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Monday, December 30, 2013

प्रेमिल मन - एक कविता

चावल, चीनी और चाय से बनी स्वर्णकण आच्छादित जापानी मिठाई मोची (餅)
(अनुराग शर्मा)

दुश्मनों का प्यार पाना चाहता है
हाथ पे सरसों उगाना चाहता है

इंतिहा मासूमियत की हो गयी है
प्यार में दिल मार खाना चाहता है

इक नदी के दो किनारे लोग नाखुश
हर कोई "उस" पार जाना चाहता है

धूप और बादल में समझौता हुआ है
खेत बस अब लहलहाना चाहता है

जिस जहाँ में साथ तेरा मिल न पाये
दिल वहाँ से छूट जाना चाहता है

बचपने में जो खिलौना तोड़ डाला
मन उसी को आज पाना चाहता है

रात दिन भटका सारे जगत में वो
मन तुम्हारे द्वार आना चाहता है

कौन जाने फिर मनाने आ ही जाओ
दिल हमारा रूठ जाना चाहता है

एक बाज़ी ये लगा लें आखिरी बस
दिल तुम्ही से हार जाना चाहता है

दुश्मनों का साथ देने चल दिया वह
कौन आखिर मात खाना चाहता है

बहर से करते सरीकत क्या कहेंगे
केतली में ज्वार आना चाहता है
सपरिवार आपको, आपके मित्रों, परिजनों और शुभचिंतकों को नव वर्ष 2014 के आगमन पर हार्दिक मंगलकामनाएँ

Saturday, October 5, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 4]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अड़चन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने अपनी नौकरी छूटने और बीमारी के बारे में बताते हुए कहा कि उसके घर हमारे आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी। बहकी बहकी बातों के बीच वह कहती रही कि भगवान् ने उसे बताया है यहाँ गैरकानूनी ढंग से रहने पर भी उसे कोई हानि नहीं होनी है जबकि भारत के समय-क्षेत्र में प्रवेश करते ही वह मर जायेगी। उसके हित के लिए हमने भी एक खेल खेलने की सोची।
भाग १ , भाग २ , भाग ३ ; अब आगे की कथा:
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"भगवान् मेरे सामने आकर बताते हैं सारी बात?" वह आत्मविश्वास से बोली, "ठीक वैसे ही जैसे आप खड़े हैं यहाँ।"

"अच्छा! लेकिन हमें तो आज उन्होंने यह बताया कि आप उनकी बात ठीक से समझ नहीं पा रही हैं। जैसा कि आपको पता है, उन्होंने ही हमें यहाँ आकर आपकी सहायता करने को कहा है।"

"मुझे तो ऐसा कुछ बोले नहीं।"

"बोले तो थे मगर आप समझीं ही नहीं। उन्होंने आपको कई बार बताने की कोशिश की कि वीसा के लिए पुलिस द्वारा न पकड़ा जाना एक सामान्य बात है, लेकिन घर आखिर घर ही होता है। ऐसा न होता तो अपार्टमेंट मैनेजमेंट आपको निकालने का नोटिस ही क्यों भेजता? भगवान् आपको बेघर थोड़ी करना चाहेंगे।"

"आपकी बात गलत है। भगवान् ने ही इन्हें नोटिस भेजने को कहा। ये अपना अपार्टमेंट खाली करायेंगे तभी तो भगवान् मझे खुद आकर लेके जायेंगे।"

उसके आत्मविश्वास को देख मेरा माथा ठनका। खासकर खुद ले जाने की बात सुनकर। मैं जानना चाहता था कि कहीं वह कोई आत्मघाती गलती तो नहीं करने वाली। अगर उसे त्वरित मानसिक सहायता की ज़रुरत है तो उसमें देर नहीं होनी चाहिए थी।"

कैसे ले जायेंगे वे आपको?

"यहाँ से" उसने खिड़की की और इशारा करते हुए कहा।

"क्या?" मैं अवाक था, अगर यह खिड़की से कूदी तो कुछ भी नहीं बचने वाला।

"हाँ ..." मुझे खिड़की के पास ले जाकर उसने बड़े से पार्किंग लॉट के दूर के एक खंड को इंगित करके बताया कि भगवान् का विमान उसे लेने आने पर वहीं रुकेगा।

" ... यहाँ से उनका विमान आयेगा और मुझे अपने साथ ले जाएगा" वह तुनकी, "आपको विश्वास नहीं आया? आप तो कह रहे थे कि भगवान् आपसे भी बात करते हैं।"

"हाँ, बात भी करते हैं और आपको ले जाने की बात भी बताई थी। साथ ही यह भी बोले कि आपके बारे में उनके मन में एक दूसरा प्लान भी है।" मैंने भी एक पत्ता फेंका, "पूरी बात वे अगले सप्ताह तक ही बताएँगे।"

"मुझे भी उनकी बात ठीक से समझ नहीं आई थी ..." वह रुकी, फिर झिझकते हुए बोली, "मैं एमबीबीएस पीएचडी ज़रूर हूँ, लेकिन स्मार्ट बिलकुल नहीं हूँ। सीधी बात भी बड़ी देर से समझ आती है मुझे।"

"अच्छा!" मैंने  अचम्भे का अभिनय क्या, "पढाई कहाँ से की थी आपने?"

कुछ देर वहां रुककर मैंने बातों बातों में उससे उसके बारे में सारी ज़रूरी जानकारी हासिल कर ली। रूबी ने पीएचडी तो फ्रांस में की थी लेकिन भारत में उसका मेडिकल कॉलेज संयोग से वही निकला जो रोनित का था। घर आकर मैंने सबसे पहले रोनित को फोन किया। मैं रूबी को जानता हूँ और वह मेरी पड़ोसन है, यह सुनकर रोनित को आश्चर्य हुआ। उसके हिसाब से तो रूबी का केस एकदम होपलेस था। वह रोनित से सीनियर थी इसलिए उन दोनों का व्यक्तिगत परिचय तो नहीं था लेकिन रूबी की मानसिक अस्थिरता सारे कॉलेज में मशहूर थी। रोनित के अनुसार रूबी से बुरी तरह पक गए प्रबंधन और फैकल्टी का सारा जोर उसे जल्दी से जल्दी डिग्री थमाकर बाहर का रास्ता दिखाने में था। स्थिति की गंभीरता को समझकर उसने अपने कोलेज के सभी पुराने संबंधों को खड़काकर रूबी के परिवार से सम्बंधित जानकारी जल्दी ही निकालकर मुझे देने का वायदा किया। फोन रखते ही मैंने इंटरनेट खंगालना शुरू कर दिया।

उसकी नौकरी में सहायता के उद्देश्य से देर रात जब तक मैंने इंटरनेट की सहायता से उसकी प्रोफेशनल प्रोफाइल और रिज्यूमे तैयार की, रोनित का फोन आया। उसने बताया कि उसे रूबी के परिवार की पूरी जानकारी मिल गयी थी। उसके माँ-बाप इस दुनिया में नहीं थे और इकलौती बहन तो फोन पर उसका नाम सुनते ही रोनित पर चढ़ बैठी. उसने तो फोन पर रूबी को अपनी बहन मानने से भी इनकार कर दिया और रोनित को चेतावनी दी कि दोबारा फोन आने पर पुलिस में जायेगी।

बस एक व्यक्ति है। नंबर मिल गया है लेकिन तुमसे बात किये बिना उसे फोन करना मैंने ठीक नहीं समझा। तुम चाहो तो अभी बात कर सकते हैं।

इसका कौन है वह?

"उसका पति है ... उनके संबंधों की ज़्यादा जानकारी नहीं मिली है, लेकिन यह पक्का है कि वे हैं पति-पत्नी" फिर कुछ रूककर बोला, " ... वैसे जब उसकी सगी बहन उसका नाम सुनते ही इतना भड़क गयी तो पति का भी क्या भरोसा।

"वह खुद भारत जाने का मतलब अपनी मौत बताती है। भारत में भरोसे का कोई संबंधी नज़र नहीं आता। यहाँ अगर नौकरी फिर से बन जाए तो सारा झंझट ही ख़त्म।" मैंने सुझाव दिया।

"हाँ, यही करके देखते हैं। वैसे तो बड़ी विशेषज्ञ है वह। दुनिया के सबसे बड़े जर्नल्स में छप चुकी है। भगवान् जाने, काम पर क्या तमाशा किया होगा।"

कथा का अगला भाग

Saturday, September 21, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 3]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अडचन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने कहा कि हमारे उसके घर आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी।
भाग १
भाग २
अब आगे की कथा:
"और क्या क्या बताया था आपके शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने?" मैंने पूछा

"अपने को हुशियार समझते, आयेंगे समझाने लोग ..." उसने तुनककर कहा

"आप स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही हैं। यदि व्यवस्था को पता लगा कि आपका कार्य-वीसा वैलिड नहीं रहा है, तो आपको वापस भेज देंगे।"

"मेरे साथ यह नहीं होने वाला. कार्य दूर, मेरा तो वीसा ही छः महीने पहले ख़त्म हो गया था। होना होता तो अब तक जेल भी हो सकती थी।"

"हाँ, यह तो गनीमत है आप अमेरिका में हैं। और कोई देश होता तो वीसा के बिना अब तक न जाने क्या दुर्दशा हुई होती। लेकिन गैरकानूनी होना तो कहीं भी सही नहीं है। आपके लिए भारत वापस जाना ही सही है। आप परेशान न हों, हम आपके टिकट की व्यवस्था कर देंगे।"

"मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? आप मुझसे परेशान हैं? मुझे मारना चाहते हैं?

"नहीं, आपके पास वापसी का टिकट नहीं है, हम घर वापस जाने में आपकी मदद करना चाहते हैं। बस इतनी सी बात है।" समझाने की कमान इस बार श्रीमती जी ने संभाली।

"टिकट दिलाने में मरने-मारने की बात कहाँ से आ गयी?" पूछे बिना रहा नहीं गया मुझसे।

उसने मेरी और ऐसे देखा जैसे संसार में मुझसे बड़ा नादान कोई और न हो। फिर कुछ सोचकर मेरे पास आई और बोली, "इतना समझ लो कि मैं बस उतने दिन ही ज़िंदा हूँ, जितने दिन यहाँ हूँ। आइएसटी (IST भारतीय समय) मेरा काल है और ईएसटी (EST पूर्वोत्तर अमेरिका का स्थानीय समय) मेरा जीवनकाल. मुझे भारत भेजने की बात करने वाला मेरा हत्यारा ही होगा।"

"मुझे कुछ समझ नहीं आया, ठीक से समझायेंगी?"

"जिम में तो आप देखते थे न मुझे? स्विमिंग पूल में भी देखती थी मैं आपको ..."

मुझे याद आया कि अकस्मात नज़र मिलने पर मुस्कान का जवाब तो दूर, मुँह चिढाकर नज़र फेर लेती थी वह।

" ... मेरी नौकरी ऐसे ही नहीं ख़त्म हुई है, वह सब एक षड्यंत्र था मेरे खिलाफ। दुर्घटना हुई थी, फिजियोथेरेपी भी कराती थी मैं और स्विमिंग, योगा, सब तरह के व्यायाम भी करती थी।"

"तो?"

"तो, यह दर्द ठीक होने वाला नहीं। अब मैं नौकरी नहीं कर सकती। भगवान् ने बताया कि इंडिया जाते ही मर जाऊंगी।"

"अच्छा, कैसे बताया भगवान् ने?" मुझे रास्ता सूझने लगा था। अब आगे की योजना ज़्यादा कठिन नहीं लगी, "... भगवान् कान में बोले थे कि चिट्ठी भेजी थी?"

[क्रमशः]
 

Monday, September 2, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 2]

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

कहानी भविष्यवाणी की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अडचन से कैसे निकाला जाय। अब आगे की कथा:


हम लोगों ने कुछ देर तक विमर्श किया। कई बातें मन में आईं। अपार्टमेंट प्रबंधन से बात तो करनी ही थी। यदि वे कुछ दिनों की मोहलत दें तो मैं स्थानीय परिचितों से मिलकर उसकी नई नौकरी ढूँढने में सहायता कर सकूँगा। लेकिन मेरा मन यह भी चाहता था कि रूबी को भारत वापस लौटाने का कोई साधन बने। टिकट खरीदकर देने में मुझे ज़्यादा तकलीफ नहीं थी। अगर कोई कानूनी अडचन होती तो किसी स्थानीय वकील से बात करने में भी मुझे कोई समस्या नहीं थी। श्रीमती जी उसके खाने पीने और अन्य आवश्यकताओं का ख्याल रखने को तैयार थीं।

शाम सात बजे के करीब हम दोनों उसके अपार्टमेंट के बाहर खड़े थे। मैंने दरवाजा खटखटाया। जब काफी देर तक कोई जवाब नहीं आया तो एक बार फिर कोशिश की। फिर कुछ देर रूककर इंतज़ार किया और वापस मुड़ ही रहे थे कि दरवाजा खुला। तेज़ गंध का एक तूफान सा उठा। सातवीं मंज़िल पर स्थित दरवाजे के ठीक सामने बिना पर्दे की बड़ी सी खिड़की से डूबता सूरज बिखरे बाल और अस्तव्यस्त कपड़ों में खड़ी रूबी के पीछे छिपकर भी अपनी उपस्थिति का बोध करा रहा था। उसने हमें अंदर आने को नहीं कहा। दरवाजे से हटी भी नहीं। बल्कि जब उसने हम दोनों पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली तो मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या कहूँ। मुझे याद ही न रहा कि मैं वहाँ गया किसलिए था। श्रीमती जी ने बात संभाली और कहा, "कैसी हो? हम आपसे बात करने आए हैं।"

कुछ अनमनी सी रूबी ज़रा हिली तो श्रीमती जी घर के अंदर पहुँच गईं और उनके पीछे-पीछे मैं भी अंदर जाकर खड़ा हो गया। इधर उधर देखा तो पाया कि छोटा सा स्टुडियो अपार्टमेंट बिलकुल खाली था। पूरे घर में फर्नीचर के नाम पर मात्र एक स्लीपिंग बैग एक कोने में पड़ा था। दूसरे कोने में किताबों और कागज-पत्र का ढेर था। कपड़े घर भर में बिखरे थे। एक लैंडलाइन फोन अभी भी हुक्ड रहते हुए हमें मुँह सा चिढ़ा रहा था। घर में भरी ऑमलेट की गंध इतनी तेज़ थी कि यदि मैं सामने दिख रही बड़ी सी खिड़की खोलकर अपना सिर बाहर न निकालता तो शायद चक्कर खाकर गिर पड़ता।

एक गहरी सांस लेकर मैंने कमरे में अपनी उपस्थिति को टटोला। मैं कुछ कहता, इससे पहले ही एक कोने की धूल मिट्टी खा रहे रंगीन आटे से बने कुछ अजीब से टूटे-फूटे नन्हे गुड्डे गुड़िया पड़े दिखाई दिये। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि वे क्या हैं, कि श्रीमती जी ने सन्नाटा तोड़ा,

"हम चाहते थे कि आज आप डिनर हमारे साथ ही करें।"

"आज तक तो कभी डिनर पर बुलाया नहीं, आज क्या मेरी शादी है?"

मुझे उसका बदतमीज़ अकखड़पन बिलकुल पसंद नहीं आया, "रहने दो!" मैंने श्रीमती जी से कहा।

"आपके पड़ोसी और भारतीय होने के नाते हमारा फर्ज़ बनाता है कि हम ज़रूरत के वक़्त एक दूसरे के काम आयें", मैं रूबी से मुखातिब हुआ। उसकी भावशून्य नज़रें मुझ पर गढ़ी थीं।"

"आप घबराइए नहीं, सब कुछ ठीक हो जाएगा।" श्रीमती जी का धैर्य बरकरार था।

"सब ठीक ही है। मुझे पता है!" एक लापरवाह सा जवाब आया।

"क्या पता है?" लगता है मैं बहस में पड़ने वाला था।

"कि आप आने वाले हैं मुझे समझाने ..."

"अच्छा! कैसे?"

"अभी मैं भगवान से बातें कर रही थी ..."

"भगवान से ?"

"हाँ! वे ठीक यहीं खड़े थे, इसी जगह ... शंख चक्र गदा पद्म लिए हुए। उन्होने ही बताया।"

उसका कटाक्ष मुझे इस बार भी पसंद नहीं आया। बल्कि एक बार तो मन में यही आया कि उसकी करनी उसे भुगतनी ही है तो हम लोग बीच में क्यों पड़ रहे हैं।


[क्रमशः]

Friday, August 30, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 1]

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

रोज़ की तरह सुबह तैयार होकर काम पर जाने के लिए निकला। अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही एक मानवमूर्ति से टकराया। एक पल को तो घबरा ही गया था मैं। अरे यह तो ... मेरे दरवाजे पर क्यों खड़ी थी? कितनी देर से? क्या कर रही थी? कई सवाल मन में आए। अपनी झुंझलाहट को छिपाते हुए एक प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली तो वह सकुचाते हुए बोली, "आपकी वाइफ घर पर हैं? उनसे कुछ काम था, आप जाइए।"

मुझे अहसास हुआ कि मैंने अभी तक दरवाजा हाथ से छोड़ा नहीं था, वापस खोलकर बोला, "हाँ, वह घर पर हैं, जाइए!"

दफ्तर पहुँचकर काम में ऐसा व्यस्त हुआ कि सुबह की बात एक बार भी मन में नहीं आई। शाम को घर पहुँचा तो श्रीमती जी एकदम रूआँसी बैठी थीं।

प्रवासी मरीचिका
"क्या हुआ?"

"सुबह रूबी आई थी ..."

"हाँ, पता है, सुबह मैं निकला तो दरवाजे पर ही खड़ी थी। वैसे तो कभी हाय हॅलो का जवाब भी नहीं देती। तुम्हारे पास क्यों आई थी वह?"

"बहुत परेशानी में है।"

"क्या हुआ है?"

"उसको निकाल रहे हैं अपार्टमेंट से ... कहाँ जाएगी वह?"

"क्यों?"

बात निकली तो पत्थर के नीचे एक कीड़ा नहीं बल्कि साँपों का विशाल बिल ही निकल आया। श्रीमती जी की पूरी बात सुनने पर जो समझ आया उसका सार यह था कि रूबी यानी डॉ रूपम गुप्ता पिछले एक वर्ष से बेरोजगार हैं। एक स्थानीय संस्थान की स्टेम सेल शोधकर्ता की नौकरी से बंधा होने के कारण उनका वीसा स्वतः ही निरस्त है इसलिए उनका यहाँ निवास भी गैरकानूनी है। खैर वह बात शायद उतनी खतरनाक नहीं है क्योंकि अमेरिका इस मामले में उतना गंभीर नहीं दिखता जितना उसे होना चाहिए। डॉ साहिबा के मामले में खराब बात यह थी कि उन्होने छः महीने से घर का किराया नहीं दिया और अब अपार्टमेंट प्रबंधन ने उन्हें अंतिम प्रणाम कह दिया है।

"कल उसे अपार्टमेंट खाली करना है। यहाँ से जाने के लिए टैक्सी बुक करनी थी। बिल की वजह से उसका फोन भी कट गया है, इसीलिए हमारे घर आई थी, फोन करने।"

"फोन नहीं घर नहीं, नौकरी नहीं, तो टैक्सी कैसे बुक की? और कहाँ के लिए? इस अनजान शहर, पराये देश में कहाँ जाएगी वह? कुछ बताया क्या?"

"क्या बताती? दूसरी ही दुनिया में खोई हुई थी। मैंने उसे कह दिया है कि हम लोग मिलकर कोई राह ढूँढेंगे।"

"कल सुबह आप बात करना मैनेजमेंट से, आपकी तो बात मानते हैं वे लोग। आज मैंने रूबी को रोक दिया टैक्सी बुलाने से। हमारे होते एक हिन्दुस्तानी को बेघर नहीं होने देंगे परदेस में।"

"कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन नौकरी छूटते ही, कम से कम वीसा खत्म होने पर भारत वापस चले जाना चाहिए था न। इतने दिन तक यहाँ रहने का क्या मतलब है?"

"वह सब सोचना अब बेकार है। हम करेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।"

वैसे तो कभी सीधे मुँह बात नहीं करती। न जाने किस अकड़ में रहती है। फिर भी यह समय ऐसी बातें सोचने का नहीं था। मैंने सहज होते हुए कहा, "ठीक है। कल मैं बात करता हूँ। बल्कि कुछ सोचकर कानूनी तरीके से ही कुछ करता हूँ। अकेली लड़की दूर देश में किसी कानूनी पचड़े में न फँस जाये।"

[क्रमशः]

Friday, June 7, 2013

सुखांत - एक छोटी कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

इंडिया शाइनिंग के बारे में ठीक से नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि गांव बदल रहे हैं। धोती-कुर्ते की जगह पतलून कमीज़, चुटिया की जगह घुटे सिर से लेकर फ़िल्मस्टार्स के फ़ैशनेबल इमिटेशन तक, घोड़े, इक्के, बैलगाड़ी की जगह स्कूटर, मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहन। किसी-किसी हाथ में दिखने वाले मरफ़ी या फिलिप्स के ट्रांज़िस्टर की जगह हर हाथ में दिखने वाले किस्म-किस्म के मोबाइल फोन।  अनजान डगर, तंग गलियाँ छोटा सा कस्बा। क्या ढूंढने जा रहा है? क्या खोया था? मन? क्या इतने वर्ष बाद सब कुछ वैसा ही होगा? बारह साल बाद तो कानूनी अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं शायद। तो क्या लम्बे समय पहले खोया हुआ मन कभी वापस मिलेगा? न मिले, एक बार देख तो लेगा।

मुकेश का परिवार पास ही रहता था। तब वे दोनों बारहवीं कक्षा में एकसाथ ही पढते थे। मनोज अपने घर में अकेला था पर मुकेश की एक छोटी बहन भी थी, नीना। वह कन्या विद्यालय में दसवीं कक्षा में जाती थी। शाम को तीनों साथ बैठकर होमवर्क भी करते और दिनभर का रोज़नामचा भी देखते। प्राइवेसी की आज जैसी धारणा उनके समाज में नहीं थी। उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, वही जो हाई स्कूल-इंटर के औसत छात्र की होती है लेकिन नीना के लिये रिश्ता ढूंढा जा रहा था। ऊँची जाति लेकिन ग़रीब घर की बेटी का रिश्ता हर बार जुड़ने से पहले ही दहेज़ की बलि चढ जाता।

एक शाम मनोज से गणित के सवाल हल करने में सहायता मांगते हुए अचानक ही पूछ बैठी मासूम। दादा, आप भी अपनी शादी में दहेज़ लेंगे क्या?

"कभी नहीं। क्या समझा है मुझे?"

"तो फिर आप ही क्यों नहीं कर लेते मुझसे शादी?"

यह क्या कह दिया था नीना तुमने? विचारों का एक झंझावात सा उठ खडा हुआ था। वह ज़माना आज के ज़माने से एकदम अलग था। उस ज़माने के नियमों के हिसाब से तो मुकेश की बहन मनोज की भी बहन होती थी। बल्कि पिछले रक्षाबन्धन पर तो वह राखी बांधने भी आयी थी, गनीमत यह थी कि मनोज उस दिन मौसी के घर गया हुआ था।

"यह सम्भव नहीं है नीना।"

"सब कुछ सम्भव है, आपमें साहस ही नहीं है।"

"पता है क्या कह रही हो? जो मुँह में आया बोल देती हो।"

"मुझे अच्छी तरह पता है, तभी कहा है। इतनी पागल भी नहीं हूँ मैं। आप तो वहीं करना जहाँ मोटा दहेज़ मिले।"

समय बीता। नीना की शादी भी हुई, पर हुई एक दुहाजू लड़के से। लड़का कहना शायद ठीक न हो। वर की आयु मनोज और नीना के पिता की आयु का औसत रही होगी। वर की आर्थिक स्थिति शायद नीना के पिता से भी गिरती हुई थी। हाँ दहेज़ का प्रश्न बीच में नहीं आया। एकाध बार मनोज के मन में कुछ चुभन सी हुई लेकिन छोटी जगह का भाग्यवादी माहौल। मनोज ने यही सोचकर मन को समझा लिया कि नसीब से अधिक किसे मिलता है।

कई वर्ष गुज़र गये। बीए करके मनोज को साधारण बीमा में पद मिल गया। माँ को साथ ही बुला लिया। गाँव का घर बेचकर कुछ पैसे भी मिल गये, जो माँ के नाम से बैंक में जमा करा दिये। पिछले दिनों मौसेरे भाई की शादी में गाँव जाने पर मुकेश मिला। पुराने किस्से खुले। पता लगा कि लम्बी बीमारी के बाद नीना के पति की मृत्यु हो गयी थी। तभी से दिल बेचैन था उसका ...

ज़्यादा ढूंढना नहीं पड़ा। नीना के पति का नाम बताने भर से काम हो गया। गन्दी गली का जर्जर घर। दरवाज़े की जगह टाट का पर्दा। सूखकर कांटा हो रही थी नीना लेकिन उस चिर-परिचित मासूम चेहरे को पहचानना बिलकुल भी कठिन न था। बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी हो गई थीं। बिना डंडी के कप में चाय पीते हुए मनोज बात कम कर रहा था, नीना उत्साह में भरी बोलती जा रही थी और मनोज उसके चेहरे में उसका खोया हुआ कैशोर्य और अपना खोया हुआ भाग्य ढूंढ रहा था। तभी वह आया, "नमस्ते!"

"जुग जुग जियो!" कहते कहते कराह सा उठा मनोज, "क्या हुआ है इसे?"

"बचपन से ही ऐसा है, चल नहीं सकता" नीना ने सहजता से कहा।

"गली भर में सबसे तेज़ दौड़ता हूँ मैं ..." कहते ही बच्चे ने उस छोटे से कमरे में हाथों के सहारे से तेज़ी से एक चक्कर लगाया और फिर मनोज को देख कर मुस्कुराया ।

शहर वापस तो आना ही था। काम-धाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। मन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन।
...
खंडहर भी महल हो जाते हैं कभी? बीते लम्हे मिल पाते हैं कभी?


अध्यापिका ने पूछा, "बच्चे का नाम?"

"रतन"

"माता पिता का नाम?"

मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"


[समाप्त]

Sunday, January 20, 2013

पद्मभूषण आचार्य शिवपूजन सहाय

आचार्य शिवपूजन सहाय (9 अगस्त 1893 - 21 जनवरी 1963)

आचार्य शिवपूजन सहाय
पद्मभूषण से सम्मानित आचार्य शिवपूजन सहाय का नाम हिंदी साहित्य में एक उच्च शिखर पर है। उनके उपन्यास, कहानियाँ, और संस्मरण तो प्रसिद्ध हैं ही, वे मतवाला, माधुरी, गंगा, जागरण, हिमालय, साहित्य जैसे पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक के रूप में प्रतिष्ठित रहे। उनके सम्पादनकाल में कोलकाता से प्रकाशित पत्र मतवाला में भारतीय क्रांतिकारियों के आलेख और विचार उनके छद्मनामों से निर्बाधरूप से प्रकाशित होते रहे थे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का सम्पादन उन्होंने ही किया था।

बिहार के भोजपुर जिले के उन्वास ग्राम में 9 अगस्त 1893 को जन्मे आचार्य शिवपूजन सहाय का जीवन हिन्दी और भारत राष्ट्र को ही समर्पित रहा। उनका जन्म का नाम भोलानाथ था। सन 1960 में उन्हे पद्मभूषण का सम्मान मिला और सन् 1998 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था। बिहार सरकार ने उनके नाम पर एक लाख रूपये का पुरस्कार स्थापित किया है। उनका देहावसान 21 जनवरी 1963 में पटना में हुआ।


वही दिन वही लोग 1965 ,
मेरा जीवन 1985 ,
स्मृतिशेष 1994 ,
हिंदी भाषा और साहित्य 1996 ,
ग्राम सुधार 2007
आचार्य जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धासुमन!
[चित्र व जानकारी इंटरनैट पर उपलब्ध विभिन्न स्रोतों से साभार]

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सम्बन्धित कडियाँ
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* मति का धीर : आचार्य शिवपूजन सहाय


Sunday, December 2, 2012

यारी है ईमान - कहानी

ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।

पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।

भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।

पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।

वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।

उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।

हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"

नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"

"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"

"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"

[समाप्त]

Sunday, October 7, 2012

भारत बोध - कविता

(चित्र, भाव व शब्द: अनुराग शर्मा)

असम धरातल, मरु है विषम ...

इतना ज़्यादा
होकर भी कम

असम धरातल
मरु है विषम

कैसे साथ
निभायेंगे हम

कहीं मिला न
कोई मो सम

कहाँ रहे तुम
कहाँ गये हम

मन हारा और
जीत रहे ग़म

पत्थर आँख न
होती है नम

साँस बची पर
निकला है दम

ज्योतिपुंज न
बने महातम

सर्वम दुःखम
सर्वम क्षणिकम

Saturday, September 1, 2012

दिल यूँ ही पिघलते हैं - कविता

उस आँख में बस मीठे सपने ही पलते हैं
सब अपने हैं उसके, वे भी जो छलते हैं।

(अनुराग शर्मा)


बर्ग वार्ता - पिट्सबर्ग की एक खिड़की
जो आग पे चलते हैं
वे पाँव तो जलते हैं

कितना भी रोको पर
अरमान मचलते हैं

युग बीते हैं पर लोग
न तनिक बदलते हैं

श्वान दूध पर लाल
गुदड़ी में पलते हैं

हालात पे दुनिया के
दिल यूँ ही पिघलते हैं

मानव का भाग्य बली
अपने ही छलते हैं

पत्थर मारो फिर भी
ये वृक्ष तो फलते हैं

शिखरों के आगे तो
पर्वत भी ढलते हैं

मेरे कर्म मेरे साथी
टाले से न टलते हैं।

* सम्बन्धित कड़ियाँ *

Tuesday, July 10, 2012

प्रेम की चुभन - कविता

हम थे वो थीं, और समाँ रंगीन ...
(चित्र व रचना: अनुराग शर्मा)

बेक़रारी मेरे दिल को क्या हो गई
आँख ही आँख में आप क्या कह गये

नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
सभी समझे मगर इक वही रह गये

पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
जादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये

पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये

ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
जीते जी हम भी घायल हुए मर गये



Saturday, March 3, 2012

मैं भी एक कवि बन पाता - कविता

[अनुराग शर्मा]

चित्र व कविता: अनुराग शर्मा
आग तुम्हारे अन्तर की मैं
अपने दिल में जला पाता
दर्द पिरो सकता सीने में
मैं भी एक कवि बन पाता

अन्धियारी यह रात अमावस
बन खद्योत चमका जाता
नहीं समझता अलग किसी को
मैं भी एक कवि बन पाता

एक जंगली फूल किसी
वनवासी के केश लगाता
पीर समझता बिना बिवाई
मैं भी एक कवि बन पाता

मुझे मिला सब बिना शर्त
वह प्यार अगर लौटा पाता
तू-तू मैं-मैं से ऊपर उठ
मैं भी एक कवि बन पाता

सत्य ढंका क्यों स्वर्णपात्र से
खोल सकें तो ज्ञान सत्य है
ग्रहण हटा, कर ज्योति ग्रहण
मैं भी एक कवि बन पाता

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं। तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
[~ईशोपनिषद - 15]

Friday, December 9, 2011

श्रद्धांजलि - डॉ.संध्या गुप्ता

अनुराधा जी की टिप्पणी से इस दुखद समाचार की जानकारी मिली। स्तब्ध हूँ, पर बताना ज़रूरी समझता हूँ। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति और परिवार को शक्ति दे!
डॉ. संध्या गुप्ता की बीमारी की खबर मुझे कुछ समय पहले मिली थी। इस सिलसिले में मैंने उन्हें ब्लॉग के जरिए संदेश भेजा, पर जबाव अभई तक नहीं आया। लेकिन जागरण- याहू न्यूज पर यह खबर अभी देखी तो शेयर कर रही हूं- बुरी खबर है
"नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता, शोक में डूबा विश्वविद्यालय"
लिंक यह रहा।
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/jharkhand/4_8_8465580.html

उनका जाना सदमे से कम नहीं है। दो साल पहले ही उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई थी, भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार समारोह में।

ज्यादा कहा नहीं जा रहा। उनसे फिर बात न कर पाने का अफसोस रहेगा।
(आर. अनुराधा)

डॉ. सन्ध्या गुप्ता
सिदो कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ.संध्या गुप्ता अब इस दुनियां में नहीं रही। पिछले कई माह से बीमार चल रही डॉ.गुप्ता ने गुजरात के गांधी नगर में आठ नवम्बर 2011 को सदा के लिए आंखें मूंद ली हैं। वह अपने पीछे पति सहित एक पुत्र व एक पुत्री को छोड़ गयी है। पुत्र प्रो.पीयूष यहां एसपी कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के व्याख्याता है। उनके आकस्मिक निधन पर विश्वविद्यालय परिवार ने गहरा दुख प्रकट किया है। प्रतिकुलपति डॉ.प्रमोदिनी हांसदा ने 56 वर्षीय डॉ.गुप्ता के निधन पर शोक प्रकट करते हुए कहा कि दुमका से बाहर रहने की वजह से आखिरी समय में उनसे कुछ कहा नहीं जा सका इसका उन्हें सदा गम रहेगा। उन्होंने दिवंगत आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि हिंदी जगत ने एक अनमोल सितारा खो दिया है।

डॉ.गुप्ता को उनकी काव्यकृति 'बना लिया मैंने भी घोंसला' के लिए मैथिलीशरण गुप्त विशिष्ट सम्मान से सम्मानित किया गया था।
मित्रों, एकाएक मेरा विलगाव आपलोगों को नागवार लग रहा है, किन्तु शायद आपको यह पता नहीं है की मैं पिछले कई महीनो से जीवन के लिए मृत्यु से जूझ रही हूँ । अचानक जीभ में गंभीर संक्रमण हो जाने के कारन यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जीवन का चिराग जलता रहा तो फिर खिलने - मिलने का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, सबकी खुशियों के लिए प्रार्थना।
(सन्ध्या जी की अंतिम पोस्ट से)

विनम्र श्रद्धांजलि!

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता, शोक में डूबा विश्वविद्यालय
* क्या आपको कुछ पता है?
* फिर मिलेंगे - सन्ध्या जी की अंतिम पोस्ट
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Tuesday, November 22, 2011

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र

आभार
यह लघुकथा गर्भनाल के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।
... और अब कहानी

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
जब लोमडी को आदमी के बच्चों के मांस का चस्का लगा तो उसने बाकी कठिन शिकार छोड़कर भोले और कमज़ोर मनु-पुत्रों को निशाना बनाना शुरू किया। गाँव के बुज़ुर्गों को चिंता हुई तो उन्होंने बच्चों को गुलेल चलाना सिखा दिया। अभ्यास के लिये बच्चों ने जब गुलेल को ऊपर चलाया तो आम, जामुन और न जाने क्या-क्या अमृत वर्षा हुई। अभ्यास के लिये नीचे नहीं भी चलाया बस खुद चले तो भी कीचड़ और अन्य प्रकार की अशुद्धियाँ और मल आदि में सने। बच्चों ने सबक यह सीखा कि सज्जनों से पंगा भी हो जाय तो उसमें भी सब का भला होता है और दुर्जनों से कितनी भी दूरी रखो, बचा नहीं जा सकता।

उधर बच्चों के सशस्त्र होते ही लोमड़ी बेचैन सी इधर-उधर घूमने लगी। जब भी बच्चों की ओर मुँह मारती, पत्थर मुँह पर पड़ते। थक हारकर बिना कुछ सोचे-समझे एक गुफ़ा के सामने खेलते नन्हें शावकों पर झपट पड़ी और शावकों के पिता सिंह जी वनराज का भोजन बनी। शावकों ने सबक यह सीखा कि भूखी और बेचैन होने पर लोमड़ियों को अपनी खाल के अन्दर सुरक्षित रह पाने लायक बुद्धि नहीं बचती।

[समाप्त]

Thursday, October 13, 2011

क्या आपको कुछ पता है?

छः जून की उनके ब्लॉग की पोस्ट में उंगलियों में दर्द की चिंता व्यक्त की गयी थी। उन्हें यद्यपि ज्योतिष के सहारे का विश्वास भी था। फिर भी, जिन्हें विश्वास हो उनके लिये भी ज्योतिष चिकित्सा का स्थान तो नहीं ले सकता है। उन्होंने लिखा था:
उनके आश्वासन से मै फिर से डाक्तर के पास जाने से रुक गयी और एक देसी इलाज शुरू किया, डरी इस लिये भी थी कि पहले एक अंगूठे मे इसी प्राब्लम के चलते उसका टेंडर कटवाना पडा था।उस देसी दवा से ही ठीक हुयी हूँ लेकिन कुछ दिन स्प्लिन्ट जरूर बान्धना पडा। बेशक ज्योतिश आपकी समस्या हल नही कर देता लेकिन कई बार ऐसे आश्वासन से आशा सी बन जाती है और आशा ही जीवन है। इतने दिनो पढा सब को लेकिन कुछ कह नही पाई लिख नही पाई। अब भी अधिक देर लिखने से अँगुली दुखने लगती है लेकिन ये भी ठीक हो जायेगी कुछ दिन मे ।
निर्मला कपिला जी
इसके बाद उनकी दो प्रविष्टियाँ और आयीं और अब दो मास से अधिक बीत जाने पर भी कोई अपडेट नहीं है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, खुशमिजाज़ ब्लॉगर, कवयित्री, कथाकार श्रीमती निर्मला कपिला की| आशा है कि वे ठीक होंगी, फिर भी चिंता है।

जिस प्रकार निर्मला जी के बारे में चिंतित हूँ, लगभग उसी प्रकार भावों से भरपूर कविता रचने वाली सन्ध्या गुप्ता जी की पिछली (दो महीने पुरानी) पोस्ट में भी उनकी गम्भीर बीमारी के बारे में चिंतातुर करने वाला निम्न सन्देश था:

मित्रों, एकाएक मेरा विलगाव आपलोगों को नागवार लग रहा है, किन्तु शायद आपको यह पता नहीं है की मैं पिछले कई महीनो से जीवन के लिए मृत्यु से जूझ रही हूँ । अचानक जीभ में गंभीर संक्रमण हो जाने के कारन यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जीवन का चिराग जलता रहा तो फिर खिलने - मिलने का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, सबकी खुशियों के लिए प्रार्थना।
डॉ. सन्ध्या गुप्ता
मैं जानता हूँ कि हम भारतीय लोग बहुत भावुक होते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निभाते हुए तुरंत हिल मिल जाते हैं। रेल का सफ़र हो या बस का, मंज़िल आने तक सम्पर्क सूत्रों का आदान-प्रदान हो ही जाता है। हिन्दी ब्लॉग जगत में भी भाई बहन से लेकर सास-ननद तक बहुत से रिश्ते जोड़े गये हैं, बहुत अच्छी बात है। आभासी रिश्ते जोड़ें न जोड़ें, परंतु यदि हम एक दूसरे की हारी-बीमारी में हाल पता कर सकें और आवश्यकता पड़ने पर किसी काम आ सकें तो मेहरबानी होगी। मेरे पास इन दोनों ही का सम्पर्क नम्बर नहीं है, बस ईमेल पता है सो किया मगर उसका कोई उत्तर नहीं मिला। यदि आप में से किसी को इन दोनों की खैरियत के बारे में जानकारी हो तो कृपया अवश्य दें। यदि आपके पास उनका या किसी परिवारजन का फ़ोन नम्बर हो तो बात करने का प्रयास कीजिये, यदि कोई निकट रहता हो तो मिल ही लीजिये। बस यही मेरा निवेदन है।

धन्यवाद व शुभकामनायें!

[दोनों चित्र रिस्पेक्टिव ब्लॉग प्रोफ़ाइल्स से]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* वीरबहूटी - निर्मला जी का ब्लॉग
* फिर मिलेंगे - सन्ध्या जी की पोस्ट
* श्रद्धांजलि - नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता
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Tuesday, June 21, 2011

बेमेल विवाह - एक कहानी

आभार
यह कहानी गर्भनाल के जून 2011 के अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।

... और अब कहानी

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.-<>-. बेमेल विवाह .-<>-.
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डॉ. अमित
मेरे साथ तो हमेशा से अन्याय हुआ है। ज़िंदगी सदा अधूरी ही रही। बचपन में बेमेल विवाह, मेडिकल कॉलेज में आरक्षण का ताना और अब पिताजी की यह सनक – उनकी सम्पत्ति से बेदखली। अपने ही दुश्मन हो जायें तो जीवन कैसे कटे। मेरा दिल तो घर जाने को करता ही नहीं। सोचता हूँ कि सारी दुनिया बीमार हो जाये और मेरा काम कभी खत्म न हो।

कु. रीना
कितनी खडूस हैं डॉ निर्मला। ऐसी भी क्या अकड़? पिछली बार बीमार पडी थी तब वहाँ गयी थी। छूकर देखा तक नहीं। दूर से ही लक्षण पूछ्कर पर्चा बना दिया था। आज तो मैं डॉ. अमित के पास जाऊंगी। कैसे हँसते रहते हैं हमेशा। आधा रोग तो उन्हें देखकर ही भाग जाये।

डॉ. अमित
क्या-क्या अजीब से सपने आते रहते हैं। वो भी दिन में? लंच के बाद ज़रा सी झपकी क्या ले ली कि एक कमसिन को प्रेमपत्र ही लिख डाला। यह भी नहीं देखा कि हमारी उम्र में कितना अंतर है। क्या यह सब मेरी अतृप्त इच्छाओं का परिणाम है? खैर छोड़ो भी इन बातों को। अब मरीज़ों को भी देखना है।

कु. रीना
कितने सहृदय हैं डॉ. अमित। कितने प्यार से बात कर रहे थे। पर मेरे बारे में इतनी जानकारी किसलिए ले रहे थे? कहाँ रहती हूँ, कहाँ काम करती हूँ, क्या शौक हैं मेरे, आदि। एक मिनट, दवा के पर्चे के साथ यह कागज़ कैसा? अरे ये क्या लिखा है बुड्ढे ने? आज रात का खाना मेरे साथ फाइव स्टार में खाने का इरादा है क्या? मुझे फोन करके बता दीजिये। समझता क्या है अपने आप को? मैं कोई ऐरी-गैरी लड़की नहीं हूँ। अपनी पत्नी से ... नहीं, अपनी माँ से पूछ फाइव स्टार के बारे में। सारा शहर जानता है कि यह मर्द शादीशुदा है। फिर भी इसकी यह मज़ाल। मुझ पर डोरे डाल रहा है। मैं भी बताती हूँ तूने किससे पंगा ले लिया? यह चिट्ठी अभी तेरे घर में तेरी पत्नी को देकर आती हूँ मैं।

श्रीमती अमिता
जाने कौन लडकी थी? न कुछ बोली न अन्दर ही आयी। बस एक कागज़ पकड़ाकर चली गयी तमकती हुई।

डॉ. अमित
अपने ऊपर शर्म आ रही है। मेरे जैसा पढा लिखा अधेड़ कैसे ऐसी बेवक़ूफी कर बैठा? पहले तो ऐसा बेतुका सपना देखा। ऊपर से ... जान न पहचान डिनर का बुलावा दे दिया मैंने … और लड़की भी इतनी तेज़ कि सीधे घर पहुँचकर चिट्ठी अमिता को दे आयी। ज़रा भी नहीं सोचा कि एक भूल के लिये कितना बड़ा नुकसान हो जाता। मेरा तो घर ही उजड जाता अगर अमिता अनपढ न होती।

[समाप्त]

Tuesday, May 31, 2011

छोटे मियाँ - लघुकथा

रिसेप्शनिस्ट मानो सवालों की बौछार सी किये जा रही थी और राजा भैया शांति से हर प्रश्न का जवाब देते जा रहे थे। वह पूछती, वे बताते और वह अपने कम्प्यूटर में दर्ज़ कर लेती। उम्र पूछी तो राजा ने मेरी ओर देखा। मैंने जवाब दिया तो रिसेप्शनिस्ट मुस्कराई, "द यंगेस्ट मैन इन द कम्युनिटी।"

जवाब में राजा भैया मुस्करा दिये और मेरे होठों पर भी मुस्कान आ गयी। एक ऐसी मुस्कान जिसमें हज़ारों खुशियाँ छिपी थीं। चौथी कक्षा में था तब दशहरे-दिवाली की छुट्टियों से पहले एक बार कक्षा एक से लेकर 12 तक के सभी छात्रों की सम्मिलित सभा में प्राचार्य ने छात्रों को मंच पर आकर इन पर्वों के बारे में बोलने का आमंत्रण दिया था। जब कोई नहीं उठा तो मैं चल पडा। बोलना खत्म करने तक सबका दिल जीत चुका था। भीमकाय प्राचार्य ने नकद पुरस्कार तो दिया ही, गोद में उठाकर जब "छोटे मियाँ" कहा तो जैसे वह मेरी पदवी ही बन गयी। जब तक उस विद्यालय में रहा सभी "छोटे मियाँ" कहकर बुलाते रहे।

नगर बदला तो स्कूल भी बदला। कक्षा में सबसे छोटा था। छोटे मियाँ कहलाया जा सकता था मगर यहाँ की संस्कृति भिन्न थी सो यहाँ नाम पडा "कुंवर जी।" नाम का अंतर भले ही रहा हो रुतबा वही था। वैसी ही प्यार की बौछार और छोटा होने पर भी बडे सहपाठियों और सहृदय अध्यापकों से मिलने वाला वैसा ही सम्मान।

समय कैसे बीतता है पता ही नहीं लगता। काम पर गया तो भी सबसे युवा होने के कारण बडी मज़ेदार घटनायें घटीं। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि छात्र प्रशिक्षुओं ने अपने में से ही एक समझा। यहाँ पर मैं "बेबी ऑफ द टीम" कहलाया। होली पर सबके तो हास्यास्पद नामकरण हुए मगर अपने लिये मिला, "... यहाँ के हम हैं राजकुमार।"

वैसे तो मैं अकेला ही आराम से आ सकता था। मगर राजा भैया आजकल साथ में चिपके से रहते हैं। फार्म तक भरने नहीं दिया। खुद ही भरते जा रहे थे। औपचारिकतायें पूरी होने के बाद रिसेप्शनिस्ट उठी और राजा भैया को धन्यवाद देकर मुझसे उन्मुख होकर बोली, "आइये कैप्टेन, आपको टीम से मिला दूँ।"

"सर्वश्रेष्ठ जगह है यह" राजा भैया ने मेरे पाँव छूते हुए कहा। उनके साथ मेरी आँख भी नम हुईं जब वे बोले, "यहाँ आपको कोई परेशानी नहीं होगी। वृद्धाश्रम नहीं, फाइव स्टार होटल है ये, पापा।"

[समाप्त]

Saturday, March 19, 2011

अक्षर अक्षर - एक कविता

[अनुराग शर्मा]

कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त

कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर

जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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Monday, February 14, 2011

टोड - कहानी - अंतिम भाग

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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड कहानी का भाग एक पढने के लिये यहाँ क्लिक करें
अब आगे की कहानी:

दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"

मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"

"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?

"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"

"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"

"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"

"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"

मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"

एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।

"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।

"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।

"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"

लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"

मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।

जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।

"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।

वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"

"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"

तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"

[समाप्त]

Sunday, February 13, 2011

टोड - कहानी - भाग एक

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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।

मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।

"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।

"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।

"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।

"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।

"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।

मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।

प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।

सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।

जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।

तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।

राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।

चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।

[क्रमशः]