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Wednesday, May 4, 2011

डैडी – कहानी

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माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।

जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।

जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।

डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
डैडी ने वैरी गुड कहकर मुझे चूम लिया। कुछ ही देर में उनके सूटकेस से मेरे लिये उपहारों की झड़ी लगने लगी, जैसे कि हमेशा होता था। माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी। माँ शायद डैडी के जॉब से अप्रसन्न रहती थीं। वे चाहती थीं कि डैडी भी आस-पड़ोस के पुरुषों की तरह हमेशा शहर में ही रहने वाली कोई नौकरी करें।

डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।

[क्रमशः]

Saturday, April 9, 2011

घर और बाहर - लघुकथा

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" ... ऊँच-नीच से ऊपर उठे बिना क्रांति नहीं आयेगी। ... मैं और मेरा, यह सब पूंजीपतियों के चोंचले हैं। ... धर्म अफीम है। ... शादी, विवाह, परिवार जैसी रस्में हमें बान्धने के लिये, हमारी सोच को कुंद करने के लिये पिछड़े, धर्मभीरु समाजों ने बनाई थीं। ... अपना घर फूंककर हमारे साथ आइये।"

कामरेड का ओजस्वी भाषण चल रहा था। उनके चमचे जनता को विश्वास दिला रहे थे कि क्रांति दरवाज़े तक तो आ ही चुकी है। जिस दिन इलाके के स्कूल, कारखाने, थाने, और इधर से गुज़रने वाली ट्रेनों को आग लगा दी जायेगी, क्रांति का प्रकाश उसी दिन उनके जीवन को आलोकित कर देगा।

भाषण के बाद जब कामरेड अपनी कार तक पहुँचे तो देखा कि उनके नौकर एक अधेड़ को लुहूलुहान कर रहे थे।

"क्या हुआ?" कामरेड ने पूछा।

"हुज़ूर, चोरी की कोशिश में था ... शायद।"

"तेरी ये हिम्मत, जानता नहीं कार किसकी है?" कामरेड ने ज़मीन पर तड़पते हुए अधेड़ को एक लात लगाते हुए कहा और अपने काफिले के साथ निकल लिये। उनका समय कीमती था।

उस सर्द रात के अगले दिन एक स्थानीय अखबार के एक कोने में एक लावारिस भिखारी सड़क पर मरा पाया गया। दो भूखे अनाथ बच्चों पर अखबार की नज़र अभी नहीं पडी है क्योंकि वे अभी भी जीवित हैं।

मंत्री जी कमिश्नर से कह रहे थे, "कोई लड़का बताओ न! अपने कामरेड जी की बेटी के लिये। दहेज़ खूब देंगे, फैक्ट्री लगा देंगे, एनजीओ खुला देंगे। उत्तर-दक्षिण, देश-विदेश कहीं से भी हो शर्त बस एक है, लडका ऊँची जाति का होना चाहिये।"

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ऑडियो प्रस्तुतियाँ - आपके ध्यानाकर्षण के लिये
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उपाय छोटा काम बड़ा
बांधों को तोड़ दो
कमलेश्वर की "कामरेड"

Sunday, March 13, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 10

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अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?

दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।

दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?

“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।

“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”

“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”

“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”

“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।

पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।

वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।

[क्रमशः]

Monday, February 14, 2011

टोड - कहानी - अंतिम भाग

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मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बड़े से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड कहानी का भाग एक पढने के लिये यहाँ क्लिक करें
अब आगे की कहानी:

दिन बीते, एक रविवार को मैं दातागंज में था। उसी जूनियर हाई स्कूल के बाहर जहाँ की एक एक ईंट किसी पशु का नाम ले-लेकर मेरी कल्पनाशीलता पर तंज़ कस रही थी। सुनसान इमारत। बाहर मैदान में कुछ आवारा पशु घूम रहे थे। मैं स्कूल के फ़ोटो ले रहा था तभी लाठी लिये एक बूढे ने पास आकर कहा, "हमरा भी एक फोटू ले ल्यो।"

मुझे तो बैठे-बिठाये एक अलग सा फ़ोटो मिल गया था। मैंने अपने नये सब्जेक्ट को ध्यान से देखा, "अरे, तुम मूखरदीन हो क्या?"

"हाँ मालिक, आपको कैसे पता लगो?

"मैं यहाँ पढता था, आरपी रंगत जी कहाँ रहते हैं आजकल?"

"आरपी... रंगत..." वह सोचने लगा, "अच्छा बेSSS, बे तौ टोड हैंगे।"

"अबे तू भी तो मुर्गादीन था" मैंने कहना चाहा परंतु उसकी आयु के कारण शब्द मुँह से बाहर नहीं निकल सके, "हाँ, वही। कहाँ रहते हैं?"

"साहूकारे मैं, उतै जाय कै, पकड़िया के उल्ले हाथ पै" उसने हाथ के इशारे से बताया। मैने उसका फ़ोटो कैमरा के स्क्रीन पर दिखाया तो वह अप्रसन्न सा दिखा, "निरो बेकार हैगो। ऐते बुढ़ाय गये का हम? कहूँ नाय, तुमईं धल्ल्यो जाय।"

मैं तेज़ कदमों से साहूकारे की ओर बढ़ा। कभी हमारा भी एक घर था वहाँ। आज तो शायद ही कोई पहचानेगा मुझे। चौकीदार के बताये पाकड़ के पेड के सामने कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। "आरपी रंगत" का नाम किसी ने नहीं सुना था। जब मैने बताया कि वे जूनियर हाई स्कूल में पढाते थे तो सभी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आ गयी और वे एक दूसरे से बोले, "अबे, टोड को पूछ रहे हैं ये।"

एक लड़का मुझे पास की गली में एक जर्जर घर तक ले गया। कुंडी खटकाई तो मैली धोती में एक कृषकाय वृद्ध बाहर आया। अधनंगे बदन पर वही खुरदुरी त्वचा।

"किससे मिलना है?" आवाज़ में वही चिरपरिचित स्नेह था।

"नमस्ते सर! सकल पदारथ हैं जग माही..." मैने अदा के साथ कहा।

"अहा! होइहै वही जो राम रचि राखा..." उन्होने उसी अदा के साथ जवाब दिया, "अरे अन्दर आओ बेटा। तुम तो निरे गंजे हो गये, पहचानते कैसे हम?"

लगता था जैसे उनकी सारी गृहस्थी उसी एक कमरे में समाई थी। एक कुर्सी, एक मेज़, और ढेरों किताबें। कांपते हाथों से उन्होंने खटिया के पास एक कोने में पडे बिजली के हीटर पर चाय का पानी रखा और फिर निराशा से बोले, "अभी है नहीं बिजली।"

मैं एक स्टूल पर बैठा सोच रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ कि उन्होंने ही बोलना शुरू किया। पता लगा कि उनके कोई संतान नहीं थी। पत्नी कबकी घर छोडकर चली गयीं क्योंकि वे जहाँ भी जातीं आवारा और उद्दंड लडकों के झुन्ड के झुन्ड उन्हें "मिसेज़ टोड" कहकर चिढाते रहते थे।

जब तक नौकरी रही, लड़कों के व्यंग्य बाण सुने-अनसुने करके विद्यालय जाते रहे। अब तो जहाँ तक सम्भव हो घर में ही रहते हैं।

"ज़िन्दगी नरक हो गयी है मेरी" उनका विषाद अब मुझे भी घेरने लगा था।

वे अपनी बात कह रहे थे कि एक गेंद खिड़की से अन्दर आकर गिरी। शायद उन्हीं लडकों की होगी जो बाहर नुक्कड़ पर क्रिकेट खेल रहे थे। गेन्द की आमद से उनकी कथा भंग हुई। उन्होंने एक क्षण के लिये गेन्द को देखा फिर उठकर मेरी ओर आये और बोले, "तुम तो सबके चहेते छात्र थे। तुम्हें ज़रूर पता होगा। बताओ, मेरे साथ यह गन्दा मज़ाक किसने किया?"

"मेरा नाम टोड किसने रखा था?"

तभी दरवाज़ा खुला और एक 7-8 वर्षीय लड़का अन्दर आकर बोला, "हमारी गेन्द अन्दर आ गयी है टोड।"

[समाप्त]

Sunday, February 13, 2011

टोड - कहानी - भाग एक

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"देखो, देखो, वह टोड मास्टर और उसकी क्लास!" चिंटू खुशी से उछलता हुआ अन्दर आया।

मैंने उसे देखा और मुस्करा दिया। वह इतने भर से संतुष्ट न हुआ और मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा।

"बस ये दो पन्ने खत्म कर लूँ फिर आता हूँ" मैंने मनुहार के अन्दाज़ में कहा।

"तब तक तो क्लास डिसमिस भी हो जायेगी..." उसने हाथ छोड़े बिना अपनी मीठी वाणी में कहा।

"देख आओ न, बच्चे कॉलेज चले जायेंगे तब अकेले बैठकर तरसोगे इन पलों के लिये..." चिंटू की माँ ने रसोई में बैठे-बैठे ही तानाकशी का यह मौका झट से लपक लिया।

"अकेले रहें मेरे दुश्मन! मैं तो तुम्हें सामने बिठाकर निहारा करूंगा" मैं भी इतनी आसानी से आउट होने वाला नहीं था।

"हाँ, मैं बैठी रहूंगी और बना बनाया खाना तो आसमान से टपका करेगा शायद" उन्होंने नहले पे दहला जड़ा।

मैं चिंटू के साथ बाहर आया तो देखा कि लॉन के एक कोने में एक बडे से टोड के सामने तीन छोटे टोड बैठे थे। नन्हें बच्चे की कल्पनाशीलता से होठों पर मुस्कान आ गयी। सचमुच बच्चों के सामने टोड मास्टर जी बैठे थे।

टोड मास्टर जी कक्षा के बाहर अपनी कुर्सी पर बैठे हैं। सभी बच्चे सामने घास पर बैठे हैं। मैं, दिलीप, संजय, प्रदीप, कन्हैया, सभी तो हैं। सर्दियों में कक्षा के अन्दर काफी ठंड होती है सो धूप होने पर कई अध्यापकगण अपनी कक्षा बाहर ही लगा लेते हैं। टोड जी भी ऐसे ही दयालुओं में से एक हैं। वैसे उनका वास्तविक नाम है आर.पी. रंगत मगर आजकल वे सारे स्कूल में अपने नये नाम से ही पहचाने जाने लगे हैं।

प्रायमरी स्कूल की ममतामयी अध्यापिकाओं की स्नेहछाया से बाहर निकलकर इस जूनियर हाई स्कूल के खडूस, कुंठित और हिंसक मास्टरों के बीच फंस जाना कोई आसान अनुभव नहीं था। गेंडा मास्साब ने एक बार संटी से मार-मारकर एक छात्र को लहूलुहान कर दिया था। छिपकल्ली ने एक बार जब डस्टर फेंककर मारा तो एक बच्चे की आंख ही जाती रही थी।

सारे बच्चे इन राक्षसों से आतंकित रहते थे। डरता तो मैं भी था परंतु रफी हसन के साथ मिलकर मैंने बदला लेने का एक नया तरीका निकाल लिया था। हम दोनों ने इस जंगलराज के हर मास्टर को एक नया नाम दे दिया था। उनके नाक-नक्श, चाल-ढाल और जालिम हरकतों के हिसाब से उन्हें उनके सबसे नज़दीकी जानवर से जोड़ दिया था।

जब हमारे रखे हुए नाम हमारी आशा से अधिक जल्दी सभी छात्रों की ज़ुबान पर चढने लगे तो हमारा जोश भी बढ गया। आरम्भ में तो हमने केवल आसुरी प्रवृत्ति के शिक्षकों का नामकरण किया था परंतु फिर धीरे-धीरे सफलता के जोश में आकर हमने एक सिरे से अब तक बचे हुए भले मास्टरों को भी नये नामों से नवाज़ दिया। हमारे अभियान के इसी दूसरे चरण में श्रीमान आरपी रंगत भी अपनी खुरदुरी त्वचा के कारण मि. टोड हो गये।

तालियाँ बजाते चिंटू के उत्साह को दिल की गहराइयों तक महसूस करने के बावज़ूद न जाने क्यों मुझे आरपी रंगत के प्रति किये हुए अपने बचपने पर एक शिकायत सी हुई। उस हिंसक जूनियर हाई स्कूल के परिसर में एक वे ही तो थे जो एक आदर्श अध्यापक की तरह रहे। अन्य अध्यापकों की तरह मारना-पीटना तो दूर उन्होंने अपने घर कभी भी ट्यूशन नहीं लगाई। विद्यार्थी कमरुद्दीन की किताबों का खर्च हो चाहे चौकीदार मूखरदीन की टॉर्च की बैटरी हो, सबको पता था कि ज़रूरत के समय उनकी सहायता ज़रूर मिलेगी।

राम का गायन हो, आफताब की कला प्रतिभा, कृष्ण का अभिनय या मेरी वाक्शैली, इन सब को पहचानकर विभिन्न समारोहों का आकर्षण बनाने का काम भी उन्होंने ही किया था। अधिक विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं है परंतु एक बार जब परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि निरपराध होते हुए भी मुझे विद्यालय से रस्टीकेट होने का समय आया तो मेरी बेगुनाही पर उनके विश्वास के चलते ही मैं बच सका था। यह सब ध्यान आते ही मुझे अपने ऊपर क्रोध आने लगा। अगर मेरे पास उनका फोन नम्बर आदि होता तो शायद मैं उसी समय उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगता। परंतु नम्बर होता कैसे? मैने तो वह स्कूल छोड़ने के बाद वहाँ की किसी भी निशानी पर दोबारा नज़र ही नहीं डाली थी।

चिंटू की माँ कहती है कि मेरा चेहरा मेरे मन का हर भाव आवर्धित कर के दिखाता रहता है। पूछने लगी तो मैंने सारी कहानी कह डाली। उन्होंने तुरंत ही यह ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली कि इस बार भारत जाने पर वे मुझे अपने पैतृक नगर अवश्य भेजेंगी, केवल रंगत जी से मिलकर क्षमा मांगने के लिये।

[क्रमशः]

Wednesday, January 26, 2011

अनुरागी मन - कहानी भाग 9

पूर्वकथा:
एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है, वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट भी होती है और आशाओं पर तुषारापात भी। हवेली के बाहर आकर वे खो गये थे। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।

पिछले अंक
भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8

अब आगे:

जब वीर की आँख खुली तो दादाजी के मंत्रोच्चार की जगह कान में किसी के सुबकने की आवाज़ पडी। उन्होने उठने का प्रयास किया तो दायें पंजे से कमर तक पीडा की एक असहनीय तरंग दौड गयी।

"हिलो मत बेटा" यह तो माँ की आवाज़ है। माँ को सिरहाने बैठा देखकर वीरसिंह दंग रह गये।

"मैं तो नई सराय में था माँ, घर कैसे आ गया? यह कोई सपना तो नहीं?"

"भगवान करे सपना ही हो बेटा" माँ ने आंचल से अपने आँसू पोंछते हुए अपूर्व शांति से कहा।

"अरे आप जग गये! अभी चाय लाती हूँ" यह तो रात वाली वही छोटी बच्ची थी। मगर वह तो नई सराय में थी। क्या वे सचमुच जग गये हैं या अभी कोई सपना देख रहे हैं? दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं पडी। एक नज़र आसपास डालने भर से यह स्पष्ट हो गया कि वे दादाजी के घर में ही थे। उन्हें ध्यान आया कि रात में उस बच्ची के साथ पडोस के भट्ट जी थे। जब तक बच्ची उनके लिये चाय का प्याला लेकर वापस आयी उन्हें उसकी शक्ल भी पहचान में आने लगी थी।

"बरखा?" भट्ट जी की पोती निक्की का नाम यही था।

"जी हाँ, मैं! कल आप घर आने की बजाय वहाँ क्यों घूम रहे थे ... "

"तुम अब घर जाओ बेटा, थोडा आराम करो, आँखों में कितनी नीन्द भरी है!" माँ ने उलाहना सा देते हुए चाय का प्याला बरखा के हाथ से छीन सा लिया।

बरखा चुपचाप कमरे से बाहर निकल गयी। मित्रों को आगे की बात बताते हुए वीर सिंह का गला रुन्ध आया था। माँ से पता लगा कि रात में उन्हें दादाजी के विश्वासपात्र पुत्तू और लखना गड्ढे से निकालकर लाये थे। टांग तो तब तक टूट ही चुकी थी। लेकिन वे दोनों अचानक वहाँ कैसे पहुँचे और फिर कुल्हाडी वालों का क्या हुआ? माँ यहाँ कैसे आयी? भट्ट जी रात में खाना किसके लिये ला रहे थे? निक्की ने घर आने के बजाय "वहाँ" घूमने की बात क्यों की? और फिर निक्की के साथ माँ का अजीब सा व्यवहार! क्या इन सबको परी के बारे में पता चल गया है? धीरे-धीरे पता लगा कि अप्सरा का रहस्य अभी भी किसी पर खुला नहीं था।

परंतु उस भयावह रात की घटनायें जो अभी तक किसी चमत्कार सरीखी लग रही थीं, अब एक एक करके उघड़नी आरम्भ हो गयी थीं। जब वीरसिंह और झरना की कहानी अपने दुखद मोड़ पर थी तभी किसी समय दादाजी को भयंकर हृदयाघात हुआ था। जब तक कोई समझ पाता, उनके प्राणपखेरू उड चुके थे। पिताजी उस समय पूर्वोत्तर के मोर्चे पर विद्रोही आतंकियों से जूझ रहे थे। उन्हें खबर तो कर दी गयी थी मगर उनके समय पर पहुँचने की कोई आशा नहीं थी। वीर के लिये सारी नई सराय में ढुंढेरा पड रहा था। माँ को अपने मायके से यहाँ तक आने में दो घंटे लगे थे। वे दादाजी के दुख के साथ वीर के लिये भी चिंतित थीं। वीर की अनुपस्थिति में दादीजी की इच्छानुसार देर किये बिना शवदाह पुत्तू और लखना के हाथों कराया गया था। वही दोनों दादाजी द्वारा अभी भी पहनी हुई सोने की अंगूठियों के लिये रात में चौकीदारी कर रहे थे जब वीर अनजाने ही भटककर श्मशानघाट पहुँचे थे। आखिर दादा ने अपनी चिता पर से अपने प्यारे पोते को देख ही लिया।

[क्रमशः].

Tuesday, December 21, 2010

आती क्या खंडाला?

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एक हसीन सुबह को मैंने कहा, "मसूरी चलें, सुबह जायेंगे, शाम तक वापस आ जायेंगे।"
उसने कहा, "नहीं, सब लोग बातें बनायेंगे, पहले ही हमारा नाम जोड़ते रहते हैं।"

वह मुड़ गयी और मैं कह भी न सका कि बस स्टॉप तक तो चल सकती हो।

मैंने कहा, "ऑफिस से मेरे घर आ जाना, बगल में ही है।"

"नहीं आ सकती आज भैया का कोई मित्र मुुुुझे लेने आयेगा, उसके साथ ही जाना होगा" कहकर उसने फोन रख दिया, मैं सोचता ही रह गया कि दुनिया आज ही खत्म होने वाली तो नहीं। क्या कल भी हमारा नहीं हो सकता?

मैंने कहा, "सॉरी, तुम्हारा समय लिया।"
उसने कहा, "कोई बात नहीं, लेकिन अभी मेरे सामने बहुत सा काम पड़ा है।"

मैंने कहा, "कॉनफ़्रेंस तो बहाना थी, आया तो तुमसे मिलने हूँ।"
उसने कहा, "कॉनफ़्रेंस में ध्यान लगाओ, तुम्हारे प्रमोशन के लिये ज़रूरी है।"

मैंने कहा, "एक बेहद खूबसूरत लडकी से शादी का इरादा है।"
उसने कहा, "मुझे ज़रूर बुलाना।
मैंने कहा, "तुम्हें तो आना ही पड़ेगा।"
उसने कहा, "ज़िन्दगी गिव ऐंड टेक है..." और इठलाकर बोली, "तुम मेरी शादी में आओगे तो मैं भी तुम्हारी में आ जाऊंगी।"

मैं अभी तक वहीं खडा हूँ। वह तो कब की चली भी गयी अपनी शादी का कार्ड देकर।

[तारीफ उस खुदा की जिसने जहाँ बनाया]

Wednesday, December 8, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 8

पूर्वकथा:
दादाजी के पिछ्डे से कस्बे में वीरसिंह को एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है। वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट होती है और आशाओं पर तुषारापात भी।

पिछले अंक: भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4 भाग 5; भाग 6; भाग 7

चन्द्रमा चित्र: अनुराग शर्मा [Photo: Anurag Sharma]
अनुरागी मन - अब आगे:

“हे भगवान! यह क्या हो रहा है” वीरसिंह अपनी कहानी कहते हुए मानो उसी बीते हुए काल में लौट गये हों। अब वे और वासिफ हवेली के बाहर खड़े थे। वासिफ उन्हें अकेले वापस भेजने को कतई तैयार न था परंतु वे अकेले ही घर जाने पर अड़े हुए थे। आगे की बात वीरसिंह के शब्दों में।

मुझे अकेले वापस जाने में डर लग रहा था। शायद रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़ूँ या फिर अपनी ही धुन में खोया हुआ रास्ता पार करते समय पीछे से आती लॉरी का भोंपू सुन न पाऊँ और दुनिया त्याग दूँ। मैं मौत से नहीं डरता लेकिन मेरा भय केवल इस बात का था कि माँ मेरी अकाल मृत्यु को सह नहीं पायेंगी। ऊपर से आकाश में छाये घने बादल और रह-रहकर कड़कती बिजली। यहाँ आते समय तो आसमान एकदम साफ था, फिर अचानक इतनी देर में यह क्या हो गया?

नहीं, मैं अकेले घर नहीं जा सकता था, उस समय और वैसी मानसिक स्थिति में मुझे हवेली से बाहर निकलना ही नहीं चाहिये था। लेकिन मैं हवेली में रुक भी नहीं सकता था और वासिफ के साथ चल भी नहीं सकता था। मुझे जाना था और अकेले ही जाना था। घर दूर ही कितना है? मैं होश में नहीं था। उसके सामने न जाने क्या सही-गलत बक दूँ अपनी परी के बारे में? नहीं, मैं परी का मान कम नहीं होने दूंगा। परी का मान? किस बात का मान? वाग्दत्ता होकर मुझसे प्यार की पैंगें बढ़ाने वाली का? न झरना अप्सरा है, न मैं देव हूँ, और न ही नई सराय हमारा असीम स्वर्ग। और फिर नई सराय है ही कितनी बड़ी? खो नहीं जाऊंगा? छोटी सी नई सराय तो आज से मेरे लिये ऐसा नर्क है जिसकी आग में मैं ताउम्र जलूँगा।

पाँव मन-मन के हो रहे थे और मन हवेली में अटका था। मेरा मन. मेरा पवित्र मन एक चरित्रहीन की चुन्नी में कैसे अटक सकता है? इतना कमज़ोर तो तू कभी भी नहीं था। झटक दे वीर, उसे अभी यहीं झटक दे। इस चार दिन के भ्रूण को जन्मने नहीं देना है। काल है यह, नाश है दो सम्माननीय परिवारों का।

मानस के अंतर्द्वन्द्व से गुत्थमगुत्था होते हुए वीर धीरे-धीरे हवेली से दूर होते गये। अचानक घिर आयी काली घटा ने पूर्णिमा के चाँद को अपने आगोश में बन्द सा कर लिया था। छिटपुट बून्दाबान्दी भी शुरू हो गयी थी।

कुछ ही दूर पहुँचे थे कि 8-10 वर्ष की एक बच्ची उनकी ओर दौड़ती हुई आती दिखी। जब तक वे कुछ समझ पाते, वह आकर उनसे लिपट गयी। वे हतप्रभ थे। अपने हाथों से उनकी कमर को घेरे-घेरे ही बच्ची ने कहा, “कहाँ चले गये थे आप? इतनी रात हो गयी है। अब घर चलिये। इतनी बारिश नहीं थी पर उनका कुर्ता गीला हो गया। बच्ची रो रही थी। उन्होने उसके सर पर हाथ फेरा और उनकी आंखें भी गीली हो गयीं। बच्ची के पीछे-पीछे चश्मा लगाये छड़ी के सहारे चलते हुए एक बुज़ुर्ग पास पहुँचे और बोले, “रोओ मत बच्चों, मिल गये, अब घर चलो। काके, तू सीधे कर जा पुत्तर। निक्की, तू मेरे नाल आ, खाना लेकर आते हैं सबके लिये।“

वे दोनों अन्धेरे में से जैसे अचानक प्रकट हुए थे उसी तरह अन्धेरे में गुम हो गये। वीर सिंह का कुर्ता और आँखें अभी भी गीले थे। अप्सरा के ख्यालों में खोये हुये वे अपने से बेखबर तो पहले से ही थे, अब इस बच्ची और उसके दादाजी ने उन्हें अचम्भे में डाल दिया था। उन्होंने आगे चलना शुरू किया तो समझ आया कि राह अनजानी थी। आसपास कोई घर-दुकान नज़र नहीं आ रहा था। नई सराय बहुत बड़ी भले ही न हो परंतु वे फिर भी खो गये थे। आज वे चाहते भी यही थे।

दोनों ओर घने वृक्षों से घिरी सड़क उन्हीं की तरह अकेली चली जा रही थी अपनी ही धुन में, किसी संगी के बिना। आगे कुछ प्रकाश दिखा, एक मैदान सा कुछ। प्रकाश, आग... नर्क! घिसटते हुए से पास पहुँचे तो मुर्दा सी नहर के किनारे एक चिता अभी सुलग रही थी। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।

Sunday, December 5, 2010

गंजा – लघु कथा

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मेरी एक लघुकथा जो गर्भनाल के 48वें अंक में पृष्ठ 61 पर प्रकाशित हुई थी. जो मित्र वहाँ न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास। देवी नागरानी जी द्वारा इस कहानी का सिन्धी भाषा में किया गया अनुवाद सिन्ध अकादमी ब्लॉग पर उपलब्ध है। लघुकथा डॉट कॉम ने इस लघुकथा को स्थान दिया है। यह लघुकथा आवाज़ और रेडिओ प्लेबैक इण्डिया पर भी उपलब्ध है। ~ अनुराग शर्मा
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वह छठी कक्षा से मेरे साथ पढ़ता था। हमेशा प्रथम आता था। फिर भी सारा कॉलेज उसे सनकी मानता था। एक प्रोफेसर ने एक बार उसे रजिस्टर्ड पागल भी कहा था। कभी बिना मूँछों की दाढ़ी रख लेता था तो कभी मक्खी छाप मूँछें। तरह-तरह के टोप-टोपी पहनना भी उसके शौक में शुमार था।

बहुत पुराना परिचय होते हुए भी मुझे उससे कोई खास लगाव नहीं था। सच तो यह है कि उसके प्रति अपनी नापसन्दगी मैं कठिनाई से ही छिपा पाता था। पिछले कुछ दिनों से वह किस्म-किस्म की पगड़ियाँ पहने दिख रहा था। लेकिन तब तो हद ही हो गयी जब कक्षा में वह अपना सिर घुटाये हुए दिखा।

एक सहपाठी प्रशांत ने चिढ़कर कहा, “सर तो आदमी तभी घुटाता है जब जूँ पड़ जाएँ या तब जब बाप मर जाये।” वह उठकर कक्षा से बाहर आ गया। जीवन में पहली बार वह मुझे उदास दिखा। प्रशांत की बात मुझे भी बुरी लगी थी सो उसे झिड़ककर मैं भी बाहर आया। उसकी आँखों में आँसू थे। उसकी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैंने कहा, “कुछ लोगों को बात करने का सलीका ही नहीं होता है। उनकी बात पर ध्यान मत दो।”

उसने आँसू पोंछे तो मैंने मज़ाक करते हुए कहा, “वैसे बुरा मत मानना, बाल बढ़ा लो, सिर घुटाकर पूरे कैंसर के मरीज़ लग रहे हो।”

मेरी बात सुनकर वह मुस्कराया। हम दोनों ठठाकर हँस पड़े।
बरेली कॉलेज (सौजन्य: विकीपीडिया)
आज उसका सैंतालीसवाँ जन्मदिन है। सर घुटाने के बाद भी कुछ महीने तक मुस्कुराकर कैंसर से लड़ा था वह।
[समाप्त]

कहानी का ऑडियो - रेडियो प्लेबैक इण्डिया के सौजन्य से:


Sunday, November 14, 2010

अनुरागी मन - 7 [कहानी]

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अनुरागी मन - अब तक की कथा:
वासिफ वीरसिंह को अपनी हवेली में अप्सरा के सहारे छोड़कर ज़रूरी काम से बाहर गया। उसकी दिव्य सुन्दरी बहन झरना का असली नाम ज़रीना जानने पर वीर को ऐसा लगा जैसे उनका दिमाग काम नहीं कर रहा हो। बैठे बैठे उन्हें चक्कर सा आया ...
खण्ड 1; खण्ड 2; खण्ड 3; खण्ड 4; खण्ड 5; खण्ड 6
...और अब आगे की कहानी:
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“जी हाँ, मैं ठीक हूँ। बस तेज़ सरदर्द हो रहा है” वीरसिंह ने कठिनाई से कहा। अम्मा कुछ कहतीं इससे पहले ही झरना घबरायी हुई अन्दर आयी।

“क्या हुआ? किसे है सरदर्द?” वीर को चिंतित दृष्टि से देखते हुए पूछा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना बाहर जाते जाते बोली, “एक मिनट, ... मैं अभी दवा लाती हूँ।”

वाकई एक मिनट में वह एक ग्लास पानी, सेरिडॉन की पुड़िया और अमृतांजन की शीशी लिये सामने खड़ी थी, एक्दम दुखी सी परंतु फिर भी उतनी ही सुन्दर।

वीरसिंह ने जैसे ही गोली खाकर पानी का ग्लास वापस रखा, झरना उनके साथ बैठ गयी। इतना तो याद है उन्हें कि झरना ने उनका सिर अपनी गोद में रखकर उनके माथे पर अमृतांजन मलना शुरू किया था। दर्द से बोझिल माथे पर झरना की उंगलियों का स्पर्श ऐसा था मानो नर्क की आग में जलते हुए वीर को किसी अप्सरा ने अमृत से नहला दिया हो। झरना का चेहरा उनके मुख के ठीक ऊपर था। वह धीमे स्वरों में गुनगुनाती जा रही थी जिसे केवल वही सुन सकते थे:

तेरे उजालों को गालों में रक्खूँ
हर पल तुझी को खयालों में रक्खूँ
तोहे पानी सा भर लूँ गगरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में

अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए वे कब अपनी चेतना खो बैठे, उन्हें याद नहीं। जब उन्हें होश आया तो वे सोफे पर लेटे हुए थे। सामने उदास मुद्रा में वासिफ बैठा था। उनकी आंखें खुलती देख कर वह खुशी से उछला, “ठीक तो है न भाई? हम तो समझे आज मय्यत उठ गयी तेरी।”

ऐसा ही है यह लड़का। मौका कोई भी हो, शरारत से बाज़ नहीं आता है।

“हाँ मैं ठीक हूँ, अम्मा को बता दो तो मैं घर चलूँ” वीर ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।

“अम्मी अभी मेहमाँनवाज़ी में लगी हैं। ज़रीना के ससुराल वाले आये हुए हैं। सभी उधर बैठक में हैं, मैं बाद में कह दूंगा” वासिफ ने सहजता से कहा।

“ज़रीना के ... ससुराल वाले?” वीरसिंह मानो आकाश से नीचे गिरे, “मगर .... वह तो अभी छोटी है ... क्या उसकी शादी इतनी जल्दी हो गयी?”

“अभी हुई नहीं है मगर तय तो कबकी हो चुकी है। हम लोगों में पहले से ही बात पक्की कर लेने का चलन है।”

“तुम्हारी बहन को पता है ये बात?” वीरसिंह अब सदमे जैसी स्थिति में थे

“हाँ, छिपाने जैसी कोई बात ही नहीं है। वह तो बहुत खुश है इस रिश्ते से” वसिफ ने उल्लास से कहा।

वीरसिंह को एक झटका और लगा। सोफे पर लगभग गिरते हुए उन्होने वासिफ से स्पष्टीकरण सा मांगा, “कितनी बहनें हैं तुम्हारी?”

“बस एक, ज़रीना। अम्मी-अब्बू के सभी भाई बहनों के लडके ही हैं। इसीलिये अकेली ज़रीना सभी की लाडली है। तू जानता नहीं है क्या? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है। तुझे आराम की ज़रूरत है शायद। थोड़ा रुक जा या अपने घर चल। वैसे यह घर भी तेरा ही है जैसा ठीक समझे।

“घर ही चलता हूँ” वीर ने जैसे तैसे कहा। उन्हें लग रहा था कि परी सब काम छोड़कर उन्हें जाने की उलाहना देने आयेगी। रुकने और आराम करने की मनुहार करेगी। मगर जब वे वासिफ के साथ हवेली से बाहर आये तो मुस्कराकर विदा करने भी कोई आया गया नहीं।

[क्रमशः]

Sunday, October 17, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 6

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अब तक की कथा:
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अनुरागी मन - 1
अनुरागी मन - 2
अनुरागी मन - 3
अनुरागी मन - 4
अनुरागी मन - 5
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रेखाचित्र: अनुराग शर्मा
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“क्या पढ़ रहे हैं आप? देखें, कौन सी किताब पसन्द आयी अपको?”

कहते हुए परी उनके निकट आ गयी। जब तक वे बताते कि अजब लिपि में लिखी इन किताबों के बारे में वे बिल्कुल अज्ञानी हैं, किताब को निकट से देखने के प्रयास में परी उनसे सटकर खड़ी थी। इतना निकट कि वे उसकी साँसों के आवागमन के साथ-साथ उसके शरीर का रक्त प्रवाह भी महसूस कर सकते थे। क्या परियों के शरीर में इंसानों की तरह रक्त ही बहता है या कोई दैवी द्रव? सुरा? वारुणी? यह कैसा प्रश्न है? उन्हें लगा जैसे वे दीवाने होते जा रहे हैं। भला कोई अप्सरा उनसे निकटता बढ़ाना क्यों चाहेगी? कुछ तो है जो वे देख नहीं पा रहे हैं। कन्धे से एड़ी तक हो रहे उस सम्मोहक स्पर्श से उनके शरीर में एक अभूतपूर्व सनसनी हो रही थी। उनके हृदय की बेचैनी अवर्णनातीत थी। अगर वे दो पल भी उस अवस्था में और रहते तो शायद अपने-आप पर नियंत्रण खो देते। कुशलता से अपने अंतर के भावों पर काबू पाकर उन्होंने पुस्तक को मेज़ पर फ़ेंका और पास पड़े सोफे में धँस से गये।

बाहर गली में कोई ज़ोर से रेडियो बजा रहा था शायद:

बाहर से पायल बजा के बुलाऊँ
अंदर से बाँहों की साँकल लगाऊँ
तुझको ही ओढूँ तुझी को बिछाऊँ
तोहे आँचल सा SSS
तोहे आँचल सा कस लूँ कमरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में

एक रहस्यपूर्ण मुस्कान लिये अप्सरा कुछ देर उन्हें देखती रही फिर साथ ही बैठ गयी। उसने चाय का प्याला उठाकर वीरसिंह के हाथ में कुछ इस तरह उंगलियाँ स्पर्श करते हुए थमाया कि वीरसिंह के दिल के तार फिर से झनझना उठे। वीरसिंह चाय पीते जा रहे थे, आस पास का नज़ारा भी कर रहे थे और बीच-बीच में चोर नज़रों से अपनी परी के दर्शन भी कर लेते थे। वे मन ही मन विधि के इस खेल पर आश्चर्य कर रहे थे, परंतु साथ ही अपने भाग्य को सराह भी रहे थे। हवेली के अन्दर झरना के साथ के वे क्षण निसन्देह उनके जीवन के सबसे सुखद क्षण थे।

तभी वासिफ की माँ अन्दर आ गयीं। उन्होंने बताया कि वासिफ अपने दादाजी के साथ कुछ दूर तक गया है और वापस आने तक वीर को वहीं रुकने को कहा है। सामने बैठकर माँ वीर के घर-परिवार दादा-दादी आदि के बारे में पूछती रहीं और प्याला हाथ में थामे वीर विनम्रता से हर सवाल का जवाब देते हुए अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करते रहे। हाँ, माँ की नज़रें बचाकर बीच-बीच अप्सरा-दर्शन भी कर लेते थे। अफसोस कि उनकी चोरी हर बार ही पकड़ी जाती क्योंकि झरना उन्हें अपलक देख रही थी। नज़रें मिलने पर दोनों के चेहरे खिल उठते थे। न मालूम क्या था उन कंटीले नयनों में, ऐसा लगता था मानो उनके हृदय को बीन्धे जा रहे हों।

इसी बीच बाहर से एक आवाज़ सुनाई दी, “ज़रीना, ओ ज़रीना बेटी ... ज़रा हमारे कने अइयो”।

आवाज़ सुनते ही अप्सरा “अभी आयी” कहकर बाहर दौड़ी। अब वीर सिंह का सर चकराने लगा। क्या परी ने अपना नाम उन्हें जानबूझकर ग़लत बताया था या फिर वे सचमुच दीवाने हो गये हैं जो उन्होंने ज़रीना की जगह झरना सुना। उन्हें क्या होता जा रहा है। चाय में कुछ मिला है क्या? या इस पुरानी हवेली की हवा में ही ...?

“बहुत पसीना आ रहा है बेटा, तबीयत तो ठीक है न?” वासिफ की माँ ने प्यार से दायीं हथेली के पार्श्व से उनका माथा छूकर पूछा।

[क्रमशः]

Thursday, September 16, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 5

चित्र अनुराग शर्मा

अनुरागी मन
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भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4
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परी की मुस्कान के उत्तर में वीरसिंह भी मुस्कराये और फिर एक जम्हाई लेकर सोने के लिये जाने का उपक्रम करने लगे। रात वाकई गहराने लगी थी। आगे का किस्सा सुनने की उत्सुकता ईर और फत्ते दोनों को ही थी मगर अगले दिन तीनों को काम पर भी जाना था। सोने से पहले अगले दिन कहानी पूरा करने का वचन वीरसिंह से ले लिया गया। जैसे तैसे अगला दिन कटा। फत्ते घर आते समय शाम का खाना होटल से ले आया ताकि समय बर्बाद किये बिना कथा आगे बढ़ाई जा सके। जल्दी-जल्दी खाना निबटाकर, थाली हटाकर तीनों कथा-कार्यक्रम में बैठ गये।

एक पुरानी हवेली अन्दर से इतनी शानदार हो सकती है इसका वीर को आभास भी नहीं था। वासिफ ने वीर को अपनी दादी और माँ से मिलाया। दोनों ही सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति। वासिफ शायद अपने पिता पर गया होगा। उसके पिता और दादा शायद घर में नहीं थे। माँ चाय बनाने चली गयीं और वासिफ वीर को अन्दर एक कमरे में ले गया। कुछ पल तो वे चौंक कर उस कमरे की शान को बारीकी से देखते रहे जैसे कि सब कुछ आंखों में भर लेना चाहते हों। उसके बाद वे उस ओर चले जिधर पूरी दीवार किताबों से भरी आबनूस की अल्मारी के पीछे छिपी हुई थी। अधिकांश किताबें उर्दू या शायद अरबी-फारसी में थीं और चमड़े की ज़िल्द में मढ़ी हुई थीं। उत्सुकतावश एक पुस्तक छूने ही वाले थे कि एक कर्णप्रिय स्वरलहरी गूंजी, “चाय ले लीजिये।”

उन्होंने मुड़कर देखा और जैसी आशा थी, वही अप्सरा वासिफ के ठीक सामने पड़ी सैकडों साल पुरानी शाही मेज़ पर चाय और न जाने क्या-क्या लगा रही थी। रंग-रूप में वह और वासिफ़ एक दूसरे के ध्रुव-विपरीत लग रहे थे। वासिफ वीर की ओर देखकर हँसते हुए बोला, “इतना सब क्या इसके लिये लाई है? देव समझ रखा है क्या?”

“खायेंगे न आप? ... वरना आपके घर आ जाऊंगी खिलाने” अप्सरा वीर की ओर उन्मुख थी। बीच की मांग के दोनों ओर सुनहरे बालों ने उसका माथा ढँक लिया। उसकी हँसी देखकर वीर को मिलियन डॉलर स्माइल का अर्थ पहली बार समझ में आया।

“देव और अप्सरा, क्या संयोग है?” वीरसिंह सोच रहे थे, “नियति बार-बार उन दोनों को मिलाने का यह संयोग क्यों कर रही है?” वे अप्सरा की बात के जवाब में कुछ अच्छा कहना चाहते थे मगर ज़ुबान जैसे तालू से चिपक सी गयी थी। देव और अप्सरा, स्वर्गलोक, इन्द्रसभा। उनके मन में यूँ ही एक ख्याल आया जैसे उस कमरे में वासिफ नहीं था। उसी क्षण बाहर से एक भारी सी आवाज़ सुनाई दी, “वासिफ बेटा... ज़रा इधर को अइयो...”

“बच्चे को बोर मत करना, मैं बाद में आता हूँ ...” कहकर वासिफ तेज़ी से बाहर निकल गया।

“आइ वोंट, यू बैट!” अप्सरा ने उल्लसित होकर कहा, “टेक योर ओन टाइम!”

वासिफ ने कुछ सुना या नहीं, पता नहीं परंतु इतना सुन्दर उच्चारण सुनकर वीर के अन्दर हीन भावना सी आ गयी। ऑक्सफ़ोर्ड उच्चारण की बहुत तारीफ सुनी थी, शायद वही रहा होगा।

“इधर आ जाइये, उधर क्यों खड़े हैं?” परी की मनुहार से पहले ही वीरसिंह उसके सामने विराजमान थे। किताब अभी भी उनके हाथ में थी।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?” वीर ने लगभग हकलाते हुए पूछा।

“नहीँ” फूल झरे।

“तो बड़ी हैं क्या?” वीर ने आशंकित होकर पूछा।

“नहीँ” फूल फिर झरे।

“अप्सरायें बड़ी-छोटी नहीं होतीं – चिर-युवा होती हैं” दादी की बात याद आयी, “क क क क्या नाम है आपका?”


“झरना... और आपका?”

“झरना यानि जल-प्रपात। और अप्सरा... यानि जल से जन्मी... सत्य है... स्वप्न है...”

“नहीं बतायेंगे अपना नाम? आपकी मर्ज़ी। वैसे आपकी ज़िम्मेदारी मुझे देकर गए हैं वासिफ भाई।

“मैं वीर, वीरसिंह!”

[क्रमशः]

Saturday, September 11, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 4


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अनुरागी मन - भाग 1
अनुरागी मन - भाग 2
अनुरागी मन - भाग 3
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सुबह उठने पर भी वीरसिंह कल वाली परी के बारे में सोचते रहे। जब तक वे नहा धो कर नाश्ते के लिये बैठे, दादाजी अपना अखबार लिये पहले से ही उपस्थित थे। दादी भी रोज़ की तरह अपनी छात्राओं की संगीत की कक्षा सम्पन्न कर के आ चुकी थीं। दादाजी ने हमेशा की तरह अखबार को कोसा और दादी ने उनके पोहे में ढेर सा घी उड़ेल दिया। वीरसिंह खा-पीकर इन्द्रजाल कॉमिक का नया अंक लेने विरामपुरे की इकलौती “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” पहुँच गये। परी का ख्याल अभी भी उनके दिमाग से चिमटा हुआ था। किताबें ढूँढते समय, दुकानदार सक्सेना से बात करते समय उनके मन का एक हिस्सा लगातार यह मना रहा था कि वह अप्सरा सचमुच उन्हें अभी फिर दिख जाये। फिर सोचते कि यदि मनचाहा होता रहता तो कल्पवृक्ष जैसी कल्पनाओं की आवश्यकता ही नहीं होती।

अपने मनपसन्द कॉमिक्स लेकर जब वे बाहर निकले तो उन्होंने बड़ी उत्कंठा से निगाहें सड़क के दोनों ओर दौड़ाईं और हर तरफ उजड्ड देहातियों को पाकर अपनी किस्मत को कोसा। तभी उन्हें आकाश की ओर से एक दिव्य हँसी की खनखनाती आवाज़ सुनाई दी। अब उन्हें एक अप्सरा को नई सराय की टूटी-फ़ूटी सड़कों की गन्दगी के बीच में ढूंढने की अपनी मूर्खता पर हंसी आयी। अप्सरा तो स्वच्छ सुवासित आकाश में ही होगी न कि नारकीय वातावरण में। लेकिन क्या अप्सरायें सचमुच होती हैं? अपने विश्वास-अविश्वास से जद्दोजहद करते हुए उन्होंने तेज़ होती हँसी के स्रोत को देखने के लिये सर उठाया तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। वही कल वाली अप्सरा ऊपर से उन्हें देख रही थी। “घंटा-ध्वनि न्यूज़ एजेंसी” और साथ की दुकान के ऊपर बने घर के छज्जे पर अपनी पार्थिव सी दिखने वाली सखि के साथ खड़ी अप्सरा कनखियों से उनको देख उल्लसित हो रही थी। वीरसिंह ने मुस्कराकर एक नज़र भरकर उधर देखा और उछलते हुए से घर की ओर चल दिये।

उस रात नींद में वे लगातार उसी अप्सरा के साथ थे। कभी नई सराय के खंडहरों में और कभी स्वर्ग के उद्यानों के बीच। सुबह बहुत सुन्दर थी। परी के दिवास्वप्नों के बीच याद आया कि आज उन्हें वासिफ से मिलने जाना था। वासिफ खाँ वीरसिंह का सहपाठी था। उसके दादाजी भी नई सराय में ही रहते थे। उसका नई सराय प्रवास वीरसिंह की तरह नियमित नहीं था परंतु इस बार वह भी आया हुआ था। आज प्रातः नई सराय के कुतुबखाने पर वीरसिंह और वासिफ की मुलाकात होनी थी। वीरसिंह प्रातः अपने घर से निकले तो उनकी दादी द्वारा घर पर ही चलाये जा रहे गन्धर्व विद्यालय की छात्रायें प्रतिदिन की तरह आनी शुरू हो गयी थीं। आज वीरसिंह ने पहली बार उन्हें ध्यान से देखा। भिन्न-भिन्न वेश और विभिन्न रंग-रूप लेकिन सब की सब ठेठ नई सरय्या, यानि के एकदम गँवारू। नहाया धोया मुखारविन्द, साफ सुथरे कपड़े, देसी घी खाकर फूले-फूले गाल और सरसों के तेल से चीकट बाल। एक तेज़-तर्रार लडकी के ज़रा पास से निकलने पर आई तोलकर बिकने वाले साबुन की तेज़ गन्ध ने उनकी नासिका को अन्दर तक चीर दिया।

दोनों मित्र कुतुबखाने पर मिले। स्कूल बन्द होने के बाद आज पहली बार वासिफ को देखा था। मिलकर काफी अच्छा लगा। वह भी उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ। वासिफ उन्हें अपना घर दिखाना चाहता था। बातें करते करते वे मस्जिद की ओर चलने लगे। मनिहार गली वाला रास्ता थोड़ा घुमावदार था परंतु कस्साबपुरे वाले रास्ते से कम तंग और बदबूदार था।

वीरसिंह सारे रास्ते वासिफ के साथ थे मगर साथ ही उनका एक समानांतर संसार भी चल रहा था। उनका मन लगातार उसी अप्सरा के सौन्दर्य के काल्पनिक झरने में भीगे जा रहा था। कुछ मिनटों में ही वे वासिफ के दादा की हवेली के सामने खड़े थे। वासिफ लोहे की भारी कुंडी को कोलतार पुती मोटी किवाड़ों पर मारने वाला ही था कि दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

वीरसिंह मानो सपना देख रहे हों। उन्हें अपनी खुशकिस्मती पर यकीन ही नहीं हुआ जब दरवाज़ा पकड़े हुए ही उस परी ने मखमली मुस्कान के साथ शर्माते हुए “अन्दर आइये” कहा।


[क्रमशः]

Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

Monday, September 6, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 3

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]

हर शाम की तरह वीरसिंह गुरुद्वारे से दादाजी के घर की ओर आ रहे थे। नई सराय के नारकीय वातावरण से अपने को निर्लिप्त करने के पूर्ण प्रयास करते हुए सायास अपने आपको भैंसों की दुम, आवारा कुत्तों की भौंक और गधों की लीद से कुशलतापूर्वक बचाते हुए चल रहे थे। अचानक एक जादू सा हुआ। मानो आसपास की सारी गन्दगी किसी चमत्कार की तरह अचानक मिट गयी हो। नई सराय की बासी गन्ध की जगह वातावरण में मलयाचल की सुगन्धि भर गयी। लगा जैसे क्षण भर में नई सराय का पूर्ण कायाकल्प हो गया । सौन्दर्य का झरना सा बहने लगा। उन्होंने नज़रें क्या उठाईं कि फिर हटा न सके।

उनके ठीक सामने एक अप्रतिम सौन्दर्य की मूरत दिखाई दी। उस एक अप्सरा के अतिरिक्त सब कुछ विलुप्त हो गया। और यह अप्सरा बचपन में सुनी दादी की कहानियों की रम्भा और उर्वशी जैसी त्रिलोकसुन्दरी होकर भी उनसे एकदम उलट थी। गर्दन तक कटे हुए आधुनिक बाल उसके स्कर्ट टॉप के एकदम अनुकूल थे। कुन्दन सी त्वचा और नीलम सी आंखें उस कोमलांगी को ऐसी अनोखी रंगत प्रदान कर रहे थे मानो किसी श्वेत-श्याम चित्र में अचानक ही रंग भर गये हों। उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं रहा कि वे कितनी देर तक अपने आसपास से बिल्कुल बेखबर होकर उस अप्सरा को अपलक देखते रहे थे। वे चौंककर होश में तब आये जब उनके कान में किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी। देखा कि एक 6-7 वर्षीय बालक ने उस अप्सरा का हाथ खींचकर कहा, “क्या हुआ दीदी?”

अप्सरा का मुँह आश्चर्य से खुला हुआ था। उसके चेहरे पर छपे हुए अविश्वास के भाव देखकर उन्हें लगा कि शायद वह भी उन्हीं की तरह स्तम्भित रह गयी थी। उसने मिस्रीघुली वाणी में बच्चे से कहा, “कुछ भी तो नहीं।” और वीरसिंह की ओर एक मुस्कान बिखेरती हुई चली गयी। कुछ देर ठगे से खडे रहने के बाद वीरसिंह ने कनखियों से इधर-उधर का जायज़ा लिया तो पाया कि नई सराय का कारोबार हमेशा की तरह बेरोकटोक चल रहा था। किसी ने भी उन्हें वशीकृत होते हुए नहीं देखा था। वे घर आये तो दादी ने पूछा, “सब ठीक तो है न बेटा?”

“मुझे क्या हुआ है?” उन्होंने यूँ कहा मानो कुछ हुआ ही न हो। मगर तब तक दादी अन्दर चली गयी थीं, नज़र उतारने की सामग्री लेने के लिये।

रात का खाना खाकर सब सोने चले गये मगर वीरसिंह की आंखों में नीन्द कहाँ। सोचते रहे कि उन्होंने जो कुछ भी आज देखा था क्या वह सच था या केवल एक भ्रम। उनका ग्वाला कलुआ कहता है कि आसपास के गांवों के कुछ नौजवानों को किसी परी की आत्मा ने नियंत्रित कर लिया था। दिन ब दिन कमज़ोर होते गये और फिर पागल होकर मर गये। वीरसिंह को परी, आत्मा आदि के अस्तित्व में विश्वास नहीं है। लेकिन तब यह लड़की कौन थी? उस पर वह अनोखी रंगत, अनोखी आँखें और अनोखी आवाज़! इस लोक की तो नहीं हो सकती है वह। और उसकी वह अलौकिक स्मिति? सत्य का पता कैसे लगेगा?

दूर किसी रेडियो पर एक मधुर लोकगीत हवा में तैर रहा था। वीरसिंह उस अप्सरा के बारे में सोचते हुए गीत की सुन्दर शब्द-रचना के झरने में डूबने उतराने लगे।

छल बल दिखाके न कोई रिझा ले
पल्लू गिराके न कोई बुला ले
निकला करो न अन्धेरे उजाले
लाखों सौतन फिरत हैं नगरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में


[क्रमशः]

Saturday, August 28, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 2

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[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photo by Anurag Sharma]


नोएडा के इस अपार्ट्मेंट की शामें इसी तरह गुज़रती थीं। बैठक में एक साथ बैठे ये तीनों मित्र ईर, बीर और फत्ते, रात के खाने की तैयारी करते करते अपने दिन भर के अनुभव एक दूसरे के साथ बांटते थे। बीच-बीच में एक दूसरे के हाल पर टीका-टिप्पणियाँ भी होती थीं।

तीनों में सबसे बडा फत्ते यानि फतहसिंह पास के ही अट्टा गाँव से था। किसान परिवार का बेटा। वकालत पढ़कर पहले तो दिल्ली के एक मशहूर वकील का सहायक बना और फिर आयकर विभाग में निरीक्षक हो गया। घर में पैसे की कमी पहले भी नहीं थी, अब तो अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

ईर यानि अरविन्द कल्याणपुर कर्नाटक से था। पतला दुबला भला सा लड़का, बुद्धि और हास्य बोध का संगम। गणित में स्नातकोत्तर और संस्कृत का विद्वान। लम्बा कद, चौड़ा माथा, गौरांग और सुदर्शन। कमी ढूंढने निकलें तो शायद इतनी ही मिले कि सफाई के मामले में कभी-कभी थोड़ा सनक जाता था। उसकी उपस्थिति में किसी को भी जूते उतारे बिना घर में घुसने की इजाज़त नहीं है, फत्ते को भी नहीं जोकि दरअसल इस घर का मालिक है। ईर वैसे दिल का बहुत साफ है। सहायक स्तर की परीक्षा पास करके केन्द्रीय सचिवालय में नौकरी करने पहली बार उत्तर भारत के दर्शन करने अकेला आया है। इससे पहले उत्तर के नाम पर बचपन में अपने दादा-दादी के साथ तीर्थ यात्रा पर ही आया था। दिल्ली-नोएडा के बारे में सामान्य ज्ञान इतना विस्तृत है कि जंतर मंतर को अघोरपंथ का केन्द्र समझता था।

तीसरे बचे बीर यानी वीर सिंह! इतनी जल्दी भूल गये। वही जो इस कथा के आरम्भ में आपको नई सराय के विरामपुरे के अपने पैतृक निवास का वृत्तांत सुना रहे थे। उम्र में इन तीनों में सबसे छोटे, बाकी दोनों के स्नेह से लबालब भरे हुए। उस स्नेह का पूरा लाभ भी उठाते हैं। सबकी सुनते हैं मगर अपने दिल की कम ही बताते हैं। एक सरकारी बैंक में अधिकारी बनकर आये हैं। अब तीन अलग अलग ग्रहों के यह प्राणी एक साथ रहने कैसे आ गये इसकी भी एक लम्बी कहानी है मगर अभी मैं आपको उसमें नहीं उलझाऊँगा। फिलहाल खाना खाकर बड़े वाले दोनों वीरसिंह को कुछ सामाजिक होने का पाठ पढा रहे हैं और पृष्ठभूमि में पीनाज़ मसानी की आवाज़ में वीरसिंह का प्रिय गीत चल रहा है:

नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में
कोई भर ले न तोहे नजरिया में

वैसे तो वीरसिंह केवल मुकेश के रोने धोने वाले गीत ही सुनते हैं मगर इस एक गीत से उन्हें विशेष लगाव है। बाकी दोनों मित्र उत्सुकता से इस का कारण जानना चाहते हैं। आज वीरसिंह ने उनके अनुरोध को मानकर वह कहानी सुनाना शुरू किया है और इस बहाने हमें भी विरामपुरा यात्रा पर लिये जा रहे हैं।
[क्रमशः]


आवाज़ पर "सुनो कहानी" का सौवाँ अंक: सुधा अरोड़ा की "रहोगी तुम वही", रंगमंच, दूरदर्शन और सार्थक सिनेमा के प्रसिद्ध कलाकार राजेन्द्र गुप्ता की ज़ुबानी

अनुरागी मन - कहानी भाग 1

चित्र: अनुराग शर्मा
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सडक के बीच जहाँ तहाँ पड़े कचरे और सड़क के किनारे लगे क़ूड़े के ढेरों की महक के बीच भिनभिनाती बड़ी-बड़ी मक्खियाँ। आवारा कुत्तों की चहलकदमी के बीच किसी अलौकिक शांति के धारक, घंटों तक एक ही जगह पर गर्दभासन में चुपचाप खडे गदहे। कच्चे खरंजे के मार्ग के दोनों ओर दोयम दर्ज़े की लाल-भूरी ईंटों से बनी टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ दीवारें, बेतरतीब मकान और उनमें ज़बर्दस्ती बनाई हुई टेढ़ी-बुकची दुकानें। दरवाज़े पर बंधी बकरियाँ और राह में गोबर करती भैंसें। बेवजह माँ और बहन की गालियाँ बकते संस्कारहीन लोग। गन्दला पसीना टपकाते, बिना नहाये आदमी-औरतों के बीच आवाज़ लगाकर सामान बेचते इक्का दुक्का रेहड़ी वाले।

लेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।

ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर वहाँ जाना होता था बाबा-दादी से मिलने के बहाने। पुरानी “नई सराय” का नाम भले ही विरोधाभासी हो, विरामपुरा मुहल्ला अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता था। यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे। अपने व्यक्तिगत जीवन से निर्लिप्त उन गौरवान्वित सैनिकों के बच्चे अपनी गृहकार्य में कुशल, पर बच्चों के पालन पोषण में अल्पशिक्षित माताओं के भरोसे ऐंचकताने कपड़े पहने विरामपुरे की धूल भरी गलियों के झुरमुट में कन्चे खेलते और घरेलू गालियाँ सीखते या उनका अभ्यास करते हुए मिल जाते थे।कुछ घरों में इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करते बच्चे भी थे। और कुछ घरों में इनसे कुछ बड़े बच्चे रोज़गार समाचार और नागरिक सेवा परीक्षा के गैस पेपर्स में अपना भविष्य ढूँढते थे। गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा।

[क्रमशः]

Wednesday, August 18, 2010

चोर - कहानी [भाग 4]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
...
मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
...
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।

“वह तो भैया ले गये।“

“भैया? भैया कब आये?”

“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“

“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”

मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।

शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”

”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।

“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।

“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।

“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।

जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।

“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।

“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”

“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।

“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।

“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।

चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।

और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।

[समाप्त]

यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है

Monday, August 16, 2010

चोर - कहानी [भाग 3]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।

मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

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[भाग 1] [भाग 2] अब आगे की कहानी:
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।

“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।

“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”

मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।

“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।

“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”

“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”

“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।

“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।

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यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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Sunday, August 15, 2010

चोर - कहानी [भाग 2]

चोर - कहानी [भाग 1] में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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अब आगे की कहानी:
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।

काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।

अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैने तुमसे शादी को हाँ की थी।”

“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।

“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”

“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”

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