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Tuesday, July 9, 2019

कुछ साक्षात्कार

विडियो Video


हिंदी सम्पादन की चुनौतियाँ - टैग टीवी कैनैडा पर अनुराग शर्मा, सुमन घई और शैलजा सक्सेना
Anurag Sharma with Suman Ghai and Shailja Saxena on Tag TV Canada



मॉरिशस टीवी पर डॉ. विनय गुदारी के साथ अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Anurag Sharma's Interview by Dr. Vinay Goodary on Mauritius TV



आप्रवासी साहित्य सृजन सम्मान का फ़्रैंच समाचार French News about MGI Mauritius Award



अनुराग शर्मा का साक्षात्कार (अंग्रेज़ी में) In discussion with Sparsh Sharma (English)

ऑडियो Audio
एनएचके (जापान) पर अनुराग शर्मा से नीलम मलकानिया की वार्ता
Neelam Malkania speaks to Anurag Sharma on NHK Radio (Japan)

रेडियो सलाम नमस्ते (अमेरिका) पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Hindi Interview with Anurag Sharma on Radio Salam Namaste, Texas





मुद्रित, व अन्य Print and Online

Friday, June 7, 2019

कविता: अनुनय

अनुराग शर्मा 

सुबह की ओस में आँखें मुझे भिगोने दो
युगों से सूखी रहीं आँसुओं से धोने दो

कभी उठा तो बिखर जाऊंगा सहर बनकर
बहुत थका हूँ मुझे रात भर को सोने दो

हँसी लबों पे बनाये रखी दिखाने को
अभी अकेला हूँ कुछ देर मुझको रोने दो

सफ़र भला था जहाँ तक तुम्हारा साथ रहा
मधुर हैं यादें उन्हीं में मुझे यूँ खोने दो

कँटीली राह रही आसमान तपता हुआ
खुशी के बीज मुझे भी कभी तो बोने दो

रहो सुखी सदा जहाँ भी रहो जैसे रहो
हुआ बुरा जो मेरे साथ उसको होने दो

Friday, March 29, 2019

दादी माँ कुछ बदलो तुम भी

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)




सदा खिलाया औरों को
खुद खाना सीखो दादी माँ

सबको देते उम्र कटी
अब पाना सीखो दादी माँ

थक जाती हो जल्दी से
अब थोड़ा सा आराम करो

चुस्ती बहुत दिखाई अब
सुस्ताना सीखो दादी माँ

रूठे सभी मनाये तुमने
रोते सभी हँसाये तुमने

मन की बात रखी मन में
बतलाना सीखो दादी माँ

दिन छोटा पर काम बहुत
खुद करने से कैसे होगा

पहले कर लेती थीं अब
करवाना सीखो दादी माँ

हम बच्चे हैं सभी तुम्हारे
जो चाहोगी वही करेंगे

मानी सदा हमारी अब
मनवाना सीखो दादी माँ



Thursday, March 14, 2019

सत्य - लघु कविता

(अनुराग शर्मा)

सत्य नहीं कड़वा होता
कड़वी होती है कड़वाहट

पराजय की आशंका और
अनिष्ट की अकुलाहट

सत्यासत्य नहीं देखती
मन पर हावी घबराहट

कड़वाहट तो दूर भागती
सुनते ही सत्य की आहट

Saturday, March 2, 2019

लघुकथा: असंतुष्ट

दबे-कुचले, दलितों में भी अति-दलित वर्ग के उत्थान के सभी प्रयास असफल होते गये। शिक्षा में सहूलियतें दी गईं तो ग़रीबी के कारण वे उनका पूरा लाभ न उठा सके। फिर आरक्षण दिया गया तो बाहुबली ज़मींदारों ने लट्ठ से उसे झटक लिया। व्यवसाय के लिये ऋण दिये तो भी कहीं अनुभव की कमी, कहीं ठिकाने की -  कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि अति-दलित वर्ग समाज के सबसे निचले पायदान पर ही रहा। अन्य सभी जातियाँ, मज़हब, और वर्ग उनके व्यवसाय को हीन समझते रहे।

मेरा शिक्षित और सम्पन्न, लेकिन असंतुष्ट मित्र फत्तू अति-दलितों की चिंता जताकर हर समय सरकार की शिकायत करता था। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि सरकार बदल गयी। नया प्रशासक बड़े क्रांतिकारी विचारों वाला था। उसने बहुत से नये-नये काम किये। यूँ कहें कि सबको हिला डाला। 

पहले वाले प्रशासक तो हवाई जहाज़ से नीचे कदम ही नहीं रखते थे। इस प्रशासक ने अति-दलित वर्ग के कर्मियों के साथ जाकर नगर के मार्गों पर झाड़ू लगाई, साफ़-सफ़ाई की।

मेरा असंतुष्ट मित्र फ़त्तू बोला, “पब्लिसिटी है, अखबार में फ़ोटो छपाने को किया है। झाड़ू लगाने में क्या है? अरे, उनके चरण पखारे तब मानूँ ...”

इत्तेफाक़ ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद प्रशासक ने सफ़ाईकर्मियों के मुहल्ले में जाकर उनके चरण भी धो डाले। 

मैंने कहा, “फ़त्तू, अब तो तेरे मन की हो गई। अब खुश?”

फतू मुँह बिसूरकर बोला, “पैर धोने में क्या है, उनका चरणामृत पीता, तो मानता।”

सभी दोस्त हँसने लगे। मैंने कहा, "फत्तू, तू भी न, कमाल है।" 


Monday, January 28, 2019

बलिहारी गुरु आपने …

(अनुराग शर्मा)


लल्लू: मालिक, जे इत्ते उमरदार लोग आपके पास लिखना-पढ़ना सीखने क्यों आते हैं?

साहब: गधे हैं इसलिये आते हैं। सोचते हैं कि लिखना सीखकर कवि-शायर बन जायेंगे और मुशायरे लूट लाया करेंगे।

लल्लू: मुशायरों में तो बहुत भीड़ होती है, लूटमार करेंगे तो लोग पीट-पीट के मार न डालेंगे?

साहब: अरे लल्लू, तू भी न... बस्स! अरे वह लूट नहीं, लूट का मतलब है बढ़िया शेर सुनाकर वाहवाही लूट लेना।

लल्लू: तो उन्हें पहले से लिखना नहीं आता है क्या?

साहब: न, बिल्कुल नहीं आता। अव्वल दर्ज़े के धामड़ हैं, सब के सब।

लल्लू: लेकिन मालिक... आप तौ उनकी बात सुनकर वाह-वाह, जय हो, गज्जब, सुभानल्ला ऐसे कहते हैं जैसे उन्हें बहुत अच्छा लिखना पहले से आता हो।

साहब: तारीफ़ करता हूँ, तभी तो ये प्यादे मुझे गुरु मानते हैं। लिखना सिखा दूंगा तो मुझ से ही सीखकर मुझे ही सिखाने लगेंगे, बुद्धू।


[समाप्त]

Friday, January 11, 2019

दोस्त - द्विपदी

- अनुराग शर्मा


अपने नसीब में नहीं क्यों दोस्ती का नूर।
मिलते नहीं क्यों रहते हो इतने दूर-दूर॥

समझा था मुझे कोई न पहचान सकेगा।
यह होता कैसे दोस्त मेरे हैं बड़े मशहूर

सोचा था मुलाक़ात होगी दोस्तों के साथ।
मसरूफ़ रहे वर्ना मिलने आते वे ज़रूर॥

हम चाहते थे चार पल दोस्तों के साथ।
वह भी न हुआ दोस्त मेरे हो गये मगरूर॥

सोचा था बचपने के फिर साथी मिलेंगे।
ये हो न सका दोस्त मेरे हैं खट्टे अंगूर॥

दो पल न बिताये न जिलायी पुरानी याद।
तिनका था मैं,  दोस्त मेरे थे सभी खजूर॥

Tuesday, January 1, 2019

काव्य: संवाद रहे

अनुराग शर्मा 

नश्वरता की याद रहे
जारी अनहदनाद रहे

मन भर जाये दुनिया से
कोई न फ़रियाद रहे

पिंजरा टूटे पिञ्जर का
पक्षी यह आज़ाद रहे

न हिचके झुकने में, उनके
जीवन में आह्लाद रहे

कभी सीखने में न चूके
वे सबके उस्ताद रहे

जितनों की सेवा संभव हो
बस उतनी तादाद रहे

भूखे पेट न जाये कोई
और भोजन में स्वाद रहे

अहं कभी न जकड़ सके
कोई उन्माद रहे

कड़वी तीखी बातें भूलें
खट्टी मीठी याद रहे

कभी रूठ जायें वे
चलता सब संवाद रहे

घर से छूटे जिनकी खातिर
घर उनका आबाद रहे॥


नव वर्ष 2019 की मंगलकामनाएँ

Sunday, November 4, 2018

व्यथा कथा - एक गीत

(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

ज़िंदगी की रैट-रेस में, जीवन की गलाकाट प्रतियोगिता में हम बहुत कुछ इकट्ठा करते हैं, बिना यह समझे कि एक बिंदु पर पहुँचकर समस्त संसार निस्सार लगने लगता है। इसी भाव को व्यक्त करता एक गीत -   

जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की

हाथ से बालू फिसले ऐसे वक़्त गुज़रता जाता है
बचपन बीता यौवन छूटा तेज़ बुढ़ापा आता है
जल की मीन को है आतुरता जाल में जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।

सपने छूटे, अपने रूठे, गली गाँव सब दूर हुए
कल तक थे जो जग के मालिक मिलने से मजबूर हुए
बुद्धि कितनी जुगत लगाए मन भरमाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की

छप्पन भोग से पेट भरे यह मन न भरता है
भटक-भटक कर यहाँ वहाँ चित्त खूब विचरता है
लोभ सँवरता न कोई सीमा है हथियाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की

मुक्त नहीं हूँ मायाजाल मेरा मन खींचे है
जितना छोड़ूँ उतना ही यह मुझको भींचे है
जीवन की ये गलियाँ फिर-फिर आने-जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की

भारी कदम कहाँ उठते हैं, गुज़रे रस्ते कब मुड़ते हैं
तंद्रा नहीं स्वप्न न कोई, छोर पलक के कम जुड़ते हैं
कोई खास वजह न दिखती नींद न आने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की

जीवन एक व्यथा है सब कुछ छूटते जाने की ...

Tuesday, October 2, 2018

लघुकथा: तर्पण


गंगा घाट के निकट उसे मेहनत से मसूर के खेत में पानी देते देखकर दिल्ली से आये पर्यटक से रहा न गया। पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “कितनी फसल होती है तुम्हारे खेत में?”

“यह मेरा खेत नहीं है।”

“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”

“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”

“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”

“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”

“हैं!?”

“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”

Anurag Sharma

Monday, September 3, 2018

कहानी: सत्याभास

आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]खंड [2]खंड [3]खंड [4]खंड [5]खंड [6]; खंड [7]और अब आज की कड़ी में, एक कहानी

वीरान जगह पर बने उस पुराने महलनुमा घर के विशाल आंगन में पड़ी चारपाई पर दुखी सा बैठा हुआ मैं सोच रहा था कि यूरोप के इस अनजान पहाड़ी जंगल के बीचोंबीच स्थित ऐसी भुतहा सी जगह में घर लेने की बात मैंने सोची ही क्यों। और अगर सोची भी तो घर देखे बिना ही बात नक्की क्यों कर दी। चूंकि इस घर की हमारी खरीद इसे देखे बिना ही ऑनलाइन तथा फ़ोन पर हुई थी इसलिये हमारी प्रॉपर्टी एजेंट आज यहाँ आकर हमें अपने इस नये खरीदे ऐतिहासिक भवन का टूर कराने वाली थी।

थकाने वाली कठिन यात्रा करके मैं सपत्नीक यहाँ पहुँचा था। पास के नगर में रहने वाले पुराने पर्वतारोही मित्र को पहले ही संदेश देकर यहाँ बुला लिया था। प्रॉपर्टी एजेंट का इंतज़ार करते-करते पत्नी को तो नींद भी आ गई थी सो वे अंदर जाकर सो गई थीं और मैं मित्र के साथ पीली पुती पुरानी दीवारों से घिरे आंगन के एक कोने में पड़ी मूंज की चारपाई पर बैठा बात कर रहा था। मित्र उस क्षेत्र का इतिहास बता रहा था। एक रेखाचित्र दिखाकर उसने समझाया कि प्राचीनकाल में किस प्रकार सेना विपक्षी किले से ऊपर की पहाड़ियों से मलमूत्र के ढेर बहाना शुरू करती थी। गंदगी आती देख किले के सैनिक ऊपर के पहाड़ी स्रोत से किले को आते पेयजल की आपूर्ति दूषित होने से बचाने जाते थे और वहाँ पहले से ही रणनीतिक ठिकानों पर छिपे शत्रुपक्ष द्वारा घेरकर मार दिये जाते थे।

झुटपुटा होने लगा है। घर में बिजली नहीं है। बड़े से आंगन के एक तरफ़ घर का बरामदा और फिर उसके पीछे बहुत से कमरे हैं। उस बरामदे के विपरीत दिशा में बाहर का दरवाज़ा और चबूतरे से नीचे उतरती हुई सीढ़ियाँ हैं। जंगली रात की नीरव शांति में वहीं दूर नीचे से इस मकान की एजेंट की आवाज़ सुनाई देती है। अभी वह दिखती नहीं है। उसकी आवाज़ सुनते ही कुछ सकपकाया सा मित्र बड़ी जल्दबाज़ी में मुझसे विदा लेकर लगभग भागता हुआ सा घर से बाहर निकल जाता है।

उसकी इस हरकत से आश्चर्यचकित मैं, अपने वर्तमान घर की गरमाहट याद करके सोचता हूँ कि अच्छा-भला घर होने के बावजूद ऐसे बेहूदे घर के लिये हमने हाँ की ही क्यों? आंगन की शेष दो दिशाओं में बिना दरवाज़ों के अनेक प्राचीन दर हैं, बारादरियों जैसे, जिनकी गहराई का अंधेरे के कारण मुझे अंदाज़ नहीं लग पा रहा। मेरी सतर्क बुद्धि उन्हें सुरक्षा का खतरा मानकर मन ही मन यह तय कर रही है कि सुबह उठते ही मेरा पहला काम उन्हें बंद कराने का होना चाहिये।

प्रॉपर्टी एजेंट भीतर आ गई है। उससे फ़ोन पर पहले बात हो चुकी है लेकिन भेंट का यह पहला अवसर होगा। अंधेरे में उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता, तो भी उसका बड़ा अजीब सा चश्मा और एक मर्दाना सा विग उसे रहस्यमयी बना रहा है। मेरे शक़्क़ी दिल को ऐसा लगता है जैसे वह अपनी पहचान छिपाने का प्रयास कर रही हो। पत्नी उसके स्वागत में बरामदे से बाहर आती है। पत्नी उससे इस जगह और घर के वीरान होने की शिकायत करती है तो वह पत्नी को समझाती है कि इस घर में हैलोवीन के पर्व पर ‘स्पूकी नाइट’ का खेल मज़े से खेला जा सकता है। एजेंट पत्नी को अपने फ़ोन पर इन्स्टाल्ड स्पूकी ऐप दिखाती है जिसे त्रिविमीय प्रोजेक्टर से जोड़ा जा सकता है। वे दोनों बातें करने लगते हैं। मैं उसकी बात सुनना तो चाहता हूँ लेकिन दिन भर की यात्रा और काम की थकान के कारण मुझे बहुत नींद आ रही है। न चाहते हुए भी सर भारी हो रहा है और आँखें मुंदने लगी हैं। लेकिन एजेंट द्वारा चलाई जा रही ‘स्पूकी ऐप’ की दर्दनाक और भयावह आवाज़ें सुन पा रहा हूँ। पत्नी की आवाज़ सुनाई देती है, “अरे ये सब तो एकदम सचमुच के भूत जैसे लग रहे हैं। आभासी होकर भी इतने वास्तविक!” मैं आँख खोलकर देखने की कोशिश करता हूँ लेकिन तब तक एप्प बंद हो चुकी है। मैं एजेंट को एक बार फिर से ऐप चलाने को कहता हूँ, ताकि मैं ठीक से देख और समझ सकूँ लेकिन वह कहती है कि एक प्रीव्यू चल चुकने के बाद अब इसे खरीदने के बाद ही चलाया जा सकता है। वह पत्नी को ऐप की खरीद के सारे डिटेल दे देती है।

एजेंट ने पत्नी को घर का नक्शा दिखाया। नक्शा देखकर पत्नी कहने लगी कि जब इस जंगल में जगह की कोई कमी नहीं थी तो फिर ठीक कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने की क्या ज़रूरत थी? यह सुनते ही मैंने नक्शा अपने हाथ में लेकर ध्यान से देखा। उसमें घर के ठीक नीचे एक के ऊपर एक सैकड़ों कब्रों की कई परतें बनी हुई दिखाई दीं। मुझे लगा कि यह तो बुरे फँसे। मैंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन एजेंट ने कुछ ऐसी नज़रों से मुझे देखा कि तीन-चार बार प्रयास करने पर भी किसी भयावह सपने की तरह मेरे सूखे गले से आवाज़ बाहर नहीं आ सकी। एजेंट को इशारे से घर दिखाने को कहा तो वह मुख्य भवन के बरामदे और बेडरूम की ओर जाने के बजाय उजाड़ बारादरी की ओर चल पड़ी। घर में बिजली नहीं थी। रात भी या तो कृष्णपक्ष की थी या फिर आकाश में घने बादल थे। हम तीनों में किसी के पास भी कोई टॉर्च या लैम्प आदि नहीं था लेकिन फिर भी किसी हल्की सी रोशनी में कुछ दूर तक का दिखाई दे रहा था।

पत्नी अब वहाँ नहीं है, मैं इधर-उधर देखता हूँ और उसे पास न पाकर उसके बारे में एजेंट से पूछना चाहता हूँ। लेकिन उसने अपने ठण्डे, हड़ियल हाथ से मेरी कलाई कुछ ऐसे पकड़ ली है कि मैं कुछ कह नहीं पाता। वह मेरे साथ चल रही है लेकिन मैं उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे पूछे बिना ही वह समझ जाती है कि मैं उसके अदृश्य होने का कारण जानना चाहता हूँ। तब वह मेरे सर से चिपका तकिया दिखाती है जो उसके लिये मेरी दृष्टिबाधा बन रहा था। तकिये पर ध्यान जाते ही मुझे लगता है जैसे मैं तब नींद में ही था और सोते-सोते, तकिये पर सिर रखे हुए ही उसके साथ चल रहा था।

बीच में कई भयावह बातें हुईं, जिनका ज़िक्र यहाँ निरर्थक है। मैं इस विषय में पत्नी से कुछ बात करना चाहता था पर वह तब भी मुझे नहीं दिखी। शायद वह मुख्य भवन में, बरामदे के पीछे वाले कमरों के अंदर ही कहीं थी। एजेंट ने घर की एक दीवार दिखाते हुए उस पर पुते रंग का कोई अंग्रेज़ी या लैटिन नाम बताया। स्पष्ट कर दूँ कि उस परदेस में हम लोगों की समस्त वार्ता अंग्रेज़ी में ही चल रही थी। घुप्प अंधेरे में मुझे न तो दीवार ठीक से दिखी, और न ही अंग्रेज़ी में कहा वह रंग समझ आया। मैं उससे उस रंग के नाम का अर्थ पूछता हूँ तो हिंदी का वाक्य सुनाई दिया, 'अरे बैंगनी रंग, और क्या?' मैं अचम्भित हो उठा कि एक अनजान देश में अनजान जाति की महिला अचानक स्पष्ट हिंदी कैसे बोलने लगी। तब मैंने चौकन्ने होकर पूछा, “यह कौन बोला? हिंदी में किसने कहा?” तभी अचानक से सामने दिखने लगी एक सुंदर युवती ने कहा, “आई वर्क्ड विथ एन इंडियन फैमिली। वे बेंगाली थे, मैंने वहीं हिंदी सीखी।" सब कुछ स्पष्ट सा दिखने लगा। रोशनी का स्रोत कहीं नहीं दिखा लेकिन देखा कि वहाँ सब कुछ हल्का सा प्रकाशित था। कुछ कमरे थे, और उन कमरों के आगे और भी कमरे थे, शायद बुरी तरह पकी काली ककैया ईंट के। लड़की के पास ही एक और लड़की खड़ी थी, इस लड़की से थो‌ड़ी सी बड़ी। छोटी लड़की ने बड़ी लड़की को इंगित करके कहा, “इसी ने मेरा खून कर दिया था।”

अब मुझे स्पष्ट होने लगता है कि मैं किसी गड़बड़झाले में फँस चुका हूँ। प्रॉपर्टी एजेंट सहित वे सभी शायद भूत थे। दृष्टि कुछ और साफ़ हुई है। आगे के कमरों में काले सूट-बूट, चिमनी हैट और सफ़ेद दस्ताने पहने कई लोग स्ट्रेचर जैसे लेकर जा रहे हैं। उनका केवल चेहरा खुला है। चेहरा आम इंसानों जैसा न होकर अस्थिमात्र है। हम उनसे कुछ इस तरह घिर गये हैं कि उनके साथ ही चलना पड़ रहा है। वे अचानक दीवार में बने खुले दरवाज़े से बाहर निकलकर दरवाज़े के बाहर दीवार से लगी बिना रेलिंग की खुली सीढ़ियों से चलकर कई मंज़िल नीचे बने खुले बड़े आंगन, या अंटिया की ओर जाने लगते हैं। कुछ लोग हमारे आगे हैं कुछ पीछे।

मैं उनकी असलियत जानने को उत्सुक हूँ। एक बार साहस करके उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिये ‘हरि ॐ’ कहता हूँ तो मेरे आगे वाला व्यक्ति अपना मुख मेरी ओर मोड़कर बिना सामने देखे आराम से सीढ़ी उतरते हुए मुँह पर उंगली रखकर श्श्श कहकर मुझे कुछ दिखाते हुए कहता है, “आवाज़ से उनके ध्यान में बाधा पहुँचेगी।” मैं देखता हूँ कि हर सीढ़ी के समांतर, हवा में ही लामाओं की तरह पद्मासन में बैठे हुए कई कंकाल, काले कपड़ों में ऐसे लिपटे हुए हैं कि उनकी केवल खोपड़ी दिख रही है हैं। मेरी आवाज़ सुनकर उनमें से कई अपना-अपना मुँह घुमाकर मेरी ओर करते हैं और अपनी तरेरने वाली नज़र से आँखों के गड्ढे मुझ पर केंद्रित कर देते हैं। उनकी नज़रों की उपेक्षा कर मैंने एक बार और अधिक ज़ोर से ‘हरि ॐ’ कहा, और मेरी नींद खुल गयी।

हे भगवान, यह कैसा स्वप्न था। अब मैं आभासी जगत से वापस यथार्थ में आ तो गया था लेकिन आँखें जल रही थीं, खोलने में भी कठिनाई हो रही थी। मैं मुँह धोने के लिये स्नानागार में जाता हूँ। बत्ती जलाकर शीशे में देखता हूँ तो मेरे कंधे के पीछे से कोई मुस्कुराता हुआ दिखता है। मेरे ठीक पीछे हवा में टंगा हुआ कंकाल काले कपड़ों में पद्मासन लगाये हुए ही, मुझे देखकर हँसता है।

“तुम कौन हो?” मैं कहना चाहता हूँ, परंतु आवाज़ नहीं निकलती। गला घुट सा गया है। चिल्लाता हूँ तो हाथ मसहरी के हैडबोर्ड से टकराता है। अब मैं सचमुच जग गया हूँ, तकिया मेरी गर्दन से चिपका हुआ है। और पसीने से लथपथ अपने बिस्तर पर पड़ा हूँ। पंखा चल रहा है लेकिन हवा मुझ तक नहीं आ रही। पंखे से उल्टा लटका हुआ कंकाल मुझे एकटक देख रहा है।

Wednesday, August 22, 2018

रोशनाई - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)

रात अपनी सुबह परायी हुई
धुल के स्याही भी रोशनाई हुई

उनके आगे नहीं खुले ये लब
रात-दिन बात थी दोहराई हुई

आज भी बात उनसे हो न सकी
चिट्ठी भेजी हैं,  पाती आई हुई  

कवि होना सरल नहीं समझो
कहा दोहा,  सुना चौपाई हुई

खुद न होते न तुमसे मिलते हम
ऐसी हमसे न आशनाई हुई॥



Friday, July 27, 2018

आदमी (ग़ज़ल)

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)

आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है।

ज़िंदगी है जब तलक उम्मीद भी कैसे मिटे
चार कंधों के लिये तो भारी तामझाम है।

काली घटा छाई हुई उस पे अंधेरा पाख है
रात ही बाकी है इसकी सुबह है न शाम है।

तारे हैं गर्दिश में और चाँद पे छाया गहन
धूप से चुंधियाते दीदों को मिला आराम है।

अश्व हो आरोही या, तृष्णा कभी जाती नहीं
घास भी मिलती नहीं पर चाहता बादाम है।

सात पीढ़ी को सँवारे दौड़ाभागी में जुटा
दो घड़ी का हो बसेरा, इतना इंतज़ाम है।

वीतरागी होने का, उपदेश डाकू दे रहे
बोलबाला झूठ का, सच अभी गुमनाम है।

बेईमानी का सफ़र, पूरा नहीं जिसका हुआ
वह डकैती का सभी पर थोपता इल्जाम है।

अपराध अपना हो भले पर दोष दूजे को ही दें
बच्चे बगल में छिप गये, नगर में कोहराम है।

हाशिये पर कर दिये निर्देश जिनसे लेना था
रहनुमा कारा गये जब पातकी हुक्काम है।

पाप पहले भी हुए अफ़सोस उनका लाज़मी
पर आगे भी होते रहेंगे क्यों नहीं विश्राम है?

निस्सार है संसार इसमें अर्थ सारा व्यर्थ है
एक बेघर* ही यहाँ हर गाँव का खैयाम है।

प्रात से हर रात तक भागना है बदहवास
ज़िंदगी के द्वीप की यह यात्रा अविराम है।

यात्रा लम्बी रही और फिर स्थानक आ गया 
बस गये जो भस्म में उनको मिला आराम है।

* अनिकेत

Sunday, July 15, 2018

हल - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

प्लास्टिक और पॉलीथीन के खिलाफ़ आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि प्रशासन को यह समस्या हल करने के लिये आपातकालीन सभा बुलानी पड़ी। दो-चार पदाधिकारी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और बलप्रयोग के पक्ष में थे लेकिन अन्य सभी समस्या को गम्भीर मानते हुए एक वास्तविक हल चाहते थे।

“पूर्ण प्रतिबंध” गहन विमर्श के बाद सभा के अध्यक्ष ने कहा। अधिकांश सदस्यों ने सहमति में तालियाँ बजाईं।

“पॉलीथीन के बिना सामान दुकान से घर तक कैसे आयेगा?” एक असंतुष्ट ने पूछा।

“बेंत की कण्डी, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े और कपड़े के थैलों में” किसी ने सुझाया।

“खाना पकाने के लिये घी-तेल भी तो चाहिये, वह?”

“घर से शीशे की बोतल लेकर जाइये।”

“एक घर से कोई कितनी बोतलें लेकर जा पायेगा? एक पानी की, एक सरसों के तेल की, एक नारियल के तेल की, एक सिरके की, एक ...” एक सदस्या ने आपत्ति की

“तो तेल-सिरके को भी बैन करना पड़ेगा। दूध लेकर आइये और उसी से घर पर घी बनाइये।” उत्तर तैयार था।

“... दूध? लेकिन सरकारी डेयरी का दूध भी तो पॉलीथीन के पाउच में ही आता है!”

“तो हम दूध को भी बैन कर देंगे।”

“लेकिन, उससे तो बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ...”

“स्वास्थ्य के लिये दूध छोड़कर अण्डे खाइये न, वे तो दफ़्ती के डब्बों में भी मिलते हैं।”

रात बढ़ती गई, बात बढ़ती गई, प्रतिबंधित सामग्री की सूची भी बढ़ती गई।

अगले दिन अखबार में खबर छपी कि तुरंत प्रभाव से राज्य के बाज़ारों में दूध, और घरों में रसोईघर प्रतिबंधित कर दिये गये हैं। समाचार से यह तथ्य ग़ायब था कि प्रशासनिक परिषद के एक प्रमुख सदस्य राज्य ढाबा संघ के पदाधिकारी थे और दूसरे अण्डा उत्पादक समिति के।

[समाप्त]

Tuesday, February 13, 2018

कविता: चले गये ...

(अनुराग शर्मा)

अनजानी राह में
जीवन प्रवाह में
बहते चले गये

आपके प्रताप से
दूर अपने आप से
रहते चले गये

आप पे था वक़्त कम
किस्से खुद ही से हम
कहते चले गये

सहर की रही उम्मीद
बनते रहे शहीद
सहते चले गये

माया है यह संसार
न कोई सहारा यार
ढहते चले गये ...

Tuesday, November 22, 2016

स्वप्न - एक कविता

ये स्वप्न कहाँ ले जाते हैं
ये स्वप्न कहाँ ले जाते हैं

सच्चे से लगते कभी कभी
ये पुलाव खयाली पकाते है

सपने मनमौजी होते हैं
कोई नियम समझ न पाते हैं

ज्ञानी का ज्ञान धरा रहता
अपने मन की कर जाते हैं

सब कुछ कभी लुटा देते
सर्वस्व कभी दे जाते हैं

ये स्वप्न कहाँ से आते हैं
ये स्वप्न कहाँ से आते हैं

पिट्सबर्ग की एक सपनीली सुबह



Thursday, November 10, 2016

मोड़ - लघुकथा

चित्र: अनुराग शर्मा
लाइसेंस भी नहीं मिला और एक दिन की छुट्टी फिर से बेकार हो गई। एक बार पहले भी उसके साथ यही हो चुका है। परिवहन विभाग का दफ़्तर घर से दूर है। आने-जाने में ही इतना समय लग जाता है। उस पर इतनी भीड़ और फिर दफ़्तर के बाबूजी के नखरे। अभी किसी से बात कर रहे हैं, अब खाने का वक़्त हो गया, अभी आये नहीं हैं, आदि।

पिछली बार के टेस्ट में इसलिये फ़ेल कर दिया था कि उसने स्कूटर मोड़ते समय इंडिकेटर दे दिया था, तब बोले कि हाथ देना चाहिये था। इस बार उसने हाथ दिया तो कहते हैं कि इंडिकेटर देना चाहिये था।

भुनभुनाता हुआ बाहर आ रहा था कि एक आदमी ने उसे रोक लिया, "लाइसेंस चाहिये? लाइसेंस?"

उसने ध्यान से देखा, आदमी के सर के ठीक ऊपर दीवार पर लिखा था, "दलालों से सावधान।"

"नहीं, नहीं, मुझे लाइसेंस नहीं चाहिये ... "

"तो क्या यहाँ सब्ज़ी खरीदने आए थे? अरे यहाँ जो भी आता है उसे लाइसेंस ही चाहिये, चलो मैं दिलाता हूँ।"

कुछ ही देर में वह मुस्कुराता हुआ बाहर जा रहा था। उसे पता चल गया था कि मुड़ते समय न हाथ देना होता है न इंडिकेटर, सिर्फ़ रिश्वत देना होता है।


(अनुराग शर्मा

Tuesday, October 25, 2016

अनंत से अनंत तक - कविता

(अनुराग शर्मा)

जीवन क्या है एक तमाशा
थोड़ी आशा खूब निराशा

सब लीला है सब माया है
कुछ खोया है कुछ पाया है

न कुछ आगे न कुछ पीछे
कुछ ऊपर ही न कुछ नीचे

जो चाहे वो अब सुन कहले
उस बिन्दु से न कुछ पहले

उस बिन्दु के बाद नहीं कुछ
होगा भी तो याद नहीं कुछ

जो कुछ है वह सभी यहीं है
जितना सुधरे वही सही है.
सेतु हिंदी काव्य प्रतियोगिता में आपका स्वागत है, संशोधित अंतिम तिथि: 10 नवम्बर, 2016

Tuesday, September 13, 2016

ये दुनिया अगर - कविता

(अनुराग शर्मा)

बारूद उगाते हैं बसी थी जहाँ केसर
मैं चुप खड़ा कब्ज़े में है उनके मेरा घर

कैसे भला किससे कहूँ मैं जान न पाऊँ
दे न सकूँ आवाज़ मुझे जान का है डर

नक्सल कहीं माओ कहीं बैठे हैं जेहादी
कंधे बड़े लेकिन नहीं दीखे है कहीं सर

कोई अमल होता नहीं बेबस हुआ हाकिम
दर पे तेरे पटक के ये सर जायेंगे हम मर

बदलाव कभी आ नहीं सकता है वहाँ पे
परचम बगावत का हुआ चोरी जहाँ पर

Wednesday, September 7, 2016

शाब्दिक हिंसा - मत करो (कविता)

लोग अक्सर शाब्दिक हिंसा की बात करते हुए उसे वास्तविक हिंसा के समान ठहराते हैं. फ़ेसबुक पर एक ऐसी ही पोस्ट देखकर निम्न उद्गार सामने आये. शब्दों को ठोकपीट कर कविता का स्वरूप देने के लिये सलिल वर्मा जी का आभार. (अनुराग शर्मा)

मत करो
मत करो तुलना
कलम-तलवार में
और समता
शब्द और हथियार में
ताण्डव करते हुये हथियार हैं
शब्द पीड़ा-शमन को तैयार हैं

कुछ बुराई कर सके
अपशब्द माना
वह भी तभी जब
मैं समझ पाऊँ
गिरी भाषा तुम्हारी
और निर्बलता मेरी
आहत मुझे कर दे ज़रा
कुछ भी कहो
सामान्यतः
हर शब्द ने है
दर्द अक्सर ही हरा

लेकिन तुम्हारी
आईईडी, बम, और बरसती गोलियाँ
इनसे भला किसका हुआ
हर कोई बस है मरा
नारी-पुरुष, आबाल-वृद्ध
कोई नहीं है बच सका
जो सामने आया
वही जाँ से गया

शब्द और हथियार की तुलना
तो केवल बचपने की बात है
ध्यान से सोचें तनिक तो
ये किन्हीं हिंसक दलों की
इक गुरिल्ला घात है

इनके कहे पर मत चलो तुम
वाद या मज़हब,
किसी भी बात पर
इनका हुकुम मानो नहीं तुम
छोड़कर हिंसा को ही
संसार यह आगे बढ़ा है
नर्क तल में और हिम ऊपर चढ़ा है
बस चेष्टा इतनी करो
हिंसा से तुम बचकर रहो
जब भी कहो, जैसा कहो, बस सच कहो
और धैर्य धर सच को सहो

शब्द से उपचार भी सम्भव है जग में
प्रेम तो नि:शब्द भी करता है अक्सर
फिर भला नि:शस्त्र होना
हो नहीं सकता है क्यों
पहला कदम इंसानियत के नाम पर
कर जोड़कर
कर लो नमन, हथियार छोड़ो
अग्नि हिंसा की बुझाने के लिये तुम
आज इस पर बस ज़रा सा प्रेम छोड़ो!