Sunday, March 17, 2013

वादा - कविता

(अनुराग शर्मा)

तेरे मेरे आँसू की तासीर अलहदा है
बेआब  नमक सीला, वो दर्द से पैदा है

तन माटी है मन सोना इंसान है हीरे सा
बेगार में दिल देना अनमोल ये सौदा है

बदनाम सदा से थे पर नाम हुआ उनका
औकात से यह उनकी तारीफ ज़ियादा है

हिज़्र तेरा दोज़ख, जन्नत तेरे कदमों में
सिजदे में मेरा सिर है मरने का इरादा है

जब दूर है चश्मे-बद, हैं बंद मेरी आँखें
क्यूँ हुस्न है पोशीदा क्यूँ चाँद पे पर्दा है

ये जान तेरे हाथों ये दिल भी तुम्हारा है
न मुझको हिलाओ तन बेजान है मुर्दा है

उम्मीद है काफिर की हयात ताज़ा होंगे
आएंगे तुझे मिलने अपना भी ये वादा है


  

Friday, March 8, 2013

या देवी सर्वभूतेषु ...

मातृभूमि और मातृभाषा से जुड़े रहने के उद्देश्य से केबल का भारतीय पैकेज लिया हुआ था। जो चैनल, जब खोलो तब या तो सास, ननद बहू एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र रचती नज़र आती थीं या कोई पीर, तांत्रिक, बाबा अपनी जादुई कृपा बरसाते दिखते थे। ज़ी के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण पर तो हिन्दी समाचारों का भी चुनाव, प्रस्तुति, वाचन, भाषा आदि हर स्तर पर इतना बुरा हाल था कि हर समाचार कार्यक्रम के बाद रक्त का दवाब शायद बढ़ ही जाता होगा। अब ढलती उम्र में स्वास्थ्य का ध्यान रखना भी ज़रूरी है, सो न चाहते हुए भी इन अति-निम्न-स्तरीय चैनलों का पत्ता काटना ही पड़ा।

लेकिन टीवी बंद कर देने भर से दुर्घटनाएँ तो नहीं रुकतीं। समाचार बंद नहीं होते। दूसरा पक्ष यह भी है कि समाचार का मतलब मीडिया और सोशल मीडिया के परोसे विज्ञापन भर भी नहीं होता। समाचारों के व्यवसायीकरण के बाद जिन विषयों में आपकी रुचि है, जो घटना आपको उद्वेलित करती है उसके बारे में आपको पता ही नहीं लगता है जब तक कि समाचार-व्यवसायियों के लिए उस घटना की कोई बाजारू-कीमत (मार्केट वैल्यू) न हो।

न जाने कितनी ही खबरें हमारे पास आने से पहले ही अंग्रेज़ीनुमा हिन्दी में आँय-बाँय कहने वाले टीवी समाचार-निर्माताओं के पेपरवेट तले दाब दी जाती हैं। आज महिला दिवस पर इनमें से कुछ खबरों का संघर्ष स्वाभाविक है ताकि हम साल में कम से कम एक दिन यह सोचें कि हमारा देश, हमारा समाज जा किधर रहा है।

एक जोड़ा पर और असीमित आकाश
दिसंबर में दिल्ली में हुए बलात्कार और हत्याकांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था लेकिन देश की नारियां रोज़ ही अनेक कठिनाइयों से गुजरती हैं। कुछ तो बहादुरी से मुक़ाबला करते जान दे देती हैं, कुछ जीती हैं इस उम्मीद में कि कल आज से बेहतर होगा और कुछ ऐसे टूटती हैं कि अपनी जान खुद ही दे देती हैं। कौन बनेगा करोड़पति में आ चुकीं झारखंड की सोनाली को मुहल्ले के गुंडों की अनुचित हरकतों का विरोध करने की कीमत तेज़ाब से अपना चेहरा और दृष्टि खोकर चुकानी पड़ी थी। मामला स्पष्ट था फिर भी उनके पिता को अपना पक्ष रखने के लिए अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि सोनाली ने एक बार सरकार से इच्छामृत्यु की अपील भी कर डाली थी। लेकिन कई मामले सोनाली जैसे साफ नहीं होते। केरल के कुन्नूर की निवासी माँ-बेटी सुल्फजा (58) और सरीना (23) इस साल जनवरी में अजमेर स्थित ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की गर्म खौलती विशाल कढाही 'छोटी देग' में कूद गई थीं। काफी प्रयासों के बाद भी वे दोनों केवल तीन दिन तक जीवित रहीं। परिवार में एक पिता-पुत्र भी हैं जो घटनास्थल पर नहीं थे। गरीबी, और अवसाद के अलावा इस परिवार के बारे में अधिक कुछ भी पता नहीं लगा।

बेघर बच्चों की दुर्गति की खबरें तो अक्सर पढ़ने को मिलती थीं लेकिन अब घरेलू नौकरी के नाम पर लड़कियों की तस्करी और फिर महानगरों में उनका शोषण भी सामान्य होता जा रहा लग रहा है। पिछले साल अपनी तेरह वर्षीया नौकरानी को द्वारका (दिल्ली) के घर में बाहर से बंद करके विदेशयात्रा पर चले जाने वाले डॉक्टर की बात तो आपको याद होगी ही। हरियाणा में रोहतक के बहुचर्चित अपना घर मामले में सौ से अधिक बालिकाओं के संस्थागत यौन शोषण में घर की कर्ता-धर्ता जसवंती और अन्य अनेक सरकारी-असरकारी लोगों की गँठजोड़ के आसार दिखते हैं।

नेपाल से लाई गई 12 वर्षीय घरेलू नौकरानी को आठ महीने तक प्रताड़ित करने के मामले में 42 वर्षीय फिल्म अभिनेत्री हुमा खान को दिसंबर 2012 मे सजा सुनाई गई। हुमा के सहआरोपी शमीउद्दीन शेख पर उस बालिका के साथ कई बार दुराचार करने का आरोप था लेकिन सबूतों के अभाव में शमीउद्दीन बरी हो गया।

भारत में छेड़छाड़, दहेज-हत्या, प्रताड़न जैसे अपराधों के अलावा महिलाओं की खरीद-बेच भी एक गंभीर समस्या है जिसके तार अंतर्राष्ट्रीय तस्करों, जिहादियों, आतंकवादियों के गिरोहों और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के धृष्ट गँठजोड़ के सहारे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश तक फैले हुए हैं।

लेकिन यह अमानवीयता दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं। इस अपसंस्कृति का निर्यात भारत उपमहाद्वीप के बाहर भी हो रहा है। भारतीय नारी विदेश में भी अबला बनाई जा रही है। सन 2007 में न्यूयॉर्क की पुलिस ने सुगंध का व्यापार करने वाले भारतीय मूल के करोड़पति दंपति महेंद्र मुरलीधर सभनानी और वर्षा सभनानी को अपने घर में इंडोनेशियाई मूल की दो महिलाओं को कई सालों तक गुलामों की तरह बंदी बनाकर रखने, बेगार लेने और प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ्तार किया था। इन महिलाओं को बात-बेबात मारा-पीटा जाता था, कभी बार-बार ठंडे पानी से नहाने को मजबूर किया गया तो कभी बहुत-सी मिर्च फाँकने पर। इन दोनों को न तो वेतन मिलता था और न ही घर से बाहर निकलने की आज़ादी थी। एक दिन एक महिला किसी तरह भागकर फटे कपड़ों में बाहर घूमती दिखी। किसी चौकन्ने नागरिक ने गड़बड़ी भाँपकर पुलिस को सूचना दी, तब सारा मामला खुला। ये महिलाएं पर्यटक वीसा पर अमेरिका आई थीं और उनके पासपोर्ट सभानानी परिवार के कब्जे में थे।

अवैध कागजातों के जरिये ही अलबनी (न्यू यॉर्क राज्य) लाई गई वलसम्मा मथाई को एक विशाल महल के भारतीय मूल के मालिकों की रोज़ 17 घंटे तक सेवा करने के एवज में सोने के लिए एक बड़ी अलमारी मिली थी। उनके हिस्से में न छुट्टी के लिए कोई दिन था और न ही उस घर को छोड़कर जाने की आज्ञा। महल की मालकिन "ऐनी जॉर्ज" ने अदालत में अपने को बेकसूर बताते हुए कहा कि निजी हैलिकॉप्टर दुर्घटना में मरे अपने पति की गतिविधियों के बारे में उसे कुछ पता नहीं है। कोई स्वतंत्र निर्णय लेने पर पति तो उसकी पिटाई ही करता था।

हैदराबाद से अवैध रूप से लंडन ले जाई गई उस भारतीय महिला की कहानी और भी दुखद है जिसे समान परिस्थितियों में तीन परिवारों शमीनीयूसूफ़-अलीमुद्दीन, शहनाज़-एनकार्टा, शशि-बलराम ने न केवल आर्थिक-श्रम शोषण किया बल्कि उनका यौन शोषण भी होता रहा।

ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार के अपराधों में केवल अनिवासियों का नाम आया हो। भारत सरकार के उच्च पदों पर रहने वाले लोगों पर भी विदेशों में इस प्रकार के शोषण के आरोप लगते रहे हैं। न्यूयॉर्क में भारत के वाणिज्यदूत प्रभु दयाल का मामला भी वैसा ही है। उन पर पैंतालीस वर्षीया संतोष भारद्वाज ने रोज़ाना, हफ़्ते के सातों दिन, करीब 15 घंटों तक घर का काम करने पर मजबूर करने और न्यायिक न्यूनतम ($7.5 डॉलर प्रति घंटा) से भी कम वेतन (एक डॉलर) देने का मुक़दमा न्यूयॉर्क की संघीय अदालत में दायर किया है, जिसमें प्रभु दयाल के साथ उनकी पत्नी चांदनी औऱ बेटी अकांक्षा का नाम भी शामिल है। कम वेतन, अधिक काम के अतिरिक्त उन्हें एक छोटी सी कोठारी में ही सोना पड़ता था। सन 2011 में एक दिन जब प्रभु दयाल किसी मीटिंग में थे और उनकी पत्नी सो रही थीं, संतोष मौक़ा पाकर उनके घर से निकल भागीं और पुलिस के पास पहुँचीं। मज़े कि बात यह है कि इस मुकदमे के दौरान प्रभु दयाल के परिवार के वकील रवि बत्रा के नेतृत्व में 100 भारतीयों ने प्रभु दयाल के समर्थन में प्रदर्शन भी किया। इनका कहना था कि भारतीय समुदाय किसी भी तरह प्रभु दयाल को अकेला नहीं छोड़ सकता। संतोष भारद्वाज के पास अमरीका में रहने के लिए वैध दस्तावेज़ नहीं हैं। यदि पल भर के लिए बाकी सारी बातें झूठ मान भी ली जाएँ तो एक भारतीय राजनयिक का एक अवैध आप्रवासी को घरेलू नौकर रखना क्या दर्शाता है?

न्यूयॉर्क में ही एक अदालत ने फरवरी 2012 में भारतीय उपदूतावास की प्रेस सलाहकार नीना मल्होत्रा और उनके पति जोगेश मल्होत्रा को अपनी सेविका शांति गुरूङ्ग पर किए गए बर्बर अत्याचारों और मानसिक प्रताड़ना के लिए 15 लाख डॉलर का मुआवजा देने का आदेश दिया था। इन पति-पत्नी ने भी अपनी सेविका के कागज-पत्र अपने कब्जे में लेने के बाद उसका घर से आवागमन बंद कर दिया था और धमकाते थे कि बाहर निकलने पर उसे पुलिस से पकड़वाने, पीटने, बलात्कार करने के बाद सामान की तरह वापस हिंदुस्तान भिजवा देंगे। वीसा बनवाने के समय उन्होने 17 वर्षीय शांति से कई सारे झूठ बुलवाए थे।

इन घटनाओं की पीडिताओं को संसार के समृद्धतम देश में रहते हुए न तो कभी मानसिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ होगा और न ही यहाँ उपलब्ध उन्नत सुविधाओं यथा चिकित्सा आदि से साबका पड़ा होगा जबकि इनके नियोक्ता (या शोषक?) पढे लिखे और शक्तिशाली धनिक थे। सारी दुनिया में महिला दिवस एक पर्व होगा, होगा उल्लास का दिन लेकिन शोषक प्रवृत्ति वाले धनाढ्यो की सताई महिलाओं के लिए साल में एक बार आने वाले इस दिन का कोई मतलब नहीं है।
"अफ़ग़ान पुरुषों को शिक्षित होने की ज़रूरत है। क्षमा कीजिये, अफ़ग़ानिस्तान के पुरूषों का आचरण अच्छा नहीं है। उन्हें और पढ़ने की ज़रूरत है।" ~ अफ़गान राजकुमारी "इंडिया"
वैसे नारी उत्थान की सारी ज़िम्मेदारी हम भारतीयों के मजबूत चौड़े कंधों पर ही नहीं सिमटी। देश के उत्तर में नेपाल, भूटान और तिब्बत के आगे एक देश चीन भी है जहां मार्क्स, माओ वगैरह के नाम पर दुनिया भर की समस्याओं को सुलझाकर समाज को एकदम बराबर कर दिये जाने के दावे किए जाते हैं। तो खबर यह है कि वहाँ की महिलाएं अपने पेट पर कपड़े आदि बांधकर गर्भवती दिखने का प्रयास कर रही हैं ताकि ट्रेन, बस आदि में उन्हें भी सीट मिलने की संभावना बने।

हर दिन पिछले दिन से बेहतर हो! आपको महिला दिवस की बधाई! 

Sunday, January 27, 2013

सुखदाम् वरदाम् मातरम् - इस्पात नगरी से [62]

(अनुराग शर्मा)

क्रिसमस के आसपास से जो हिमपात आरंभ हुआ वह अभी भी अपना श्वेत सौंदर्य बिखेर रहा है। चाँदनी रातों की तो बात ही अवर्णनीय है लेकिन दिन का सौंदर्य भी कोई कम नहीं। श्वेत-श्याम प्रकृति कितनी सुंदर हो सकती है इसका अनुभव देखे बिना नहीं किया जा सकता। आइये एक चित्रमयी सैर पर निकलते हैं
घर जाने का मार्ग

घर से आने का मार्ग

बर्फ की नदी का किनारा

लवणों द्वारा बर्फ पिघलाने के बाद की सड़क

बर्फ पिघलने से पहले श्वेत वालुका सा पथ 

वैदिक ऋषि केवल उषा के सौन्दर्य, मरुत के वेग, वरुण की असीमता पर ही मुग्ध नहीं होता, वह अरण्यानी अर्थात् प्रकृति की ग्राम से दूरी का अनुभव करके भी वियोग से व्याकुल हो जाता हैः
अरण्यान्रण्यान्सौ या प्रेवनश्यति, कथं ग्रामं न प्रच्छसि न त्वाभीरिवविन्दति।
(हे अरण्यानी तुम हमारी दृष्टि से कैसे तिरोहित हो जाती हो, इतनी दूर चली जाती हो कि हम तुम्हें देख नहीं पाते। तुम ग्राम जाने का मार्ग क्यों नहीं पूछती हो ? क्या अकेले रहने में भय की अनुभूति नहीं होती ?) ~ महादेवी वर्मा
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम्

घर के काष्ठ चबूतरे का हाल 

बच्चों का क्लब हाउस उपेक्षित पड़ा है

शस्य-श्यामलां मातरम्

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Sunday, January 20, 2013

पद्मभूषण आचार्य शिवपूजन सहाय

आचार्य शिवपूजन सहाय (9 अगस्त 1893 - 21 जनवरी 1963)

आचार्य शिवपूजन सहाय
पद्मभूषण से सम्मानित आचार्य शिवपूजन सहाय का नाम हिंदी साहित्य में एक उच्च शिखर पर है। उनके उपन्यास, कहानियाँ, और संस्मरण तो प्रसिद्ध हैं ही, वे मतवाला, माधुरी, गंगा, जागरण, हिमालय, साहित्य जैसे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक के रूप में प्रतिष्ठित रहे। उनके सम्पादनकाल में कोलकाता से प्रकाशित पत्र मतवाला में भारतीय क्रांतिकारियों के आलेख और विचार उनके छद्मनामों से निर्बाधरूप से प्रकाशित होते रहे थे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का सम्पादन उन्होंने ही किया था।

बिहार के भोजपुर जिले के उन्वास ग्राम में 9 अगस्त 1893 को जन्मे आचार्य शिवपूजन सहाय का जीवन हिन्दी और भारत राष्ट्र को ही समर्पित रहा। उनका जन्म का नाम भोलानाथ था। सन 1960 में उन्हे पद्मभूषण का सम्मान मिला और सन् 1998 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था। बिहार सरकार ने उनके नाम पर एक लाख रूपये का पुरस्कार स्थापित किया है। उनका देहावसान 21 जनवरी 1963 में पटना में हुआ।


वही दिन वही लोग 1965 ,
मेरा जीवन 1985 ,
स्मृतिशेष 1994 ,
हिंदी भाषा और साहित्य 1996 ,
ग्राम सुधार 2007
आचार्य जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धासुमन!
[चित्र व जानकारी इंटरनैट पर उपलब्ध विभिन्न स्रोतों से साभार]

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सम्बन्धित कडियाँ
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* मति का धीर : आचार्य शिवपूजन सहाय


Wednesday, January 9, 2013

इंडिया बनाम भारत बनाम महाभारत ...

मशरिक़, भारत, इंडिया, और हिंदुस्तान
ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ...
अपराध इतना शर्मनाक था कि कुछ बोलते नहीं बन रहा था। इस घटना ने लोगों को ऐसी गहरी चोट पहुँचाई कि कभी न बोलने वाले भी कराह उठे। सारा देश तो मुखरित हुआ ही देश के बाहर भी लोगों ने इस घटना का सार्वजनिक विरोध किया। फिर भी कई लोग ऐसा बोले कि सुन कर तन बदन में आग लग गई।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली मे "निर्भया" के विरुद्ध हुए दानवी कृत्य को "भारत बनाम इंडिया" का परिणाम बताया तो समाजवादी पार्टी के अबू आजमी भी फटाफट उनके समर्थन में आ खड़े हुए। अबू आजमी ने कहा कि महिलाओं को कुछ ज्यादा ही आजादी दे दी गई है। ऐसी आजादी शहरों में ज्यादा है। इसी वजह से यौन-अपराध की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति अविवाहित महिलाओं को गैर मर्दो के साथ घूमने की अनुमति नहीं देती है। अबू आजमी ने कहा कि जहाँ वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव कम है वहाँ ऐसे मामले भी कम हैं।

ये हैं देश के राष्ट्रपति के सपूत!
इससे पहले राष्ट्रपति के पुत्र एवं कॉंग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को अत्यधिक रंगी पुती बताकर विवाद खड़ा कर दिया। जनता की तीव्र प्रतिक्रिया के बाद अभिजीत ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पहले बेतुके और संवेदनहीन बयान देकर फिर उनके लिए माफी भी मांग चुके हैं। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय सलाहकार अशोक सिंघल ने भी अपराध का ठीकरा महिलाओं के सिर फोड़ते हुए पाश्चात्य जीवन शैली को ही दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार ठहराकर अमेरिका की नकल पर अपनाए गए रहन-सहन को खतरे की घंटी बताया।

इंडिया कहें, हिंदुस्तान कहें या भारत, सच्चाई यह है कि ये अपराध इसलिए होते हैं कि भारत भर में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं है। हर तरफ रिश्वतखोरी, लालच, दुश्चरित्र और अव्यवस्था का बोलबाला है। जिस पश्चिमी संस्कृति को हमारे नेता गाली देते नहीं थकते वहाँ एक आम आदमी अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार को छूए बिना आराम से गुज़ार सकता है। उन देशों में अकेली लड़कियाँ आधी रात में भी घर से बाहर निकलने से नहीं डरतीं जबकि सीता-सावित्री (और नूरजहाँ?) के देश में लड़कियाँ दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। मैंने गाँव और शहर दोनों खूब देखे हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो कानून नाम का जीव उतना भी नहीं दिखता जितना शहरों में। वर्ष 1983 से 2009 के बीच बलात्कार के दोषी पाये गए दुष्कर्म-आरोपियों में तीन-चौथाई मामले ग्रामीण क्षेत्र के थे। देश भर में केवल बलात्कार के ही हजारों मामले अभी भी न्याय के इंतज़ार में लटके हुए हैं।
अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा
पंचकन्‍या स्‍मरेन्नित्‍यं महापातकनाशनम्‌
भारत में राजनीति तो पहले ही इतनी बदनाम है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नमूनों में से किसी से भी संतुलित कथन की कोई उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। ऐसे संजीदा मौके पर भी ऐसी बातें करने वालों को न तो भारत के बारे में पता है न पश्चिम के बारे में, न नारियों के बारे में, न अपराधियों के, और न ही व्यवस्था के बारे में कोई अंदाज़ा है। तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं से महिलाओं या पुरुषों की आज़ादी की बात की तो अपेक्षा भी करना एक घटिया मज़ाक जैसा है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, विशेषकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच इन लोगों की मानसिकता के पिछड़ेपन के अलावा क्या दर्शा सकती है? लेकिन जले पर सबसे ज़्यादा नमक छिड़का अपने को भारतीय संस्कृति का प्रचारक बताने वाले बाबा आसाराम ने। आसाराम ने एक हाथ से ताली न बजने की बात कहकर मृतका का अपमान तो किया ही, बलात्‍कारियों के लिए कड़े कानून का भी इस आधार पर विरोध किया कि कानून का दुरुपयोग हो सकता है। आधुनिक बाबाओं का पक्षधर तो मैं कभी नहीं था लेकिन इस निर्दय और बचकाने बयान के बाद तो उनके भक्तों की आँखें भी खुल जानी चाहिए।
घटना के लिए वे शराबी पाँच-छह लोग ही दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा अपने आप को बचाने के लिए किसी को भाई बना लेती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। ~आसाराम बापू
पश्चिम, मग़रिब, या वैस्ट
पश्चिमी संस्कृति में रिश्वत लेकर गलत पता लिखाकर बसों के परमिट नहीं बनते, न ही पुलिस नियमित रूप से हफ्ता वसूलकर इन हत्यारों को सड़क पर ऑटो या बस लेकर बेफिक्री से घूमने देती है। न तो वहाँ लड़कियों को घर से बाहर कदम रखते हुए सहमना पड़ता हैं और न ही उनके प्रति अपराध होने पर राजनीतिक और धार्मिक नेता अपराध रोकने के बजाय उल्टे उन्हें ही सीख देने निकल पड़ते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। पश्चिमी देशों के कानून के अनुसार सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति दिखने पर पुलिस को सूचना न देना गंभीर अपराध है। कई राज्यों में पीड़ित की यथासंभव सहायता करना भी अपेक्षित है। इसके उलट भारत में अधिकांश दुर्घटनाग्रस्त लोग दुर्घटना से कम बल्कि दूसरे लोगों की बेशर्मी और पुलिस के निकम्मेपन के कारण ही मरते हैं। खुदा न खास्ता पुलिस घटनास्थल पर पीड़ित के जीवित रहते हुए पहुँच भी जाये तो अव्वल तो वह आपातस्थिति के लिए प्रशिक्षित और तैयार ही नहीं होती है, ऊपर से उसके पास "हमारे क्षेत्र में नहीं" का बहाना तैयार रहता है। किसी व्यक्ति को आपातकालीन सहायता देने वाले व्यक्ति को कोई कानूनी अडचन या खतरा नहीं हो यह तय करने के लिए भारत या इंडिया के कानून और कानून के रखवालों का पता नहीं लेकिन पश्चिमी देशों में "गुड समैरिटन लॉं" के नियम उनके सम्मान और सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं।

भारत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अक्सर हमारी पारिवारिक व्यवस्था और बड़ों के सम्मान का उदाहरण ज़रूर देते हैं। अपने से बड़ों के पाँव पड़ना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। अब ये बड़े किसी भी रूप में हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बंगाल या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हों या कॉंग्रेस की अध्यक्षा, पाँव पड़नेवालों की कतार देखी जा सकती है। बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं। बच्चे बचपन से यही देखकर बड़े होते हैं कि बड़े के पाँव पड़ना और छोटे का कान मरोड़ना सहज-स्वीकार्य है। ताकतवर के सामने निर्बल का झुकना सामान्य बात बन जाती है। पश्चिम में इस प्रकार की हिरार्की को चुनौती मिलना सामान्य बात है। मेरे कई अध्यापक मुझे इसलिए नापसंद करते थे क्योंकि मैं वह सवाल पूछ लेता था जिसके लिए वे पहले से तैयार नहीं होते थे। यकीन मानिए भारत में यह आसान नहीं था। लेकिन यहां पश्चिम में यह हर कक्षा में होता है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहाँ सहज स्वीकार्य है, ठीक उसी रूप में जिसमें हमारे मनीषियों ने कल्पना की थी। सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है। (अनुवाद आभार: अजित वडनेरकर)

पश्चिमी संस्कृति बच्चों की सुरक्षा पर कितनी गंभीर है इसकी झलक हम लोग पिछले दिनों देख ही चुके हैं जब नॉर्वे में दो भारतीय दम्पति अपने बच्चों के साथ समुचित व्यवहार न करने के आरोप में चर्चा में थे। रोज़ सुबह दफ्तर जाते हुए देखता हूँ कि चुंगी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की स्कूल बस खड़ी हो तो सड़क के दोनों ओर का ट्रैफिक तब तक पूर्णतया रुका रहता है जब तक कि सभी बच्चे सुरक्षित चढ़-उतर न जाएँ। लेकिन इसी "पश्चिमी" संस्कृति की दण्ड व्यवस्था में कई गुनाह ऐसे भी हैं जिनके साबित होने पर नाबालिग अपराधियों को बालिग मानकर भी मुकदमा चलाया जा सकता है और बहुत सी स्थितियों में ऐसा हुआ भी है। बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं, शताब्दी पुराने क़ानूनों मे बदलाव की ज़रूरत है। वोट देने की उम्र बदलवाने को तो राजनेता फटाफट आगे आते हैं, बाकी क्षेत्रों मे वय-सुधार क्यों नहीं? चिंतन हो, वार्ता हो, सुधार भी हो। निर्भया के प्रति हुए अपराध के बाद तो ऐसे सुधारों कि आवश्यकता को नकारने का कोई बहाना नहीं बचता है।

मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."

"फिर?"

"फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुँची और हम बदल गए।"

मैं यही सोच रहा था कि भारतीय सभ्यता के प्रति इतना आदर रखने वाले व्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर आकर एक टैक्सी में बैठते होंगे तब जो सच्चाई उनके सामने आती होगी ... आगे कल्पना नहीं कर सका।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखं
तत्‌ त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये
सत्य का मुख स्वर्णिम पात्र से ढँका है, कृपया सत्य को उजागर करें।

आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों या पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को!

* संबन्धित कड़ियाँ *
- अहिसा परमो धर्मः
- कितने सवाल हैं लाजवाब?
- 2013 में आशा की किरण?
- बलात्कार, धर्म और भय

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]