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Thursday, November 24, 2011

थैंक्सगिविंग - एक अनूठा आभार! - इस्पात नगरी से 52

आज नवम्बर मास का चौथा गुरुवार होने के कारण हर वर्ष की तरह आज संयुक्त राज्य अमेरिका में थैंक्सगिविंग का पर्व मनाया जा रहा है। यह उत्सव है परिवार मिलन का और अपने सुख और समृद्धि के लिये ईश्वर का आभार प्रकट करने के लिये। इस पर्व की परम्परा यूरोप से आये आप्रवासियों और अमेरिका के मूल निवासियों के समारोहों की सम्मिलित परम्परा का संगम है। आधुनिक थैंक्सगिविंग के आरम्भ के बारे में बहुत सी कहानियाँ हैं। सबसे ज़्यादा प्रचलित कथा के अनुसार इस परम्परा की जड़ें आधुनिक मासाचुसेट्स राज्य के प्लिमथ स्थान में 1621 में अच्छी फसल की खुशियाँ मनाने के लिये हुए एक समारोह में छिपी हैं। समारोह वार्षिक हो गया और यूरोपीय निवासियों के पास पर्याप्त भोजन न होने की दशा में वम्पानोआग जाति के मूल निवासियों ने उन्हें बीज देकर उनकी सहायता की।

टर्की (चित्र: अपार शर्मा द्वारा)
जैसे इस पर्व के उद्गम के बारे में किसी को ठीक से नहीं पता है वैसे ही किसी को यह नहीं पता कि धन्यवाद या आभार प्रकट करने के इस दिन पर टर्की पक्षी खाने की परम्परा कब से शुरू हुई। अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि आरम्भिक आभार दिवसों पर टर्की नहीं खाई जाती थी। जो भी हो, कालांतर में टर्की इस पारिवारिक पर्व का आधिकारिक भोजन बन गयी। संयुक्त राज्य जनगणना विभाग के एक अनुमान के अनुसार आज के आभार दिवस के लिये पूरे देश में लगभग 24 करोड़ अस्सी लाख टर्कियाँ पोषित की गयीं।

ऐसा नहीं कि आज सारे अमेरिका ने टर्की खाई हो। कुछ समय से लोगों ने टर्की के शाकाहारी विकल्पों के बारे में सोचना आरम्भ किया है। टोफ़र्की एक ऐसा ही विकल्प है। इसके साथ सामान्यतः कद्दू की मिठाई, आलू और करी जैसी सह-डिशें प्रयुक्त होती हैं। बहुत से अमेरिकी परिवारों में आजकल नई पीढी शाकाहारी जीवन शैली अपना रही है। इस वजह से कई जगह बुज़ुर्गों की टर्की के साथ में टोफ़र्की बनाने का प्रचलन भी बढ रहा है। शाकाहारी और वीगन परिवारों द्वारा प्रयुक्त टोफ़र्की मुख्यतः गेहूँ और सोयाबीन के प्रोटीन से बनाया जाता है। हाँ, हमारे जैसे परिवार तो टर्की और टोफ़र्की से दूर भारतीय भोजन की सुगन्ध से ही संतुष्ट हैं।

लेकिन आज की पोस्ट का केन्द्रबिन्दु टर्की या टोफ़र्की नहीं है। आज की यह आभार पोस्ट पिट्सबर्ग निवासी 72 वर्षीय श्री महेन्द्र पटेल के सम्मान में लिखी गयी है जिन्होंने स्थानीय भोजन-भंडार (Pittsburgh food bank) को दस हज़ार डॉलर का अनुदान दिया है। लगभग पाँच वर्ष पहले अपनी पत्नी नीला के कैंसर ग्रस्त होने का समाचार मिलने पर महेन्द्र जी ने प्रभु से उनके ठीक होने की मन्नत मांगी थी। अब पत्नी के स्वस्थ होने पर आभारदिवस पर उन्होंने पिट्सबर्ग के भोजन-भंडार को एक चेक लिखकर प्रभु के प्रति अपना आभार व्यक्त किया है।

आज के कठिन समय में जब बेरोज़गारों की संख्या बढ रही है और मध्यवर्गीय लोग भी भोजन-भंडारों में दिख रहे हैं, मैंने 10,000 डॉलर (फ़ुडबैंक को) देने का निश्चय किया। ~ श्री महेन्द्र पटेल
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* Gift of thanks to food bank - स्थानीय समाचार
* काला जुमा, बेचारी टर्की
* थैंक्सगिविंग - लिया का हिन्दी जर्नल
* 24 करोड़ 80 लाख टर्कियाँ
* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* Pumpkin Pie - कद्दू की मिठाई
* Thanksgiving - a poem

Friday, November 4, 2011

काली गिलहरी - इस्पात नगरी से 51

वाशिंगटन डीसी की गिलहरी
रामसेतु के निर्माण में वानर-भालू मिलकर जुटे थे। मगर उसमें एक छोटी गिलहरी का भी योगदान था। इतना महत्वपूर्ण योगदान कि श्रीराम ने उसे अपनी हथेली पर उठाकर सहलाया। वह भी इस प्रकार कि उनकी उंगलियों से बनी धारियां आज तक गिलहरी की संतति की पीठ पर देखी जा सकती हैं।

अब कहानी है तो विश्वास करने वाले भी होंगे। विश्वास करने वाले हैं तो कन्सपाइरेसी सिद्धांतों वाले भी होंगे। भाई साहब कहने लगे कि बाकी गिलहरियों का क्या? मतलब यह कि जो गिलहरियाँ उस समय सेतु बनाने नहीं पहुँचीं उनके बच्चों की पीठ के बारे में क्या? सवाल कोई मुश्किल नहीं है। उत्तरी अमेरिका में अब तक जितनी गिलहरियाँ देखीं, उनमें किसी की पीठ पर भी रेखायें नहीं थीं। न मानने वालों के लिये तीन सबूत उपस्थित हैं, डीसी, पिट्सबर्ग व मॉंट्रीयल से।

पैनसिल्वेनिया की गिलहरी

कैनैडा की गिलहरी

बात यहीं खत्म हो जाती तो भी कोई बात नहीं थी मगर वह बात ही क्या जो असानी से खत्म भी हो जाये और फिर भी इस ब्लॉग पर जगह पाये। पिछले दिनों मैंने पहली बार एक पूर्णतः काली गिलहरी देखी। आश्चर्य, उत्सुकता और प्रसन्नता सभी भावनायें एक साथ आयीं। जानकारी की इच्छा थी, पता लगा कि यह कृष्णकाय गिलहरियाँ मुख्यतः अमेरिका के मध्यवर्ती भाग में पायी जाती हैं लेकिन उत्तरपूर्व अमेरिका और कैनेडा में भी देखी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि यूरोपीयों के आगमन से पहले यहाँ काली गिलहरियाँ बहुतायत में थीं। घने जंगल उनके छिपने के लिये उपयुक्त थे। समय के साथ वन कटते गये और पर्यावरण भूरी गिलहरियों के पक्ष में बदलने लगा। और अब उन्हीं का बहुमत है।







[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Squirrels as captured by Anurag Sharma]
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Thursday, October 20, 2011

क्वेकर विवाह के साक्षी - इस्पात नगरी से 47

अमेरिका आने के बाद से बहुत से पाणिग्रहण समारोहों में उपस्थिति का अवसर मिला है जिनमें भारतीय और अमेरिकन दोनों प्रकार के विवाह शामिल हैं। किसी विवाह में वर पक्ष से, किसी में वधू पक्ष से, किसी में दोनों ओर से शामिल हुआ हूँ और एक विवाह में संचालक बनकर कन्या-वर को पति-पत्नी घोषित भी किया है। यह सभी विवाह अपनी तड़क-भड़क, शान-शौकत और सज्जा में एक से बढकर एक थे।

काली घटा छायी, प्रेम रुत आयी
मगर यह वर्णन है एक सादगी भरे विवाह का। जब हमारे दो पारिवारिक मित्रों ने बताया कि वे क्वेकर विधि से विवाह करने वाले हैं और उसमें हमारी उपस्थिति आवश्यक है तो मैंने तीन महीने पहले ही अपनी छुट्टी चिन्हित कर ली। इसके पहले देखे गये भारतीय विवाह तो होटलों में हुए थे परंतु अब तक के मेरे देखे अमरीकी विवाह चर्च में पादरियों की उपस्थिति में पारम्परिक ईसाई विधियों से सम्पन्न हुए थे। यह उत्सव उन सबसे अलग था।

नियत दिन हम लोग पहाड़ियों पर बसे पिट्सबर्ग नगर के सबसे ऊंचे बिन्दु माउंट वाशिंगटन के लिये निकले। पर्वतीय मार्गों को घेरे हुए काली घटाओं का दृश्य अलौकिक था। कुछ ही देर में हम वाशिंगटन पर्वत स्थित एक भोजनालय के सर्वोच्च तल पर थे। समारोह में अतिथियों की संख्या अति सीमित थी। बल्कि यूँ कहें कि केवल परिजन और निकटस्थ सम्बन्धी ही उपस्थित थे तो अतिश्योक्ति न होगी। और उस पर भारतीय तो बस हमारा परिवार ही था। वर वधू दोनों ही अमरीकी उत्साह के साथ अतिथियों का स्वागत करते दिखे। हम उनके परिजनों के साथ-साथ उनके पिछले विवाहों से हुए वर के 18 वर्षीय पुत्र और वधू की 16 वर्षीय पुत्री से भी मिले। अन्य अतिथियों की तरह वे दोनों भी सजे धजे और बहुत उत्साहित थे।

मनोहारी पिट्सबर्ग नगर
समारोह स्थल जलचरीय भोजन के लिये प्रसिद्ध है। लेकिन जब एक शाकाहारी को बुलायेंगे तो फिर अमृत शाकाहार भी कराना पड़ेगा, उस परम्परा का निर्वाह बहुत गरिमामय ढंग से किया जा रहा था। समारोह में कोई पादरी या धार्मिक प्रतिनिधि नहीं था। पूछने पर पता लगा कि क्वेकर परम्परा में पादरी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रभु और मित्र ही साक्षी होते हैं। आरम्भ में वर के भाई ने ईश्वर और अतिथियों का धन्यवाद देने के साथ-साथ अपने महान राष्ट्र का धन्यवाद दिया और उसकी गरिमा को बनाये रखने की बात कही। जाम उछाले गये। वर-वधू ने वचनों का आदान-प्रदान किया। वर की माँ ने एक संक्षिप्त भाषण पढकर उन्हें पति-पत्नी घोषित किया। वर ने वधू का चुम्बन लिया और दोनों ने विवाह का केक काटा।

सभी अतिथियों ने एक बड़े कागज़ पर पति-पत्नी द्वारा कलाकृति की तरह लिखे गये अति-सुन्दर किन्तु सादे विवाह घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी साक्षी दर्ज़ की। पेंसिल्वेनिया राज्य के नियमों के अनुसार क्वेकर विवाह में इस प्रकार का घोषणापत्र हस्ताक्षरित कर देना ही विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान करता है। इसके बाद भोजन लग गया और सभी पेटपूजा में जुट गये। मेज़ पर हमारे सामने बैठे वृद्ध दम्पत्ति हमें देखकर ऐसे उल्लसित थे मानो कोई खोया हुआ सम्बन्धी मिल गया हो। पता लगा कि वे लोग मेरे जन्म से पहले ही आइ आइ टी कानपुर के आरम्भिक दिनों में तीन वर्षों तक वहाँ रहे थे। उसके बाद उन्होंने नेपाल में भी निवास किया। उनकी बेटी और पौत्र के नाम संस्कृत में है। बातों में समय कहाँ निकल गया, पता ही न लगा।
चीफ़ गुयासुता व जॉर्ज वाशिंगटन
जब चलने लगे तब एक युवती ने रोककर बात करना आरम्भ किया। पता लगा कि वे एक योग-शिक्षिका हैं और अभी दक्षिण भारत की व्यवसाय सम्बन्धित यात्रा से वापस लौटी थीं। वे बहुत देर तक भारत की अद्वितीय सुन्दरता और सरलता के बारे में बताती रहीं। 25-30 लोगों के समूह में तीन भारत-प्रेमियों से मिलन अच्छा लगा और हम लोग खुश-खुश घर लौटे।

होटल से नगर का दृश्य सुन्दर लग रहा था। हमने कई तस्वीरें कैमरा में क़ैद कीं। नीचे आने पर जॉर्ज वाशिंगटन व सेनेका नेटिव अमेरिकन नेता गुयासुता की 29 दिसम्बर 1790 मे हुई मुलाकात का दृश्य दिखाने वाले स्थापत्य का सुन्दर नज़ारा भी कैमरे में उतार लिया। इस ऐतिहासिक सभा में जॉर्ज वाशिंगटन ने एक ऐसे अमेरिका की बात की थी जिसमें यूरोपीय मूल के अमरीकी, मूल निवासियों के साथ मिलकर भाईचारे के साथ रहने वाले थे। अफ़सोस कि बाद में ऐसा हुआ नहीं। जॉर्ज वाशिंगटन के साथ वार्तारत सरदार गुयासुता की यह मूर्ति 25 अक्टूबर 2006 को लोकार्पित की गयी थी।

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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Monday, October 10, 2011

एक नये संसार की खोज - इस्पात नगरी से 46


स्थानीय पत्र में कोलम्बस पर विमर्श
एक ज़माना था जब हर समुद्री मार्ग भारत तक पहुँचता था। विश्व का लगभग हर देश सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत के साथ आध्यात्मिक, व्यापारिक, और सामरिक सम्बन्ध रखने को आतुर था। विशेषकर यूरोप के राष्ट्रों में भारत आने का  छोटा और सुरक्षित मार्ग ढूंढने के लिये गलाकाट प्रतियोगिता चल रही थी। पाँच शताब्दी पहले यूरोप से भारत की ओर चले एक बेड़े के भौगोलिक अज्ञान के कारण एक ऐसे नये संसार की खोज हुई जो अब तक यूरोप से अपरिचित था। भारत की जगह आकस्मिक रूप से कोलम्बस और उसके साथी उस अज्ञात स्थल पर पहुँचे थे जो आने वाले समय में भारत की जगह विश्व की विचारधारा और कृतित्व का केन्द्र बनने वाला था।

12 अक्टूबर 1492 को क्रिस्टोफ़र कोलम्बस और उसके साथियों ने धरती के गोलाकार होने की नई वैज्ञानिक जानकारी का प्रयोग करते हुए पश्चिम दिशा से भारत का नया मार्ग ढूंढने का प्रयास किया। बेचारों को नहीं पता था कि यूरोप के पश्चिम में उत्तर से दक्षिण तक एक लम्बी दीवार के रूप में एक अति विशाल भूखण्ड भारत पहुँचने में बाधक बनने वाला है।

कोलम्बस का तैलचित्र
1451 में जेनोआ इटली में डोमेनिको कोलम्बो नामक बुनकर के घर जन्मा कोलम्बस 22 वर्ष की आयु में एक समुद्री कप्तान बनने का स्वप्न लेकर अपने घर से निकला। उसने तत्कालीन यूरोप के सर्वोत्तम समुद्री अन्वेषक राष्ट्र माने जाने वाले पुर्तगाल की भाषा सीखी, मार्को पोलो की यात्राओं का अध्ययन किया और नक्शानवीसी भी सीखी। पृथ्वी के गोलाकार रूप के बारे में जानने के बाद उसे भारत का पश्चिमी मार्ग ढूंढने का विचार आया।

अपने अभियान के लिये पुर्तगाल राज्य द्वारा सहायता नकारे जाने के बाद उसने स्पेन से वही अनुरोध किया और स्वीकृति मिलने पर नीना, पिंटा और सैंटा मारिया नामक तीन जलपोतों का दस्ता लेकर पैलोस बन्दरगाह से स्पेनी झंडे के साथ 3 अगस्त 1492 को पश्चिम दिशा में चल पड़ा।

कोलम्बस के अभियान के साथ ही आरम्भ हुआ अमेरिका के मूल स्थानीय नागरिकों और उनकी संस्कृति के विनाश की उस अंतहीन गाथा का जिसके कारण कुछ लोग आज कोलम्बस को एक खोजकर्ता कम और विनाशक अधिक मानते हैं। वैसे भी अमेरिगो वेस्पूशी जैसे नाविक पहले ही अमेरिका आ चुके थे और जिस महाद्वीप पर लोग पहले से ही रहते हों, उसकी "खोज" ही अपने आप में एक विवादित विषय है।

फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका में अक्टूबर मास का दूसरा सोमवार प्रतिवर्ष कोलम्बस डे के रूप में मनाया जाता है और एक राष्ट्रीय अवकाश है। क्षेत्र के अन्य कई राष्ट्र भी किसी न किसी रूप में इसे मान्यता देते हैं। वैसे अमेरिका की उपभोगवादी परम्परा में किसी भी पर्व का अर्थ अक्सर शॉपिंग, सेल, छूट, प्रमोशन आदि ही होता है। अमेरिका में बैठे एक भारतीय के लिये यह देखना रोचक है कि समय के साथ किस प्रकार विश्व के केन्द्र में रहने वाले राष्ट्र स्थानापन्न होते रहते हैं।

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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* कोलम्बस, कोलम्बस! छुट्टी है आयी

Tuesday, August 9, 2011

बॉस्टन का ईथर डोम – इस्पात नगरी से-45

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MGHअमेरिका के नव-इंग्लैंड क्षेत्र में 200 वर्ष पुराना एक ऐतिहासिक चिकित्सालय है। बॉस्टन के मैसैचुसैट्स जनरल हॉस्पिटल ने इस वर्ष अपनी द्विशताब्दी मनाई। 12 जनवरी 1965 में इस चिकित्सालय के चार्ल्स बुलफ़िंच भवन को अमेरिका की ऐतिहासिक धरोहरों में एक स्थान मिला। इस भवन के ऊपरी तल में सूर्य से प्रकाशित गुम्बद में एक छोटा सा गोल थियेटर जैसा हॉल है जो सन 1821 से 1876 तक इस चिकित्सालय का शल्यक्रिया कक्ष था।

Ether.Dome.MGH.Boston.9
उन दिनों शल्यक्रिया का काम बहुत कठिन होता था, क्योंकि मरीज़ अपने पूरे होशो-हवास में होता था। विभिन्न चिकित्सा संस्थान अनेक रसायनों के साथ ऐसे प्रयोग करते जा रहे थे जिनसे मरीज़ की पीडा कम की जा सके। इसी आशा के साथ 16 अक्टूबर 1846 में इस जगह पर गुम्बद की छत से आते सूर्य के प्रकाश में एक ऐसी शल्यक्रिया हुई जिसने नया इतिहास रचा।

उस दिन ऑपरेशन से पहले एक स्थानीय दंत चिकित्सक विलियम मॉर्टन (William Thomas Green Morton) द्वारा मरीज़ ऐडवर्ड गिल्बर्ट ऐबट को मुख द्वारा ईथर दिया गया। सर्जरी के बाद जब मरीज़ ने बताया कि उसे सर्जरी के दौरान कुछ भी पता नहीं चला, न कोई पीडा हुई तो हारवर्ड मेडिकल स्कूल के मुख्य शल्यकार जॉन कॉलिंस वारैन ने गर्व से घोषणा की, "सज्जनों, यह पाखण्ड नहीं है!" यह बयान अकारण नहीं था।  ईथर के इस सफल प्रयोग से पहले अनेक असफल प्रयोग हुए जिन्हें आलोचकों द्वारा पाखण्ड कहा गया था।

Ether.Dome.MGH.Boston.7ईथर डोम आज भी प्रयोग में लाया जाता है और जब उपलब्ध हो तब जनता द्वारा इसका दर्शन किया जा सकता है। इस कक्ष में एक ममी और अपोलो की भव्य मूर्ति के अतिरिक्त वारैन और लुसिया प्रोस्पैरी नामक कलाकारों द्वारा बनाया गया उस ऐतिहासिक सर्जरी का भव्य चित्र आज भी दीवार पर टंगा है।





[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Ether Dome pictures by Anurag Sharma]
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* Ether Dome

Thursday, August 4, 2011

नव फ़्रांस में गांधी - इस्पात नगरी से - 44

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अंग्रेज़ों के कब्ज़े से पहले पिट्सबर्ग के किले फ़ोर्ट पिट का नाम फ़ोर्ट ड्यूकेन था और वह फ़्रांसीसी अधिकार क्षेत्र में था। जिस प्रकार भारत में अंग्रेज़ों ने फ़्रांसीसियों को निबटा दिया था उनका लगभग वैसा ही हाल अमेरिका में हुआ। यहाँ तक कि ब्रिटेन से स्वतंत्रता पाने के बाद भी अमेरिका में अंग्रेज़ी का साम्राज्य बना रहा। इसके उलट कैनैडा का एक बडा भाग आज भी फ़्रैंचभाषी है। जिस तरह संयुक्त राज्य के उत्तरपूर्वी तटीय प्रदेश का एक भाग न्यू इंगलैंड कहलाता है उसी तरह कैनैडा का एक क्षेत्र अपने को नव-फ़्रांस कहता है। आजकल (तीन अगस्त से सात अगस्त तक) कैनैडा के क्यूबैक नगर में नव-फ़्रांस महोत्सव चल रहा है। फ़्रांस में आज भले ही लोग आधुनिक वस्त्र पहनते हों, परंतु क्यूबैक में इस सप्ताह आप कहीं भी निकल जायें, आपको हर वय के लोग पुरा-फ़्रांसीसी या अमेरिकी-आदिवासी वस्त्र पहने मिल जायेंगे।

आइये, आपके साथ क्यूबैक की गलियों का एक चक्कर लगाकर देखते हैं कि यहाँ चल क्या रहा है।
आदिवासी ऐवम् फ़्रांसीसी

बच्चे, संगीतकार और तपस्वी

फ़्रैंच कुलीन का हैट पहने आदिवासी बच्ची 

दुकान के आगे तलवार भांजते सज्जन

फ़्रांसीसी भाषा में कोई ऐतिहासिक एकपात्री नाटक

हमारा तम्बू यहीं गढेगा


जॉर्ज वाशिंगटन से लेकर नेपोलियन तक जो पिस्टल चाहिये मिलेगी

सैनिक की आड में छिपा पाइरेट ऑफ़ दि कैरिबियन 

शाम की सैर

एक परिवार

सैकाजेविया?
आदिवासी और उसकी मित्र

The smartest Indian
शताब्दी का सबसे स्मार्ट भारतीय क्यूबैक संसद में  

सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Quebec photos by Anurag Sharma
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* मेरे मन के द्वार - चित्रावली

Thursday, July 7, 2011

न्यूयॉर्क नगरिया [इस्पात नगरी से 43]

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पिट्सबर्ग में चार जुलाई के समारोह के अगले दिन ही अचानक ही न्यूयॉर्क जाने का संयोग बन गया। वैसे तो वहाँ इतनी बार जाना होता है मानो मेरा एक घर वहीं हो परंतु हर बार समय इतना कम होता है कि जब तक किसी को बताने की सोचूँ, तब तक वापस आ चुका होता हूँ। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। घर से निकलते ही अपने न्यूयॉर्क के कुछ मित्रों को पूर्वसूचना दे दी। एक मित्र के साथ एक पूरा दिन रहा। ग्राउण्ड ज़ीरो से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की दौड के बीच में कुछ देर तफ़रीह का समय भी मिला।

इस यात्रा के कुछ चित्र प्रस्तुत हैं, शायद आपको पसन्द आयें।

हैम्सली भवन

प्रमुख डाकघर
आतंकवादियों द्वारा गिराये गये जुडवाँ स्तम्भों के स्थल पर कार्य जारी है

आतंकियों द्वारा गिराये स्तम्भ के स्थल पर आकार लेता एक नया भवन

गतिमान पुलिस का तिपहिया वाहन 

नगर के एक मुख्य मार्ग पर घुडसवार पुलिस अधिकारी

संयुक्त राष्ट्र परिसर में एक कलाकृति  

स्वर्णमण्डित स्वातंत्र्य की देवी

ग्रैंड सेंट्रल स्टेशन

यहाँ के सिगार कास्त्रो नहीं खरीद सकता - एक पुरानी दुकान

न्यूयॉर्क ने मात्र 18 मास में एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग खडी कर दी थी 

विश्व की व्यापार राजधानी के लिये - भारत में बना हुआ 

ज़मीन कब्ज़ियाने के लिये शंघाई नागरिकों पर हो रहे कम्युनिस्ट अत्याचारों की कहानी सुनाने संयुक्त राष्ट्र कार्यालय आये चीनी शरणार्थी

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी 2011 में भी अपनी जनता को दोज़ख भेज रही है

अधिकांश चीनी पीछे छूटे अपने परिवार के डर से कैमरा के सामने नहीं आये परंतु यह दो निडर प्रस्तुत हैं

बन्दूक द्वारा जनता को कुचलने वालों का दुनिया भर में वही हाल होगा जो इस पिस्तौल का हुआ है

वापसी से पहले युवा और विद्वान ब्लॉगर अभिषेक ओझा के दर्शन हुए, यात्रा सफल रही।

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: All photos by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* स्टेटस ऑफ चाइनीज़ पीपल (अंग्रेज़ी)
* संयुक्त राष्ट्र (विकीपीडिया)
* न्यूयॉर्क में हिंदी

Saturday, November 27, 2010

आपका आभार! काला जुमा, बेचारी टर्की - [इस्पात नगरी से - 33]

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आप लोग मेरी पोस्ट्स को ध्यान से पढते रहे हैं और अपनी विचारपूर्ण टिप्पणियों से उनका मूल्य बढाते रहे हैं इसका आभार व्यक्त करने के लिये आभार दिवस से बेहतर दिन क्या होगा।

घर के अन्दर तो ठंड का अहसास नहीं है मगर खिड़की के बाहर उड़ते बर्फ के तिनके अहसास दिला रहे हैं कि तापमान हिमांक से नीचे है। परसों आभार दिवस यानि थैंक्सगिविंग था, अमेरिका का एक बड़ा पारिवारिक मिलन का उत्सव। उसके बाद काला जुम्मा यानि ब्लैक फ़्राइडे गुज़र चुका है। बस अड्डे, हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन तो भीड़ से भरे हुए थे ही, अधिकांश राजपथ भी वर्ष का सर्वाधिक यातायात ढो रहे थे।

पहला थैक्सगिविंग सन 1621 में मनाया गया था जिसमें "इंग्लिश सैपरेटिस्ट चर्च" के यूरोपीय मूल के लोगों ने अमेरिकन मूल के 91 लोगों के साथ मिलकर भाग लिया था। थैंक्सगिविंग पर्व में आजकल का मुख्य आहार टर्की नामक विशाल पक्षी होता है परंतु किसी को भी यह निश्चित रूप से पता नहीं है कि 1621 के भोज में टर्की शामिल थी या नहीं। अक्टूबर 1777 में अमेरिका की सभी 13 कॉलोनियों ने मिलकर यह समारोह मनाया। 1789 में ज़ॉर्ज़ वाशिंगटन ने थैंक्सगिविंग को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने की घोषणा की परंतु तब इस बात का विरोध भी हुआ।

सारा जोसेफा हेल, बॉस्टन महिला पत्रिका और गोडी'ज़ लेडी'ज़ बुक के 40 वर्षीय अभियान के बाद अब्राहम लिंकन ने 1863 में आभार दिवस का आधुनिक रूप तय किया जिसमें नवम्बर के अंतिम गुरुवार को राष्ट्रीय पर्व और अवकाश माना गया। 1941 के बाद से नवम्बर मास का चौथा गुरुवार "आभार दिवस" बन गया।

दंतकथा है कि लिंकन के बेटे टैड के कहने पर टर्की को मारने के बजाय उसे राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान देकर व्हाइट हाउस में पालतू रखा गया। ज़ोर्ज़ बुश के समय से राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान की परम्परा को पुनरुज्जीवित किया गया और जीवनदान पायी यह टर्कीयाँ वर्जीनिया चिड़ियाघर और डिज़्नेलैंड में लैंड होती रही हैं। यह एक टर्की भाग्यशाली है परंतु इस साल के आभार दिवस के लिये मारी गयी साढे चार करोड टर्कियाँ इतनी भाग्यशाली नहीं थीं।

आभार दिवस के भोज के बाद लोगों को व्यायाम की आवश्यकता होती है और इसका इंतज़ाम देश के बडे चेन स्टोर करते हैं - साल की सबसे आकर्षक सेल के लिये अपने द्वार अलसुबह या अर्धरात्रि में खोलकर। इसे कहते हैं ब्लैक फ्राइडे! इन सेल आयोजनों में कभी कभी भगदड और दुर्घटनायें भी होती हैं। कुछ वर्ष पहले एक वालमार्ट कर्मी की मृत्यु भी हो गयी थी। इंटरनैट खरीदी का चलन आने के बाद से अब अगले सोमवार को साइबर मंडे सेल भी चल पडी हैं।
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
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Sunday, October 31, 2010

पतझड़ की सुन्दरता [इस्पात नगरी से - 32]

पतझड़ का मौसम आ चुका है ठंड की चिलगोज़ियाँ शुरू होने लगी हैं। हर साल की तरह पर्णहीन वृक्षों से छूकर हवा साँय-साँय और भाँय-भाँय की अजीब-आवाज़ें निकालकर कमज़ोर दिल वालों के मन में एक दहशत सी उत्पन्न कर रही है। प्रेतों के उत्सव के लिये बिल्कुल सही समय है। कुछ लोगों के लिये पतझड़ का अर्थ ही निराशा या दुःख है परंतु पतझड़ की एक अपनी सुन्दरता भी है। संस्कृत कवियों का प्रिय मौसम है पतझड़। आप कहेंगे कि वह तो वसंत है। हाँ है तो मगर वसंत तो पतझड़ ही हुआ न!

वसंत = वस+अंत = (वृक्षों के) वस्त्रों का गिरना
तो फिर वसंत क्या है? कुसुमाकर = फूलों का खिलना, बहार

तो निष्कर्ष यह निकला कि पतझड़ वसंत है और वसंत बहार है। दूसरे शब्दों में पतझड़ ही बहार है। तो आइये देखते हैं पतझड़ की बहार के रंग - चित्रों के द्वारा


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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
मेरे आँगन में क्वान्ज़न चेरी ब्लोसम के रंग
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[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा - All photographs by Anurag Sharma]