Saturday, June 4, 2011

पर्यावरण दिवस 2011[इस्पात नगरी से - 41]

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सबके लिये पेयजल - एक पक्षी बॉस्टन से 

हर बालक को मिले माँ का प्रेम - रामपुर

दिल्ली की गर्मी में एक काक

न्यूयॉर्क के पोत पर एक आरामतलब कपोत

दो मुट्ठी आकाश - स्वच्छ पर्यावरण 
ॐ शांति: शांति: शांति:

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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Thursday, June 2, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 11

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पिछली कड़ियाँ - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10
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अपनी छुट्टी पूरी होते ही पिताजी तो वापस चले गये। परन्तु वीर और उनकी माँ छुट्टी भर नई सराय में ही रहे। दादी अकेली ज़रूर हुई थीं परंतु उनका जज़्बा बना हुआ था। अकेले में शायद रो लेती हों, मगर बहू और पोते के सामने कभी कमज़ोर नहीं दिखीं। पुत्तू और लखना भी सदा की भांति आते रहे और निक्की भी। स्कूल खुलने से पहले वीर को भी अपने घर जाना था। पहले पिताजी और अब माँ ने दादी को समझाने का प्रयत्न किया कि वे भी अपने पोते और बहू के साथ ही चलें परंतु दादी तो किसी भी कीमत पर नई सराय छोड़ने को तैयार ही नहीं थीं। वीर के चलने का दिन आया। वीर अपनी अटैचियाँ बांधे तैयार खड़े थे। माँ और दादी दोनों सजल नेत्रों से एक दूसरे के गले लगाकर रो रही थीं।

उसी समय कहीं से निक्की वहाँ आ गयी। कहीं से वीर की भौतिकी की पुस्तक ढूंढकर लाई थी। वीर ने पुस्तक हाथ में ली। लगभग उसी समय माँ ने विदा लेकर उन्हें चलने को कहा। लखना पहले ही इक्का ले आया था। इक्के में चुपचाप बैठे वे दोनों बस अड्डे जा रहे थे। माँ ने अचानक कहा, “क्या दिया निक्की ने तुम्हें?”

“मेरी किताब। और क्या?”

“किताब के साथ वह लिफाफा क्या है? तुम दूर ही रहना, पढाई में बिल्कुल ध्यान नहीं है इस लड़की का।”

वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झाँक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे। सुन्दर अक्षरों में स्पष्ट अंग्रेज़ी में लिखा था, बिना किसी लाग-लपेट के।

प्रिय वीर,

तुम्हारी पीड़ा का अनुमान है मुझे। तुम्हें शायद विश्वास न हो मगर अब मैं अपने से अधिक तुम्हें पहचानने लगी हूँ। मुझे पूरा अहसास है कि तुम पर क्या बीत रही है। काश! मैं एक जादुई परी होती और तुम्हारा दर्द कम कर सकती। यदि मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकी तो अपने को धन्य समझूंगी। अभी तो तुम यहीं हो और मैं अभी से तुम्हारी कमी महसूस करने लगी हूँ। मुझे पता नहीं मुझे क्या हुआ है। शायद तुम्हें पता हो। अगर हो तो मुझे मिलकर बताना ...

केवल तुम्हारी ...


पागल लड़की! वीर के दिल में अजीब सा कुछ हुआ। कलेजे में भीतर तक अच्छा लगा कि किसी को उनकी तकलीफ़ का अहसास है। निक्की की हिम्मत पर हँसी भी आई। उसके भविष्य के बारे में सोचकर दु:ख भी हुआ। माँ शायद ठीक ही कहती हैं। निक्की का ध्यान पढ़ाई से हट चुका है। अभी है ही कितनी बड़ी? 10-12 साल की ही होगी शायद।

[क्रमशः]

Tuesday, May 31, 2011

छोटे मियाँ - लघुकथा

रिसेप्शनिस्ट मानो सवालों की बौछार सी किये जा रही थी और राजा भैया शांति से हर प्रश्न का जवाब देते जा रहे थे। वह पूछती, वे बताते और वह अपने कम्प्यूटर में दर्ज़ कर लेती। उम्र पूछी तो राजा ने मेरी ओर देखा। मैंने जवाब दिया तो रिसेप्शनिस्ट मुस्कराई, "द यंगेस्ट मैन इन द कम्युनिटी।"

जवाब में राजा भैया मुस्करा दिये और मेरे होठों पर भी मुस्कान आ गयी। एक ऐसी मुस्कान जिसमें हज़ारों खुशियाँ छिपी थीं। चौथी कक्षा में था तब दशहरे-दिवाली की छुट्टियों से पहले एक बार कक्षा एक से लेकर 12 तक के सभी छात्रों की सम्मिलित सभा में प्राचार्य ने छात्रों को मंच पर आकर इन पर्वों के बारे में बोलने का आमंत्रण दिया था। जब कोई नहीं उठा तो मैं चल पडा। बोलना खत्म करने तक सबका दिल जीत चुका था। भीमकाय प्राचार्य ने नकद पुरस्कार तो दिया ही, गोद में उठाकर जब "छोटे मियाँ" कहा तो जैसे वह मेरी पदवी ही बन गयी। जब तक उस विद्यालय में रहा सभी "छोटे मियाँ" कहकर बुलाते रहे।

नगर बदला तो स्कूल भी बदला। कक्षा में सबसे छोटा था। छोटे मियाँ कहलाया जा सकता था मगर यहाँ की संस्कृति भिन्न थी सो यहाँ नाम पडा "कुंवर जी।" नाम का अंतर भले ही रहा हो रुतबा वही था। वैसी ही प्यार की बौछार और छोटा होने पर भी बडे सहपाठियों और सहृदय अध्यापकों से मिलने वाला वैसा ही सम्मान।

समय कैसे बीतता है पता ही नहीं लगता। काम पर गया तो भी सबसे युवा होने के कारण बडी मज़ेदार घटनायें घटीं। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि छात्र प्रशिक्षुओं ने अपने में से ही एक समझा। यहाँ पर मैं "बेबी ऑफ द टीम" कहलाया। होली पर सबके तो हास्यास्पद नामकरण हुए मगर अपने लिये मिला, "... यहाँ के हम हैं राजकुमार।"

वैसे तो मैं अकेला ही आराम से आ सकता था। मगर राजा भैया आजकल साथ में चिपके से रहते हैं। फार्म तक भरने नहीं दिया। खुद ही भरते जा रहे थे। औपचारिकतायें पूरी होने के बाद रिसेप्शनिस्ट उठी और राजा भैया को धन्यवाद देकर मुझसे उन्मुख होकर बोली, "आइये कैप्टेन, आपको टीम से मिला दूँ।"

"सर्वश्रेष्ठ जगह है यह" राजा भैया ने मेरे पाँव छूते हुए कहा। उनके साथ मेरी आँख भी नम हुईं जब वे बोले, "यहाँ आपको कोई परेशानी नहीं होगी। वृद्धाश्रम नहीं, फाइव स्टार होटल है ये, पापा।"

[समाप्त]