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पिछली प्रविष्टि और आपकी टिप्पणियों में हमने नायकत्व की नीँव के कुछ रत्नों का अवलोकन किया। देवेन्द्र जी ने स्पष्ट किया कि सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी यदि व्यक्ति मैं और मेरे में ही सिमटा हुआ है तो उसके नायक हो पाने की सम्भावना नहीं है। शिल्पा जी ने भी यही बात एक उदाहरण के साथ प्रस्तुत की और अली जी ने भी कल्याण या फिर लोक कल्याण कहकर इसी बिन्दु को उभारा। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की भावना के बिना बड़ा बनना वाकई कठिन है।
साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग पर कुछ बात हुई। निस्वार्थ प्रवृत्ति, दूसरों के सम्मान की रक्षा, कर्मयोग आदि जैसे सद्गुणों का ज़िक्र आया। आगे बढने से पहले आइये उदारता, त्याग और निस्वार्थ भावना के अंतर पर एक नज़र डालते हैं।
निस्वार्थ होने का अर्थ है स्वार्थरहित होकर काम करना। अच्छी भावना है। हम सब ही सत्कार्य के लिये अपना समय, श्रम ज्ञान और धन देना चाहते हैं। कोई नियमित रक्तदान करता है और किसी ने नेत्रदान या अंगदान का प्रण लिया है। विनोबा ने एक इंच भूमि का स्वामित्व रखे बिना ही विश्व के महानतम भूदान यज्ञ का कार्य सम्पन्न कराया। भारत में लोग गर्मियों में प्याऊ लगाते हैं और पिट्सबर्ग में मेरे पडोसी पक्षियों के लिये विशेषरूप से बने बर्डफ़ीडर में खरीदकर दाना रखते हैं। हृदय में उदारता हो तो निस्वार्थ भाव से कर्म करना नैसर्गिक हो जाता है। उदारता और त्याग का सम्बन्ध भी गहन है। दिल बड़ा हो तो त्याग आसान हो जाता है। याद रहे कि सत्कार्य के लिये भी चन्दा मांगना उदारता नहीं हैं, आगे बढकर दान देना अवश्य उदारता हुई। चन्दा इकट्ठा करना, चन्दा देना या उसका सदुपयोग करना, यह सभी निस्वार्थ हो सकते हैं। त्याग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सुखी भविष्य के साथ अपने तन, मन, धन सबका त्याग राष्ट्रहित में कर दिया। विनोबा जेल में थे तब भी उस समय का सदुपयोग उन्होंने अपराधी कैदियों के लिये गीता के नियमित प्रवचन करने में किया।
माता-पिता अक्सर अपनी संतति के लिये छोटे-बडे त्याग करते हैं। लोग अपने सहकर्मियों, पडोसियों, अधिकारियों के लिये भी छोटे-मोटे त्याग कर देते हैं लेकिन उसमें अक्सर स्वार्थ छिपा होता है। मंत्री जी ने चुनाव से ठीक पहले सारे प्रदेश के इंजीनियर बुलाकर अपने शहर में बडे निर्माणकार्य कराये। सरकारी पैसा, सरकारी कर्मचारी, सरकारी समय का दुरुपयोग हुआ और अन्य नगरों के साथ अन्याय भी हुआ। लेकिन यदि मंत्री जी कहें कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत समय का त्याग तो किया तो उसके पीछे चुनाव जीतने का स्वार्थ था। कुछ लोग सदा प्रबन्धन की कमियाँ गिनाते रहते हैं, उन्हें हर शिक्षित, धनी या सम्पन्न व्यक्ति शोषक लगता है। वे हर समिति की निगरानी चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना है। लेकिन यदि ये लोग जनता के असंतोष को भड़काकर अपनी कुंठा निकालते हों या हिंसा फ़ैलाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करें तो उसमें स्वार्थ भी है और उदारता व त्याग का अभाव भी। ऐसे खलनायकों के मुखौटे लम्बे समय तक टिकते नहीं। क्योंकि निस्वार्थ कर्म के बिना सच्चा नायक बना ही नहीं जा सकता।
भारत में जातिगत, धर्मगत दंगे तो होते ही हैं, कई बार हिंसा के पीछे क्षेत्र, भाषा और आर्थिक कारण भी होते हैं। हिन्दुओं को मुस्लिम बस्ती से गुज़रते हुए भय लगता है। कानपुर के दंगों में जब हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे से डरकर भाग रहे थे, गणेश शंकर विद्यार्थी दंगे की आग में कूदकर निर्दोष नागरिकों की जान बचा रहे थे। 25 मार्च 1931 को धर्मान्ध दंगाइयों ने उनकी जान ले ली परंतु उनकी उदार भावना को न मिटा सके। जब आम लोग डरकर छिप रहे थे तब विद्यार्थी जी अपना आत्म-त्याग करने सामने आये क्योंकि उनके पास नायकों का एक अन्य स्वाभाविक गुण निर्भयता भी था। उदारता का पौधा निर्भयता की खाद पर पलता है। माओवाद से सताये जा रहे इलाकों में रात में ट्रेनें तक नहीं निकलतीं। वर्तमान नेता अपने लाव-लश्कर के साथ भी ऐसे स्थानों की यात्रा की कल्पना नहीं कर सकते। 18 अप्रैल 1951 को नलगोंडा (आन्ध्रप्रदेश) में भूदान आन्दोलन की नींव रखने से पहले और बाद में विनोबा ने निर्भयता से न केवल कम्युनिस्ट आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों की पदयात्रायें कीं और जनता से मिले बल्कि ज़मीन्दारों को भी अपनी पैतृक भूमि को भूमिहीनों को बांटने के लिये मनाया। विनोबा को न भूपतियों के आगे हाथ फैलाने में झिझक थी और न ही आतंकियों की बन्दूकों का डर। अपनी जान की सलामती रहने तक कोई भी जन-नायक होने का भ्रम उत्पन्न कर सकता है, लेकिन भय और नायकत्व का 36 का आंकड़ा है।
बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की निर्दयता को अच्छी प्रकार पहचानते हुए भी आत्मसमर्पण करते हैं। शांतिकाल में भर्ती हुआ कोई सैनिक युद्धकाल में शांति की चाह कर सकता है परंतु उन लाखों भारतीयों के बारे में सोचिये जो द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी या ज़िम्मेदारी न होने पर भी भारत की आज़ादी की शर्त पर जान हथेली पर रखकर एशिया और यूरोप के मोर्चों पर निकल पडे। उनमें से न जाने कितने कभी वापस नहीं आये। वे सभी वीर हमारे नायक हैं।
कभी परम्परा की आड में, कभी धर्म के बहाने से, कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर और कभी राजनीतिक सम्बन्ध की ओट में कापुरुष अपने खलनायकत्व का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर पकडे गये बहुत से जर्मन युद्धापराधियों ने अपने क्रूरकर्म को स्वामिभक्ति कहकर सही ठहराने का प्रयास किया था। स्वामिभक्ति का यह बहाना भी कायरता का एक नमूना है। क्या स्वामिभक्ति सत्यनिष्ठा के आडे आ सकती है या यह भय और कायरता को छिपाने का बहाना मात्र है?
दो विश्व युद्धों में 1070 जीवन न्योछावर करने वाली गढवाल रेजिमेंट के पेशावर में तैनात सत्यनिष्ठ सिपाहियों ने अप्रैल 1930 में खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की गिरफ़्तारी का विरोध कर रहे निहत्थे पठान सत्याग्रहियों पर गोली चलाने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया था। इस काण्ड में चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में 67 भारतीय सिपाहियों का कोर्टमार्शल हुआ था जिनमें से कई को आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी। और इससे पहले 1857 की क्रांति में भी वीर भारतीय सैनिकों ने सत्यनिष्ठा को स्वामिभक्ति से कहीं ऊपर रखा।
क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं? क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं? एक नायक में और क्या ढूंढते हैं आप? परोपकार, समभाव, करुणा, प्रेम, दृढता, ज्ञान? एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?
[क्रमशः]
अन्ना बनना है तो शब्द और कृति को एक करो ... शुद्ध आचार, निष्कलंक जीवन, त्याग करना सीखो, कोई कुछ कहे तो अपमान सहना सीखो ~अन्ना हज़ारे (27 अगस्त 2011, रामलीला मैदान)
पिछली प्रविष्टि और आपकी टिप्पणियों में हमने नायकत्व की नीँव के कुछ रत्नों का अवलोकन किया। देवेन्द्र जी ने स्पष्ट किया कि सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी यदि व्यक्ति मैं और मेरे में ही सिमटा हुआ है तो उसके नायक हो पाने की सम्भावना नहीं है। शिल्पा जी ने भी यही बात एक उदाहरण के साथ प्रस्तुत की और अली जी ने भी कल्याण या फिर लोक कल्याण कहकर इसी बिन्दु को उभारा। "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" की भावना के बिना बड़ा बनना वाकई कठिन है।
साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग पर कुछ बात हुई। निस्वार्थ प्रवृत्ति, दूसरों के सम्मान की रक्षा, कर्मयोग आदि जैसे सद्गुणों का ज़िक्र आया। आगे बढने से पहले आइये उदारता, त्याग और निस्वार्थ भावना के अंतर पर एक नज़र डालते हैं।
निस्वार्थ होने का अर्थ है स्वार्थरहित होकर काम करना। अच्छी भावना है। हम सब ही सत्कार्य के लिये अपना समय, श्रम ज्ञान और धन देना चाहते हैं। कोई नियमित रक्तदान करता है और किसी ने नेत्रदान या अंगदान का प्रण लिया है। विनोबा ने एक इंच भूमि का स्वामित्व रखे बिना ही विश्व के महानतम भूदान यज्ञ का कार्य सम्पन्न कराया। भारत में लोग गर्मियों में प्याऊ लगाते हैं और पिट्सबर्ग में मेरे पडोसी पक्षियों के लिये विशेषरूप से बने बर्डफ़ीडर में खरीदकर दाना रखते हैं। हृदय में उदारता हो तो निस्वार्थ भाव से कर्म करना नैसर्गिक हो जाता है। उदारता और त्याग का सम्बन्ध भी गहन है। दिल बड़ा हो तो त्याग आसान हो जाता है। याद रहे कि सत्कार्य के लिये भी चन्दा मांगना उदारता नहीं हैं, आगे बढकर दान देना अवश्य उदारता हुई। चन्दा इकट्ठा करना, चन्दा देना या उसका सदुपयोग करना, यह सभी निस्वार्थ हो सकते हैं। त्याग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने सुखी भविष्य के साथ अपने तन, मन, धन सबका त्याग राष्ट्रहित में कर दिया। विनोबा जेल में थे तब भी उस समय का सदुपयोग उन्होंने अपराधी कैदियों के लिये गीता के नियमित प्रवचन करने में किया।
माता-पिता अक्सर अपनी संतति के लिये छोटे-बडे त्याग करते हैं। लोग अपने सहकर्मियों, पडोसियों, अधिकारियों के लिये भी छोटे-मोटे त्याग कर देते हैं लेकिन उसमें अक्सर स्वार्थ छिपा होता है। मंत्री जी ने चुनाव से ठीक पहले सारे प्रदेश के इंजीनियर बुलाकर अपने शहर में बडे निर्माणकार्य कराये। सरकारी पैसा, सरकारी कर्मचारी, सरकारी समय का दुरुपयोग हुआ और अन्य नगरों के साथ अन्याय भी हुआ। लेकिन यदि मंत्री जी कहें कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत समय का त्याग तो किया तो उसके पीछे चुनाव जीतने का स्वार्थ था। कुछ लोग सदा प्रबन्धन की कमियाँ गिनाते रहते हैं, उन्हें हर शिक्षित, धनी या सम्पन्न व्यक्ति शोषक लगता है। वे हर समिति की निगरानी चाहते हैं। वे कहते हैं कि उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना है। लेकिन यदि ये लोग जनता के असंतोष को भड़काकर अपनी कुंठा निकालते हों या हिंसा फ़ैलाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करें तो उसमें स्वार्थ भी है और उदारता व त्याग का अभाव भी। ऐसे खलनायकों के मुखौटे लम्बे समय तक टिकते नहीं। क्योंकि निस्वार्थ कर्म के बिना सच्चा नायक बना ही नहीं जा सकता।
आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर, 1895 - 15 नवंबर, 1982) |
बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ब्रिटिश सरकार की निर्दयता को अच्छी प्रकार पहचानते हुए भी आत्मसमर्पण करते हैं। शांतिकाल में भर्ती हुआ कोई सैनिक युद्धकाल में शांति की चाह कर सकता है परंतु उन लाखों भारतीयों के बारे में सोचिये जो द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी या ज़िम्मेदारी न होने पर भी भारत की आज़ादी की शर्त पर जान हथेली पर रखकर एशिया और यूरोप के मोर्चों पर निकल पडे। उनमें से न जाने कितने कभी वापस नहीं आये। वे सभी वीर हमारे नायक हैं।
दो महानायक: नेताजी और बादशाह खान |
मदर टेरेसा 26 अगस्त 1910 - 5 सितम्बर 1997 |
क्या आप सहमत हैं कि साहस, निर्भयता, उदारता और त्याग वीरों के अनिवार्य गुण हैं? क्या वीर नायक सदैव ही सत्यनिष्ठा को अन्ध स्वामिभक्ति से ऊपर रखते हैं? एक नायक में और क्या ढूंढते हैं आप? परोपकार, समभाव, करुणा, प्रेम, दृढता, ज्ञान? एक अन्य भारतीय कथन है, "क्षमा वीरस्य भूषणं", क्या आपको लगता है कि क्षमा भी नायकों का गुण हो सकता है?
[क्रमशः]