Wednesday, August 27, 2014

अपना अपना राग - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

हर नगरी का अपना भूप
अपनी छाया अपनी धूप

नक्कारा और तूती बोले
चटके छन्नी फटके सूप

फूट डाल ताकतवर बनते
राजनीति के अद्भुत रूप

कोस कोस पर पानी बदले
हर मेंढक का अपना कूप

ग्राम नगर भटका बंजारा
दिखा नहीं सौन्दर्य अनूप

Saturday, August 23, 2014

जोश और होश - बोधकथा

चेले मीर ने सारे दांव सीख लिए थे। जीशीला भी था, फुर्तीला भी। नौजवान था, मेहनती था, बलवान तो होना ही था। फिर भी जो इज्ज़त उस्ताद पीर की थी, उसे मिलती ही न थी। गैर न भी करें, उस्ताद भी उसे बहुत होशियार नहीं समझते थे और सटीक से सटीक दांव पर भी और अधिक होशियार रहने की ही सलाह देते थे।

बहुत सोचा, बहुत सोचा, दिन भर, फिर रात भर सोचा और निष्कर्ष यह निकाला कि जब तक वह शागिर्द बना रहेगा, उसे कोई भी उस्ताद नहीं मानेगा। आगे बढ़ना है तो उसे शागिर्दी छोडकर जाना पड़ेगा। लेकिन उसके शागिर्दी छोड़ने भर से उस्ताद की उस्तादी तो छूटने वाली नहीं न। फिर?

उस्ताद को चुनौती देनी होगी, उसे हराना पड़ेगा। उस्ताद की इज्ज़त इसलिए है क्योंकि वह आज तक किसी से हारा नहीं है। चुनौती नहीं स्वीकारेगा तो बिना लड़े ही हार जाएगा। और अगर मान ली, तब तो मारा ही जाएगा। सारे दांव तो सिखा चुका है, और अब बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोहा ले सके।

लीजिये जनाब, युवा योद्धा ने अखाडा छोड़कर गुरु को ललकार कर मुक़ाबला करने की चुनौती भेज दी। उस्ताद ने हँसकर मान भी ली और यह भी कहा कि पहले भी कुछ चेले नौजवानी में ऐसी मूर्खता कर चुके हैं। उनमें से कई मुक़ाबले के दिन कब्रिस्तान सिधार गए और कुछ आज भी बेबस चौक पर भीख मांगते हैं। युवा योद्धा इन बातों से बहकने वाला नहीं था। मुक़ाबले में समय था फिर भी टाइमटेबल बनाकर गुरु के सिखाये सारे गुरों का अभ्यास लगन से करने लगा।

(चित्र: अनुराग शर्मा)
एक दिन सपने में देखा कि उस्ताद से मुक़ाबला है। वह ज़मीन पर पड़ा है और उस्ताद ने तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई हुई है। उसने आश्चर्य से पूछा, "इन बूढ़े हाथों में इतनी ताकत कैसे?" उस्ताद ने सिंहनाद कराते हुए कहा, "ताकत मेरी नहीं मेरे गुरू के सूत्र द्वारा बनवाई गई इस तलवार की है।"  बेचैनी में आँख खुली तो फिर नींद न आई। सुबह उठते ही पुराने अखाड़े पहुँचकर ताका-झाँकी करने लगा। गाँव का लुहार उसके सामने ही अखाड़े में गया। उस्ताद उसे अक्सर बुलाते थे। उस्ताद की तलवारें अखाड़े की भट्टी में उनके निर्देशन में ही बनती थीं। शाम को जब लुहार बाहर निकला तो चेले ने पूछा, "क्या करने गया था?" लुहार ने बताया कि उस्ताद पाँच फुट लंबी तलवार बनवा रहे हैं, आज ही पूरी हुई है।

जोशीले चेले ने सोने का एक सिक्का लुहार के हाथ में रखकर उसी समय आठ फुट लंबी तलवार मुकाबले से पहले बनाकर लाने का इकरार करा लिया और घर जाकर चैन से सोया।

दिन बीते, मुकाबला शुरू हुआ। गुरु की कमर में पाँच फुट लंबी म्यान बंधी थी तो चेले की कमर में आठ फुट लंबी। तुरही बजते ही दोनों के हाथ तलवार की मूठ पर थे। चेले के हाथ छोटे पड़ गए, म्यान से आठ फुटी तलवार बाहर निकल ही न सकी तब तक उस्ताद ने नई पाँच फुटी म्यान से अपनी पुरानी सामान्य छोटी सी तलवार निकालकर उसकी गर्दन पर टिका दी।

होश के आगे जोश एक बार फिर हार गया था।

[समाप्त]

Monday, August 11, 2014

दीपशलाका बच्ची - हान्स क्रिश्चियन एंडरसन

हान्स क्रिश्चियन एंडरसन लिखित मार्मिक कथा "माचिस वाली नन्ही बच्ची" डैनिश भाषा में दिसंबर 1845 में पहली बार छपी थी। तब से अब तक अनेक भाषाओं में इसके अनगिनत संस्करण आ चुके हैं। इस कथा पर आधारित संगीत नाटक भी हैं और इस पर फिल्में भी बनी हैं। पहली बार पढ़ते ही मन पर अमिट छाप छोड़ देने वाली यह कहानी मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। मेरे शब्दों में, इस कथा का सार इस प्रकार है:

हान्स क्रिश्चियन एंडरसन (विकीपीडिया से साभार)
नववर्ष की पूर्व संध्या, हाड़ कँपाती सर्दी। दो पैसे की आशा में वह नन्ही सी निर्धन बच्ची सड़क पर माचिस बेच रही थी। बेतरह काँपती उस बच्ची को शायद ठंड पहले से ही जकड़ चुकी थी। इतनी सर्दी में उसे घर पर होना चाहिए था लेकिन वह डरती थी कि अगर एक भी माचिस नहीं बिकी तो उसका क्रूर पिता उसे बुरी तरह पीटेगा। जब ठंड और कमजोरी के कारण चलना भी दूभर हो गया तो वह एक कोने में जा बैठी।

सर्दी बढ़ती जा रही थी। बचने का कोई उपाय न देखकर उसने गर्मी के प्रयास में एक तीली जलाई। आँखों के सामने रोशनी छा गई। उस प्रकाश-पुंज ने उसके सपने मानो साकार कर दिये हों। उसे क्रिसमस ट्री और अनेक उपहार दिखाई दिये। उसे अच्छा लगा। खुश होकर उसने सिर ऊपर उठाया तो आकाश में एक तारा टूटता दिखा।

उसे याद आया कि उसकी दादी, जो अब इस दुनिया में नहीं थीं, ये कहती थीं कि जब कोई तारा टूटता है तो उसका मतलब होता है कि कोई अच्छा इंसान मरा है और अब स्वर्ग जा रहा है। उसे अपनी दादी सामने दिखीं। ये लो, उसकी तीली तो बुझ भी गई। और बुझते ही दादी भी अंधेरे में गुम हो गईं। वह फिर सर्दी से काँपने लगी। उसने एक और तीली जलाई। कुछ गर्माहट हुई और प्रकाश में दादी फिर से दिखने लगीं।

वह तीलियाँ जलाती रही ताकि उसकी दादी कहीं दूर न हो जाएँ। जब उसकी अंतिम तीली बुझने लगी तो दादी ने उसे गोद में उठा लिया और अपने साथ स्वर्ग ले गईं।

[समाप्त]

Sunday, August 3, 2014

3 अगस्त मैथिलीशरण गुप्त का जन्मदिन

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो, समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को
संभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना, पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को, नर हो न निराश करो मन को
काव्यपाठ 1956 (चित्र सौजन्य: आकाशवाणी)
पद्म भूषण मैथिलीशरण गुप्त की "नर हो न निराश करो मन को" का हर शब्द मन में आशा का संचार करता है। हिन्दी की खड़ी बोली कविता के मूर्धन्य कवियों में उनका नाम प्रमुख है। उनका जन्म 3 अगस्त, सन 1885 ईस्वी को झांसी (उत्तर प्रदेश) के चिरगाँव में श्रीमती काशीबाई और सेठ रामचरण गुप्त के घर में हुआ था।  खड़ी-बोली को काव्य-भाषा का रूप देने के प्रयास उन्होने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से किए और अपनी ओजस्वी काव्य-रचनाओं द्वारा अन्य कवियों को भी प्रेरित किया। उनकी रचनाएँ सरस्वती और भारत-भारती में छपीं। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में पंचवटी, जयद्रथ वध, यशोधरा, और साकेत प्रमुख हैं। उन्होने संस्कृत नाटक स्वप्नवासवदत्ता का हिन्दी अनुवाद भी किया। तिलोत्तमा,चंद्रहास, विजयपर्व उनके प्रमुख नाटक हैं।

गुप्त जी का विवाह सन 1895 में 10 वर्ष की अल्पायु में हो गया था। तब बाल-विवाह प्रचलित थे जिनमें विवाह संस्कार बाल्यावस्था में हो जाता था और युवावस्था में गौना करने की परंपरा थी।

परतंत्रता के दिनों में उनकी ओजस्वी लेखनी अनेक भारतीयों की प्रेरणा बनी। स्वतंत्रता संग्राम के समय वे कई बार जेल भी गए।

भारत को स्वतन्त्रता मिलने पर उन्हें पद्म भूषण के अतिरिक्त उन्हे मंगला प्रसाद पारितोषिक भी मिला। स्वतंत्र भारत सरकार ने उन्हें "राष्ट्रकवि" का सम्मान दिया था। 1947 में वे संसद सदस्य बने और 12 दिसंबर 1964 को अपने देहावसान तक सांसद रहे।

गुप्त जी की रचना "आर्य" से कुछ पंक्तियाँ:
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिल कर, ये समस्याएँ सभी
भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ, फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ
सम्पूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है, उसका कि जो ऋषि-भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य-भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी आर्य हैं, विद्या, कला, कौशल्य, सबके जो प्रथम आचार्य हैं
सन्तान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े, पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

Saturday, July 12, 2014

गुरु - लघुकथा

गुरुपूर्णिमा पर एक गुरु की याद
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।
बरसों का खोया हुआ मित्र इस तरह अचानक मिल जाये तो खुशी और आश्चर्य का वर्णन संभव नहीं। कहने को हम लोग मात्र तीन साल ही साथ पढे थे लेकिन उतने समय में भी मेरे बालमन को बहुत कुछ सिखा गया था वह एक साथी। बाकी सब ठीक था, बस मुनव्वर मास्साब को उसके सिक्ख होने की वजह से कुछ ऐसी शिकायत थी जिसे हम बच्चे भी दूर से ही भाँप लेते थे। गलत लगती थी लेकिन बड़ों की गलतियों को कैसे रोकें, इतनी अक्ल नहीं थी। न ही ये समझ थी कि इस बात को घर या स्कूल के बड़ों को बताकर उनकी सलाह और सहयोग लिया जाये।

एक गुरु की भेंट (नमन)
मास्साब ने गुरु को सदा जटायु कहकर ही बुलाया, शायद उसके केश से जटा शब्द सोचा और फिर वहाँ से जटायु। थोड़ी बहुत हिंसा वे सभी बच्चों के साथ करते रहते थे लेकिन गुरु के साथ विशेष हिंस्र हो जाते थे। कभी दोनों कान हाथ से पकड़कर उसे एक झटके से अपने चारों और घुमाना, कभी झाड़ियों से इकट्ठी की गई पतली संटियों से सूतना, तो कभी मुर्गा बनाकर पीठ पर ईंटें रखा देना।

लेकिन एक बार वह मेरे कारण पिटा था। सीमाब विष्णुशर्मा नहीं पढ़ पा रहा था। मैं उसे श और ष का अंतर बताने लगा कि अचानक सन्नाटा छा गया। स्पष्ट था कि मुनव्वर मास्साब कक्षा में आ चुके थे। आते ही हमारी बेंच के दूसरे सिरे पर बैठे गुरु को बाल पकड़कर खींचा और पेट में दो-तीन मुक्के लगा दिये।

"मैंने किया क्या सर?" उसने मासूमियत से पूछा। जी भर कर पीट लेने के बाद उसे सीट पर धकेलकर उन्होने उस दिन का पाठ पढ़ाया और कक्षा छोड़ते हुए उससे कहते गए, "आइंदा मेरे क्लास में सीटी बजाने की ज़ुर्रत मत करना जटायु"

बरसों से दबी रही आभार की भावना बाहर आ ही गई, "सचमुच गुरु हो तुम। साथ पढ़ने से ज़्यादा तो वह स्कूल छूटने के बाद सीखा है तुमसे।"

आज इतने सालों के बाद भी मन पर घाव कर रही उस चोट के बोझ को उतारने को बेताब था मैं, "याद है उस दिन सीटी की आवाज़? वह मेरी थी।"

"हा, हा, हा!" बिलकुल पहले जैसे ही हंसने लगा वह, "वह तो मैं तभी समझ गया था, तेरे श्श्श को तो पूरी क्लास ने साफ सुना था।"

"तो कहा क्यों नहीं?"

"क्योंकि बात सीटी की नहीं थी, कभी भी नहीं थी। बात तेरी भी नहीं थी, बात मेरी थी, मेरे अलग दिखने की थी।"

"मैं आज तक बहुत शर्मिंदा हूँ उस बात पर। मुझे खड़े होकर कहना चाहिए था कि वह मैं था।"

"इतनी सी बात को भी नहीं भूला तू अब तक? तेरी आवाज़ मास्साब को सुनाई भी नहीं देती। इतना मगन होकर मेरी पिटाई करते थे वे। रात गई बात गई। रब की किरपा है, हम सब अपनी-अपनी जगह खुश हैं, यही बहुत है। मास्साब भी जहां भी हों खुश रहें।"

वही निश्छल मुस्कान, ज़रा भी कड़वाहट नहीं। आज गुरु पूर्णिमा पर याद आया कि मैंने तो गुरु से बहुत कुछ सीखा। काश मास्साब भी इंसानियत का पाठ सीख पाते।

Sunday, July 6, 2014

ऋषियों का अमृत - उच्चारण ऋ का

स्वर स्वतंत्र हैं
ॐ अ आ इ ई उ ऊ ॠ ऌ ॡ ऎ ए ऐ ऒ ऑ ओ औ अं अः

लिपियाँ और कमियाँ लिखने के बाद इतनी जल्दी इस विषय पर और लिखना होगा यह सोचा नहीं था। भगवान भला करें आचार्य गिरिजेश राव और जिज्ञासु शिल्पा मेहता का, कि उच्चारण का एक संदर्भ आया और एक इस आलेख को मौका मिला। भारत की क्षमता, संभावना, इतिहास को मद्देनजर रखते हुए जब सद्य-भूत, वर्तमान और निकट भविष्य को देखते हैं तो यह आश्चर्यजनक लगता है कि संसार को अंकशास्त्र, योग, अहिंसा, संस्कृति, नागरी और संस्कृत देने वाले लोग आधुनिक भारतीयों के ही पूर्वज थे। भाषा और लिपि की बाबत मानवता काफी अनम्य रही है लेकिन भारत इस मामले में भी एक महासागर है। तो भी आज अपने ही शब्दों के उच्चारण के बारे में हम हद दर्जे के आलसी नज़र आते हैं। औरों की क्या कहूँ, मुझे खुद भी वर्ष की जगह बरस कहना सरल लगता है। एक पुरानी कविता में मैंने सरबस शब्द का प्रयोग किया था, जब एक प्रसिद्ध संपादिका जी ने कुछ पूछे-गछे बिना उसे सर्वस्व कर दिया तो मुझे ऐसा लगा जैसे उन्होने उस कविता का नहीं, बल्कि मेरा गला मरोड़ दिया था। भले ही उनकी विद्वता के हिसाब से उनका कृत्य सही रहा हो।

व्यंजन ज्ञ के उच्चारण का झमेला तो देश-व्यापी है लेकिन एक स्वर भी ऐसा है जिस पर आम सहमति बनती नहीं दिखती। इन्टरनेट पर उसे समझाने के कई उदाहरण उपस्थित हैं जिनमें से अधिकांश गलत ही लगते हैं। यह स्वर है , और सबसे अधिक गलत उच्चारण रि और रु के बीच झूलते दिखते हैं कृष्ण जी कहीं क्रिश्न जैसे लगते हैं और कहीं क्रुश्न हो जाते हैं। लगभग यही गति अमृत की भी होती है। संयोग से इस क्रम की पिछली पोस्ट "लिपियाँ और कमियाँ" मेँ “र्“ व्यञ्जन के असामान्य व्यवहार की बात चलाने पर र्यूरी/ॠयूरी और र्याल्/र्‍याल् जैसे शब्दों का का ज़िक्र आया था। आज उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।

स्वर की बात करने से पहले एक नज़र स्वर और व्यंजन के मूलभूत अंतर पर डालते चलें। सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति के अनुसार स्वर वे हैं जिन्हें मुखर पथ (vocal tract) से निर्बाध रूप से निरंतरता के साथ बोला जा सकता है। स्वर में एक नैसर्गिक गेयता है, शायद इसीलिए संगीत स्वरों से बनता है। एक स्वर से दूसरे में संक्रमण स्वाभाविक है। व्यंजनों के साथ ऐसा संभव नहीं है क्योंकि वे बलाघात से बोले जाते हैं और इसलिए वहाँ एक स्थिरता है जो एक व्यंजन की ध्वनि को दूसरे से अलग करती है। सरल शब्दों में कहें तो स्वरों के लिए केवल वायु प्रवाह चाहिए। स्वर को एक बार बोलने के बाद उसे वायु प्रवाह के साथ न केवल जारी रखा जा सकता है बल्कि वायु प्रवाह की दिशा या मात्रा बदलने भर से ही एक स्वर से दूसरे स्वर में निर्बाध गमन संभव है। जबकि व्यंजन का आरंभ और अंत मर्यादित है इसलिए एक व्यंजन से दूसरे में गमन भी लगभग वैसे ही है जैसे किसी दरवाजे से होकर एक कक्ष से दूसरे में प्रस्थान करना। यह बात और है कि अनेक ध्वनियाँ स्वर और व्यंजन की संधि पर खड़ी हैं।

ध्वनियों को पढ़कर समझना आसान नहीं है लेकिन ऋ के उच्चारण को जैसा मैंने समझा है वैसा, लिखकर बताने का प्रयास करता हूँ। प्रयास कितना सफल होता है, यह तो आप ही तय कर पाएंगे।
  1. सबसे पहले दो तीन बार स्पष्ट रूप से "र" बोलिए और देखिये किस प्रकार जीभ ने ऊपरी दाँत के ऊपरी भाग को छुआ।
  2. मुँह से हवा निकालते हुए स्वर "उ" की ध्वनि लगातार निकालें और जीभ की इस स्थिति को ध्यान में रखें।
  3. "उ" कहते कहते ही जीभ के सिरे को हल्का सा ऊपर करके निर्बाध "ऊ" कहने लगें।
  4. "ऊ" कहते-कहते ही जीभ के सिरे को हल्के से ऊपर तालू की ओर तब तक ले जाते जाएँ जब तक बाहर आती हवा जीभ से टकराकर प्रतिरोध की ध्वनि उत्पन्न न करे।
  5. जीभ को थोड़ा समायोजित करके वहाँ रखें जहाँ यह निरंतर ध्वनि RRRRRRR जैसी हो जाये
  6. यदि आप अब तक इस "ऋ" ध्वनि को सुनकर "र" से उसके भेद को पहचान गए तो काफी है, वरना अगले कदम पर चलते हैं।
  7. र की ध्वनि पर बिना अटके, झटके से हृषिकेश या हृतिक बोलिए, और उसे सुनते समय आरंभिक "ह" को इगनोर कर आगे की ध्वनि सुनिये तब भी शायद ऋ की ध्वनि स्पष्ट हो जाये
  8. अगर आप अभी भी अटके हैं तो यकीन मानिए यह ध्वनि आप अङ्ग्रेज़ी द्वारा बेहतर समझ पाएंगे। इंगलिश बोलने वाले लोग अपने शब्दों के बीच में आए "र" को अक्सर अर्ध-मूक सा बोलते हैं जिसे बोलते समय जीभ दाँत, तालू आदि की ओर आए बिना हवा में स्वतंत्र ही रह जाती है। कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।
  9. कुछ लोग अङ्ग्रेज़ी शब्द party को पा.र.टी कहकर र को स्पष्ट कहते हैं जबकि कुछ लोग उसे "पा अ टी" जैसे बोलते हैं। इसी प्रकार अङ्ग्रेज़ी शब्द morning को कई भारतीय "र" के साथ मॉ.र.निंग जैसे कहते हैं जबकि कुछ लोग ऐसे कहते हैं कि वह कुछ कुछ मॉण्णिंग या मॉर्णिंग जैसा लगता है। दोनों ही शब्दों को बाद वाली ध्वनि में बोलते हुए सुनिए और उपरोक्त पांचवें बिन्दु की निरंतर RRRRRRR ध्वनि से साम्य देखने - लाने का प्रयास कीजिये।
  10. अब उन शब्दों का उच्चारण करें जिनमें ऋ बीच में आती है, या संधि होकर अर्ध र जैसी बनती है, यथा - अमृत, मृत, महर्षि और राजर्षि आदि - ध्यान रहे कि ऋ की ध्वनि सुनने में "र" और "अ" के बीच की होगी और उस समय जीभ हवा में स्वतंत्र होगी।
  11. यदि किसी को आकाशवाणी समाचार पर श्री बरुन हलदर द्वारा पढ़ा जाता "द न्यूज व्येड/उएड बाय बोरेन हाल्डा" जैसा कुछ याद हो तो मुझे लगता है कि उनके कहे "रैड बाय" की ध्वनि में र नहीं "ऋ" जैसा ही कुछ होता था। क्या कोई उनकी किसी ऑडियो क्लिप को ढूंढ सकता है?
  12. नीचे दिये वीडियो क्लिप में अङ्ग्रेज़ी शब्द read के ऐसे दो उच्चारण सुनाई दे रहे हैं, जिन्हें हम हिन्दी में रीड और रैड जैसे लिखते हैं। पहचानने का प्रयास कीजिये कि "र" की ध्वनि हमारे "र" वाले किसी शब्द, जैसे "राम" या "रीमा" आदि से कितनी अलग है। नोटिस कीजिये कि R की ध्वनि कहने में जीभ हवा में है, "र" जैसे प्रहारावस्था में नहीं। यह उच्चारण निरंतरता के मामले में र की अपेक्षा ऋ के निकट है



यदि अभी भी अस्पष्टता है लेकिन अधैर्य नहीं, तो फिर खास आपके लिए है हिन्दी की यह ऑडियो क्लिप। सुनिए (विशेषकर जब RRRRRRRRRR बोला जा रहा है) और अपना फीडबैक दीजिये:

ऋ - डाउनलोड ऑडियो क्लिप

नोट: अपनी ही ऑडियो क्लिप स्वयं सुनने के बाद मुझे अब इस बात पर संशय है कि ऐसी ध्वनियों को केवल ऑडियो के माध्यम से समझाया जा सकता है। फोन पर अक्सर "स" और "फ" की ध्वनियाँ एक सी ही सुनाई देती हैं। इसलिए यदि अभी भी बात स्पष्ट न हो पाई हो तो कमी आपके समझने की नहीं, शायद मेरे समझाने की ही है जो कि व्यक्तिगत कक्षा में आसानी से दूर की जा सकती है।
* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Thursday, July 3, 2014

आस्तीन का दोस्ताना - कविता


फूल के बदले चली खूब दुनाली यारों, 
बात बढ़ती ही गई जितनी संभाली यारों

दूध नागों को यहाँ मुफ्त मिला करता है, 
पीती है मीरा यहाँ विष की पियाली यारों

बीन हम सब ने वहाँ खूब बजा डाली थी, 
भैंस वो करती रही जम के जुगाली यारों 

दिल शहंशाह था अपना ये भुलावा ही रहा, 
जेब सदियों से रही अपनी तो खाली यारों

ज़िंदगी साँपों की आसान करी है हमने, 
दोस्ती अपनी ही आस्तीन में पाली यारों