Saturday, June 19, 2010

माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!

शीर्षक पढ़कर शायद आप कहें कि सिर्फ माओवादी या दुसरे आतंकवादी ही क्यों, इंसान को इंसान न समझने वाले, दूसरों के जीवन को दो कौड़ी से कम आंककर सारी दुनिया को मानव रक्त से लाल करने का सपना देख रहा हर वहशी जानवर से बदतर है। मगर ज़रा ठहरिये, यह शीर्षक मेरा नहीं है, यह लिया गया है "डायरी ऑव एन इंडियन" वाले अनिल रघुराज की एक ताज़ा पोस्ट से।

मैं अनिल रघुराज को जानता नहीं मगर हाल ही में मैंने उनका ब्लॉग अर्थकाम देखा था। पूंजीवाद और अर्थतंत्र में मुझे ख़ास रूचि नहीं है तो भी भूतपूर्व बैंकर होने के नाते इन चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है। मैं पूंजी निवेश पर आधारित उस ब्लॉग की शैली से प्रभावित हुए बिना न रह सका। इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसे "ज़रा हट के" वाली ब्लॉगलिस्ट में जोड़ा। पहले कभी उनकी एक कहानी भी पढी थी मगर वह सोवियत रूसी प्रचार पत्रिकाओं की उपदेशात्मक, सारहीन, बनावटी और इश्तिहारी कहानियों की याद दिलाती थी इसलिए उस पर उतना ध्यान नहीं गया।

उस पोस्ट पर एक दुखद चित्र लगाया गया है जिसमें सैनिक वर्दी में दो पुरुष निर्विकार भाव से एक महिला की लाश को लेकर जा रहे हैं। उस चित्र को देखना भी दुखद है। अगर यह चित्र चीन, उत्तर कोरिया आदि का होता तो शायद किसी को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि तानाशाहों के यहाँ तो जनता हमेशा ही सूली पर टंगी होती है परन्तु भारत के बारे में ऐसा कुछ सुनना, देखना दर्दनाक होने के साथ शर्मनाक भी है। ब्लॉग के अनुसार यह चित्र पश्चिम बंगाल का है। पश्चिम बंगाल जहाँ अत्याधुनिक चीनी हथियार और मिलिशिया से सशस्त्र एक कम्युनिस्ट दल, दशकों से सत्तारूढ़ सरकारी साधन-संपन्न दूसरे कम्युनिस्ट दल के साथ सशस्त्र संघर्ष में लिप्त है। इन दोनों कम्युनिस्ट दलों के बीच पिसते निर्दोष मासूम गरीब रोज़ अकारण ही मारे जा रहे हैं। मगर हिंसक कम्युनिस्ट संघर्षों का झंडा तो सारी दुनिया में निर्दोषों के खून से ही लाल किया गया है तो यहाँ कोई अपवाद क्यों हो?

शहरों में अपने परिवारों के साथ आराम की ज़िंदगी बिताने वाले लोग शायद उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर ही सिहर जाएँ जो माओवाद, नक्सलवाद - जहां यह चित्र खींचा गया था - और आतंकवाद के अन्य प्रकारों से प्रभावित क्षेत्रों में दिन रात घट रहे है। मुझे चित्र की घटना, स्थल, समय, परिस्थिति या स्रोत के बारे में कुछ भी निश्चित पता नहीं है इसलिए उस पर कुछ नहीं कह सकता हूँ। आपत्ति तो मुझे इस बात पर है कि जन-भावना भड़काने के उद्देश्य से उस चित्र के साथ जानबूझकर सूअर का शिकार करके डंडे पर बांधकर लाते एक सुविधा-संपन्न पश्चिमी पर्यटक स्त्री-पुरुष का पूर्णतया असम्बद्ध चित्र वहां लगाकर इन दोनों चित्रों की तुलना की गयी है।

सुदूर बीहड़ वनों में माओवादियों द्वारा ज़हरीले कर दिए गए जलस्रोतों के बीच, १२३ अंश फेहरनहाईट के तापमान में तपती टीन और पुराने तम्बुओं के नीचे कई हफ़्तों से पसीने से लिजलिजा रही वर्दी में नहाना तो दूर, दांत मांजने की विलासिता की बात सोचे बिना कई-कई रातों तक बिना सोये, अपनी छः महीने की होंठकटी बिटिया को एक बार भी देखे बिना और इस अभियान पर आने से पहले अपनी अंधी और विधवा माँ के पाँव छूए बिना चल पड़ने की बेबसी लिए जो जवान देश के किसानों और आदिवासियों की जीवनरक्षा के साथ उनकी नदियों, पुलों, सडकों, रेल पटरियों, स्कूलों और गाँवों को आधुनिक विदेशी हथियारों से लैस निर्दय तस्करों, खनिज और वन संपदा के लुटेरों, माओवादियों और दुसरे आतंकवादियों से बचाने के लिए दीवार बन कर खड़े हुए हैं उन्हें अपने कर्म का औचित्य ढूँढने के लिए किसी झूठे, किताबी, स्वार्थी, हत्यारे सत्तालोलुप या धनलोलुप, वाद की ज़रुरत नहीं है।

माओवादियों की बंदूकों से निकलती आसुरी मौत के शिकार बने लोगों के साथ पूरी सहानुभूति और दया होने के बावजूद उनके शवों को ले जाने के लिए दुर्दम्य परिस्थितियों में काम करते वे सिपाही संदर्भित ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं। उन्हें वहीं जंगल से लकडियाँ तोड़कर या जैसे भी संसाधन हों उन्हें इकट्ठा करके अपना काम करना पडेगा। जिस किसी ने भी वह चित्र लिया है और जिस ने भी अपनी-अपनी पोस्ट पर लगाया है उनसे मेरा अनुरोध है कि अपना मानवीय पक्ष दिखाएँ और लाशों की राजनीति करके शिकायत करने के बजाय एसी कमरे से बाहर निकलें और निष्ठा से अपने काम में लगे उन निर्भीक सिपाहियों के काम में हाथ बंटाएं। नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनकी कार्य-परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हों और प्रयास करें कि ऐसी परिस्थितियां बनने ही न पायें कि मानवता को रोज़ शर्मिन्दा होना पड़े। हमें गर्व है कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और माओवादियों के कारनामों के साथ-साथ पुलिस की कमियाँ भी उजागर कर सकते हैं। भगवान् न करे माओवाद या तालेबान जैसी कोई आसुरी शक्ति अगर किसी इलाके में सफल हो गयी तो चीन, अफगानिस्तान, चेचन्या, म्यांमार और उत्तर कोरिया की तरह यहाँ भी आप न अपने ब्लॉग पर और न अपनी जुबां से इस देशसेवा का दंभ दिखा पायेंगे।

पुलिस और उस पर सत्ता रखने वाली सरकारें सही हों, यह ज़रूरी नहीं है। सत्ता का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है, खासकर तानाशाही "-वादों" वाली दम्भी सरकारों में। मगर उसका बहाना लेकर जान जोखिम में डालते सैनिकों पर बेल्ट के नीचे प्रहार करने के बहाने ढूंढना शर्मनाक है। जिन वीरों ने देशवासियों की सुरक्षा के लिए वर्दी पहनकर कफ़न बांधा है उनके भी मानवाधिकार है, यह बात अगर हम ही नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा?

संदर्भित पोस्ट पर एक मृत मानव की एक शिकार किये गए सूअर से की गयी इस असंवेदनशील तुलना से मैं उतना ही व्यथित हूँ जितना माओवाद-प्रभावित क्षेत्रों में चल रही निष्ठुर कुत्ता-घसीटी से। विडम्बना है कि हमारा लोकतंत्र अपना विचार और भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार देता है भले ही उससे एक मृतक का और मानव जीवन का घोर अपमान हो रहा हो। चित्र में दिखाई गयी स्त्री से मुझे सहानुभूति है। ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दें। राज्य एवं केंद्र सरकार उन क्षेत्रों से अराजकता मिटाकर व्यवस्था लाये। हम लोग इंसान बनें और अपनी ब्लॉग पोस्टों या अखबारों में उसकी मृतदेह का भद्दा मज़ाक उड़ाने से बचें।

चलते चलते "दिनकर" की "परशुराम की प्रतीक्षा" से दो पंक्तियाँ

गर्दन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?

Wednesday, June 16, 2010

बांधों को तोड़ दो - एक कहानी

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"ये लोग होते कौन हैं आपको रोकने वाले? ऐसे कैसे बन्द कर देंगे? उन्होने कहा और आप सब ने मान लिया? चोर, डाकू, जेबकतरे सब तो खुलेआम घूमते रह्ते हैं इन्हीं सडकों पर... सारी दुश्मनी सिर्फ रिक्शा से निकाल रहे हैं? इसी रिक्शे की बदौलत शहर भर में हज़ारों गरीबों के घर चल रहे हैं। और उनका क्या जो अपने स्कूल, दुकान, और दफ्तर तक रिक्शा से जाते हैं? क्या वे सब लोग अब कार खरीद लेंगे?"

छोटा बेटा रामसिंह बहुत गुस्से में था। गुस्से मे तो हरिया खुद भी था परंतु वह अब इतना समझदार था कि अपने आंसू पीना जानता था। लेकिन बेचारे बच्चों को दुनिया की समझ ही कहाँ होती है? वे तो सोचते हैं कि संसारमें सब कुछ न्याय के अनुसार हो। और फिर रामसिंह तो शुरू से ही ऐसा है। कहीं भी कुछ भी गलत हो रहा हो, उसे सहन नहीं होता है, बहुत गुस्सा आता है।

इस दुख की घड़ी में जब हरिया बडी मुश्किल से अपनी हताशा को छिपा रहा है, उसे अपने बेटे पर गर्व भी हो रहा है और प्यार भी आ रहा है। हरिया को लग रहा है कि बस दो चार साल रिक्शा चलाने की मोहलत और मिल गयी होती तो इतना पैसा बचा लेता कि रामसिंह को स्कूल भेजना शुरू कर देता। अब तो लगता है कि अपना सब सामान रिक्शे पर लादकर किसी छोटे शहर का रास्ता पकडना पडेगा।

“अगर सभी रिक्शेवाले एक हो जायें और यह गलत हुक्म मानने से मना कर दें तो सरकार चाहे कितनी भी ज़ालिम हो उन्हें रोक नहीं पायेगी” अभी चुप नहीं हुआ है रामसिंह।

उसे इस तरह गुस्से मे देखकर हरिया को तीस साल पुरानी बात याद आती है। हरिया यहाँ नहीं है, इतना बडा भी नहीं हुआ है। वह बिल्कुल अपने छोटे से राम के बराबर है, बल्कि और भी छोटा। गांव की पुरानी झोंपडी मे खपडैल के बाहर अधनंगा खडा है। पिताजी मुँह लटकाये चले आ रहे हैं। वह हमेशा की तरह खुश होकर उनकी गोद में चढने के लिये दौडता हुआ आगे बढता है। उसे गोद में लेने के बजाय पिताजी खुद ही ज़मीन पर उकडूँ बैठ जाते हैं। पिताजी की आंख में आंसू है। माँ तो खाना बनाते समय रोज़ ही रोती है मगर पिताजी तो कभी नहीं रोते। तो आज क्यूं रो रहे हैं। वह अपने नन्हें हाथों से उनके आंसू पोछ्कर पूछ्ता है, “क्या हुआ बाबा? रोते क्यों हो?”

“हमें अपना घर, यह गांव छोडकर जाना पडेगा बेटा हरिराम” पिताजी ने बताया ।

पूछ्ने पर पता लगा था कि उनके गांव और आसपास के सारे गांव डुबोकर बांध बनाया जाने वाला था।
नन्हा हरिया नहीं जानता था कि बांध क्या होता है। लेकिन उस वय में भी उसे यह बात समझ आ गयी थी कि यह उसके घर-द्वार, कोठार, नीम, शमी, खेत और गाँव को डुबोने की योजना है। कोई उसके घर को डुबोने वाला है, यह ख़याल ही उसे गुस्सा दिलाने के लिए काफी था। फिर भी उसने पिताजी से कई सवाल पूछे।

"ये लोग कौन हैं जो हमारा गाँव डुबो देंगे?"

"ये सरकार है बेटा, उनके ऊपर सारे देश की ज़िम्मेदारी है।"

"ज़िम्मेदार लोग हमें बेघर क्यों करेंगे? वे हत्यारे कैसे हो सकते हैं?" हरिया ने पूछा।

"वे हत्यारे नहीं हैं, वे सरकार हैं। बाँध से पानी मिलेगा, सिंचाई होगी, बिजली बनेगी, खुशहाली आयेगी।"

"सरकार कहाँ रहती है?"

"बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"

"बिजली कहाँ जलेगी?

"उन्हीं बड़े-बड़े शहरों में - कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली।"

"तो फिर बांध के लिए कानपुर कलकत्ता दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग? हमें ही क्यों जाना पडेगा घर छोड़कर?"

"ये त्याग है बेटा। अम्मा ने दधीचि और पन्ना धाय की कहानियाँ सुनाई थी, याद है?"

"सरकार त्याग क्यों नहीं करती है? तब भी हमने ही किया था। अब भी हम ही करें?"

पिताजी अवाक अपने हरिराम को देख रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे आज वह अपने रामसिंह को देख रहा है। हरिया ने अपनी बाँह से आँख पोंछ ली. रामसिंह अभी भी गुस्से में बोलता जा रहा था। रधिया एक कोने में बैठकर खाने के डब्बों को पुरानी चादर में बांध रही थी। ठीक वैसी ही दुबली और कमज़ोर जैसे अम्मा दिखती थी तीस साल पहले।

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सम्बन्धित आलेख
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(बांधों को तोड़ दो - ऑडियो)

जल सत्याग्रह - मध्य प्रदेश का घोगल ग्राम
संता क्लाज़ की हकीकत
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बांधों को तोड़ दो (उपन्यास अंश)

Sunday, June 13, 2010

देव लक्षण - देवासुर संग्राम ७


उत देव अवहितम देव उन्नयथा पुनः
उतागश्चक्रुषम देव देव जीवयथा पुनः

हे देवों, गिरे हुओं को फिर उठाओ!
(ऋग्वेद १०|१३७|१)

देव (और दिव्य) शब्द का मूल "द" में दया, दान, और (इन्द्रिय) दमन छिपे हैं। कुछ लोग देव के मूल मे दिव या द्यु (द्युति और विद्युत वाला) मानते है जिसका अर्थ है तेज, प्रकाश, चमक। ग्रीक भाषा का थेओस, उर्दू का देओ, अंग्रेज़ी के डिवाइन (और शायद डेविल भी) इसी से निकले हुए प्रतीत होते हैं। भारतीय संस्कृति में देव एक अलग नैतिक और प्रशासनिक समूह होते हुए भी एक समूह से ज़्यादा प्रवृत्तियों का प्रतीक है। तभी तो "मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, आचार्यदेवो भवः सम्भव हुआ है। यह तीनों देव हमारे जीवनदाता और पथ-प्रदर्शक होते हैं। यही नहीं, मानवों के बीच में एक पूरे वर्ण को ही देवतुल्य मान लिया जाना इस बात को दृढ करता है कि देव शब्द वृत्तिमूलक है, जातिमूलक नहीं।

देव का एक और अर्थ है देनेवाला। असुर, दानव, मानव आदि सभी अपनी कामना पूर्ति के लिये देवों से ही वर मांगते रहे हैं। ब्राह्मण यदि ज्ञानदाता न होता तो कभी देव नहीं कहलाता। सर्वेषामेव दानानाम् ब्रह्मदानम् विशिष्यते! ग्रंथों की कहानियाँ ऐसे गरीब ब्राहमणों के उल्लेख से भरी पडी हैं जिनमें पराक्रम से अपने लिये धन सम्पदा कमाने की भरपूर बुद्धि और शक्ति थी परंतु उन्होने कुछ और ही मार्ग चुना।

द्यु के एक अन्य अर्थ के अनुसार देव उल्लसितमन और उत्सवप्रिय हैं। स्वर्गलोक में सदा कला, संगीत, उत्सव चलता रह्ता है। वहां शोक और उदासी के लिये कोई स्थान नहीं है। देव पराक्रमी वीर हैं। जैसे असुर जीना और चलना जानते हैं वैसे ही जिलाना और चलाना देव प्रकृति है।

असुर शब्द का अर्थ बुरा नही है यह हम पिछ्ली कड़ियों में देख चुके हैं। परंतु पारसी ग्रंथो में देव के प्रयोग के बारे में क्या? पारसी ग्रंथ इल्म-ए-क्ष्नूम (आशिष का विज्ञान) डेविल और देओ वाले विपरीत अर्थों को एक अलग प्रकाश में देखता है। इसके अनुसार अवेस्ता के बुरे देव द्यु से भिन्न "दब" मूल से बने हैं जिसका अर्थ है छल। अर्थात देव और देओ (giant) अलग-अलग शब्द है।

आइये अब ज़रा देखें कि निरीश्वरवादी धाराओं के देव कैसे दिखते हैं:
अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुरा:
सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः।
आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः
आदित्या ऋभवोस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः।
बहिर्मुखाः ऋतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः
वृन्दारका दैवतानिम पुंसि वा देवतास्त्रियाम।

[अमरकोश स्वर्गाधिकान्ड - 7-79]

संसार के पहले थिज़ॉरस ग्रंथ अमरकोश के अनुसार देव स्वस्थ, तेजस्वी, निर्भीक, ज्ञानी, वीर और चिर-युवा हैं। वे मृतभोजी न होकर अमृत्व की ओर अग्रसर हैं। वे सुन्दर लेखक है और तेजस्वी वाणी से मिथ्या सिद्धांतों का खन्डन करने वाले हैं। इसके साथ ही वे आमोदप्रिय, सृजनशील और क्रियाशील हैं।

कुल मिलाकर, देव वे हैं जो निस्वार्थ भाव से सर्वस्व देने के लिये तैय्यार हैं परंतु ऐसा वे अपने स्वभाव से प्रसन्न्मन होकर करते हैं न कि बाद में शिकवा करने, कीमत वसूलने या शोषण का रोना रोने के लिये। वे सृजन और निर्माणकारी हैं। जीवन का आदर करने वाले और शाकाहारी (अमृतान्धसः) हैं तथा तेजस्वी वाणी के साथ-साथ उपयोगी लेखनकार्य में समर्थ हैं। इस सबके साथ वे स्वस्थ, चिरयुवा और निर्भीक भी हैं। वे आदितेया: हैं अर्थात बन्धनोँ से मुक्त हैँ। अगली कड़ी में हम देखेंगे असुरों के समानार्थी समझे जाने वाले भूत, पिशाच और राक्षस का अर्थ।

[क्रमशः अगली कडी के लिये यहाँ क्लिक करें]