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Saturday, July 16, 2011

शहीदों को तो बख्श दो : 4. बौखलाहट अकारण है?

चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में 8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘पब्लिक सेफ्टी’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली’ में बम फेंका।

1931 की पुस्तक
"शहीदों को तो बख्श दो" की पिछली कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉंग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में अपनी आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉंग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉंग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था। तब स्वाधीनता सेनानियों का विरोध करने के बाद चीन हमले का समर्थन करने वाले आज भी अनेक क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक कहकर उनका अपमान करते रहे हैं। वही लोग आजकल भगतसिंह के चित्रों को लाल रंगकर माओ और लेनिन जैसे नरसंहारक तानाशाहों के साथ लगाने के साथ-साथ ऐसे आलेख लिख रहे हैं जिनसे ऐसा झूठा सन्देश भेजा जा रहा है मानो आस्तिक लोग भगतसिंह के प्रति शत्रुवत हों ...


1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
3. भाग 3 - मैं नास्तिक क्यों हूँ

अब आगे :-
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"हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कडी मात्र होंगे जिसका सौन्दर्य सहयोगी भगवतीचरण वर्मा के अत्यन्त कारुणिक किन्तु बहुत ही शानदार आत्म त्याग और हमारे प्रिय योद्धा 'आजाद' की शानदार मृत्यु से निखर उठा है।" ~ सरदार भगत सिंह (3 मार्च 1931 को पंजाब के गर्वनर के नाम संदेश में)
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु
"शहीद भगतसिंह दोजख में?" जैसे भड़काने वाले शीर्षक के साथ एक बार फिर यही प्रयास किया गया है। भगतसिंह के एक तथाकथित पत्र के नाम पर आस्तिकों को लताड़ा गया और नास्तिकों को ऐसा जताया गया मानो तमाम आस्तिक (70% भारतीय? या अधिक?) शहीद भगतसिंह के पीछे पडे हों।

मैंने पहले भी कहा है कि हुतात्माओं का प्रणप्राण से आदर करने वालों को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि सरदार भगतसिंह जीवन भर आस्तिक रहे या अपने अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये। तो भी, उन्हें नास्तिक जतलाकर यह बात झुठलाई नहीं जा सकती कि उन्होंने जीवनभर अनेकों आस्तिक क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम किया है, उनसे निर्देश लिये हैं और उनके साथ प्रार्थनायें गायी हैं। उनका आस्तिकों से कोई मतभेद नहीं रहा। आस्था उनके लिये एक व्यक्तिगत विषय थी जैसे कि किसी भी समझदार व्यक्ति के लिये है। उनकी नास्तिकता का अर्थ न तो आस्तिकों का विरोध था न उनकी आस्था की खिल्ली उडाना और न ही उन्हें अपना विरोधी या मूर्ख साबित करना। पुनः, उनके व्यक्तिगत विश्वास उनके नितांत अपने थे। वे अविवाहित भी थे, क्या सिर्फ़ इतने भर से दुनिया भर के अविवाहित श्रद्धेय हो जायेंगे और विवाहित निन्दनीय?

चन्द्रशेखर आज़ाद
उत्सुक व्यक्ति हूँ, अफवाहें फैलाने के बजाय प्रमाण देखकर काम करता हूँ। सोचा कि उस पत्र के बहाने शहीदे-आज़म को अपशब्द (दोज़ख) कहने वालों से मूल पत्र की जानकारी ही ले लूँ। यह दिमाग़ में आया ही नहीं कि तर्क का व्यवसाय (वकालत) करने और अपने ब्लॉग पर प्रमाण के दर्शन (सांख्य और नास्तिकता) की कसम खाने वाले आदरणीय द्विवेदीजी को यह बात अखर जायेगी। मुद्दे से भटकाने वाली गोल-मोल बहसों (बीसियों टिप्पणियाँ) में अपनी अरुचि दिखाने के बावजूद मूल पत्र का कोई अता-पता देने के बजाये टिप्पणियों के द्वारा मुझ यह आरोप लगाया गया कि मैंने एक शहीद पर उंगली उठाई है। एक सरल से सवाल का जवाब न देकर बौखलाहट भरी टिप्पणियों से यह तो स्पष्ट हो गया कि आलेख के लेखक और उखड़े टिप्पणीकार ने न तो खुद कभी वह पत्र देखा है और न तब तक इस बात का सबूत मांगने का प्रयास किया था कि ऐसा कोई पत्र कभी था। बिना देखे-परखे एक तथाकथित पत्र का प्रचार-प्रसार करना अपने आप में अन्ध-श्रद्धा या अन्ध आस्तिकता (blind faith) ही कहलायेगी। नास्तिकता की बात करने वालों को दूसरों से अपनी बात पर साक्ष्यहीन आस्था करने की आशा करने के बजाय बात कहने से पहले सबूत रखना अपेक्षित ही है। लेकिन इसका उल्टा होते देखकर मैंने आश्चर्य किया कि आस्तिकों द्वारा ग्रंथों पर आँख मूंदकर विश्वास कर लेने की खिल्ली उडाने वाले ब्लॉगर (और एक अति-क्रोधित टिप्पणीकार) ने खुद कैसे ऐसे पत्र पर आंख मूंदकर विश्वास किया, तो कैसे उत्तर मिले इसके कुछ उदाहरण निम्न हैं:

बिस्मिल
"एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि वह लेख उन्होंने नहीं लिखा तब भी क्या फर्क पड़ जाता है? उसमें ऐसा क्या लिखा है? उसके सवालों के जवाब हैं? सारा खेल समझ में तो आ ही रहा है। अन्त में आप मुकद्दमा ठोंकिए, हम मुफ़्त में मशहूर हो जाएंगे। क्यों?"

और

"भगतसिंह के जिस लेख को सारी दुनिया प्रामाणिक मानती है। आप उसे गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो इस खोज में जुट जाइए। आप घर बैठे उसे गलत मानते हैं तो मानते रहिए। इस से किसी को क्या फर्क पड़ता है? जो सच है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। फिर भी आप चाहते हैं कि उसे चुनौती दी जाए तो भारत की अदालतें इस मुकदमे को सुनने को तैयार हैं। भारत आइए और एक मुकदमा अदालत में मेरे और चंदन जी और उन तमाम लाखों लोगों के विरुद्ध पेश कीजिए जो इस आलेख को प्रामाणिक मानते हैं।"
और
"सब लोग गलत हैं और रामायण आदि सारे ग्रंथ जिनका समय भी पता नहीं तो लेखक की बात कौन करे कि जो माने जाते हैं वही हैं। लेकिन अब आपसे जवाब-सवाल मैं भी नहीं करना चाहता, आप द्विवेदी के सुझाव से अदालत में मुकद्दमा ठोकिए। तुरन्त और कुछ लिख देता हूँ।"
आदि ....

लाल, बाळ व पाल
पिछली कड़ियों में मैं स्पष्ट कर चुका हूँ कि निहित स्वार्थ और पार्टी के लाभ-हानि के आधार पर शहीदों की दो ढेरियाँ बनाने का काम भगतसिंह को नास्तिक बनाने पर समाप्त नहीं होता बल्कि इसके आगे उनके श्वेत-श्याम चित्र को लाल रंग में रंगने, उनके चित्र पर कम्युनिस्ट तानाशाहों के चित्र आरोपित करने, उनके बहाने संसार के सारे आस्तिकों (आस्तिक होने के नाते अधिकांश क्रांतिकारी स्वतः शामिल हुए) को लपेटने, धार्मिक प्रवृत्ति के क्रांतिकारियों के कृतित्व को कम करके आँकने और जताने जैसे स्वरूप में बढता ही जाता है।

मूल पत्र की जानकारी मांगते ही मुकद्दमा करने की दलील दी जाने लगी! हाँ भाईसाहब मुकद्दमे का समय आने पर शायद वह भी हो, पर फ़िलहाल तो यही चिंता है कि अदालत पर बोझ बढने से वकीलो का कारोबार भले ही चमके, ग़रीबों के ज़रूरी मुकद्दमों की तारीखें ज़रूर आगे बढेंगी। पहले ही मुकद्दमों के बोझ से दबी अदालतों को अपने प्रचार के उद्देश्य से प्रयोग करके ग़रीब मज़दूरों को न्याय मिलने में देरी की चिंता न करना न्याय की अवमानना भले ही न हो अनैतिक विचार तो है ही। कमाल है, आप पहले तो उकसाने वाला शीर्षक लिखें जिसका आधार एक तथाकथित पत्र को बनाकर उस पत्र का प्रचार करेंगे और अगर कोई व्यक्ति उस पत्र की जानकारी मांगें तो उसे भगतसिंह पर आक्षेप बतायें, " ... कोई भगतसिंह या किसी आदर्श व्यक्ति पर उंगली उठाए तो ..." कोई बतायेगा कि भगतसिंह कब से इनके प्रवक्ता हो गये और इनके आलेख के बारे में प्रश्न करना भगत सिंह पर उंगली उठाना कैसे हुआ?

महामना मदन मोहन मालवीय
मज़ेदार बात यह है कि मैंने तथाकथित पत्र के अस्तित्व पर सवाल उठाया भी नहीं था। अन्य भोले-भाले भारतीयों की तरह ही तब तक मैं भी उस पत्र को वास्तविक ही समझ रहा था। मूलपत्र की बात को जिस बौखलाहट, तानाकशी और असम्बन्धित टिप्पणियों से दबाने का प्रयास किया गया उससे अब यह प्रश्न अवश्य उठने लगा है कि क्या भगतसिंह का ऐसा कोई पत्र सचमुच में था भी? यदि है तो असंख्य अनुवादों की आड़ में मूल पत्र को छिपाया क्यों जा रहा है? भगतसिंह के परिवार, संगत, संगठन, साथियों, दिनचर्या, कृतित्व, और उनके द्वारा जेल में मंगाई गयी और बाद में उनके सामान में पायी गयी धार्मिक-साहित्यिक-राजनीतिक पुस्तकों जैसे साक्ष्यों की रोशनी में उस पत्र की असलियत की जांच क्यों नहीं की जा रही है? इस सबके बजाय उस तथाकथित पत्र के अंग्रेज़ी अनुवाद के हिन्दी अनुवाद के आधार पर एक भड़काऊ शीर्षक वाला आलेख लिखना तो एक ग़ैरज़िम्मेदाराना हरकत ही हुई।

जब “उल्लिखित पत्र कहाँ है?” की जवाबी टिप्पणियों में मूल पत्र या मूल प्रश्न का कोई ज़िक्र किये बिना "भाववादियों के पास बहस करने के लिए कल्पना के सिवा कुछ नहीं है। वे पाँचों इंद्रियों से जाने जा सकने वाले जगत को मिथ्या और स्वप्न समझते हैं, जब कि काल्पनिक ब्रह्म को सत्य। वे तो उस अर्थ में भी ब्रह्म को नहीं जान पाते जिस अर्थ में शंकर समझते हैं। सोते हुए को आप जगा सकते हैं लेकिन जो जाग कर भी सोने का अभिनय करे उस का क्या? हम अपना काम कर रहे हैं, हमें यह काम संयम के साथ करते रहना चाहिए। हम वैसा करते भी हैं। पर कुतर्क का तो कोई उत्तर नहीं हो सकता न?" जैसे निरर्थक जवाब आने लगे तो अंततः एक टिप्पणी में मुझे स्पष्ट कहना ही पडा:

मूल पत्र या उसकी प्रति आप लोगों ने नहीं देखी है, आपके प्रचार का काम केवल इस आस्था/श्रद्धा पर टिका है कि ऐसा पत्र कभी कहीं था ज़रूर। मेरे प्रश्न के बाद अब आप लोगों के देखने का काम शुरू हुआ है तो शायद एक दिन हम लोग मूल पत्र तक पहुँच ही जायें। जब भी वह शुभ दिन आये कृपया मुझे भी ईमेल करने की कृपा करें। मुझे आशा है कि आयन्दा से यह तथाकथित नास्तिक अन्ध-आस्था के बन्धन से मुक्त होने का प्रयास करके साक्ष्य देखकर ही प्रचार कार्य में लगेंगे। अगर ऐसा हो तो हिन्दी ब्लॉगिंग की विश्वसनीयता ही बढेगी।"

लम्बी बेमतलब बहस में अरुचि दिखाकर मूल पत्र का पठनीय चित्र या उसका लिंक मांगने के जवाब में, "हमारी भी इस मामले में आप से बहस करने में कोई रुचि नहीं है। हम यह बहस करने गए भी नहीं थे। आप ही यहाँ पहुँचे हुए थे।" सुनने के बाद मैं क्या करता। बड़े भाई की आज्ञा सिर माथे रखते हुए कहा, "अगर आपको दुख हुआ तो अब नहीं आयेंगे। जो कहना होगा अपने ब्लॉग पर कह लेंगे।"

एक प्रकार से अच्छा ही हुआ कि इस बहाने से छिटपुट इधर उधर बिखरे हुए विचार और जानकारी इस शृंखला के रूप में एक जगह इकट्ठी हो गई जो आगे भी किसी पार्टी या कल्ट के निहित स्वार्थी प्रोपेगेंडा के सामने शहीदों के नाम का दुरुपयोग होने से बचायेगी।

वार्ता के अंत में प्रमाणवादी वकील साहब ने मेरे सवाल को कालीन के नीचे सरकाते हुए अपना सवाल फिर सामने रख दिया, "क्या नास्तिक होने से भगतसिंह नर्क में होंगे?"

तो आदरणीय वकील साहब, आप भले ही मेरे सवाल का जवाब न दे पाये हों, मैं आपके प्रश्न का उत्तर अवश्य दूंगा। ध्यान से सुनिये मेरा जवाब अगली कड़ी में।
[क्रमशः]

[शहीदों के सभी चित्र इंटरनैट से विभिन्न स्रोतों से साभार]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सरदार भगत सिंह - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* शहीदों को तो बख्श दो
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद का जन्म दिन - 2010
* तोक्यो में नेताजी के दर्शन

Tuesday, July 12, 2011

शहीदों को तो बख्श दो : भाग 3 - मैं नास्तिक क्यों हूँ

शहीदों को तो बख्श दो की पिछली दो कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉंग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में अपनी आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉंग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉंग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था।
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
अब आगे :-
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"कम्युनिस्ट नेता भारत पर हमला करने वाले चीन का स्वागत करना चाहते थे।" ~ रोज़ा देशपाण्डे (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक श्रीपाद अमृत डांगे की पुत्री)
क्रांतिकारियों के कारनामों और कॉंग्रेस की राजनैतिक पहल से अंततः भारत स्वतंत्र तो हुआ। टूटे दिल से ही सही विभाजन की त्रासदी स्वीकार करके तत्कालीन नेताओं ने नव-स्वतंत्र राष्ट्र को एक लम्बे चलने वाले विनाशक गृहयुद्ध से बचा लिया और पाकिस्तान को मान्यता देकर दो नये देशों के लिये एक शांतिपूर्ण भविष्य की आशा की। जिन्होंने आज़ादी से पहले राष्ट्र की पीठ में छुरे घोंपे थे उन्हें बाद में भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। भारतीय कम्युनिस्टों के एक दल ने चीन द्वारा तिब्बत हज़म करने और सिक्किम व भूटान को धमकाने के बाद भारत पर हुए अनैतिक हमले के बाद भी भारत पर ही अपना (लोकतांत्रिक?) साम्राज्यवाद चीन पर थोपने का आरोप लगाया। ऐसे मौके कम नहीं आये जब इस दल के विभिन्न घटकों ने अपने कई सशस्त्र अराजनैतिक दस्ते बनाकर देश के विभिन्न भागों में अराजकता फ़ैलाई, हत्यायें की और जन-संसाधनों का विनाश किया।

"मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट नहीं, कोई मूर्ख ही होगा जो किसी समाजवादी देश (चीन) को हमलावर मानेगा।" ~ कम्युनिस्ट नेता पी. राममूर्ति भारत पर कम्युनिस्ट चीन के हमले के सन्दर्भ में
क्रांतिकारियों पर कम्युनिस्ट चिह्न मत थोपो 
ताज़ा हालत ही देखें तो एक ही प्रदेश बंगाल में एक दस्ता क्रांति के नाम पर निरीह जनता पर लाल माओवादी आतंक फैलाकर वसूली के बदले में बडे तस्करों, अपराधियों, वनसम्पदा-शिकारियों, हत्यारों आदि को संरक्षण देता रहा और दूसरा दस्ता ग़रीब किसानों की कृषियोग्य भूमि जबरन कब्ज़ियाकर बडे व्यवसाइयों को कृतार्थ करता रहा। मगर हिंसक राजनैतिक विचारधाराओं में जन-संहार शायद मामूली बात है, बडी चीज़ तो प्रचार है और प्रचार के लिये आवश्यकता होती है एक ब्रैंड ऐम्बैसैडर की, एक आयकन की, एक देवता की। लेकिन जिन्होंने सदा बुतशिक़नी की हो वे देवता कहाँ से लाते? जनमानस से पूरी तरह कटी हुई विचारधारा इस राष्ट्र के सबसे स्वीकृत नायकों राम, कृष्ण, परशुराम, बुद्ध, महावीर, गांधी, विनोबा, अम्बेडकर आदि और भग्वद्गीता, क़ुर'आन आदि जैसे प्रतीकों को तो पहले ही नकार चुकी थी। पार्टी ने लेनिन, स्टालिन, माओ, पोल-पोट, कास्ट्रो जैसे नृशंस तानाशाहों की बुतपरस्ती की भी मगर उन हत्यारे खलनायकों की कलई पहले ही खुल चुकी थी। तब अपना जनाधार बनाने के लिये खोज शुरू हुई ऐसे सर्वमान्य क्रांतिकारियों की जिन्हें अपने पक्ष का बताया जा सके। शहीदों में से छांटकर अपनी राजनैतिक महत्वाकान्क्षा पर फ़िट किये जा सकने वाले ऐसे व्यक्तित्व ढूंढे जाने लगे जिनकी जन-मान्यता को भुनाया जा सके। दाम का मुझे पता नहीं पर दण्ड और भेद नाकाम होने पर कम्युनिस्टों ने इस बार साम का मोहरा चलने की सोची। अफ़सोस कि अधिकांश क्रांतिकारी भी गीता से प्रेरित निकले। अब क्या हो? आशायें टिकी हैं - एक पत्र पर - सरदार भगतसिंह का पत्र – मैं नास्तिक क्यों हूँ।
"न तो हम आतंक के प्रणेता हैं और न ही देश पर कलंक जैसा कि नकली समाजवादी दीवान चमनलाल ने आरोप लगाया  और न ही हम पागल हैं जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून व अन्य पत्रों ने जताया है" ~भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त (दिल्ली सेशंस कोर्ट में 8 जून 1929 का बयान)
आजकल कम्युनिस्ट विचारकों की ओर से भगतसिंह का कहा जाने वाला यह पत्र काफी विज्ञापित किया जा रहा है। इंटरनैट पर जगह जगह सायास बिखेरे गये इस पत्र के हवाले से यह जताया जा रहा है जैसे कि भगतसिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये थे। इस पत्र पर आधारित कुछ आलेखों द्वारा ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे कि अन्य सेनानी आस्तिक होने के कारण उतने खास नहीं रहे कि विदेशी विचारधारा आयात करने वाला यह दल उनका आदर कर सके। बल्कि कई क्रांतिकारियों की तो बाकायदा छीछालेदर की गयी है। एक आम भारतीय के लिये यह समझना मुश्किल है कि कोई दल ऐसा क्यों करेगा। आखिर शहीदों में भेद डालने के प्रयास के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

शहीदों पर लाल रंग मत लादो
किसी देशभक्त भारतीय ने अपने शहीदों का आदर करने से पहले कभी यह चैक नहीं किया होगा कि वे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आस्तिक, नास्तिक या कम्युनिस्ट में से क्या थे। हमारे लिये तो भगत सिंह भी उतने ही आदरणीय हैं जितने बिस्मिल या आज़ाद। लेकिन लगता है कि उस पत्र की आड़ लेने वाले लोग किसी आस्तिक क्रांतिकारी का आदर करने में अपनी हेठी समझ रहे हैं। इसीलिये वे एक स्वतंत्रता सेनानी को भी केवल तब स्वीकार करेंगे जब वह नास्तिक साबित हो जाय। मैं पूछता हूँ कि कल को यदि न्यायालय में यह साबित हो जाये कि विज्ञापित किया जाने वाला पत्र भगतसिंह ने कभी लिखा ही नहीं तो क्या ये पत्रवाहक शहीदे-आज़म की मूर्ति पर फूल माला चढाना बन्द कर देंगे? यदि “नहीं” तो फिर उनकी नास्तिकता पर इतना उछलना क्यों? यदि “हाँ” तो लानत है ऐसी विचारधारा पर जो अपनी मातृभूमि पर निस्वार्थ जान देने वालों का आदर करने की भी शर्तें लगाये।

शहीदे आज़म को हत्यारों के बीच खडा मत करो
कम्युनिस्ट विचारधारा समर्थकों द्वारा पिछले कुछ दशकों से भगतसिंह के व्यक्तित्व को छांटकर उन्हें एक देशभक्त हुतात्मा मानने के बजाय बार बार उन्हें एक कम्युनिस्ट या सिर्फ़ एक नास्तिक बताने के सश्रम प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसे ही एक आलेख में उन्हें सीधे कम्युनिस्ट ही कह दिया गया हैक्या किसी कामरेड के पास भगत सिंह की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता की पर्ची, रसीद, किसी आधिकारिक पत्र पर हस्ताक्षर, किसी कम्युनिस्ट सभा में भाषण का विवरण है? मगर वह सफ़ेद (या लाल?) झूठ ही कैसा जिसे सौ बार लिखकर उसे सच बनाने का प्रयास न हो। जनता के अवचेतन पर भगतसिंह की छवि बदलने के निन्दनीय प्रयास में उनके श्वेत-श्याम चित्र में उनके साफ़े को लाल रंग दिया जाता है। इंटरनैट पर एक नज़र मारने पर आपको लेनिन और माओ जैसे नृशंस दानवों के बीच बिठायी हुई भगतसिंह की तस्वीर भी आसानी से मिल जायेगी। शहीद भगतसिंह जैसे राष्ट्रीय गौरव के महान व्यक्तित्व को एक संकीर्ण विचारधारा या दल से बांधकर उनके क़द को कम करने की कोशिश बहुत बुरी है और किसी भी स्वाभिमानी देशभक्त के लिये नाकाबिले-बर्दाश्त भी।
[क्रमशः]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
Was Bhagat Singh shot dead?

Saturday, July 9, 2011

शहीदों को बख्श दो: 2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म

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उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है, हमें यह शौक है देखें सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख से क्यों ग़िला करें, सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें ।
(~सरदार भगत सिंह)
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शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1 से जारी ...
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सरदार भगतसिंह की बात चल रही है तो इस शिकवे की बात भी हो जाय कि गांधी जी ने नहीं कहा वर्ना भगतसिंह बच जाते। गांधी जी भारत के गवर्नर नहीं थे कि वे कह देते और देश आज़ाद हो जाता। भगत सिंह की ही तरह गांधी जी भी देश की स्वतंत्रता के लिये अपने तरीके से संघर्षरत थे। लेकिन यह सत्य है कि भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने वाइसराय से बात की थी और इस उद्देश्य के लिये अन्य राष्ट्रीय नेता अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत थे।

क्रांतिकारी और कॉंग्रेसी कार्यकर्ता एक दूसरे के साथ वैसा सहयोग कर रहे थे जैसा कम्युनिस्टों का इन दोनों ही के साथ कभी नहीं रहा। शहीद अपनी जान देने में सौभाग्य समझते हैं यह जानते हुए भी कॉंग्रेस अकेला ऐसा दल था जिसने बहुत से क्रांतिकारियों की जान बचाने के विधिसम्मत प्रयास किये। आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के बन्दी सैनिकों के मुकदमे भूलाभाई देसाई और पण्डित नेहरू ने लड़े थे उसी प्रकार भगत सिंह की जान बचाने के लिये हिन्दू महासभा के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय ने याचिका लगायी और कॉंग्रेसी मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान सभा में उनके पक्ष में बोलकर उन्हें बचाने के प्रयास किये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20 मार्च, 1931 को एक बड़ी कॉंग्रेसी जनसभा भी की थी। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भारत के अन्य वीर शहीदों की तरह ही भगत सिंह को भी कृपा पाकर बचने की कोई इच्छा नहीं थी। बल्कि वे तो फ़ांसी की जगह फ़ायरिंग दस्ते द्वारा मृत्युदंड चाहते थे। अगर हम एक देशभक्त वीर की तरह सोच सकें तो हमें यह बात एकदम समझ आ जायेगी कि अगर गांधी जी भगत सिंह की जान की बख़्शीश पाते तो सबसे अधिक दु:ख भगत सिंह को ही होता।

गांधीजी के प्रति राष्ट्रवादियों का क्षोभ फिर भी समझा जा सकता है मगर उससे दो कदम आगे बढकर कम्युनिस्ट खेमे के कुछ प्रचारवादी आजकल ऐसा भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं जैसे कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे। क्या कोई बता सकता है कि आज़ादी के छः दशक बाद एक स्वाधीनता सेनानी की आस्था को भुनाकर उसपर अपना सर्वाधिकार सा जताने वाले इन कम्युनिस्टों ने तब भगत सिंह की जान बचाने के लिये क्या ठोस किया था? आइये इसकी पड़ताल भी कर लेते हैं।

जहाँ भगत सिंह ने अपने समकालीन कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में लिखा है कि, “हमें बहुत–से नेता मिलते हैं जो भाषण देने के लिए शाम को कुछ समय निकाल सकते हैं। ये हमारे किसी काम के नहीं हैं।” वहीं उनके समकालीन कम्युनिस्ट नेता सोहन सिंह जोश ने उनके बारे में अपनी कृति 'भगत सिंह से मेरी मुलाकात' में स्पष्ट लिखा है “मैंने नौजवान भारत सभा में भगत सिंह व उनके साथियों की आतंकवादी प्रवृति से खुद को अलग चिन्हित किया है।” क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों की दूरी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पूरे स्वाधीनता संग्राम में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं जब कम्युनिस्ट अपने बदन पर दूसरों का खून लगाकर शहीद बनते रहे हैं। मुम्बई की पत्रिका करैंट (Current) ने एक खुलासे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य डांगे के आज़ादी से पहले (1924 के लगभग) लिखे गये वे पत्र प्रकाशित किये थे जिनमें उसने अंग्रेज़ी राज को सहयोग देने के वचन दिये थे।

कम्युनिस्ट विचारधारा लेनिन, मार्क्स, माओ, नक्सल, स्टालिन, पोल-पोट, कास्त्रो और अन्य अनेक नाम-बेनाम-बदनाम-छद्मनामधारी घटकों की आड़ में विश्वभर में विकास, शिक्षा, उन्नति, लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता की आशा करते गरीबों के जीवन में जिस आतंकवाद का पलीता लगाने में जुटी हुई है, उस आतंकवाद के बारे में भगत सिंह के अपने शब्द हैं, “मैं एक आतंकवादी कतई नहीं हूँ, मैं एक क्रान्तिकारी हूं जिसके विशिष्ट, ठोस व दीर्घकालीन कार्यक्रम पर निश्चित विचार हैं।” हम सब जानते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों के हाथ पर निर्दोष भारतीयों का खून तो क्या किसी निहत्थे ब्रिटिश सिविलियन का भी खून नहीं लगा है। जबकि कम्युनिस्ट जनसंहारों का अपना एक लाल इतिहास है। असेम्बली में क्रांतिकारियों ने जानबूझकर ऐसा हल्का बम ऐसी जगह फेंका कि कोई आहत न हो, केवल धुआँ और आवाज हो और वे स्वयं गिरफ़्तारी देकर जनता की बात कह सकें।

याद रहे कि भारत और अमेरिका आदि लोकतांत्रिक देश स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष, हैं जहाँ नास्तिक, आस्तिक और कम्युनिस्ट हर व्यक्ति को अपनी आस्था पालन की स्वतंत्रता है। इसके उलट कम्युनिस्ट तानाशाही तंत्र में हर व्यक्ति को जबरन अपनी धार्मिक आस्था छोडकर कम्युनिज़्म में आस्था और स्वामिभक्ति रखनी पडती है। हिरण्यकशिपु की कथा याद दिलाने वाले उस क्रूर और असहिष्णु प्रशासन में अपने कम्युनिस्ट तानाशाह के अतिरिक्त किसी भी सिद्धांत के प्रति आस्था रखने का कोई विकल्प नहीं है। सोवियत संघ, चीन, तिब्बत, उत्तर कोरिया, क्यूबा, पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों से लेकर कम्युनिस्ट दमन के दिनों के वियेटनाम और कम्बोडिया तक किसी भी देश का उदाहरण ले लीजिये, धर्म और विचारकों का क्रूर दमन कम्युनिस्ट शासन की प्राथमिकता रही है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्त चिंतन का दमन दूसरी। सोवियत संघ में ऐसी हत्याओं/आत्महत्याओं के उदाहरण मिलते हैं जब साम्यवाद के दावों के पीछे छिपी क्रूर असलियत जानने पर कार्यकर्ता या तो स्वयं मर गये या पार्टीहित में उनकी जान ले ली गयी।

यह स्वीकार करना पडेगा कि उन्होंने अपनी ओर से यथासम्भव पूर्ण प्रयास किया ~ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (शहीदत्रयी की फ़ांसी के बाद गांधी जी के बारे में बोलते हुए)
विषय से भटके बिना यही याद दिलाना चाहूंगा कि:
  • भारत के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट दल के अतिरिक्त अन्य सभी राजनैतिक, धार्मिक संस्थाओं यथा कॉंग्रैस, हिन्दू महासभा आदि के निकट थे। उल्लेखनीय यह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक अशफाक़, बिस्मिल और आज़ाद के साथ उस हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य थे जिसमें बाद में भगतसिंह भी आये।
  • क्रांतिकारियों के मन में राष्ट्रीय नेताओं के प्रति असीम श्रद्धा थी और लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी की मौत का बदला लेने के लिये वे मृत्यु का वरण करने को तैयार थे।
  • क्रांतिकारी और राष्ट्रीय नेताओं का प्रेम और आदर उभयपक्षी था और नेताओं ने उनकी रक्षा के यथासम्भव राजनैतिक प्रयत्न किये।
  • कम्युनिस्ट नेता एक ओर इन क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहकर उनसे किनाराकशी कर रहे थे दूसरी ओर छिपकर ब्रिटिश सरकार को प्रेमपत्र लिख रहे थे। "भारत-छोडो" जैसे आन्दोलनों का विरोध करने वाले कम्युनिस्ट अब क्रांतिकारियों को कम्युनिस्ट बताकर भी अपना अतीत छिपा नहीं पायेंगे।
  • क्रांतिकारियों ने देश-विदेश की सफल-असफल क्रान्तियों का अध्ययन अवश्य किया और उनसे सबक लिया। इनमें राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट दोनों मामले शामिल हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे अहिंसा और सहिष्णुता त्यागकर कम्युनिस्ट हो गए और धर्म-विरोध, मानवाधिकार हनन, बंदूक-भक्ति और तानाशाही के कम्युनिस्ट मार्ग पर चल पड़े।
  • क्रांतिकारी अपनी भिन्न आस्थाओं के बावज़ूद एक दूसरे की आस्था के प्रति भरपूर सम्मान रखते थे जोकि गैर-कम्युनिस्टी मतों के प्रति कम्युनिस्टी चिढ़ के एकदम विपरीत है।

कुल मिलाकर क्रांतिकारियों का जैसा मेल कॉंग्रेस व हिन्दू महासभा आदि से रहा था वैसा कम्युनिस्ट पार्टी से कभी नहीं रहा। दोनों ही पक्षों के पास इस दूरी को बनाये रखने के समुचित कारण थे। हमारे क्रांतिकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, परिवार की अवधारणा, जननी-जन्मभूमि के प्रति आदर और आस्था के सम्मान के लिये जाने जाते हैं न कि फ़िरकापरस्ती के लिये।
[क्रमशः]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* पण्डित परमाननंद - विकीपीडिया
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद मन्दिर
* भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* अमर शहीद भगत सिंह की भतीजी – वीरेंद्र सिन्धु

Saturday, July 2, 2011

संयुक्त राज्य अमेरिका को स्वाधीनता दिवस की बधाई [इस्पात नगरी से 42]

4 जुलाई 1904 को अमर शहीद भाई भगवती चरण (नागर) वोहरा का जन्म हुआ था। इस मंगलमय अवसर पर इस महान क्रांतिकारी को नमन!

4 जुलाई 1776 को अमेरिकी जनता ने अपने को ब्रिटिश दासता से मुक्त घोषित किया था। तब से अब तक इस महान राष्ट्र ने एक लम्बा सफ़र तय किया है और संसार में वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक बना है। बच्चों ने दो दिन पहले ही आतिशबाज़ी चलाना शुरू कर दिया है। घर-आंगन में तारे-पट्टियाँ ध्वज फ़हरते दिख रहे हैं और लकडी के छज्जों पर लोग मित्रों और परिवारजनों के साथ स्वतंत्रता भोज (कुक आउट) की तैयारियाँ कर रहे हैं।

पिछले दिनों अपने डाक टिकट संग्रह में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के चिह्न ढूंढते समय अमेरिकी स्वतंत्रता से सम्बन्धित कुछ भारतीय टिकट और आवरण, तथा भारत की स्वतंत्रता से सम्बन्धित अमेरिकी चिह्न देखकर उन्हें इस अवसर के अनुकूल पाया। संसार के दो महानतम लोकतंत्रों द्वारा व्यक्तिगत और राजनैतिक स्वतंत्रता, मनावाधिकार, और एक दूसरे का सम्मान स्वाभाविक ही है।

जन्मदिन शुभ हो अमेरिका

भारतीय जनता की ओर से अमेरिकी जनता को बधाई

अमेरिका के कुछ ध्वजों की झलकियाँ 
अमेरिका के राष्ट्रपति
अमेरिका द्वारा महात्मा गान्धी के सम्मान में प्रथम दिवस आवरण - स्वतंत्रता के नायक

स्वतंत्रता के नायक महात्मा गान्धी - अमेरिकी टिकट शृंखला

भारतीय गणतंत्र दिवस पर अमेरिका द्वारा राष्ट्रपिता का सम्मान

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: All photos by Anurag Sharma]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* स्वामी विवेकानन्द
* डीसी डीसी क्या है?

Wednesday, June 29, 2011

शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1. भूमिका

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मूर्ख और मृतक अपने विचारों से चिपक जाते हैं
[एक कब्रिस्तान की दीवार पर पढा था]

शहीदों को श्रद्धांजलि प्रथम दिवस आवरण
1857 के भारत के स्वाधीनता के प्रथम संग्राम से लेकर 1947 में पूर्ण स्वतंत्रता मिलने तक के 90 वर्षों में भारत में बहुत कुछ बदला। आज़ादी से ठीक पहले के संग्राम में बहुत सी धाराएँ बह रही थीं। निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कॉङ्ग्रेस थी जिसने उस समय भारत के जन-जन के अंतर्मन को छुआ था।

मुस्लिम लीग एक और प्रमुख शक्ति थी जिसका एकमेव उद्देश्य भारत को काटकर अलग पाकिस्तान बनाने तक ही सीमित रह गया था। महामना मदन मोहन मालवीय और पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जैसे स्वनामधन्य नेताओं के साथ हिन्दू महासभा थी। कई मामलों में एक दूसरे से भिन्न ये तीन प्रमुख दल अपनी विचारधारा और सिद्धांत के मामले में भारत की ज़मीन से जुडे थे और तीनों के ही अपने निष्ठावान अनुगामी थे। विदेशी विचारधारा से प्रभावित कम्युनिस्ट पार्टी भी थी जिसका उद्देश्य विश्व भर में रूस के वैचारिक नेतृत्व वाला कम्युनिस्ट साम्राज्य लाना था मगर कालांतर में वे चीनी, रूसी एवं अन्य हितों वाले अलग अलग गुटों में बंट गये। 1927 की छठी सभा के बाद से उन्होंने ब्रिटिश राज के बजाय कॉंग्रेस पर निशाना साधना शुरू किया। आम जनता तक उनकी पहुँच पहले ही न के बराबर थी लेकिन 1942 में भारत छोडो आन्दोलन का सक्रिय विरोध करने के बाद तो भारत भर में कम्युनिस्टों की खासी फ़ज़ीहत हुई।

राजनैतिक पार्टियों के समांतर एक दूसरी धारा सशस्त्र क्रांतिकारियों की थी जिसमें 1857 के शहीदों के आत्मत्याग की प्रेरणा, आर्यसमाज के उपदेश, गीता के कर्मयोग एवम अन्य अनेक राष्ट्रीय विचारधाराओं का संगम था। अधिकांश क्रांतिकारी शिक्षित बहुभाषी (polyglot) युवा थे, शारीरिक रूप से सक्षम थे और आधुनिक तकनीक और विश्व में हो रहे राजनैतिक परिवर्तनों की जानकारी की चाह रखते थे। भारत के सांस्कृतिक नायकों से प्रेरणा लेने के साथ-साथ वे संसार भर के राष्ट्रीयता आन्दोलनों के बारे में जानने के उत्सुक थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन भी इसी धारा का एक संगठन था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगतसिंह, अशफाक़ उल्लाह खाँ, बटुकेश्वर दत्त, आदि क्रांतिकारी इसी संगठन के सदस्य थे। इनके अभियान छिपकर हो रहे थे और यहाँ सदस्यता शुल्क जाँनिसारी थी।

अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ
(22 अक्टूबर 1900 – 19 दिसम्बर 1927)
कुछ आरज़ू नहीं है बस आरज़ू तो ये है।
रख दे कोई ज़रा सी ख़ाके वतन कफ़न में॥

ऐ पुख़्तकार उल्फ़त, हुशियार डिग न जाना।
मिराज़ आशक़ाँ है, इस दार और रसन में॥

मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा।
फ़रमान कृष्ण का था अर्जुन को बीच रन में॥

(~ अमर शहीद अशफाक़ उल्लाह खाँ)

जिन क्रांतिकारियों में एक मुसलमान वीर भगवान कृष्ण के गीत गा रहा हो वहाँ आस्तिक-नास्तिक का अंतर तो सोचना भी बेमानी है। इन सभी विराट हृदयों ने बहुत कुछ पढा-गुना था और जो लोग सक्षम थे उन्होंने बहुत कुछ लिखा और अनूदित किया था। पंजाब केसरी और वीर सावरकर द्वारा अलग-अलग समय, स्थान और भाषा में लिखी इतालवी क्रांतिकारी जोसप मेज़िनी1 (Giuseppe Mazzini) की जीवनी इस बात का उदाहरण है कि ठेठ भारतीय विभिन्नता के बीच इन समदर्शियों के उद्देश्य समान थे। इस धारा का जनाधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का।

मंगल पांडे, चाफ़ेकर2 बन्धु, दुर्गा भाभी, सुखदेव थापर, शिवराम हरि राजगुरू, शिव वर्मा, जतीन्द्र नाथ दास, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, खुदीराम बासु जैसे वीर3 हम भारतीयों के दिल में सदा ही रहेंगे, उनके व्यक्तिगत या धार्मिक विश्वासों से उनकी महानता में कोई कमी नहीं आने वाली है। वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण श्रद्धेय नहीं है बल्कि अपने कर्मों के कारण हैं । ये शहीद किसी भी धर्म या राजनैतिक धारा के हो सकते थे परंतु अधिकांश ने समय-समय पर गांधी जी में अपना विश्वास जताया था। अधिकांश की श्रद्धा अपने-अपने धार्मिक-सांकृतिक ग्रंथों-उपदेशों में भी थी। गीता शायद अकेला ऐसा ग्रंथ है जिससे सर्वाधिक स्वतंत्रता सेनानियों ने प्रेरणा ली। गीता ने सरदार भगतसिंह को भी प्रभावित किया।4

सरदार भगतसिंह
(28 सितम्बर 1907 - 23 मार्च, 1931)
80 दशक के प्रारम्भिक वर्षो से भगतसिंह पर रिसर्च कर रहे उनके सगे भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह के अनुसार भगतसिंह पिस्तौल की अपेक्षा पुस्तक के अधिक निकट थे। उनके अनुसार भगतसिंह ने अपने जीवन में केवल एक बार गोली चलाई थी, जिससे सांडर्स की मौत हुई। उनके अनुसार भगतसिंह के आगरा स्थित ठिकाने पर कम से कम 175 पुस्तकों का संग्रह था। चार वर्षो के दौरान उन्होंने इन सारी किताबों का अध्ययन किया था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की तरह उन्हें भी पढ़ने की इतनी आदत थी कि जेल में रहते हुए भी वे अपना समय पठन-पाठन में ही लगाते थे। गिरफ्तारी के बाद दिल्ली की जेल में रहते हुए 27 अप्रैल 1929 को उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखकर पढ़ने के लिये लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक5 की "गीता रहस्य" मंगवायी थी। उनकी हर बात की तरह यह समाचार भी लाहौर से प्रकाशित होने वाले तत्कालीन अंग्रेजी दैनिक 'द ट्रिब्यून' के 30 अप्रैल 1929 अंक के पृष्ठ संख्या नौ पर "एस. भगत सिंह वांट्स गीता" शीर्षक से छपा था। रिपोर्ट में लिखा गया था कि सरदार भगत सिंह ने अपने पिता को नेपोलियन की जीवनी और लोकमान्य टिळक की गीता की प्रति भेजने के लिए लिखा है। खटकड़ कलाँ (नवांशहर) स्थित शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह संग्रहालय में आर्य बुक डिपो लाहौर से प्रकाशित पं. नृसिंहदेव शास्त्री के भाष्य वाली गीता रखी हुई है जिस पर "भगत सिंह, सेंट्रल जेल, लाहौर" लिखा हुआ है। जेएनयू के मा‌र्क्सवादी प्रो. चमन लाल तक मानते हैं कि संभावना है टिळक की गीता न मिलने पर बाजार में जो गीता मिली, वही उनके पास पहुँचा दी गयी हो। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि शास्त्रीजी के भाष्य वाली गीता उनके पास अलग से रही हो परंतु वे टिळक की गीता टीका भी पढ़ना चाहते हों।

[क्रमशः]

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1कार्ल मार्क्स को भारतीय क्रांतिकारियों का आदर्श मेज़िनी सख्त नापसन्द था। एक साक्षात्कार में मार्क्स ने मेज़िनी को कभी न मरने वाला वृद्ध गर्दभ कहकर पुकारा था।
2दामोदर, बालकृष्ण, एवम वासुदेव चाफ़ेकर (Damodar, Balkrishna and Vasudeva Chapekar)
3वीरों की कमी नहीं है इस देश में - सबके नाम यहाँ नहीं हैं परंतु श्रद्धा उन सबके लिये है।
4"Bhagat Singh" by Bhawan Singh Rana (पृ. 129)
5मराठी और हिन्दी की लिपि एक, देवनागरी है लेकिन तथाकथित 'मानकीकरण' ने हिंदी की वर्णमाला सीमित कर दी है। लोकमान्य के कुलनाम का वास्तविक मराठी उच्चारण तथा सही वर्तनी 'टिळक' है।

[प्रथम दिवस आवरण का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: अन्य चित्र इंटरनैट से विभिन्न स्रोतों से साभार]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* विश्वसनीयता का संकट - हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ अनुभव
* जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
* भगवद्गीता से ली थी भगतसिंह ने प्रेरणा?
* वामपंथियों का भगतसिंह पर दावा खोखला
* भगतसिंह - विकिपीडिया
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

Labels: freedom, revolution, India, faith, atheist, communist, dishonesty, fake, forgery

Saturday, September 25, 2010

कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?

सोवियत संघ का दिवाला पिटने के समय से अब तक लगभग सारी दुनिया में कम्युनिज़्म की हवा कुछ इस तरह निकलती रही है जैसे पिन चुभा गुब्बारा। लेकिन विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के पड़ोस में कम्युनिज़म की बन्दूक, मेरा मतलब है, पर्चम अभी भी फहर रही है। वह बात अलग है कि कम्युनिज़्म के इन दोनों ही रूपों में तानाशाही के सर्वाधिकार और जन-सामान्य के दमन के अतिरिक्त अन्य समानतायें न्यूनतम हैं। कम्युनिज़्म के पुराने साम्राज्य से तुलना करें तो आज बहुत कुछ बदल गया है। क्या कम्युनिज़्म भी समय के साथ सुधर रहा है? क्या यह एक दिन इतना सुधर जायेगा कि लोकतंत्र की तरह प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने लगेगा? शायद सन 2030 के बाद ऐसा हो जाये। मगर 2030 के बाद ही क्यों? क्योंकि, चीन के एक प्रांत ने ऐसा सन्देश दिया है कि आज से बीस वर्ष बाद वहाँ के परिवारों को दूसरा बच्चा पैदा करने का अधिकार दिया जा सकता है। मतलब यह कि आगे के बीस साल तक वहाँ की जनता ऐसे किसी पूंजीवादी अधिकार की उम्मीद न करे। मगर चीन के आका यह भूल गये कि अगर जनता 2030 से पहले ही जाग गयी तो वहाँ के तानाशाहों का क्या हाल करेगी।

ऐसा नहीं है कि चीन में इतने वर्षों में कोई सुधार न हुआ हो। कुछ वर्ष पहले तक चीन की जनता अपने बच्चों का नामकरण तो कर सकती थी परंतु उन्हें उपनाम चुनने की आज़ादी नहीं थी। चीनी कानून के अनुसार श्रीमान ब्रूस ली और श्रीमती फेंग चू के बच्चे का उपनाम ली या चू के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। उस देश में होने वाले बहुत से सुधारों के बावज़ूद जनता की व्यक्तिगत पहचान पर कसे सरकारी शिकंजे की मजबूती बनाये रखने के उद्देश्य से कुलनाम के नियम में कोई छूट गवारा नहीं की गयी थी। मगर कुछ साल पहले जनता को एक बडी आज़ादी देते हुए उपनाम में माता-पिता दोनों के नाम का संयोग एक साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता दी गयी है। मतलब यह कि अब ली और चू को अपने बच्चे के उपनाम के लिये चार विकल्प हैं: चू, ली, ली-चू और चू-ली।

चीन से दूर कम्युनिज़्म के दूसरे मजबूत किले क्यूबा की दीवारें भी दरकनी शुरू हो गयी हैं। वहाँ के 84-साला तानाशाह फिडेल कास्त्रो के भाई वर्तमान तानाशाह राउल कास्त्रो ने देश की पतली हालत के मद्देनज़र पाँच लाख सरकारी नौकरों को बेरोज़गार करने का आदेश दिया है। मतलब यह है मज़दूरों के तथाकथित मसीहा हर सौ में से दस सरकारी कर्मचारी को निकाल बाहर कर देंगे। क्या इन बेरोज़गारों के समर्थन में हमारे करोड़पति कम्युनिस्ट नेता क्रान्ति जैसा किताबी कार्यक्रम न सही, आमरण अनशन जैसा कुछ अहिंसक करेंगे?

Thursday, July 22, 2010

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म दिन

कोई दिन रात मरता है, शहादत कोई पाता है....

२३ जुलाई सन १९०६ - बांस की कुटिया में आज ही के दिन श्रीमती जगरानी देवी ने चन्द्र शेखर तिवारी (आज़ाद) को जन्म दिया था.

सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह जैसे वीरों के आदर्श चंद्रशेखर तिवारी ने पंद्रह वर्ष की आयु में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेकर "आज़ाद" नाम पाया था. तानाशाहों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक आज़ाद "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" के संस्थापक सदस्य थे.


२७ फरवरी १९३१ - इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में मात्र २४ वर्ष के इस वीर ने अपनी ही गोली से प्राणोत्सर्ग करके अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक कर दिया.

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

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एक असम्बन्धित कड़ी
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* लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान - श्रेष्ठ कवि

Monday, August 10, 2009

श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले

हुतात्मा खुदीराम बसु
(3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) 
कल की बात भी आज याद रह जाए, वही बड़ी बात है। फ़िर एक सौ एक साल पहले की घटना भला किसे याद रहेगी। मात्र 18 वर्ष का एक किशोर आज से ठीक 101 साल पहले अपने ही देश में अपनों की आज़ादी के लिए हँसते हुए फांसी चढ़ गया था।

आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।

तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।

मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।

पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी

सम्बंधित कड़ी: नायकत्व क्या है?