Saturday, March 19, 2011

अक्षर अक्षर - एक कविता

[अनुराग शर्मा]

कागज़ी खानापूरी से
दिमागी हिसाब-किताब से
या वाक्चातुर्य से
परिवर्तन नहीं आता
क्योंकि
क्रांति का खाजा है
त्याग, साहस
इच्छा-शक्ति, पसीना
और मानव रक्त

कफन बांधकर
निकल पडते हैं
प्रयाण पर
शुभाकांक्षी वीर
जबकि
सुरक्षित घर में
छिपकर
कलम तोड़ते हैं
ठलुआ शायर

जान जाती है
बयार आती है
क्रांति हो जाती है
युग परिवर्तन होता है
खेत रहते हैं वीर
बिसर जाते हैं
वीर, त्यागी और हुतात्मा
कर्म विस्मृत हो जाते हैं
लिखा अमिट रहता है
अलंकरण पाते हैं
डरपोक कवि
क्योंकि
अक्षर अक्षर है।
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Thursday, March 17, 2011

नव शारदा - रंग ही रंग - शुभकामनायें!

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हर ओर उल्लास है। लकडियाँ इकट्ठी कर के आग लगायी गयी है। अबाल-वृद्ध सभी त्योहार के जोश में हैं। क्यों न हो। सन 2005 से वे अपना पर्व मनाने को स्वतंत्र हैं। तुर्की ने आखिर सन 2005 में कुर्द समुदाय को अपना परम्परागत उत्सव नव शारदा मनाने की छूट दे ही दी। भारत में पारसी, बहाई, शिया और कश्मीरी पण्डित (नवरेह के नाम से) तो यह त्योहार न जाने कब से मनाते आ रहे हैं। परंतु यह पर्व भारत के बाहर भी दूर-दूर तक मनाया जाता है। ईरान में अयातुल्लह खोमेनी की इस्लामी सरकार आने के बाद लेखकों कलाकारों की मौत के फतवे तो ज़ारी हुए ही थे, साथ ही ईरानियों के प्रमुख त्योहार नवरोज़ को भी काफिर बताकर प्रतिबन्धित कर दिया गया था। ठीक यही काम अफगानिस्तान में तालेबान ने किया। परंतु मानव की उत्सवप्रियता को क्या कभी रोका जा सका है? दोनों ही देशों की जनता हारी नहीं। पर्व उसी धूमधाम से मनता है।

जी हाँ, परम्परागत ईरानी नववर्ष नव शारदा का वर्तमान नाम नौरोज़, नवरोज़ और न्यूरोज़ है। पारसी परम्पराओं में इस नवरोज़ को जमशेदी नौरोज़ भी कहते हैं। क्योंकि यह उत्सव यमदेव/जमशेद के सम्मान में है। ईरानी जनता को मृत्यु की ठिठुरन से बचाने के बाद जब वे अपने रत्न-जटित सिंहासन समेत स्वर्गारूढ हो गये तब उनके लिये प्रसन्न होकर लोगों ने इस पर्व की शुरूआत की। इस साल यह पर्व 20 मार्च 2011 को पड रहा है।

20 मार्च को ही एक और त्योहार भी है "पूरिम" जिसमें नौरोज़ की तरह पक्वान्नों पर तो ज़ोर है ही साथ ही सुरापान की भी मान्यता है। यहूदियों के इस पर्व में खलनायक हमन के पुतले को सामूहिक रूप से आग लगाई जाती है, पोस्त की मिठाइयाँ बनती हैं और नाच गाना होता है।

22 मार्च को भारत सरकार के राष्ट्रीय पंचांग "शक शालिवाहन" सम्वत का आरम्भ भी होता है। इस नाते यह भारत का राष्ट्रीय नववर्ष हुआ, शक संवत 1933 की शुभकामनायें!

और अपनी होली के बारे में क्या कहूँ? दीवाली का प्रकाश तो यहाँ भी वैसा ही लगता है मगर होली की मस्ती के रंग फीके ही लगते हैं।

आप सभी को होली की मंगलकामनायें!

Sunday, March 13, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 10

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अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?

दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।

दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?

“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।

“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”

“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”

“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”

“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।

पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।

वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।

[क्रमशः]