Saturday, September 24, 2011

नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 5

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आपके सहयोग से एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, नायकत्व को पहचानने का। चार कड़ियाँ हो चुकी हैं, पर बात अभी रहती है। भाग 1भाग 2भाग 3; भाग 4;  अब आगे:
लीक-लीक कायर चलैं, लीकहि चलैं कपूत
लीक छोड़ तीनौं चलैं, शायर-सिंह-सपूत॥
नायक विचारवान होते हैं, अभिनव मार्ग बनाते हैं, पुरानी समस्याओं के नूतन हल प्रस्तुत करते हैं। उनकी उपस्थिति से जड़ समाज को जागृति मिलती है। उनकी बहुत सी बातें शीशे की तरह साफ़ दिख जाती हैं परंतु बहुत से गुणों को ठीक प्रकार समझने के लिये हमें स्वयं भी थोड़ा ऊपर उठना पडेगा। याज्ञवल्क्य की वह कथा शायद आप लोगों को याद हो जब आश्रम के लिये धन की आवश्यकता पड़ने पर वे राजा जनक के दरबार में पहुँचते हैं और वहाँ चल रही शास्त्रार्थ प्रतियोगिता के विजेता को मिलने वाले स्वर्ण व गोधन साथ ले चलने का आदेश अपने शिष्यों को देते हैं। विद्वान प्रतियोगी इसे उनका अहंकार जानकर पूछते हैं कि क्या वे अपने को वहाँ उपस्थित सभी प्रतियोगियों से बेहतर समझते हैं, तब वे इसे विनम्रता से नकारते हुए कहते हैं कि उनके आश्रम को गायों की आवश्यकता है। उस प्रतियोगिता में उपस्थित अधिकांश विद्वज्जन इसे उनका अभिमान और हेकड़ी मान कर शास्त्रार्थ के लिये ललकारते हैं और अंततः याज्ञवल्क्य विजयी होकर सारी गायें अपने आश्रम ले जाते हैं।

इस सामान्य सी दिखने वाली कहानी को प्रतियोगी विद्वज्जनों की नज़र से बाहर आकर एक भिन्न दृष्टि से देखें तो दिखता है कि याज्ञवल्क्य को सम्मान पाने या प्रतियोगिता में अपने को सिद्ध करने में कोई रुचि नहीं थी। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ वेन डायर इस प्रवृत्ति को "दूसरों की बनाई छवि से मुक्ति" कहते हैं। याज्ञवल्क्य की रुचि स्वर्ण या गोधन में भी नहीं थी परंतु वह उस समय एक आदर्श उद्देश्य की आवश्यकता थी, ठीक वैसे ही जैसे गंगा को गोमुख से गंगासागर तक लाना भागीरथ के लिये। याज्ञवल्क्य को न केवल अपनी क्षमता का बल्कि सभा के अन्य प्रतियोगियों की योग्यता का भी सही आँकलन था। अपनी विजय का विश्वास ही नहीं बल्कि ज्ञान होते हुए भी उन्होंने बहस में दूसरों को हराने से बचने का प्रयास किया और चुनौती दिए जाने पर भी अपनी योग्यता का ढिंढोरा पीटने के बजाय "आवश्यकता" की विनम्र बात की। इसके विपरीत उनके प्रतिद्वन्द्वी प्रतियोगी उनकी सदाशयता, सदुद्देश्य, विनम्रता, आँकलन क्षमता को न देख सके और उनमें उस स्वार्थ और अहंकार को देखते रहे जो याज्ञवल्क्य में नहीं बल्कि स्वयं उनमें उछालें ले रहा था। देखने वाली नज़र न हो तो सरलता भी अहंकार ही लगती है और इस प्रकार हमारी नज़र धुन्धली हो जाती है।
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारन, साधुन धरा शरीर।। ~ संत कबीरदास
निर्लिप्तता और सर्वस्व त्याग तो नायकों का नैसर्गिक गुण है। मानव शवों की प्रसिद्ध "बॉडीज़" प्रदर्शनी के पिट्सबर्ग आने की बात पर स्थानीय अजायबघर के एक कर्मचारी को जब यह पता लगा कि मृतकों के शव चीन सरकार द्वारा अनैतिक रूप से अधिगृहीत किये गये हैं तो उन्होंने इसका विरोध किया। कानूनी बहस शुरू होने पर यह सिद्ध हुआ कि कि यदि अधिग्रहण के देश (चीन) के कानून का पालन किया गया है तो फिर यह शव अधिग्रहण अमेरिका में भी कानूनी ही माना जायेगा। प्रदर्शनी नहीं रुकी परंतु उस कर्मचारी ने "एक अनैतिक कार्य" का भाग बनने के बजाय नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। दूसरी ओर पशुप्रेम पर भाषण देने वाले एक ब्लॉग परिचित ने किस्सा लिखा जिसमें अपने एक क्लाइंट की निन्दा करते हुए उन्होंने उसके घर में होने वाले पशु-अत्याचार का ज़िक्र किया। मज़े की बात यह है कि वहाँ रहते हुये उन्होंने न तो अपने क्लाइंट से इस बारे में कोई बात की और न ही उनके दिमाग़ में एक बार भी उस कॉंट्रैक्ट को छोड़ने का विचार आया। सत्पुरुष इस प्रकार का दोहरा व्यवहार नहीं करते। वे मन-वचन-कर्म से ईमानदार और पारदर्शी होते हैं और निहित स्वार्थ और प्रलोभनों से विचलित नहीं होते। धन, लाभ, व्यक्तिगत स्वार्थ, और दूसरों की कीमत पर अपना उत्थान उनकी प्रेरणा कभी नहीं हो सकते। बात चाहे पशु-प्रेम की हो, बाल-श्रम की, नागरिक समानता की या नारी-अधिकारों की, नायकों का क्षेत्र सीमित या विस्तृत कैसा भी हो सकता है परंतु उनकी दृष्टि सदा उदात्त ही रहती है, कभी संकीर्ण नहीं होती।

प्रलोभन की तलवार दुधारी होती है। कई बार वह कुविचार की प्रेरणा बनता है और कई बार सत्कर्म में बाधा। लिखना, बोलना, उपदेश देना आसान होगा पर सत्पथ पर चलना "इदम् न मम्" के बिना शायद ही सम्भव हुआ हो।

साहस, धैर्य और सहनशीलता के बिना कैसा नायक? राणा प्रताप घास की रोटी खाकर लड़े, गुरु अर्जुन देव को भूखा प्यासा रखकर खौलते पानी, सुलगते लोहे और जलती रेत में डाला गया, प्रभु यीशु को चोरों और अपराधियों के साथ क्रॉस पर टांगा गया, मीरा को विष दिया गया मगर इनको इनके पथ से डिगाया न जा सका। नायक मानवमात्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जीते-जागते प्रतिमान होते हैं। मानव मन की स्वतंत्रता और सम्मान में उनका दृढ विश्वास रहता है।

ग़रीबनवाज़ भगवान की भक्तवत्सलता से नायकों ने शरणागत-रक्षा का गुण अपनाया है। वे सबको अपनाते हैं। बुद्ध ने अंगुलिमाल को अपनाया। कभी मानव-उंगलियों का हार पहनने वाला दानव अहिंसा का ऐसा पुजारी बना कि पत्थरों से चूर होकर जान दे दी परंतु उफ़ नहीं की। न क्षोभ हुआ न हाथ उठाया। चाणक्य ने शत्रुपक्ष के राक्षस को उसकी योग्यता के अनुरूप सम्मान और ज़िम्मेदारी सौंपी। मुझे तो द्वेष से मुक्ति भी नायकत्व की एक अनिवार्य शर्त लगती है। गीता में इसी गुण को अद्रोह कहा गया है।

सामान्य दुर्गुणों यथा काम, क्रोध, लोभ, लोभ और मोह आदि को तो हम सभी आसानी से पहचान सकते हैं परंतु उनके अलावा भी अनेक दुर्गुण ऐसे हैं जिनको त्यागे बिना नायकत्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। क्रूरता, सत्तारोहण की इच्छा, तानाशाही, अहंकार, दोषारोपण, कुंठा, हीन भावना, आहत होने का स्वभाव, अन्ध-स्वामिभक्ति आदि ऐसे ही दुर्गुण हैं।
[क्रमशः] [अगली कड़ी में सम्पन्न]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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प्रेरणादायक जीवन-चरित्र
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 1
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 2
नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 3
* नायक किस मिट्टी से बनते हैं - 4
डॉक्टर रैंडी पौष (Randy Pausch)
महानता के मानक (प्रवीण पाण्डेय)
मैं कोई सांख्यिकीय नहीं हूं! (देवदत्त पटनायक)

ओसामा जी से हैलोवीन तलक - सैय्यद चाभीरमानी

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सैय्यद चाभीरमानी के परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप उनसे पहले भी मिल चुके हैं। मैं तो उनकी बातों से इतना पक चुका हूँ कि घर से बाहर निकलने से पहले चुपचाप इधर-उधर झाँक कर इत्मीनान कर लेता हूँ कि वे मेरी ताक में बाहर तो नहीं खड़े हैं। हमने तो उनके डर से सुबह की सैर पर जाना भी बन्द कर दिया। उसके बाद वे शाम की चाय पे हमारे घर आने लगे तो आखिरकार हम घर बेचकर शहर के बाहर चले गये। लेकिन जब भाग्य खराब हो तो सारी सतर्कता धरी की धरी रह जाती है। अपनी माँ के जन्मदिन पर बच्चों ने ज़िद की अपनी माँ के लिये कुछ उपहार खुद चुनकर लायेंगे तो उनकी ज़िद पर हम चल दिये नगर के सबसे बडे मॉल में। बच्चे मूर्तिकला और हस्तशिल्प खण्ड में खोजबीन करने में लग गये तभी अचानक एक भारी-भरकम मूर्ति हमारे ऊपर गिरी। हम भी चौकन्ने थे सो हमने अपना कंधा टूटने से पहले ही मूर्ति को पकड़कर रोक लिया। यह क्या, मूर्ति तो "भाईजान, भाईजान" चिल्लाने लगी। देखा तो सैय्यद सामने मौजूद थे। दाढी तो उन्होंने पाकिस्तान छोड़ते ही कटा ली थी। इस बार मूँछ भी गायब थी।

इससे पहले कि वे हमें बोर करें, इस बार हमने आक्रामक नीति अपना ली जिससे वे खुद ही बोर होकर निकल लें और हमें बख्श दें।

"मूँछ क्या हुई? क्या भाभी ने उखाड़ दी गुस्से में?"

"उसकी यह मज़ाल, काट नहीं डालूंगा उसे।"

"इत्ता आसान है क्या? पकड़े नहीं जाओगे? कानून का कोई खौफ़ है कि नहीं?"

"क्यों दुखती रग़ पर हाथ रख रहे हो? पुराना टाइम होता तो पाकिस्तान ले जाकर काट देता। अब तो वहाँ भी पहुँच गये ये जान के दुश्मन। ओसामा जी को समन्दर में दफ़ना दिया। मगर एक बात बडे मज़े की पता लगी मियाँ ..."

"क्या?"

"येई कि तुमारे हिन्दुस्तान में भी एक शेर मौज़ूद है अभी भी।"

"एक? अजी हिन्दुस्तान तो शेरो-शायरी की जन्नत हैं, असंख्य शायर हैं वहाँ।"

"अमाँ, जेई बात खराब लगती है आपकी हमें, हर बात का उल्टा मतलब निकाल्लेते हो। हम बात कर रहे हैं, शेर जैसे बहादुर आदमी की।"

"अच्छा, अच्छा! अन्ना हज़ारे की खबर पहुँच गयी तुम तक?"

"हज़ार नहीं, एक की बात कर रहे हैं हम, अरे वोई जिसको जूते मारने की कै रहे थे कुछ हिन्दुत्वा वाले, विग्दीजे सींग टाइप कोई नाम था उसका। लगता चुगद सा है मगर बात बडी हिम्मत की कर रिया था ओसामा 'जी' कह के।"

जब तक हम पूछ्ते कि सैयद किसके सींग की बात कर रहे हैं, वे खुद ही ऐसे ग़ायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। हमने भी भगवान का धन्यवाद दिया कि बला टली।

आगे चलते हुए जब स्टोर के हैलोवीन खण्ड पहुँचे तो सैयद से फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वे एक यांत्रिक दानव को बड़े ग़ौर से देख रहे थे। जैसी कि अपनी आदत है मैने भी चुटकी ली, "लड़का ढूंढ रहे हैं क्या भाभीजान के लिये?"

हमेशा की तरह कहने के बाद लगा कि शायद नहीं कहना चाहिये था पर ज़बान का तीर कोई ब्लॉग-पोस्ट तो है नहीं कि छोड़ने के बाद हवा में ही दिशा बदल डालो। सैयद ने अपनी चारों आँखें हम पर गढाईं। हम कुछ असहज हुए। फिर अचानक से वे ठठाकर हँस पड़े और बोले, "अरे मैं न पड़ता इन झमेलों में। 20 खरीदने पडेंगे।"

"बीस क्यों भई?" अब चौंकने की बारी हमारी थी, "भाभी तो एक ही हैं?"

"तुम्हें पता ही नहीं, अपनी चार बीवियाँ हैं। एक यहाँ है, बड़ी तीन पाकिस्तान में ही रहती हैं।"

"तो भी चार ही हुए न?" यह नया पाकिस्तानी गणित हमें समझ नहीं आया।

"हरेक की चार अम्माँ भी तो हैं, 16 उनके लिये 16 जमा 4, कुल बीस हुए कि नहीं?"

हम कुछ समझते इससे पहले ही सैयद चाभीरमानी फिर से ग़ायब हो चुके थे।
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा
* सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान

Friday, September 23, 2011

क्षमा वीरस्य भूषणम् -एक पत्रोत्तर के बहाने ...

कितना ढूंढा हाथ न आया सच का एक क़तरा भी
कहने को उनके खत में बहुत कुछ लिखा था
भारतीय समाज में अनेक खूबियाँ हैं। कुछ अच्छी बातें तो सभी धर्मों में नायकों, संतों और उपदेशकों द्वारा कही और सही गयी हैं। बहुत सी भारतीय संस्कृति की अपनी अनूठी विशेषतायें हैं। लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनमें भिन्न उद्गमों से आये विचार गड्डमड्ड से हो गये हैं और इस प्रक्रिया में सद्विचार की मूलभावना की ऐसी-तैसी हो गयी है। बहसबाज़ी के प्रति मेरी स्पष्ट नापसन्द होते हुए भी कई बार यह "ऐसी-तैसी" मुझे भीड़ की मुखालफ़त करने को मजबूर करती है। इसी परम्परा में आज सत्यवादिता और क्षमा पर दो शब्द कहने को बाध्य हुआ हूँ। सत्य पर जहाँ-तहाँ टिप्पणियों या कविताओं के बीच बात होती रही। क्षमा पर काफ़ी पहले एक लघु-आलेख "छोटन को उत्पात" लिख चुका हूँ। मगर अपनी भाषा को लेकर खबरों में बने रहने वाले एक ब्लॉग पर आज मेरा नाम लेकर लिखे गये एक पत्र देखकर इस विषय पर ऐसा कुछ कहना ज़रूरी सा हो गया है जिससे मैं अब तक बचना चाह रहा था। कुछ ज़रूरी यात्राओं पर हूँ। लेकिन फिर भी अपने व्यक्तिगत समय को निचोड़कर आपसे बात करने बैठा हूँ। पत्र तो एक बहाना है क्योंकि पत्रलेखक को तो बस अपनी बात कहनी थी। इस नाते मुझे उत्तर देने की कोई बाध्यता नहीं थी लेकिन मुझ पर विश्वास करने वाले अपने मित्रों और पाठकों के प्रति आदर व्यक्त करने के लिये मैं पत्र में वर्णित बेतुके और झूठे आरोपों के कारण एक बार यहाँ पर अपना उत्तर लिखना एक आवश्यकता और अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता हूँ।

सत्यवादिता का दावा बहुत से लोग करते दिखते हैं। "हम तो खरी कहते हैं", "बिना लाग लपेट के बोलते हैं", और "सच तो कड़वा ही होता है" जैसे वाक्यों का उद्घोष अक्सर सुनाई देता है। सत्यवादिता का झूठा दावा करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि सत्यनिष्ठा सत्य कहने से ज़्यादा सत्य सुनने, सोचने और करने में निहित है। अधिकांश लोग कड़वा इसलिये नहीं बोलते क्योंकि वही सच है बल्कि इसलिये बोलते हैं क्योंकि "सच" का उतना कड़वा भाग ही उस समय के उनके निहित स्वार्थ की सिद्धि में सहायक होता है। सच का ऐसा वीभत्स परचम लहराने वाले अक्सर अन्य समयों पर जाने-अनजाने ही सत्य की हत्या सी करते रहते हैं। सत्यनिष्ठ बनना है तो हमें पहले तो सत्य को बेहतर समझने की शक्ति विकसित करनी पड़ेगी और साथ ही कड़वा कहने की तरह ही सत्य सुनना भी सीखना पड़ेगा।

क्षमा वीरों का आभूषण है। वीर अत्याचार नहीं करते, ग़लतियों से बचते हैं परंतु जहाँ आवश्यक है वहाँ क्षमा मांगने में संकोच नहीं करते। इसके उलट प्रकृति के लोग अपनी हर बेवकूफ़ी को झूठ, उद्दंडता और शेखी से ढंकने और लीपापोती में ही लगे रहते हैं। वीर के लिये अपनी ग़लतियों की क्षमा मांगना जैसा नैसर्गिक और सहज है क्षमादान वैसी सामान्य घटना नहीं है क्योंकि वीरों के लिये क्षमा ऐसा भूषण है जिसको कागज़ के टुकडों जैसे बांटते नहीं फ़िरा जा सकता है। ऐसा भी हुआ है कि किसी ज़िद्दी बच्चे ने हर बार खुद ही ग़लती करके और फ़िर हल्ला मचाकर ज़बर्दस्ती दसरों से माफ़ी मंगवाने की कोशिश की है। भारतीय परिवेश में ऐसा भी देखा गया है जब उस ज़िद्दी बच्चे के माँ-बाप-भाई-बहिन-मित्रों ने दूसरे पक्ष को यह कहकर कन्विंस करने का प्रयास किया है कि, "यह तो पागल है, आप ही मान जाओ।" भले लोग अक्सर इस झांसे में आ जाते हैं पर यह नहीं समझते कि अनुचित माफ़ीनामों की मुण्डमाल अपने गले में लटकाये ये दबंग/बुली बच्चे ही आगे बढ़कर अपनी अनुचित मांग पर समर्पण न करने वाली लड़कियों के चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंकने की हद तक पहुँच जाते हैं।

इंसान ग़लतियों का पुतला है। मेरे जीवन में भी ग़लतियाँ हुई हैं। मैंने उन्हें पहचानकर सुधारने का प्रयास किया है और जहाँ आवश्यकता हुयी, क्षमा भी मांगी है। लेकिन बचपन में भी ऐसे उद्दंड बुलीज़ की ज़िद पर अनैतिक समर्पण करने के बजाय उनके माताओं-पिताओं को उनकी ग़लती के लिये आगाह किया है।

जिस पत्र का ज़िक्र ऊपर है वह मैंने आज दिव्या के "ज़ीलज़ेन" ब्लॉग पर अपने नाम लिखा देखा है। टेक्स्ट निम्न है:
अनुराग जी ,
आप मेरे अपनों को मुझसे तोड़कर मुझे कमज़ोर करना चाहते हो । सभी को अपने साथ मिला लेना चाहते हो। सबको मेल लिख-लिख कर और फोन करके तथा उनके घर जाकर उन्हें अपना बनाना चाहते हो? कोई बात नहीं। ईश्वर आपको इतनी शक्ति दे की आप सभी से प्रेम कर सको। दिव्या से नफरत निभाने के फेर में आपने कुछ लोगों के साथ मित्रता करने की सोची, यही ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी उपलब्धि समझूंगी।
मुझे तो अकेले ही चलने की आदत है। बस कुछ के साथ आत्माओं का मिलन हो चुका है, वहां फोन आदि की ज़रुरत नहीं पड़ती है। मेरे दुःख में वे रो पड़ते हैं और मुझे खुश देखकर भी उनकी आँखें छलछला पड़तीं हैं।
किसी को फोन कर सकूँ इतना पैसा ही नहीं है मेरे पास। नौकरी नहीं करती हूँ न इसीलिए सरकारी फोन जो मुफ्त में मिलता है बड़े ओहदे वालों को, वह भी सुविधा नहीं है मेरे पास। और फिर सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है की मैं 'स्त्री' हूँ । किसी को फोन करुँगी तो वह एक अलग ही समस्या खड़ी कर देगा। लेकिन मेरे पास स्पष्टवादिता और पारदर्शिता है। वही मेरी ताकत है, और वही मेरा गहना।
आपने मुझे 'schizophrenic' और 'paranoid' कहा, फिर भी जाइए आपको माफ़ किया !
Zeal
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ज़ीलज़ेन दिव्या को मेरा उत्तर:

आश्चर्य है कि एक तरफ आप मुझे माफी देने की बात कर रही हैं साथ ही उसी प्रविष्टि में मुझे संबोधित पत्र से ठीक ऊपर समाज की तमाम स्त्रियों की दुर्दशा के लिए मुझे ज़िम्मेदार ठहराते हुए आप आदरणीय भोला जी को मुझे कभी माफ़ न करने की सलाह भी दे रही हैं:
यदि मैं आपकी जगह होती तो बेटी का अपमान करने वाले को कभी माफ़ न करती। इन्हें माफ़ कर दिया जाता है इसीलिए समाज में स्त्रियों की दुर्दशा है।
मुझे यह स्पष्ट नहीं हुआ कि आपकी इन दो परस्पर विरोधाभासी बातों में से कौन सी बात सही है। वैसे भी, इस पत्र में कहे गये शब्दों के बारे में आप कितनी गम्भीर हैं यह इस पोस्ट से नहीं ज़ीलज़ेन पर इसके बाद आने वाली प्रविष्टियों से पता लगेगा।

आपने मुझे माफ़ किया? किस ज़ुर्म के लिये? जी नहीं, ग़लती आपकी है तो माफ़ी भी आप पर ही उधार रहती है, और आपको ही मांगनी चाहिये - मुझसे ही नहीं उन सभी से जिनपर आपने झूठे लांछन लगाये हैं या समय-असमय हैरास या बुली किया है। एक माफ़ी विशेषकर स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार से मांगने को बकाया है जिन पर आपने लम्बे समय तक हैरास करने का आरोप लगाया, बैन किया और उनके भयंकर पीड़ा से जूझते हुए होने पर भी उन्हें आपके ब्लॉग पर की गयी अपनी बीसियों टिप्पणियाँ हटाने को बाध्य किया। लगे हाथ एक माफ़ी अपने पितातुल्य भोला जी से भी मांग लीजिये जिनके व्यक्तिगत पत्र को अपने ब्लॉग पर रखकर आपने एक भोले पिता के साथ भयंकर विश्वासघात किया है।

दूसरी बात यह कि मुझे क्षमा करने का अधिकार आपको दिया किसने? सच्चे-झूठे आरोप लगाने वालों को सज़ा या माफ़ी का अधिकार होता तो अदालतों में जजों की आवश्यकता ही न होती और क्षमादान की अर्ज़ी बड़ी अदालतों और राष्ट्रपति आदि के पास न जाकर मुहल्लों (आजकल कतिपय ब्लॉग्स पर भी) के अन्धेरे कोनों में अपनी गुंडागर्दी के क़सीदे पढ रहे भर्हासियों के पास जाया करतीं। कुछ असभ्य समाजों में शायद ऐसा सही भी समझा जाता हो, परंतु मैं ऐसी असभ्यता को सिरे से अस्वीकार करने वालों में से हूँ। पहले आपने समय-समय पर अनेक ब्लॉगरों को अपशब्द कहे, फिर शिष्ट भाषा में लिखी मेरी हालिया टिप्पणी को बदबूदार कहा और मुझे अपशब्द कहे। उसके बाद मेरे ब्लॉग पर रखे एक व्यंग्य को अपना अपमान बताकर स्वयं और कुछ अन्य व्यक्तियों द्वारा अपने ब्लॉग पर पुनः अपशब्द कहे गये और भोले भाले पाठकों की भावनाओं को भड़काया गया। ... और अब पत्र के नाम पर एक नया ड्रामा?

मुझे इस विषय में आप से बात करने की कोई इच्छा नहीं है। फिर भी यदि आप इस मामले को आगे बढाना ही चाहती हैं तो आपके ब्लॉग पर रखी माता-पिताओं की लम्बी सूची में से किसी ज़िम्मेदार और समझदार व्यक्ति को या फ़िर अपने वकील को मुझे सम्पर्क करने को कहें। अन्यथा, आप अपनी ओर से सीधे मुझे सम्बोधित करके कुछ भी कहने से बचें, यही हम सबके लिये ठीक होगा।
मैंने किसी भी पोस्ट या टिप्पणी में आपको 'schizophrenic' और 'paranoid' नहीं कहा है। व्यंग्य, कल्पना और वास्तविकता के अंतर को पहचानिए और मुझपर बिला वजह के दोषारोपण से बचिए।
आपकी एक पिछली पोस्ट में आपने "अपने" ईश्वर द्वारा मुझे शीघ्र ही सज़ा देने का आह्वान किया गया था उसके साथ आपके इस पत्र में व्यक्त मुझे शक्ति देने की प्रार्थना कुछ ठीक बैठ नहीं रही है, कृपया अपने विचारों को थोड़ा ठोंक बजा लें। अनेक लोगों के खिलाफ़ अंट-शंट लिखने के बाद आपने मेरे खिलाफ़ ऊल-जलूल आलेख और टिप्पणियाँ लिखीं तो सब ठीक था और मेरा एक जनरल व्यंग्य पढते ही दुनिया इतनी उलट-पुलट हो गयी कि आपके "प्राइवेट" ईश्वर को दखल देने की आवश्यकता पड़ गयी? आपने इससे पिछली पोस्ट में भी यह आरोप लगाया कि मैं आपके खिलाफ़ षडयंत्र करके आपके मित्रों को अपने खेमे में ले जा रहा हूँ। याद दिला दूँ कि मैं एक व्यस्त व्यक्ति हूँ, मुझे आपके खिलाफ़ षडयंत्र करने की फ़ुर्सत नहीं है क्योंकि यह ब्रह्माण्ड आपका चक्कर नहीं लगाता है। और भी ग़म हैं ज़माने में ...। मैं क्या करता हूँ, यह जानना ही चाहती हैं तो मेरा ब्लॉग ध्यान से पढिये, मेरी आवाज़ में विनोबा भावे के शब्द सुनिये और अगर कुछ हल्का-फुल्का चाहिये तो मेरी पढ़ी हुई कहानियाँ सुनिये। संसार बहुत बड़ा है और इसमें आप और आपके ब्लॉग के आरोप-प्रत्यारोपों के अलावा भी बहुत कुछ है। मसलन, यदि कोई सत्य का दूसरा पहलू जानने को उत्सुक हो तो, गिरिजेश राव की हालिया प्रविष्टि हौं प्रसिद्ध पातकी भी पढी जा सकती है, आँखें खोलने वाली है। वैसे बात माफ़ी की चल रही है तो यह भी याद दिला दूँ कि आपके ब्लॉग पर जिस प्रकार डॉ. अजित गुप्ता जी का नाम माँ की सूची में लिखने के बावजूद तथाकथित भाइयों से उनका अपमान करवाया गया वह दुर्व्यवहार काफ़ी असभ्य और गरिमाहीन था।
माँ शब्द की गरिमा बनाये रखने के लिये यदि आपके ब्लॉग पर अपनी सभ्यता के नमूने दिखाते ये भाई उसी ब्लॉग पर अपनी माँ से लिखित में माफ़ी मांगेंगे तब आपकी उस कागज़ी सूची में कुछ दम अवश्य दिखेगा वरना शब्दों का क्या है, रबड की ज़ुबान और प्लास्टिक के कीबोर्ड का क्या भरोसा ...
और जहाँ तक लोगों से मिलने की बात है, मैं किससे मिलता हूँ, कहाँ जाता हूँ, इसका अधिकार आपने कब से ले लिया? किस नाते से? ज़रूरत नहीं है फिर भी इतना स्पष्ट कर दूँ कि आपकी सूची के जिन लोगों को छीन लेने का आरोप आप लगा रही हैं मैंने उनकी पहल का मित्रवत उत्तर दिया है जो कि एक सभ्य और सहृदय व्यक्ति से अपेक्षित है। यदि आपको यह लगता है कि आपके लम्बे समय के मित्र, भाई और पिता मेरी एक बात से आपका पक्ष छोड़कर मेरी ओर आ गये हैं तो क्या इससे आपको अपने और मेरे विषय में कुछ अंतर पता नहीं लगा? अपने भाइयों और पिताओं की निर्णय-क्षमता पर विश्वास करके उन्हें सम्मान देना सीखिये, सूचियाँ तो धोबी को देने वाले कपड़ों की भी बनती हैं। आपको भले ही न हो पर मुझे यक़ीन है कि ऐसे लोग आपका भला चाहते हैं न कि वे लोग जो झूठी वाहवाहियाँ लिखकर आपको चने के झाड़ पर चढाते रहे हैं। आपके सच्चे शुभचिंतकों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनायें!

ज़ीलज़ेन पर वह तथाकथित बदबूदार टिप्पणी
बदबूदार टिप्पणी का सुगन्धित जवाब
ज़ीलज़ेन के प्रकरण पर यह मेरी इकलौती पोस्ट है। इस मुद्दे को यहीं समाप्त करते हुए जागरूक मित्रों का हार्दिक धन्यवाद अवश्य देना चाहूँगा। सतह से नीचे जाकर सत्य को पहचानना और सत्य के लिये खड़े होना आज भी उतना ही ज़रूरी है। यदि उन व्यक्तिगत पोस्ट्स को भुला भी दिया जाए जिनमें दिव्या ने कुछ ब्लॉगरों की व्यक्तिगत ईमेल और स्वास्थ्य संबंधी गुप्त जानकारियों को ज़ीलज़ेन ब्लॉग पर लहराया था तो भी याद रहे, बीते कल में श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी और डॉ. कुमार की बारी थी, आज अजित जी, शिल्पा मेहता और मेरी है, कल आपकी भी हो सकती है, शायद होगी ही।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* हौं प्रसिद्ध पातकी
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* अब कुपोस्ट से आगे क्या?
* सत्यमेव जयते - कविता
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