Friday, November 19, 2010

1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

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मणिकर्णिका दामोदर ताम्बे (रानी लक्ष्मी गंगाधर राव)
(१९ नवम्बर १८३५ - १७ जून १८५८)

मात्र 23 वर्ष की आयु में प्राणोत्सर्ग करने वाली झांसी की वीर रानी लक्ष्मी बाई के जन्मदिन पर अंतर्जाल से समय समय पर एकत्र किये गये कुछ चित्रों और पत्रों के साथ ही सेनानी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ओजस्वी कविता के कुछ अंश:

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी - 1850 में फोटोग्राफ्ड 

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
युद्धकाल में रानी लिखित पत्र 

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
युद्धकाल में रानी लिखित पत्र

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी का पत्र डल्हौज़ी के नाम

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
मनु के विवाह का निमंत्रण पत्र

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अमर चित्र कथा का मुखपृष्ठ्

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

झांसी की रानी की आधिकारिक मुहर 
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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Sunday, November 14, 2010

अनुरागी मन - 7 [कहानी]

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अनुरागी मन - अब तक की कथा:
वासिफ वीरसिंह को अपनी हवेली में अप्सरा के सहारे छोड़कर ज़रूरी काम से बाहर गया। उसकी दिव्य सुन्दरी बहन झरना का असली नाम ज़रीना जानने पर वीर को ऐसा लगा जैसे उनका दिमाग काम नहीं कर रहा हो। बैठे बैठे उन्हें चक्कर सा आया ...
खण्ड 1; खण्ड 2; खण्ड 3; खण्ड 4; खण्ड 5; खण्ड 6
...और अब आगे की कहानी:
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“जी हाँ, मैं ठीक हूँ। बस तेज़ सरदर्द हो रहा है” वीरसिंह ने कठिनाई से कहा। अम्मा कुछ कहतीं इससे पहले ही झरना घबरायी हुई अन्दर आयी।

“क्या हुआ? किसे है सरदर्द?” वीर को चिंतित दृष्टि से देखते हुए पूछा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना बाहर जाते जाते बोली, “एक मिनट, ... मैं अभी दवा लाती हूँ।”

वाकई एक मिनट में वह एक ग्लास पानी, सेरिडॉन की पुड़िया और अमृतांजन की शीशी लिये सामने खड़ी थी, एक्दम दुखी सी परंतु फिर भी उतनी ही सुन्दर।

वीरसिंह ने जैसे ही गोली खाकर पानी का ग्लास वापस रखा, झरना उनके साथ बैठ गयी। इतना तो याद है उन्हें कि झरना ने उनका सिर अपनी गोद में रखकर उनके माथे पर अमृतांजन मलना शुरू किया था। दर्द से बोझिल माथे पर झरना की उंगलियों का स्पर्श ऐसा था मानो नर्क की आग में जलते हुए वीर को किसी अप्सरा ने अमृत से नहला दिया हो। झरना का चेहरा उनके मुख के ठीक ऊपर था। वह धीमे स्वरों में गुनगुनाती जा रही थी जिसे केवल वही सुन सकते थे:

तेरे उजालों को गालों में रक्खूँ
हर पल तुझी को खयालों में रक्खूँ
तोहे पानी सा भर लूँ गगरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में

अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए वे कब अपनी चेतना खो बैठे, उन्हें याद नहीं। जब उन्हें होश आया तो वे सोफे पर लेटे हुए थे। सामने उदास मुद्रा में वासिफ बैठा था। उनकी आंखें खुलती देख कर वह खुशी से उछला, “ठीक तो है न भाई? हम तो समझे आज मय्यत उठ गयी तेरी।”

ऐसा ही है यह लड़का। मौका कोई भी हो, शरारत से बाज़ नहीं आता है।

“हाँ मैं ठीक हूँ, अम्मा को बता दो तो मैं घर चलूँ” वीर ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।

“अम्मी अभी मेहमाँनवाज़ी में लगी हैं। ज़रीना के ससुराल वाले आये हुए हैं। सभी उधर बैठक में हैं, मैं बाद में कह दूंगा” वासिफ ने सहजता से कहा।

“ज़रीना के ... ससुराल वाले?” वीरसिंह मानो आकाश से नीचे गिरे, “मगर .... वह तो अभी छोटी है ... क्या उसकी शादी इतनी जल्दी हो गयी?”

“अभी हुई नहीं है मगर तय तो कबकी हो चुकी है। हम लोगों में पहले से ही बात पक्की कर लेने का चलन है।”

“तुम्हारी बहन को पता है ये बात?” वीरसिंह अब सदमे जैसी स्थिति में थे

“हाँ, छिपाने जैसी कोई बात ही नहीं है। वह तो बहुत खुश है इस रिश्ते से” वसिफ ने उल्लास से कहा।

वीरसिंह को एक झटका और लगा। सोफे पर लगभग गिरते हुए उन्होने वासिफ से स्पष्टीकरण सा मांगा, “कितनी बहनें हैं तुम्हारी?”

“बस एक, ज़रीना। अम्मी-अब्बू के सभी भाई बहनों के लडके ही हैं। इसीलिये अकेली ज़रीना सभी की लाडली है। तू जानता नहीं है क्या? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है। तुझे आराम की ज़रूरत है शायद। थोड़ा रुक जा या अपने घर चल। वैसे यह घर भी तेरा ही है जैसा ठीक समझे।

“घर ही चलता हूँ” वीर ने जैसे तैसे कहा। उन्हें लग रहा था कि परी सब काम छोड़कर उन्हें जाने की उलाहना देने आयेगी। रुकने और आराम करने की मनुहार करेगी। मगर जब वे वासिफ के साथ हवेली से बाहर आये तो मुस्कराकर विदा करने भी कोई आया गया नहीं।

[क्रमशः]

Wednesday, November 10, 2010

कमाकुरा के दाइ-बुत्सू

एक अन्य मन्दिर का आकर्षक द्वार
वृहद टोक्यो का जिला कामाकुरा आज भले ही उतना मशहूर न हो परंतु एक समय में यह जापान के एक राजवंश की राजधानी हुआ करता था। तब इसे कमाकुरा बकाफू, कमाकुरा शोगुनाते और रेंपू के नाम से भी पहचाना जाता था। राज-काज का केन्द्र होने का गौरव आज भले ही काफूर हो चुका हो परंतु कमाकुरा आज भी अपने दाइ-बुत्सू के लिये प्रसिद्ध है। दाइ-बुत्सू यानी आसीन बुद्ध यद्यपि आजकल इस शब्द को विशाल बुद्ध के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। जापान में शाक्यमुनि बुद्ध की कई विशाल और प्राचीन प्रतिमायें हैं। कमाकुरा के दाइ-बुत्सू भी उनमें से एक हैं।


दाइ-बुत्सू

तीन ओर से पर्वतों से घिरे कामाकुरा के दक्षिण में मनोहर सागर तट (सगामी खाड़ी) है। वैसे तो यह नगर रेल और सड़क मार्ग से टोक्यो से जुड़ा है परंतु दाइ-बुत्सु के दर्शन के लिये कमाकुरा से ट्रेन बदलकर एक छोटी उपनगरीय विद्युत-रेल लेकर हासे नामक ग्राम तक जाना होता है। इस स्टेशन का छोटा सा प्लेटफार्म स्कूल से घर जाते नौनिहालों से भरा हुअ था। गोरा रंग, पतली आंखें और चेहरे पर छलकती खुशी और मुस्कान उत्तरांचल की सहजता का अहसास दिला रही थी। यहाँ यह बताता चलूं कि जापान में मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं परदेस में था। लगातार ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि मैं भारत के एक ऐसे प्रदेश में हूँ जहाँ की भाषा मुझे अभी भी सीखनी बाकी है।


दर्शन से पहले ॐ अपवित्राय पवित्रो वा ...
कमाकुरा की अमिताभ बुद्ध की विशाल काँस्य प्रतिमा (दाइ-बुत्सू) लगभग बारह सौ वर्ष पुरानी है। यह जापान की तीसरी सबसे विशाल प्रतिमा है।  पांच शताब्दी पहले आये एक त्सुनामी में काष्ठ-मंडप के नष्ट हो जाने के बाद से ही यह प्रतिमा खुले आकाश में अवस्थित है। विश्व में जापान को पहचान दिलाने वाले प्रतीकों में से एक दाइ-बुत्सू के अतिरिक्त पाँच प्रमुख ज़ेन मन्दिर भी कमाकुरा क्षेत्र में पडते हैं।




सिंहद्वार के संगमर्मरी वनराज
1923 के भयानक भूकम्प में जब कमाकुरा के बहुत से स्थल नष्टप्राय हो गये थे तब जापानियों ने उनमें से अधिकांश का उद्धार किया परंतु अमिताभ बुद्ध का मन्दिर दोबारा बनाया न जा सका। पता नहीं अपने मन्दिर में बुद्ध कितने सुन्दर दिखते मगर मुझे तो खुले आकाश के नीचे पद्मासन में बैठे ध्यानमग्न शाक्यमुनि के मुखारविन्द की शांति ने बहुत प्रभावित किया। जापानी भक्त हाथ जोडकर धूप भी जला रहे थे और हुंडियों में येन भी डालते जा रहे थे।


बुद्ध के विशाल खडाऊं

मन्दिर के विशाल परिसर से उसके मूलरूप की भव्यता का आभास हो जाता है। बुद्ध की कांस्य-प्रतिमा अन्दर से पोली है और उसके भीतर जाने का मार्ग भी है। मूर्ति के पार्श्व भाग में दो खिड़कियाँ भी हैं। प्राचीन काल में प्रतिमा एक खिले हुए कमल के ऊपर स्थापित थी जो अब नहीं बचा है परंतु उसकी बची हुई चार विशाल पंखुडियाँ आज भी प्रतिमा के चरणों में रखी देखी जा सकती हैं।



बुद्ध के दर्शनाभिलाषी दादा-पोता
प्रवेश शुल्क २०० येन (सवा सौ रुपये?) है। देश-विदेश से हर वय और पृष्ठभूमि के लोग वहाँ दिख रहे थे। परिसर में अल्पाहार और स्मृति चिन्हों के लिये भारतीय तीर्थस्थलों जैसे ही छोटी-छोटी अनेक दुकानें थीं। अधिकांश दुकानों में महिलाओं की उपस्थिति इम्फाल, मणिपुर के ईमा कैथेल की याद ताज़ा कर रही थी। अलबत्ता यहाँ मत्स्यगन्ध नहीं थी। एक बच्चे को अपने पितामह के आश्रय में आइस्क्रीम खाते देखा तो उनकी अनुमति लेकर मैने उस जीवंत क्षण को कैमरे में कैद कर लिया। अगले अंक में हम चलेंगे समृद्धि के देवता का मन्दिर: रेंकोजी - जापान का एक गुमनाम सा परंतु अनूठा तीर्थस्थल जहाँ हम भारतीयों का दिल शायद जापानियों से भी अधिक धडकता है।

बुद्धम् शरणम् गच्छामि!
[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]