ता है। वहां शोक और उदासी के लिये कोई स्थान नहीं है। देव पराक्रमी वीर हैं। जैसे असुर जीना और चलना जानते हैं वैसे ही जिलाना और चलाना देव प्रकृति है।
असुर शब्द का अर्थ बुरा नही है यह हम पिछ्ली कड़ियों में देख चुके हैं। परंतु पारसी ग्रंथो में देव के प्रयोग के बारे में क्या? पारसी ग्रंथ इल्म-ए-क्ष्नूम (आशिष का विज्ञान) डेविल और देओ वाले विपरीत अर्थों को एक अलग प्रकाश में देखता है। इसके अनुसार अवेस्ता के बुरे देव द्यु से भिन्न "दब" मूल से बने हैं जिसका अर्थ है छल। अर्थात देव और देओ (giant) अलग-अलग शब्द है।
आइये अब ज़रा देखें कि निरीश्वरवादी धाराओं के देव कैसे दिखते हैं:
अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुरा:
सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः।
आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः
आदित्या ऋभवोस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।
बहिर्मुखाः ऋतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः
वृन्दारका दैवतानिम पुंसि वा देवतास्त्रियाम।
[अमरकोश स्वर्गाधिकान्ड - 7-79]
संसार के पहले थिज़ॉरस ग्रंथ अमरकोश के अनुसार देव स्वस्थ, तेजस्वी, निर्भीक, ज्ञानी, वीर और चिर-युवा हैं। वे मृतभोजी न होकर अमृत्व की ओर अग्रसर हैं। वे सुन्दर लेखक है और तेजस्वी वाणी से मिथ्या सिद्धांतों का खन्डन करने वाले हैं। इसके साथ ही वे आमोदप्रिय, सृजनशील और क्रियाशील हैं।
कुल मिलाकर, देव वे हैं जो निस्वार्थ भाव से सर्वस्व देने के लिये तैय्यार हैं परंतु ऐसा वे अपने स्वभाव से प्रसन्न्मन होकर करते हैं न कि बाद में शिकवा करने, कीमत वसूलने या शोषण का रोना रोने के लिये। वे सृजन और निर्माणकारी हैं। जीवन का आदर करने वाले और शाकाहारी (अमृतान्धसः) हैं तथा तेजस्वी वाणी के साथ-साथ उपयोगी लेखनकार्य में समर्थ हैं। इस सबके साथ वे स्वस्थ, चिरयुवा और निर्भीक भी हैं। वे आदितेया: हैं अर्थात बन्धनोँ से मुक्त हैँ। अगली कड़ी में हम देखेंगे असुरों के समानार्थी समझे जाने वाले भूत, पिशाच और राक्षस का अर्थ।
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