Wednesday, October 5, 2011

श्रद्धेय वीरांगना दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर

आप सभी को दशहरा के अवसर पर हार्दिक मंगलकामनायें!
एक शताब्दी से थोडा पहले जब 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद कलक्ट्रेट के नाज़िर पण्डित बांके बिहारी नागर के शहजादपुर ग्राम ज़िला कौशाम्बी स्थित घर में एक सुकुमार कन्या का जन्म हुआ तब किसी ने शायद ही सोचा होगा कि वह बडी होकर भारत में ब्रिटिश राज की ईंट से ईंट बजाने का साहस करेगी और क्रांतिकारियों के बीच आयरन लेडी के नाम से पहचान बनायेगी। बच्ची का नाम दुर्गावती रखा गया। नन्ही दुर्गावती के नाना पं. महेश प्रसाद भट्ट जालौन में थानेदार और दादा पं. शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे। दस महीने में ही उनकी माँ की असमय मृत्यु हो जाने के बाद वैराग्‍योन्‍मुख पिता ने उन्हें आगरा में उनके चाचा-चाची को सौंपकर सन्यास की राह ली।

1918 में आगरा निवासी श्री शिवचरण नागर वोहरा के पुत्र श्री भगवती चरण वोहरा के साथ परिणय के समय 11 वर्षीया दुर्गा पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर चुकी थीं। समस्त वोहरा परिवार स्वतंत्र भारत के सपने में पूर्णतया सराबोर था। जन-जागृति और शिक्षा के महत्व को समझने वाली दुर्गा ने खादी अपनाते हुए अपनी पढाई जारी रखी और समय आने पर प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शचीन्द्रनाथ रखा गया।

(7 अक्टूबर सन् 1907 -15 अक्टूबर सन् 1999) 
चौरी-चौरा काण्ड के बाद असहयोग आन्दोलन की वापसी हुई और देशभक्तों के एक वर्ग ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के साथ-साथ फ़्रांस, अमेरिका और रूस की क्रांति से प्रेरणा लेकर सशस्त्र क्रांति का स्वप्न देखा। उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल ने क्रांतिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल को पत्र लिखकर शचीन्द्र नाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी तैयार करने की सलाह दी। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल ने इलाहाबाद में शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का प्रारूप बनाया और इस प्रकार मिलकर आइरिश रिपब्लिकन आर्मी की तर्ज़ पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एचआरए) का गठन हुया जिसकी प्रथम कार्यकारिणी सभा 3 अक्तूबर 1924 को कानपुर में हुई जिसमें "बिस्मिल" के नेतृत्व में शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेन्द्र शुक्ल, योगेश चन्द्र चटर्जी, ठाकुर रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। कुछ ही समय में अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त जैसे नामचीन एचआरए से जुड गये। काकोरी काण्ड के बाद एच.आर.ए. के अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में एच.आर.ए. अपने नये नाम एच.ऐस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन/आर्मी) से पुनरुज्जीवित हुई। दुर्गाभाभी, सुशीला दीदी, भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा का सम्बन्ध भी इस संस्था से रहा।

माता-पिता के साथ शचीन्द्रनाथ
मेरठ षडयंत्र काण्ड में भगवतीचरण वोहरा के नाम वारंट निकलने पर वे पत्नी दुर्गादेवी के साथ लाहौर चले गये जहाँ वे दोनों ही भारत नौजवान सभा में सम्मिलित रहे। यहीं पर भारत नौजवान सभा ने तत्वावधान में भगवतीचरण वोहरा की बहन सुशीला देवी "दीदी" तथा अब तक "भाभी" नाम से प्रसिद्ध दुर्गादेवी ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर अपने खून से एक चित्र बनाया था।

सॉंडर्स की हत्या के अगले दिन 18 दिसम्बर 1928 को वे ही लाहौर स्टेशन पर उपस्थित 500 पुलिसकर्मियों को चकमा देकर हैट पहने भगत सिंह को अपने साथ रेलमार्ग से सुरक्षित कलकत्ता लेकर गयीं। राजगुरू ने उनके नौकर का वेश धरा और कोई मुसीबत आने पर रक्षा हेतु चन्द्रशेखर आज़ाद तृतीय श्रेणी के डब्बे में साधु बनकर भजन गाते चले। लखनऊ स्टेशन से राजगुरू ने वोहरा जी को उनके आगमन का तार भेजा जो कि सुशीला दीदी के साथ कलकत्ता में स्टेशन पर आ गये। वहाँ भगतसिंह अपने नये वेश में कॉंग्रेस के अधिवेशन में गये और गांधी, नेहरू और बोस जैसे नेताओं को निकट से देखा। भगतसिंह का सबसे प्रसिद्ध (हैट वाला) चित्र उन्हीं दिनों कलकत्ता में लिया गया।

भगतसिंह की गिरफ़्तारी के बाद आज़ाद के पास उस स्तर का कोई साथी नहीं रहा गया था जो उनकी कमी को पूरा कर सके। यह अभाव आज़ाद को हर कदम पर खल रहा था। अब आज़ाद और भगवतीचरण एक दूसरे के पूरक बन गए। ~शिव वर्मा
महान क्रांतिकारी दुर्गाभाभी
वोहरा दम्पत्ति लाहौर में क्रांतिकारियों के संरक्षक जैसे थे। जहाँ भगवतीचरण एक पिता की तरह उनके खर्च और दिशानिर्देश का ख्याल रखते थे वहीं दुर्गा भाभी एक नेत्री और माँ की तरह उनका निर्देशन करतीं और अनिर्णय की स्थिति में उनके लिये राह चुनतीं।

भगवतीचरण वोहरा की सहायता से चन्द्रशेखर आज़ाद ने पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में हुए सेंट्रल असेम्बली बम काण्ड में क़ैद क्रांतिकारियों को छुडाने के लिये जेल को बम से उडाने की योजना पर काम आरम्भ किया। इसी बम की तैयारी और परीक्षण के समय रावी नदी के तट पर सुखदेवराज और विश्वनाथ वैशम्पायन की आंखों के सामने 28 मई 1930 को वोहरा जी की अकालमृत्यु हो गयी। उस आसन्न मृत्यु के समय मुस्कुराते हुए उन्होंने विश्वनाथ से कहा कि अगर मेरी जगह तुम दोनों को कुछ हो जाता तो मैं भैया (आज़ाद) को क्या मुँह दिखाता?

शहीदत्रयी की फ़ांसी की घोषणा के विरोधस्वरूप दुर्गा भाभी ने स्वामीराम, सुखदेवराज और एक अन्य साथी के साथ मिलकर एक कार में मुम्बई के लेमिंगटन रोड थाने पर हमला करके कई गोरे पुलिस अधिकारियों को ढेर कर दिया। पुलिस को यह कल्पना भी न थी कि ऐसे आक्रमण में एक महिला भी शामिल थी। उनके धोखे में मुम्बई पुलिस ने बडे बाल वाले बहुत से युवकों को पूछताछ के लिये बन्दी बनाया था। बाद में मुम्बई गोलीकांड में उनको तीन वर्ष की सजा भी हुई थी।

भगवती चरण (नागर) वोहरा
4 जुलाई 1904 - 28 मई 1930
अडयार (तमिलनाडु) में मॉंटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लेने के बाद से ही वे भारत में इस पद्धति के प्रवर्तकों में से एक थीं। सन 1940 से ही उन्होंने उत्तर भारत के पहले मॉंटेसरी स्कूल की स्थापना के प्रयास आरम्भ किये और लखनऊ छावनी स्थित एक घर में पाँच छात्रों के साथ इसका श्रीगणेश किया। उनके इस विनम्र प्रयास की परिणति के रूप में आजादी के बाद 7 फ़रवरी 1957 को पण्डित नेहरू ने लखनऊ मॉंटेसरी सोसाइटी के अपने भवन की नीँव रखी। संस्था की प्रबन्ध समिति में कुछ राजनीतिकों के साथ आचार्य नरेन्द्र देव, यशपाल, और शिव वर्मा भी थे। 1983 तक दुर्गा भाभी इस संस्था की मुख्य प्रबन्धक रहीं। तत्पश्चात वे मृत्युपर्यंत अपने पुत्र शचीन्द्रनाथ के साथ गाजियाबाद में रहीं और शिक्षणकार्य करती रहीं। त्याग की परम्परा की संरक्षक दुर्गा भाभी ने लखनऊ छोडते समय अपना निवास-स्थल भी संस्थान को दान कर दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा राजनीति में आने के अनुरोध को उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पंजाब सरकार द्वारा 51 हजार रुपए भेंट किए जाने पर भाभी ने उन्हें अस्वीकार करते हुए अनुरोध किया कि उस पैसे से शहीदों का एक बड़ा स्मारक बनाया जाए जिससे भारत की स्वतंत्रता के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का अध्ययन और अध्यापन हो सके क्योंकि नई पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से परिचय की आवश्यकता है।

92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर सन् 1999 को गाजियाबाद में में रहते हुए उनका देहावसान हुआ। वोहरा दम्पत्ति जैसे क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व हमारे राष्ट्र पर, हम पर न्योछावर करते हुए एक क्षण को भी कुछ विचारा नहीं। आज जब उनके पुत्र शचीन्द्रनाथ वोहरा भी हमारे बीच नहीं हैं, हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हमने उन देशभक्तों के लिये, उनके सपनों के लिये, और अपने देश के लिये अब तक क्या किया है और आगे क्या करने की योजना है ।

सात अक्टूबर को दुर्गा भाभी के जन्मदिन पर उन्हें शत-शत नमन!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* आजादी का अनोखा सपना बुना था दुर्गा भाभी ने
* Durga bhabhi: A forgotten revolutionary
* अमर क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा
* हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र
शहीदों को तो बख्श दो
* महान क्रांतिकारी थे भगवती चरण वोहरा
जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
काकोरी काण्ड
* Lucknow Montessori Inter College
Revolutionary movement for Indian independence

Tuesday, September 27, 2011

नायकत्व क्या है - सारांश और विमर्श

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आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। पाँच कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4;  भाग 5; ... और अब आगे:


न्यूयॉर्क में नेहरु व कास्त्रो; आज कौन कहाँ हैं? 
अपनी चार और छह वर्षीया बेटियों के साथ न्यूयॉर्क नगर के एक मेट्रो स्टेशन पर खड़ा अधेड़ व्यक्ति जब निकट आती ट्रेन के आगे कुछ फ़ुट भर की दूरी से कूद गया तो लोगों के विस्मय का ठिकाना न रहा। पाँच डब्बे उसके ऊपर से गुज़र जाने के बाद ट्रेन रुकी तो लोगों ने उसकी आवाज़ सुनी, "मेरी बेटियों को बता दीजिये कि हम ठीक हैं।"

बिजली काट दी गयी और रक्षाकर्मी नीचे उतर गये। ट्रेन से चोट खाने में कुछ सेंटीमीटर ही बचे श्री वेज़्ली ऑट्री (Wesley Autrey) को सुरक्षित निकाल लिया गया। ऐंठन और चक्कर आने से बेहोश होकर ट्रेन के नीचे गिरे बीस वर्षीय युवक कैमरॉन हॉलोपीटर (Cameron Hollopeter) की जान भी बच गयी थी क्योंकि समय रहते एक साहसी नायक अपनी नन्ही बेटियों को पीछे छोड़कर अपनी जान पर खेल गया था। हमारे चहुँ ओर बिखरे अनेक नायकों की तरह वेज़्ली के उदाहरण ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि नायकों के लिये अवसरों की कोई कमी नही है।

उस रात अपने काम पर जाने से पहले वह 50 वर्षीय मज़दूर अस्पताल में भर्ती कैमरॉन से मिला और पत्रकारों के हुज़ूम के पूछने पर इतना ही बोला, "कोई अनोखी बात नहीं, मैंने केवल अपना कर्तव्यपालन किया है।"

निम्न सारणी में मैंने नायकों के कुछ सर्वमान्य गुण दर्शाने का प्रयास किया है। किसी विशेष क्रम में नहीं हैं। आपके सुझावों व सलाह के अनुसार यथायोग्य सुधार करता रहूँगा। देखिये और अपने विचारों से अवगत कराइये:

गुण  कुछ उदाहरण गुण विस्तार विलोम
साहस प्रत्येक नायक साहस के बिना नायकत्व ... असम्भव स्वार्थ, भय, शिथिलता
व्यक्तिगत स्वतंत्रता दैवी तंत्र में हर देवता स्वतंत्र है जबकि आसुरी/राक्षसी व्यवस्था में शक्ति का एक दमनकारी केन्द्र वैचारिक, आर्थिक, व्यक्तिगत, शैक्षणिक आदि हर प्रकार की स्वतंत्रता का सम्मान, असहमति का आदर तानाशाही, दमन, असहिष्णुता, अनुचित बलप्रयोग; जनजीवन सत्ताधीश के नियंत्रण में 
आंकलन, रणनीति, कार्य-निष्पादन प्रत्येक नायक स्थिति का सही आकलन, उसके अनुसार रणनीति का निर्माण और कार्य निष्पादन हिंसा, बाहुबल, रक्तिम क्रांति, बारूद की पूजा
धैर्य, सहनशक्ति, संयम प्रत्येक नायक जल्दी का काम शैतान का, सहज पके सो मीठा होय जल्दबाज़ी, अधीरता
निस्वार्थ भाव, उदारता, परोपकार, जनसेवा प्रत्येक नायक इदम् न मम्,
सर्वे भवंतु सुखिनः,
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय
निहित स्वार्थ, लोभ, व्यक्तिगत लाभ की आशा
विश्वास, श्रद्धा प्रत्येक नायक काम तो होगा ही, पहली आहुति कौन दे शंका, अस्थिर मन, दुविधा
एकाग्रता प्रत्येक नायक असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
अधूरा मन, चित्त की चंचलता, मोह, लोभ, अंतर्द्वन्द्व 
वीरता प्रत्येक नायक परशुराम से लेकर मंगल पाण्डे तक भय, स्वार्थ, मोह, कायरता, आतंक
सातत्य प्रत्येक नायक गीता के अनुसार "अभ्यास" कभी हाँ, कभी न, डांवाडोल मन
निश्चय, दृढता, संकल्प, इच्छाशक्ति, नि:शंकभाव भगवान राम, गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण वोहरा, नेताजी, एब्राहम लिंकन जनहित में जो ठान लिया वह होके रहेगा, लक्ष्यबेधन की सफलता में कोई शंका नहीं किस्म-किस्म के प्रारूप, आधा-अधूरा मन, भय से सत्ता/शक्ति/अधिकारी की बात मानना
शुचिता, पारदर्शिता, सत्य, ईमानदारी राजा हरिश्चन्द्र, विनोबा भावे, अनेक संत न झूठ की ज़रूरत न बेनामी सौदे, न विचारधारा के संकीर्ण बिन्दु, न दुराव, न छिपाव, दोस्ती, दुश्मनी सब स्पष्ट, ग्लासनोस्त  छल, सत्ता हथियाने तक विचारधारा के कलुषित पक्ष छिपाकर रखना। ऐसा एजेंडा जिसे छिपाना पड़े
सृजन, नवीनता विनोबा, गांधी, भीकाजी कामा, राधानाथ सिकदरराम चन्द्र शर्मा, बिन्देश्वर पाठक जयपुर पांव, सुलभ शौचालय, हिमालय त्रिकोणमिति सर्वेक्षण, भूदान और सविनय अवज्ञा जैसे आन्दोलन पुरानी समस्याओं का नूतन हल ढूंढने की लालसा और क्षमता के उदाहरण हैं लकीर के फ़कीर, मानसिक दिवालियापन, कट्टरपंथ
ज़िम्मेदारी का भाव, स्वीकारोक्ति रामप्रसाद बिस्मिल, राणा प्रताप, दलाई लामा अपने काम की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर, मिशन असफल होने पर ईमानदार स्वीकारोक्ति और कारण-निवारण आँकलन क्षमता का अभाव, दोषारोपण परिस्थितियों या अन्य पक्ष को; आंगन टेढा
यज्ञभाव, समन्वयीकरण, लोकतंत्र जॉर्ज वाशिंगटन, लेख वालेसा, गोर्बाचोफ़, अटल बिहारी वाजपेयी, गांधी, अन्ना हज़ारे, नाना साहेब, नेताजी मिलजुलकर विमर्श, लक्ष्य-निर्धारण, और उद्देश्य-प्राप्ति, भेद को मिटाकर साम का सम्मान, मतभेद व विविधता का आदर, व्यक्तिवाद का अभाव तानाशाही, भेद, द्वेष, अलगाववाद, विभाजन, विघटन, फिरकापरस्ती
निष्ठा, समर्पण नेताजी, शहीदत्रयी, तात्या टोपे, भरत, हनुमान, लक्ष्मण, विभीषण, मीरा, अजीमुल्ला खां छोटे उद्देश्यों के मुकाबले विस्तृत उद्देश्यों में निहित होती है, कई बार इसे ग़लती से स्वामिभक्ति समझा जा सकता है। बहसें, बाधायें, हुज्जत, हीन भावना, कुंठा, स्वामिभक्ति, व्यक्तिवाद, व्यक्तिपूजा
ज्ञान, जाँच, खोज, ज्ञानपिपासा, बहुमुखी प्रतिभा एच.एस.आर.ए. के अधिकांश क्रांतिकारी, भगवान राम, भगवान कृष्ण, ल्योंआर्दो दा विंची नायक जीवनभर सीखते-सिखाते हैं,  खुली जानकारी व्यवस्था; सत्ता की नहीं सत्य की खोज  अन्धश्रद्धा, विचारधारा/कल्ट/धर्म/जाति का परचम
शक्ति, बल, क्षमता प्रत्येक नायक सोने का दिल काफ़ी नहीं ... केवल अच्छा ही नहीं, सक्षम भी होना दौर्बल्य, अक्षमता, प्रमाद
क्षमा, वात्सल्य, प्रेम, करुणा बुद्ध, महावीर, प्रभु यीशु, मदर टेरेसा, रामानंद वसुधैव कुटुम्बकम् हिन्सा, क्रूरता, अहंकार, स्वाभिमान
निर्लिप्तता, निरपेक्षता दुर्गा भाभी, खुदीराम बासु गीता के अनुसार "वैराग्य" स्वार्थ, लोभ, अहंकार, पक्षपात
भावनात्मक परिपक्वता भारतीय ग्रंथों के अधिकांश नायक, भारतीय स्वतंत्रता सेनानी जोश नहीं होश से काम करना. भावनाओं से नहीं, विचार-विमर्श-मंत्रणा से कार्य निष्पादन, धीर, गंभीर, छवि से बेफिक्र प्रपंच, जोश में होश खो बैठना, उकसावे में आ जाना, भड़क जाना, आत्मविश्वास में कमी
त्याग, बलिदान मीरा, अरस्तू, यीशु, सीता, गुरु अर्जुन देव, रानी लक्ष्मीबाई, चाफेकर बन्धु आदि तन मन धन न्योछावर करने को तैयार, कर्मण्येवाधिकारस्ते ... स्वार्थ, लाभ-हानि का हिसाब, दूसरों से तुलना
न्यायप्रियता प्रत्येक नायक आदिशंकर और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ में श्रीमती मिश्र का निर्णायक बनना महापुरुषों की न्यायप्रियता का अनूठा उदाहरण है माइट इज़ राइट; मेरा देश/धर्म/जाति/परिवार/विचार ही श्रेष्ठ; संकीर्णता, क्रूरता, मूर्खता 
मन्यु प्रत्येक नायक दधीचि से लेकर भगत सिंह तक क्रोध, आवेश, असहिष्णुता, अधैर्य, निर्बलता, संकीर्णता, क्रूरता, मूर्खता, अहंकार

हरि अनत हरि कथा अनंता!
ऐसा लगता है मानो नायकों में पवित्रता का अंश कुछ अधिक ही निखरकर आया हो। लिखने का अंत नहीं है परंतु कहीं तो रुकना ही होगा, इसलिये यहाँ इस शृंखला का समापन करता हूँ। भूल-चूक सुधारने के लिये आप पर विश्वास है। ज़रा अपने प्रिय नायक/नायिका का नाम तो बताइये और सम्भव हो तो उसे आदर करने का कारण भी।
[समाप्त]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 5
डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
११ सितम्बर के बहाने ...

Saturday, September 24, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 5

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आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। चार कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1भाग 2भाग 3; भाग 4;  अब आगे:
लीक-लीक कायर चलैं, लीकहि चलैं कपूत
लीक छोड़ तीनौं चलैं, शायर-सिंह-सपूत॥
नायक विचारवान होते हैं, अभिनव मार्ग बनाते हैं, पुरानी समस्याओं के नूतन हल प्रस्तुत करते हैं। उनकी उपस्थिति से जड़ समाज को जागृति मिलती है। उनकी बहुत सी बातें शीशे की तरह साफ़ दिख जाती हैं परंतु बहुत से गुणों को ठीक प्रकार समझने के लिये हमें स्वयं भी थोड़ा ऊपर उठना पडेगा। याज्ञवल्क्य की वह कथा शायद आप लोगों को याद हो जब आश्रम के लिये धन की आवश्यकता पड़ने पर वे राजा जनक के दरबार में पहुँचते हैं और वहाँ चल रही शास्त्रार्थ प्रतियोगिता के विजेता को मिलने वाले स्वर्ण व गोधन साथ ले चलने का आदेश अपने शिष्यों को देते हैं। विद्वान प्रतियोगी इसे उनका अहंकार जानकर पूछते हैं कि क्या वे अपने को वहाँ उपस्थित सभी प्रतियोगियों से बेहतर समझते हैं, तब वे इसे विनम्रता से नकारते हुए कहते हैं कि उनके आश्रम को गायों की आवश्यकता है। उस प्रतियोगिता में उपस्थित अधिकांश विद्वज्जन इसे उनका अभिमान और हेकड़ी मान कर शास्त्रार्थ के लिये ललकारते हैं और अंततः याज्ञवल्क्य विजयी होकर सारी गायें अपने आश्रम ले जाते हैं।

इस सामान्य सी दिखने वाली कहानी को प्रतियोगी विद्वज्जनों की नज़र से बाहर आकर एक भिन्न दृष्टि से देखें तो दिखता है कि याज्ञवल्क्य को सम्मान पाने या प्रतियोगिता में अपने को सिद्ध करने में कोई रुचि नहीं थी। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ वेन डायर इस प्रवृत्ति को "दूसरों की बनाई छवि से मुक्ति" कहते हैं। याज्ञवल्क्य की रुचि स्वर्ण या गोधन में भी नहीं थी परंतु वह उस समय एक आदर्श उद्देश्य की आवश्यकता थी, ठीक वैसे ही जैसे गंगा को गोमुख से गंगासागर तक लाना भागीरथ के लिये। याज्ञवल्क्य को न केवल अपनी क्षमता का बल्कि सभा के अन्य प्रतियोगियों की योग्यता का भी सही आँकलन था। अपनी विजय का विश्वास ही नहीं बल्कि ज्ञान होते हुए भी उन्होंने बहस में दूसरों को हराने से बचने का प्रयास किया और चुनौती दिए जाने पर भी अपनी योग्यता का ढिंढोरा पीटने के बजाय "आवश्यकता" की विनम्र बात की। इसके विपरीत उनके प्रतिद्वन्द्वी प्रतियोगी उनकी सदाशयता, सदुद्देश्य, विनम्रता, आँकलन क्षमता को न देख सके और उनमें उस स्वार्थ और अहंकार को देखते रहे जो याज्ञवल्क्य में नहीं बल्कि स्वयं उनमें उछालें ले रहा था। देखने वाली नज़र न हो तो सरलता भी अहंकार ही लगती है और इस प्रकार हमारी नज़र धुन्धली हो जाती है।
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारन, साधुन धरा शरीर।। ~ संत कबीरदास
निर्लिप्तता और सर्वस्व त्याग तो नायकों का नैसर्गिक गुण है। मानव शवों की प्रसिद्ध "बॉडीज़" प्रदर्शनी के पिट्सबर्ग आने की बात पर स्थानीय अजायबघर के एक कर्मचारी को जब यह पता लगा कि मृतकों के शव चीन सरकार द्वारा अनैतिक रूप से अधिगृहीत किये गये हैं तो उन्होंने इसका विरोध किया। कानूनी बहस शुरू होने पर यह सिद्ध हुआ कि कि यदि अधिग्रहण के देश (चीन) के कानून का पालन किया गया है तो फिर यह शव अधिग्रहण अमेरिका में भी कानूनी ही माना जायेगा। प्रदर्शनी नहीं रुकी परंतु उस कर्मचारी ने "एक अनैतिक कार्य" का भाग बनने के बजाय नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। दूसरी ओर पशुप्रेम पर भाषण देने वाले एक ब्लॉग परिचित ने किस्सा लिखा जिसमें अपने एक क्लाइंट की निन्दा करते हुए उन्होंने उसके घर में होने वाले पशु-अत्याचार का ज़िक्र किया। मज़े की बात यह है कि वहाँ रहते हुये उन्होंने न तो अपने क्लाइंट से इस बारे में कोई बात की और न ही उनके दिमाग़ में एक बार भी उस कॉंट्रैक्ट को छोड़ने का विचार आया। सत्पुरुष इस प्रकार का दोहरा व्यवहार नहीं करते। वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार और पारदर्शी होते हैं और निहित स्वार्थ और प्रलोभनों से विचलित नहीं होते। धन, लाभ, व्यक्तिगत स्वार्थ, और दूसरों की कीमत पर अपना उत्थान उनकी प्रेरणा कभी नहीं हो सकते। बात चाहे पशु-प्रेम की हो, बाल-श्रम की, नागरिक समानता की या नारी-अधिकारों की, नायकों का क्षेत्र सीमित या विस्तृत कैसा भी हो सकता है परंतु उनकी दृष्टि सदा उदात्त ही रहती है, कभी संकीर्ण नहीं होती।

प्रलोभन की तलवार दुधारी होती है। कई बार वह कुविचार की प्रेरणा बनता है और कई बार सत्कर्म में बाधा। लिखना, बोलना, उपदेश देना आसान होगा पर सत्पथ पर चलना "इदम् न मम्" के बिना शायद ही सम्भव हुआ हो।

साहस, धैर्य और सहनशीलता के बिना कैसा नायक? राणा प्रताप घास की रोटी खाकर लड़े, गुरु अर्जुन देव को भूखा प्यासा रखकर खौलते पानी, सुलगते लोहे और जलती रेत में डाला गया, प्रभु यीशु को चोरों और अपराधियों के साथ क्रॉस पर टांगा गया, मीरा को विष दिया गया मगर इनको इनके पथ से डिगाया न जा सका। नायक मानवमात्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जीते-जागते प्रतिमान होते हैं। मानव मन की स्वतंत्रता और सम्मान में उनका दृढ विश्वास रहता है।

ग़रीबनवाज़ भगवान की भक्तवत्सलता से नायकों ने शरणागत-रक्षा का गुण अपनाया है। वे सबको अपनाते हैं। बुद्ध ने अंगुलिमाल को अपनाया। कभी मानव-उंगलियों का हार पहनने वाला दानव अहिंसा का ऐसा पुजारी बना कि पत्थरों से चूर होकर जान दे दी परंतु उफ़ नहीं की। न क्षोभ हुआ न हाथ उठाया। चाणक्य ने शत्रुपक्ष के राक्षस को उसकी योग्यता के अनुरूप सम्मान और ज़िम्मेदारी सौंपी। मुझे तो द्वेष से मुक्ति भी नायकत्व की एक अनिवार्य शर्त लगती है। गीता में इसी गुण को अद्रोह कहा गया है।

सामान्य दुर्गुणों यथा काम, क्रोध, लोभ, लोभ और मोह आदि को तो हम सभी आसानी से पहचान सकते हैं परंतु उनके अलावा भी अनेक दुर्गुण ऐसे हैं जिनको त्यागे बिना नायकत्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। क्रूरता, सत्तारोहण की इच्छा, तानाशाही, अहंकार, दोषारोपण, कुंठा, हीन भावना, आहत होने का स्वभाव, अन्ध-स्वामिभक्ति आदि ऐसे ही दुर्गुण हैं।
[क्रमशः] [अगली कड़ी में सम्पन्न]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4
डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
महानता के मानक (प्रवीण पाण्डेय)
मैं कोई सांख्यिकीय नहीं हूं! (देवदत्त पटनायक)