नोट: आज यह पोस्ट लिखते समय कठिनाई हुई, फिर ईमेल में सस्पिशस ऐक्टिविटी की चेतावनी मिली। सुरक्षा सम्बन्धी समुचित कदम उठाने के बाद अब पोस्ट लिख पा रहा हूँ। यदि वर्तनी या व्याकरण आदि की कुछ ग़लतियाँ होंगी तो बाद में ठीक कर दूंगा। पहले भी कई बार कुछ पोस्ट्स ब्लैंक हो चुकी हैं परंतु अधिकांश बाद में रिकवर की जा सकी थीं। फ़िकर नास्त, अल्लाह मेहरबान अस्त!
अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14; भाग 15; भाग 16; भाग 17; भाग 18;
"बीर को भी पसन्द आ गये शायद। देख, ठंडाई भी न पी इसने तो।" फ़तहसिंह खुश था।
"एक मिनट" वीर जो देखना चाह रहे थे, वह रेस्त्राँ की गोलाई के कारण अब तक पक्का नहीं हो पाया था। उन्हें अनजान लोगों को घूरना पसन्द नहीं था इसलिये उस समय सच उनसे कुछ हद तक ओझल सा था। और तभी उसने मेनू किनारे रखते हुए चेहरा ऊपर उठाया। दोनों की आँखें चार हुईं। फिर उसने सिर झुका लिया। वीर को अपने भाग्य पर विश्वास न हुआ। उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। एक-एक क्षणांश भी मानो कई युगों के बराबर हो गया।
सब कुछ भूलकर वे उठे और सीधे उस मेज़ पर जाकर रुके।
"हाय, कैसी हो?" उनकी प्रसन्नता आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, "यक़ीन नहीं करोगी कि इतने दिन बाद आज तुम्हें अचानक सामने पाकर मैं कितना खुश हूँ।"
अपनी अप्सरा के सामीप्य ने मानो उन्हें ज़मीन से उठाकर आसमान में पहुँचा दिया था।
झरना ने नज़रें उठाकर उन्हें भरपूर देखा, "हू आर यू? व्हाट डू यू वांट?"
उसके साथ बैठे चारों लोगों ने वीर को प्रश्नवाचक नज़र से देखा।
"परी ... अप्सरा ... झरना ..." इस अप्रत्याशित मोड़ को देखकर वीर भौंचक्के से रह गये। मानो किसी ने उनकी गर्दन मरोड़ दी हो। उनका शरीर बेजान सा हो गया, गला सूखने लगा। फिर भी साहस करके बोले, "नई सराय, बरेली, वासिफ़ खाँ, ज़रीना खानम ..."
"कहा न, मैं आपको नहीं जानती" उसने नज़रें नीची कर लीं और साथ रखा हुआ मेनू उठाकर उसे पढने का उपक्रम किया।
"वीर ... याद करो ... वीर हूँ मैं, नाराज़ हो मुझसे?"
"कौन वीर? मैं किसी वीर को नहीं जानती।"
"एए मिस्टर ..." साथ के लड़के ने वीर की कलाई पकड़ी।
ईर और फ़त्ते भी कुछ गड़बड़ी भाँपकर वहाँ आ गये थे। फ़त्ते को देखकर उस लड़के ने वीर का हाथ छोड़ दिया
"मैं वीरसिंह हूँ, तुम्हारा अपना वीर। लिसन झरना, आयम सॉरी ..." वीर रूँआसे हो उठे, "मैं तुम्हारा दोषी हूँ, जो सज़ा चाहे दे दो। उफ़ नहीं करूँगा!"
"लैट्स गो गाईज़" उनकी बात का जवाब दिये बिना वह उठी।
"तुम्हें क्या हो गया है झरना?" कहकर वीर उसके सामने आ गये लेकिन फ़त्ते ने दृढता से उन्हें पकड़कर झरना को जाने का रास्ता दिया। वीर देखते ही रह गये और झरना बाहर निकल गयी। झरना के साथी भी उसके पीछे-पीछे चले गये।
वे देखते रहे, उन कदमों को जो सदा उनकी ओर बढ़ा करते थे, आज कितनी बेदर्दी से उनसे दूर चले गये। सब कुछ जैसे बिखर गया हो। क्या चाहते थे वे? क्षमायाचना? या उससे अलग कुछ और। वे अपने नसीब से लड़ते क्यों रहे। जब झरना पास आना चाहती थी तब वे दूर भागते रहे और आज जब वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं तब यह सब क्या हो रहा है? यदि फ़त्ते उन्हें कसकर पकड़े न होता तो वे किसी की परवाह किये बिना पीछे-पीछे दौड़ गये होते।
"वही है। अच्छी तरह से पहचानती है मुझे। नाराज़ है बस।" अंतिम वाक्य बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से बाहर निकल सका। जिस सपने के लिये वे अब तक ज़िन्दा थे आज मानो टूट सा गया था। पल भर में उनका सब कुछ बिखर चुका था। सम्बन्ध तो शायद बनने से पहले ही टूट चुका था परंतु आज उसे फिर से जोड़ने के प्रयास में वे स्वयं भी टूट चुके थे।
"जानता हूँ भाई, सब जानता हूँ। फिकर मत ना कर। जल्दी ही सब ठीक होगा। तू रुक तो सही, बस दो चार दिन" फ़त्ते ने दिलासा दी, "हम मिलायेंगे तुम दोनों को। वो तेरी है, तेरी ही रहेगी। भरोसा रख इस देहाती पर।"
वेटर ने पास आकर याद दिलाया कि ऑर्डर सर्व हो गया था। पर वहाँ भूख किसको थी। फ़त्ते ने ज़बर्दस्ती सी करके वीर को खिलाया। सदा शांत रहने वाला अरविन्द भी बेचैन सा लग रहा था। जितना सम्भव हुआ उतना खाकर प्लेटें हटवाकर भी वे काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। वीर लगातार झरना के बारे में कोई न कोई बात याद करके बोलते रहे और बाकी दोनों चुपचाप सुनते रहे।
कार्यक्रम का समय होने पर तीनों वहाँ पहुँचे। सबसे आगे तो नहीं, पर उनकी सीट स्टेज के इतना पास थी कि वे जगजीत सिंह के हाव-भाव स्पष्ट देख सकते थे। ईर व फ़तह उनके आजू-बाज़ू बैठे। पहले तो वे अपने ही ख्यालों में खोये अपने को यह विश्वास दिलाते रहे कि कुछ देर पहले जो हुआ वह सपना नहीं सच था। कार्यक्रम आरम्भ हुआ, अब हर ग़ज़ल उन्हें अपनी और झरना की कहानी लग रही थी।
[क्रमशः]
अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14; भाग 15; भाग 16; भाग 17; भाग 18;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ किसी को देखा।
अब आगे भाग 19 ...
"बीर को भी पसन्द आ गये शायद। देख, ठंडाई भी न पी इसने तो।" फ़तहसिंह खुश था।
"एक मिनट" वीर जो देखना चाह रहे थे, वह रेस्त्राँ की गोलाई के कारण अब तक पक्का नहीं हो पाया था। उन्हें अनजान लोगों को घूरना पसन्द नहीं था इसलिये उस समय सच उनसे कुछ हद तक ओझल सा था। और तभी उसने मेनू किनारे रखते हुए चेहरा ऊपर उठाया। दोनों की आँखें चार हुईं। फिर उसने सिर झुका लिया। वीर को अपने भाग्य पर विश्वास न हुआ। उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। एक-एक क्षणांश भी मानो कई युगों के बराबर हो गया।
सब कुछ भूलकर वे उठे और सीधे उस मेज़ पर जाकर रुके।
"हाय, कैसी हो?" उनकी प्रसन्नता आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, "यक़ीन नहीं करोगी कि इतने दिन बाद आज तुम्हें अचानक सामने पाकर मैं कितना खुश हूँ।"
अपनी अप्सरा के सामीप्य ने मानो उन्हें ज़मीन से उठाकर आसमान में पहुँचा दिया था।
झरना ने नज़रें उठाकर उन्हें भरपूर देखा, "हू आर यू? व्हाट डू यू वांट?"
उसके साथ बैठे चारों लोगों ने वीर को प्रश्नवाचक नज़र से देखा।
"परी ... अप्सरा ... झरना ..." इस अप्रत्याशित मोड़ को देखकर वीर भौंचक्के से रह गये। मानो किसी ने उनकी गर्दन मरोड़ दी हो। उनका शरीर बेजान सा हो गया, गला सूखने लगा। फिर भी साहस करके बोले, "नई सराय, बरेली, वासिफ़ खाँ, ज़रीना खानम ..."
"कहा न, मैं आपको नहीं जानती" उसने नज़रें नीची कर लीं और साथ रखा हुआ मेनू उठाकर उसे पढने का उपक्रम किया।
"वीर ... याद करो ... वीर हूँ मैं, नाराज़ हो मुझसे?"
"कौन वीर? मैं किसी वीर को नहीं जानती।"
"एए मिस्टर ..." साथ के लड़के ने वीर की कलाई पकड़ी।
ईर और फ़त्ते भी कुछ गड़बड़ी भाँपकर वहाँ आ गये थे। फ़त्ते को देखकर उस लड़के ने वीर का हाथ छोड़ दिया
"मैं वीरसिंह हूँ, तुम्हारा अपना वीर। लिसन झरना, आयम सॉरी ..." वीर रूँआसे हो उठे, "मैं तुम्हारा दोषी हूँ, जो सज़ा चाहे दे दो। उफ़ नहीं करूँगा!"
"लैट्स गो गाईज़" उनकी बात का जवाब दिये बिना वह उठी।
"तुम्हें क्या हो गया है झरना?" कहकर वीर उसके सामने आ गये लेकिन फ़त्ते ने दृढता से उन्हें पकड़कर झरना को जाने का रास्ता दिया। वीर देखते ही रह गये और झरना बाहर निकल गयी। झरना के साथी भी उसके पीछे-पीछे चले गये।
वे देखते रहे, उन कदमों को जो सदा उनकी ओर बढ़ा करते थे, आज कितनी बेदर्दी से उनसे दूर चले गये। सब कुछ जैसे बिखर गया हो। क्या चाहते थे वे? क्षमायाचना? या उससे अलग कुछ और। वे अपने नसीब से लड़ते क्यों रहे। जब झरना पास आना चाहती थी तब वे दूर भागते रहे और आज जब वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं तब यह सब क्या हो रहा है? यदि फ़त्ते उन्हें कसकर पकड़े न होता तो वे किसी की परवाह किये बिना पीछे-पीछे दौड़ गये होते।
"वही है। अच्छी तरह से पहचानती है मुझे। नाराज़ है बस।" अंतिम वाक्य बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से बाहर निकल सका। जिस सपने के लिये वे अब तक ज़िन्दा थे आज मानो टूट सा गया था। पल भर में उनका सब कुछ बिखर चुका था। सम्बन्ध तो शायद बनने से पहले ही टूट चुका था परंतु आज उसे फिर से जोड़ने के प्रयास में वे स्वयं भी टूट चुके थे।
"जानता हूँ भाई, सब जानता हूँ। फिकर मत ना कर। जल्दी ही सब ठीक होगा। तू रुक तो सही, बस दो चार दिन" फ़त्ते ने दिलासा दी, "हम मिलायेंगे तुम दोनों को। वो तेरी है, तेरी ही रहेगी। भरोसा रख इस देहाती पर।"
वेटर ने पास आकर याद दिलाया कि ऑर्डर सर्व हो गया था। पर वहाँ भूख किसको थी। फ़त्ते ने ज़बर्दस्ती सी करके वीर को खिलाया। सदा शांत रहने वाला अरविन्द भी बेचैन सा लग रहा था। जितना सम्भव हुआ उतना खाकर प्लेटें हटवाकर भी वे काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। वीर लगातार झरना के बारे में कोई न कोई बात याद करके बोलते रहे और बाकी दोनों चुपचाप सुनते रहे।
कार्यक्रम का समय होने पर तीनों वहाँ पहुँचे। सबसे आगे तो नहीं, पर उनकी सीट स्टेज के इतना पास थी कि वे जगजीत सिंह के हाव-भाव स्पष्ट देख सकते थे। ईर व फ़तह उनके आजू-बाज़ू बैठे। पहले तो वे अपने ही ख्यालों में खोये अपने को यह विश्वास दिलाते रहे कि कुछ देर पहले जो हुआ वह सपना नहीं सच था। कार्यक्रम आरम्भ हुआ, अब हर ग़ज़ल उन्हें अपनी और झरना की कहानी लग रही थी।
[क्रमशः]