Thursday, April 26, 2012

परशु का आधुनिक अवतार - इस्पात नगरी से [57]


माँ बाप कई प्रकार के होते हैं। एक वे जो बच्चों की उद्दंडता को प्रोत्साहित करते हैं जबकि एक प्रकार वह भी है जो अपने बच्चे की ग़लती होने पर खुद भी शर्मिन्दा होकर क्षमायाचना करते हैं। एक माता पिता बच्चों के पढाई में ध्यान न देने पर उन्हें डराते हैं कि पढोगे नहीं तो घास काटनी पड़ेगी। हमारे यहाँ गर्मी का मौसम रहने तक लगभग प्रत्येक गृहस्वामी/स्वामिनी हफ़्ता दस दिन में अपने लॉन में घास काटता ही नज़र आता है। बेशक, हम भी शनिवार की कई दोपहरी यही महान कार्य करते बिताते हैं। मन में यह भी ख्याल आता है कि कहीं ज़्यादा पढ लेते तो शायद इस काम के भी न रहते। :(
एक दिन घास काटते-काटते देखा कि मेपल का एक छोटा वृक्ष बिजली, केबल, फ़ोन आदि के तारों तक पहुँचने लगा है। सोचा कि समय रहते छाँट दिया जाये तो बेहतर रहेगा। फिर भी मन में दुविधा थी। एक तो यह कि बोनसाई तो सैकड़ों बनाई थीं लेकिन बड़ा पेड़ काटने का कोई अनुभव नहीं था। दूसरी बात यह कि भरे पूरे वृक्ष पर चिड़ियों के घोंसले होने की पूरी सम्भावना थी। सर्दियों में ताम्बई लाल पत्ते पीले होकर गिर जाते हैं। हर तरफ़ प्रकृति के शांत रंगों की बहार सी छा जाती है। ठंड अधिक बढने पर काले कौवों व छोटी गौरय्या के अलावा कोई चिड़िया यहाँ नहीं दिखती है। पेड़ काटने के लिये वही समय उपयुक्त लगा।
मौसम बदलने का इंतज़ार किया। पतझड़ आने पर जब चिड़ियाँ दक्षिण दिशा को और पत्ते रसातल को चले गये तब एक दिन परशुराम जी की जय बोलकर एक आधुनिक परशु, मेरा मतलब है कि एक चेन वाली आरी (चेनसॉ) खरीदी गई। लेकिन सिर मुंडाते ओले पड़ने वाली कहावत का पालन करते हुए जब आरी आई तो बर्फ़ गिरनी शुरू हो गयी। लेकिन अल्लाह के फ़ज़ल से इस बार सर्दियाँ हल्की रहीं और ऐसे कई सप्ताहांत आये जब बर्फ़ का नामोनिशाँ न था। जब कभी मौसम ठीक था तब या तो हम शहर में नहीं थे या घर पर नहीं थे। एक दिन जब पेड़ पूर्णतया पर्णहीन था, आसमान साफ़ था और हम भी ठलुआ थे, सोचा काग़ज़ी कविताई करने के बजाय कुछ ठोस काम किया जाये।
उस शुभ दिन हमने अपने लॉन के सबसे छोटे मेपल पर हाथ आज़मा लिया। आरी वाकई बहुत सशक्त है। पच्चीस फ़िट ऊँचे पेड़ का मुख्य तना काटने में कुछ सेकंड ही लगे। यद्यपि बाद में तने और शाखाओं को छोटे टुकड़ों में काटने में अधिक समय लगा और फिर हमारे आलस के चलते उन्हें हटाने में और भी समय लगा। कुल मिलाकर एक नया अनुभव। कुछ समय तक तो पेड़ का ठूंठ अजीब सा दिखता रहा। वसंत में सब वृक्षों पर नई पत्तियाँ आईं तो यह मेपल भी फिर से खिलखिलाने लगा है।



मेपल के नवपल्लव

मेपल छाँटने से पहले के इस आकाशीय परिदृश्य में वह छोटा मेपल और अन्य सारे वृक्ष दिख रहे हैं। इस मेपल के अलावा तीन अन्य मेपल हैं जो कि खासे बड़े हैं और उनके तने की परिधि 4-5 फ़ुट की होगी यद्यपि इस चित्र में उनमें से बड़े वाले दो अपने से कहीं बड़े ओक वृक्षों से ढंके होने के कारण पूरे दिखाई नहीं दे रहे। यह चित्र अभय जी और दराल जी की टिप्पणियों के बाद प्रश्नोत्तर कार्यक्रम के अंतर्गत जोड़ा गया है।   


... और यह है हमारा तड़ित-परशु मौका-ए-वारदात पर। सात किलो वज़न,  डेढ फ़ुट का फल और कड़ी से कड़ी लकड़ी को मक्खन की तरह काटने में सक्षम।
* सम्बन्धित कड़ियाँ *

Monday, April 23, 2012

जंगल तंत्र - कहानी

(अनुराग शर्मा)

बूढा शेर समझा ही न सका कि जिस शेरनी ने मैत्री प्रस्ताव भेजा है, एक मृत शेरनी की खाल में वह दरअसल एक शेरखोर लोमड़ी है। बेचारा बूढा जब तक समझ पाता, बहुत देर हो चुकी थी। उस शेर की मौत के बाद तो एक सिलसिला सा चल पड़ा। यदि कोई शेर उस शेरनी की असलियत पर शक करता तो वह उसके प्यार में आत्महत्या कर लेने की दुहाई देती। दयालु और बेवकूफ किस्म के शेरों के लिए उसकी चाल भिन्न थी। उन्हें वह अपनी बीमारियों के सच्चे-झूठे किस्से सुनाकर यह जतलाती कि अब उसका जीवन सीमित है। यदि शेर उसकी गुफा में आकर उसे सहारा दे तो उसकी बाहों में वह चैन से मर सकेगी। जो शेर उसके झांसे में आ जाता, अन्धेरी गुफा में बेचैनी से मारा जाता। धीरे-धीरे जंगल में शेरों की संख्या कम होती गयी, जो बचे वे उस एक शेरनी के लिए एक दूसरे के शत्रु बन गये। छोटे-मोटे चूहे, गिलहरी और खरगोश आदि कमज़ोर पशुओं को वह अपना पॉलिश किया हुआ शेरनी वाला कोट दिखाने के लिये लुभाती, वे आते और स्वादिष्ट आहार बनकर उसके पेट में पहुँच जाते थे।

एक दिन जब लोमड़ी अपने घर से निकलने से पहले शेरनी की खाल का कोट पहन रही थी तो कुछ सिंहशावकों ने उसे पहचान लिया और इस धोखे के लिये उसका मज़ाक उड़ाने लगे। घबराई लोमड़ी ने उन्हें डराया धमकाया, पर वे बच्चे न माने। तब लोमड़ी ने अपने प्रेमजाल में फंसाये हुए कुछ जंगली कुत्तों व लकड़बघ्घों को बुलाकर उन बच्चों को डराया। शक्ति प्रदर्शन के उद्देश्य से एक हिरन और कुछ भैंसों को घायल कर दिया। बच्चे तब भी नहीं माने तो उन की शरारतें उनके माता-पिता को बता देने का भय दिखाकर उन्हें धमकाया। अब बच्चे डर गये और लोमड़ी फिर से बेफ़िक्र होकर अपना जीवन शठता के साथ व्यतीत करने लगी।

लगातार मिलती सफलता के कारण लोमड़ी की हिम्मत बढती जा रही थी। शेरों से उसके पारिवारिक सम्बन्ध की बात फ़ैलाये जाने के कारण जंगल के मासूम जानवर उसके खिलाफ कुछ कह नहीं पाते थे। लेकिन गधों द्वारा प्रकाशित जंगल के अखबार पर अभी भी उसका कब्ज़ा नहीं हो सका था जिसमें यदा-कदा उसके किसी न किसी अत्याचार की ख़बरें छाप जाती थीं। ऐसी स्थिति आने पर वह खच्चरों की प्रेस में पर्चियां छपवाकर उस घटना को अपने विरुद्ध द्वेष और ईर्ष्या का परिणाम बता देती थी। हाँ, उसने लोमड़ियों को अपनी असलियत बताकर अपने जाति-धर्म का नाता देकर साथ कर लिया था। यदि कभी बात अधिक बढ़ जाती थी तो यह लोमड़ियाँ एक "निर्दोष" शेरनी के समर्थन में आक्रामक मोर्चा निकाल देती थीं और मार्ग में आये छोटे-मोटे पशु पक्षियों को डकारकर पिकनिक मनाती थीं। इस सब से डरकर जंगल के प्राणी चुप बैठ जाते थे।

जंगल के बाहर ऊंची पहाड़ी पर रहने वाला बाघ काफी दिनों से दूर से यह सब धतकरम देख रहा था। लोमड़ी के दुष्ट व्यवहार के कारण वह उसकी असलियत पहले दिन से ही पहचान गया था। कमज़ोर जानवरों की मजबूरी तो उसे समझ आती थी। पर समर्थ शेरों की मूर्खता पर उसे आश्चर्य होता था। जंगल के एक विद्वान मोर को दौड़ा दौड़ा कर मार डालने के बाद लोमड़ी जब उस बाघ पर हमला करने दौड़ी तब उस बाघ से रहा न गया। उसने लोमड़ी की गुफा के बाहर जाकर उसे धिक्कारा। अपने षडयंत्रों की अब तक की सफलता से अति उत्साहित लोमड़ी ने सोचा कि जब वह बड़े-बड़े बब्बर शेरों को आराम से पचा गयी तो यह बाघ किस खेत की मूली है।

शेरनी की खाल पहनकर घड़ियाली आँसू बहाती लोमड़ी बाहर आयी और फिर से अपने सतीत्व की, नारीत्व की, असुरत्व की, बीमारी की, दुत्कारी की, सब तरह की दुहाई देकर जंगल छोड़ने और आत्महत्या करने की धमकी देने लगी। उसकी असलियत जानकर जब किसी ने उसका विश्वास नहीं किया तो उसने गुप्त सन्देश भेजकर अपने दीवाने लकड़बघ्घों व कुत्तों को पुकारा। बाघ के कारण इस बार वे खुलकर सामने न आये तो उसने चमचौड़ कुत्ते को अपनी नई पार्टी "बुझा दिया" का राष्ट्रीय समन्वयक बनाने की बोटी फेंकी। बोटी देखते ही वह लालची कुत्ता काली गुफा के पीछे से भौंककर वीभत्स शोर करता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखाने लगा। पर लोमड़ी इतने भर से संतुष्ट न हुई। उसके दुष्ट मन में इस बाघ को मारकर खाने की इच्छा प्रबल होने लगी। सहायता के लिये उसने लोमड़ियों के दल को बुलाया। मगर भय के कारण उनका हाल भी लकड़बघ्घों व कुत्तों जैसा ही था। तब उसने अपनी अस्मिता की रक्षा का नाम लेकर बचे हुए शेरों को इस बाघ का कलेजा चीर कर लाने के लिए ललकारा।

शेर मैदान में आये तो बाघ ने उन्हें लोमड़ी की असलियत बता दी। शेर तो शेर थे, बाघ की बात से उनकी आँखो पर पड़ा लोमड़ी के कपट का पर्दा झड़ गया। सच्चाई समझ आ गयी और वे अपनी अब तक की मूर्खता का प्रायश्चित करने नगर के चिड़ियाघर में चले गए। अपनी असलियत खुल जाने के बाद लोमड़ी को डर तो बहुत लगा लेकिन उसे अपनी शठता, झूठ और शैतानियत पर पूरा भरोसा था। उसने यह तो मान लिया कि वह शेरनी नहीं है मगर उसने अपने को लोमड़ी मानने से इनकार कर दिया। बाघ की बात को झूठा बताते हुए उसने बेचारगी के साथ टेसुए बहाते हुए कहा कि वह दरअसल एक चीता नारी है और इस अत्याचारी बाघ ने पिछले कई जन्मों में उसे बहुत सताया है। उससे बचने के लिए ही वह मजबूरी में शेरनी का वेश बनाकर चुपचाप अपने दिन गुज़ार रही थी मगर देखो, यह दुष्ट बाघ अब भी उसे चैन से रहने नहीं दे रहा। लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों की नारेबाजी तेज़ हो गयी। कुछ छछून्दर तो आगे बढ़-चढ़कर उस बाघ के गले का नाप भी मांगने लगे। गिरगिटों ने अपना रंग बदलते हुए तुरंत ही बाघ द्वारा किए जा रहे लोमड़ी-दमन के खिलाफ़ क्रांति की घोषणा कर दी। चमचौड़ कुत्ते ने फ़िल्मी स्टाइल में भौंकते हुए कहा, "हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।" लोमड़ी ने घोषणा कर दी कि जिस जंगल में उसके जैसी शीलवान नारी को इस प्रकार सरेआम अपमानित किया जाता हो वह उस जंगल को तुरंत छोड़कर चली जायेगी। चमचौड़ कुत्ते ने लोमड़ी के तलवे चाटकर जंगलवासियों को बतलाया कि वह शब्दकोश में से रक्तपिपासु शब्द का अर्थ खूंख्वार से बदलकर शीलवान करने का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलायेगा।
हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।
लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों ने लोमड़ी रानी से रुकने की अपील की और साथ ही बाघ को चेतावनी देकर उसे शेरनी माता यानी लोमड़ी से माफी मांगने को कहा। जब बाघ ने कोई ध्यान नहीं दिया तो अपने मद में चूर लोमड़ी ने अपनी ओर से ही बाघ को माफ़ करने की घोषणा खच्चर प्रेस में छपवा दी। और उसके बाद से नियमित रूप से बाघ के विरुद्ध कहानियाँ बनाकर छपवाने लगी। उसके साथी भी प्रचार में जुट गए। उन्हें लगा कि काम हो गया और लोग उसकी असलियत का सारा किस्सा भूल गए। मगर बाघपत्र से लेकर गर्दभ-समाचार तक किसी न किसी अखबार में अब भी गाहे-बगाहे उसके किसी न किसी अपराध का खुलासा हो जाता था। अब एक ही रास्ता था और शातिर लोमड़ी ने वही अपना लिया। उसने खच्चर प्रेस में एक नयी घोषणा छपवाकर गधों के साथ-साथ सभी चीतों, गेंडों, हाथियों और घोड़ों को भी अपना बाप बना लिया। जहाँ हाथी, घोड़े, गेंडे और चीते किसी दुष्ट लोमड़ी के ऐसे जबरिया प्रयास से खिन्न थे, वहीं गधे बहुत प्रसन्न हैं और अपनी नन्हीं सी, मुन्नी सी, प्यारी सी, भोली सी, (बन्दूक की गोली सी) गुड़िया के सम्मान में एक व्याघ्र-प्रतिरोध सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से जंगल में कुत्तों की भौंक तेज़ होती जा रही है। गधों की संख्या भी दिन ब दिन कम होती जा रही है। लोमड़ी की भी मजबूरी है। चमचौड़ कुत्ते की दुकान में धेला न होना, लोमड़ी की शठता की पोल खुलना, शेरों का जंगल से पलायन, बाघ का कभी हाथ न आ सकना, इतने सारे दर्द, मगर पापी पेट का क्या करे लोमड़ी बेचारी?

गर्दभ-समाचार से छपते-छपते ताज़ा अपडेट: कुछ हंसों के विरुद्ध झूठे पर्चे बाँटने का प्रयास चारों खाने चित्त होने के बाद खिसियानी लोमड़ी जंगल के चीतों को कोरा बेवक़ूफ़ समझकर उन्हें बाघ के खिलाफ़ लामबन्द करने की उछलकूद में लगी है। देखते हैं काग़ज़ी हांडी कितनी बार चढती है।

[समाप्त]
[कहानी व चित्र :: अनुराग शर्मा]
अक्षय तृतीया पर आप सभी को मंगलकामनायें! *
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* कुछ अन्य बोधकृतियाँ *
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* तरह तरह के बिच्छू
* आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
* कुपोस्ट से आगे क्या?
* नानृतम - एक कविता
* होलिका के सपने
* कोई लेना देना नहीं
* कवि और कौवा ....
* उगते नहीं उजाले

Saturday, April 21, 2012

ओहायो में सरस्वती दर्शन - इस्पात नगरी से [56]

सिनसिनाटी डाउनटाउन की एक इमारत पर भित्तिकला का नमूना
अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की संख्या भले ही कम हो, भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों की कोई कमी नहीं है। होली, दीवाली, रामनवमी हो, चाहे स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या गान्धी जयंती, भारत से सम्बन्धित समारोह लगभग हर नगर में होते हैं। उत्सव भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। इन समारोहों में अन्य कार्यक्रमों के साथ साहित्य, संगीत, नृत्य आदि के कार्यक्रम भी चलते हैं। ऐसा नहीं कि यह सब बुज़ुर्गों द्वारा ही संचालित होता हो, नई पीढी भी अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने में गर्व का अनुभव करती है। इस सांस्कृतिक गंगा से छलकती बून्दें अक्सर हमें भी भिगोती रहती हैं। इस रामनवमी पर एक भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम के सिलसिले में ओहायो राज्य के सिनसिनाटी नगर में जाना हुआ। चार-पाँच सौ मील की दूरी को सड़क मार्ग से तय करना अमेरिका में सामान्य सी बात है। सिनसिनाटी मैं पहले भी जा चुका हूँ इसलिये कोई खास बात नहीं थी, मगर फिर भी एक खास बात तो थी। प्रसिद्ध कवयित्री और ब्लॉगर लावण्या जी से परिचय के बाद यह पहली सिनसिनाटी यात्रा थी।

अपनी लावण्या दीदी के घर अनुराग शर्मा
लावण्या जी की ममतामयी आवाज़ फ़ोन पर तो सुनता ही रहा हूँ। उनके साक्षात्कार का मौका छोड़ना नहीं चाहता था। उनकी कवितायें हों या प्रसिद्ध टीवी सीरियल महाभारत के लिये लिखे हुए दोहे, सभी अप्रतिम हैं। लेकिन एक कवयित्री से कहीं आगे वे एक उदार हृदय और महान व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं। सुबह जल्दी उठकर घर से निकल पड़े और कुछ घंटों की ड्राइविंग के बाद महान कवि और स्वतंत्रता सेनानी पण्डित नरेन्द्र शर्मा की इस बिटिया के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

लावण्या जी एक कलाकार की कूची से

लावण्या जी को बिल्कुल वैसा ही पाया जैसा उनके बारे में सोचा था। उनके पति, बेटी, दामाद और सबका प्यारा नन्हा नोआ, इन सबके बारे में सुनते रहे थे, फ़ेसबुक पर उनसे मुलाकात भी होती रहती थी पर आमने-सामने मिलने की बात ही और है। बहुत खुशी हुई। बच्चे और दामादजी मिलकर मोनोपली खेलते रहे और बड़े लोगों की बातों का सिलसिला बैठक से शुरू होकर लावण्या जी के बनाये शुद्ध शाकाहारी भारतीय भोजन के साथ भी जारी रहा। सभी बहुत अच्छा था। उत्तर प्रदेश के अन्दाज़ में बनी दाल की खुशबू से ही माँ और मामियों की रसोई की याद आ गई।

सिनसिनाटी की यह घोड़ागाड़ी मानो किसी परीकथा से निकली है
पहली भेंट थी मगर ऐसा लग रहा था मानो हम लोगों की पहचान बहुत पुरानी हो। न जाने कितनी बातें थीं मगर समय तो सीमित ही था। शाम के कार्यक्रम में भाग लेने से पहले हमें होटल में चैक इन भी करना था। बातों-बातों में पता लगा कि कार्यक्रम के आयोजक लावण्या जी के परिचित हैं और वे स्वयं भी सपरिवार इस समारोह में आ रही हैं इसलिये उस समय उनसे विदा लेना बहुत भारी नहीं लगा। शाम को अत्यधिक भीड़ और अलग-अलग सीटिंग व्यवस्था बिना मिले ही ऑडिटोरियम से बाहर निकलने का सबब बनी। मगर लावण्या जी का आमंत्रण भी था और हम सब का मन भी, सो अगले दिन घर-वापसी के समय हम फिर उनके घर होते हुए आये। चाय नाश्ते के साथ उनकी रचनायें, माता-पिता से सम्बन्धित स्मृतियाँ, चित्र, कला आदि के दर्शन किये। पंडित जी की हस्तलिपि भी देखने को मिली। सभी परिजनों से विदा लेकर आते समय बड़े भाई, बहनों के घर से वापस आते समय की तरह ही वापसी में हमारे पास बहुत से उपहार थे। लेकिन सबसे बड़ा उपहार था एक बड़ी बहन का स्नेहसिक्त आशीर्वाद!
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* पण्डित नरेन्द्र शर्मा - कविता कोश
* रथवान का पाठ - लावण्या जी द्वारा
* लावण्या शाह - वेबसाइट