Tuesday, February 8, 2011

व्यावहारिकता - कविता


(अनुराग शर्मा)

वो खुद है खुदा की जादूगरी
फिर चलता जादू टोना क्या

जो होनी थी वह हो के रही
अब अनहोनी का होना क्या

जब किस्मत थी भरपूर मिला
अब प्यार नहीं तो रोना क्या

गर प्रेम का नाता टूट गया
नफरत के तीर चुभोना क्या

जज़्बात की ही जब क़द्र नहीं
तो मुफ्त में आँख भिगोना क्या

[क्रमशः]

Tuesday, February 1, 2011

नानृतम् - कविता

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क्या हुआ सब तेज
गुम हुआ वह ओज
मुख मलिन है
ग्रहण जो है
आन्धी घनी औ' धुन्ध भी
गहरा रही है
पूर्वप्रसवा है कुपोषित
दिख रही निष्प्राण सी है
पर हटेगी नहीं
वह टिकेगी यहीं
और जन्म देगी
एक सुन्दर स्वस्थ
नव आशा किरण को
दुश्मन भले फैला रहे
अफवाह झूठी ला रहे
कि चिरयुवा स्थूलकाय
रोज़ नौ सौ चूहे खाय
उस झूठ का इक पाँव
भारी है अभी भी।

Wednesday, January 26, 2011

अनुरागी मन - कहानी भाग 9

पूर्वकथा:
एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है, वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट भी होती है और आशाओं पर तुषारापात भी। हवेली के बाहर आकर वे खो गये थे। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।

पिछले अंक
भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8

अब आगे:

जब वीर की आँख खुली तो दादाजी के मंत्रोच्चार की जगह कान में किसी के सुबकने की आवाज़ पडी। उन्होने उठने का प्रयास किया तो दायें पंजे से कमर तक पीडा की एक असहनीय तरंग दौड गयी।

"हिलो मत बेटा" यह तो माँ की आवाज़ है। माँ को सिरहाने बैठा देखकर वीरसिंह दंग रह गये।

"मैं तो नई सराय में था माँ, घर कैसे आ गया? यह कोई सपना तो नहीं?"

"भगवान करे सपना ही हो बेटा" माँ ने आंचल से अपने आँसू पोंछते हुए अपूर्व शांति से कहा।

"अरे आप जग गये! अभी चाय लाती हूँ" यह तो रात वाली वही छोटी बच्ची थी। मगर वह तो नई सराय में थी। क्या वे सचमुच जग गये हैं या अभी कोई सपना देख रहे हैं? दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं पडी। एक नज़र आसपास डालने भर से यह स्पष्ट हो गया कि वे दादाजी के घर में ही थे। उन्हें ध्यान आया कि रात में उस बच्ची के साथ पडोस के भट्ट जी थे। जब तक बच्ची उनके लिये चाय का प्याला लेकर वापस आयी उन्हें उसकी शक्ल भी पहचान में आने लगी थी।

"बरखा?" भट्ट जी की पोती निक्की का नाम यही था।

"जी हाँ, मैं! कल आप घर आने की बजाय वहाँ क्यों घूम रहे थे ... "

"तुम अब घर जाओ बेटा, थोडा आराम करो, आँखों में कितनी नीन्द भरी है!" माँ ने उलाहना सा देते हुए चाय का प्याला बरखा के हाथ से छीन सा लिया।

बरखा चुपचाप कमरे से बाहर निकल गयी। मित्रों को आगे की बात बताते हुए वीर सिंह का गला रुन्ध आया था। माँ से पता लगा कि रात में उन्हें दादाजी के विश्वासपात्र पुत्तू और लखना गड्ढे से निकालकर लाये थे। टांग तो तब तक टूट ही चुकी थी। लेकिन वे दोनों अचानक वहाँ कैसे पहुँचे और फिर कुल्हाडी वालों का क्या हुआ? माँ यहाँ कैसे आयी? भट्ट जी रात में खाना किसके लिये ला रहे थे? निक्की ने घर आने के बजाय "वहाँ" घूमने की बात क्यों की? और फिर निक्की के साथ माँ का अजीब सा व्यवहार! क्या इन सबको परी के बारे में पता चल गया है? धीरे-धीरे पता लगा कि अप्सरा का रहस्य अभी भी किसी पर खुला नहीं था।

परंतु उस भयावह रात की घटनायें जो अभी तक किसी चमत्कार सरीखी लग रही थीं, अब एक एक करके उघड़नी आरम्भ हो गयी थीं। जब वीरसिंह और झरना की कहानी अपने दुखद मोड़ पर थी तभी किसी समय दादाजी को भयंकर हृदयाघात हुआ था। जब तक कोई समझ पाता, उनके प्राणपखेरू उड चुके थे। पिताजी उस समय पूर्वोत्तर के मोर्चे पर विद्रोही आतंकियों से जूझ रहे थे। उन्हें खबर तो कर दी गयी थी मगर उनके समय पर पहुँचने की कोई आशा नहीं थी। वीर के लिये सारी नई सराय में ढुंढेरा पड रहा था। माँ को अपने मायके से यहाँ तक आने में दो घंटे लगे थे। वे दादाजी के दुख के साथ वीर के लिये भी चिंतित थीं। वीर की अनुपस्थिति में दादीजी की इच्छानुसार देर किये बिना शवदाह पुत्तू और लखना के हाथों कराया गया था। वही दोनों दादाजी द्वारा अभी भी पहनी हुई सोने की अंगूठियों के लिये रात में चौकीदारी कर रहे थे जब वीर अनजाने ही भटककर श्मशानघाट पहुँचे थे। आखिर दादा ने अपनी चिता पर से अपने प्यारे पोते को देख ही लिया।

[क्रमशः].