Sunday, June 12, 2011

मेरे मन के द्वार - चित्रावली


दीनदयाल के द्वार न जात सो और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
श्री जदुनाथ से जाके हितू सो तिपन क्यों कन माँगत डोलै॥
~ भक्त नरोत्तमदास (1493-1545)

भारत, जापान, कैनैडा व अमेरिका से कुछ चुने हुए द्वार

पेंसिलवेनिया राज्य में व्रज मन्दिर का द्वार 

वृन्दावन धाम के एक मन्दिर का द्वार

वृन्दावन धाम

वृन्दावन धाम

उत्तरी अमेरिका से एक द्वार

हिम-धूसरित केम्ब्रिज में एक द्वार 

जापान में एक तोरी (तोरण द्वार) 

जापान के एक मन्दिर का द्वार

कमाकुरा के विशाल बुद्ध मन्दिर का सिंहद्वार

तोक्यो नगर में एक मन्दिर का द्वार 

बोस्टन का एक द्वार

स्वर्णिम द्वार

द्वार-युग्म

कब्रिस्तान - काल का द्वार

एक अनाथ द्वार

मोंट्रीयल का एक ऐतिहासिक द्वार

Dataganj-Budaun-India
मेरे गाँव का एक द्वार

India Gate -  इंडिया गेट
मेरे देश का एक गौरवमय द्वार

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

Friday, June 10, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 14

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13;
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पिछले अंक में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते।
अब आगे भाग 14 ...
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उस रात वीर ने पहली बार अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरा। अपने अन्दर छिपे बैठे कवि से यह उनका प्रथम परिचय था।
आंसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता
कोई आता


उनके अंतर के वैराग्य की अग्नि जितनी तेज़ी से प्रज्ज्वलित हो रही थी, वे उतनी ही बेचैनी से उसे संसार से, विशेषकर माँ से छिपाये रखना चाहते थे। इस प्रक्रिया में वे एक विरोधाभास को जन्म दे रहे थे। उन जैसा अंतर्मुखी व्यक्तित्व एक सामाजिक प्राणी में बदलता जा रहा था। उनकी मित्र मण्डली बढ़ती जा रही थी और पढ़ाई में रुचि कम होती जा रही थी। संगीत, फिल्म, साहित्य आदि में अचानक रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। गुरुदत्त की फ़िल्में हों या ग़ुलाम अली की गायी ग़ज़लें, इब्ने इंशा की कवितायें हों चाहे मन्नू भंडारी और उपेन्द्रनाथ अश्क़ की कहानियाँ, सबको समय दिया जा रहा था।

अब वे अपने अन्दर एक गुण और महसूसने लगे थे। रहा शायद पहले भी हो पर उसका बोध उन्हें इसी काल में हुआ। वह था अपने से निर्लिप्त होकर अपने को देख पाना। उन दिनों अगर उन्हें अपने खिलाफ किसी मुकदमे का निर्णय देना होता तो वे पूरी निर्ममता को सहजता से निभा जाते।

शायद वे बिल्कुल यही कर भी रहे थे। नई सराय प्रवास में दादाजी की मृत्यु एक दुखद घटना थी। परंतु उस एक घटना के अतिरिक्त तब उनकी हर इच्छा जादुई तरीके से पूरी हो रही थी। बरेली वापस आने पर भी हो बिल्कुल यही रहा था, अंतर केवल इतना था कि अब कोई इच्छा नहीं रही थी, केवल एक शून्य था। उन्हें लगता था कि वे अवसादग्रस्त थे, शायद सही भी हो। पर साथ ही उन्हें यह भी लगता था कि यदि जीवन का अर्थहीन और क्षणभंगुर होना उन्हें नापसन्द है तो भी इससे जीवन अपना तरीका तो नहीं बदलेगा। नतीज़ा फिर वही निकलता, जीवन में रस ढूंढने का प्रयास। मतलब और कविता, कहानी, गीत, फ़िल्म।

एक दिन उन्होंने सब्ज़ी वाले खालिद को माँ से कहते सुना, "आवारा लड़कों से दोस्ताना चल्लिया है आजकल। अभी समझा दीजिये वन्ना एक दिन हाथ से निकल्लेंगे।"

वीर ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन उस दिन उनका ध्यान अटका जब वे रोज़ की तरह रोज़ी को भौतिकी की ट्यूशन पढाने गये और उसकी माँ ने बिना कारण बताये उन्हें आइन्दा घर आने से मना कर दिया। उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा। बस उनकी इंसान पहचानने की क्षमता के अभाव पर दु:ख हुआ।

"माईं, पालागन!" एक दिन अचानक से बड़ी बुआ के बेटे रज्जू भैया आ गये। वीर पर उनका विशेष स्नेह था। जब वीर सामने पड़े तो हमेशा की तरह गले लगने के बजाय उन्होंने वीर की बाँह पकड ली और माँ से पूछने लगे, "माईं, क्या खाना नहीं देतीं अपने सपूत को?"

बाद में जब उन्हें सिगरेट की तलब लगी तो शाम की सैर के बहाने वीर को लेकर घर से बाहर आ गये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद एक कश लगाया और पूछने लगे, "कुछ परेशानी है?"

"नहीं तो!"

"कोई लौंडिया का चक्कर है क्या? न माने तौ हमैं बताओ, घर सै उठवा लें।"

"नहीं भैया, ऐसी बात होती भी तो भी मैं ऐसा काम नहीं होने देता।"

"सिगरेट पीते हौ? अब तो बड़े हो गए हो। ल्यो, पीओ।" रज्जू भैय्या ने सिगरेट वीर की तरफ बढाई।

"जी नहीं, मैं नहीं पीता" वीर ने विनम्रता से कहा।

"लौंडिया नहीं, नशा नहीं, फिर कोई भूत साध रहे हौ का जो ऐसा हाल बनाया है?" रज्जू भैय्या वाकई वीर के लिये चिंतित थे।

पहले खालिद, फिर रोज़ी की माँ, और अब रज्जू भैय्या, वीर को समझ आ गया कि अपनी बाहरी दिखावट पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनकी सुरुचिसम्पन्न माँ ने उन्हें इस बात के लिये एक बार भी नहीं टोका था।

"परेशान न हों भैय्या, सब ठीक है, सिचुएशन अंडर कंट्रोल।"

"अपना हाथ दिखइओ ज़रा" भैय्या ने हाथ ऐसे देखा मानो वे पहुँचे हुए ज्योतिषी हों। हाथ देखते ही वे चौंके और दूसरा हाथ पकडा और क्षण भर को दसों उंगलियाँ एक साथ देखकर बुदबुदाये, "दसों शंख जोगी ..." फिर एक गहरी साँस ली और बोले, "मेरी किसी बात का बुरा मत मानना ... वो ... घर से उठाना, सिग्रेट, भूत ... वगैरा।"

घर लौटते हुए रज्जू भैय्या ने बताया कि ऊपर से शांत और सहज दिखने वाली माँ वीर के बदलाव से बेखबर नहीं है। वह बहुत व्यथित है। उसी ने रज्जू भैय्या को बुलाया था ताकि वीर की परेशानी को समझकर हल किया जा सके। पर अब रज्जू भैय्या को लगता है कि परेशानी बस यही है कि पिताजी साथ में नहीं हैं। उन्हें घर बुलाकर बिठाया तो जा नहीं सकता इसलिये विकल्प है आत्मानुशासन का और आवारागर्दों से बचने का। उन्होंने वीर को डायरी लिखने की सलाह दी। इससे सातत्य भी आयेगा, आत्मावलोकन भी होगा और साथ के लिये मित्रों पर निर्भरता भी कम होगी। वीर सहमत थे। घर आकर दोनों ने ऐसे व्यवहार किया जैसे वीर के विषय में कोई बात ही न हुई हो।

[क्रमशः]

Thursday, June 9, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 13

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12;
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर की नज़रें झरना से मिलीं। उन्होंने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।
अब आगे भाग 13 ...
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अंग्रेज़ों के ज़माने में सैनिक वाहन चालकों को नैनीताल आदि के पहाड़ी मार्गों पर चलने के लिये तैयार करने के लिये छावनी में ऊँचे-नीचे हिलट्रैक मार्ग का निर्माण किया गया था। आज वीर ने उस हिलट्रैक लूप के न जाने कितने चक्कर लगाये थे। रात में जब घर पहुँचे तो काफी थक चुके थे। माँ कमला चाची के साथ बाहर खड़ी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थीं। पसीने की गन्ध से माँ को दूर से ही उबकाई आती है इसलिये अन्दर पहुँचते ही वीर नहाने चले गये। बाहर आने तक माँ ने खाना लगा दिया था। दोनों खाना खाने बैठे तो माँ ने बताया, “वासिफ़ के घर से ... झरना आई थी आज ... बहुत प्यारी बच्ची है।”

वीर ने अनमनी सी “हाँ” में सर हिलाया। इसका मतलब है कि झरना ने उनके भागने के बारे में माँ से कुछ नहीं कहा था।

“बता रही थी कि वासिफ़ को मलेरिया हुआ था। तबियत काफी खराब थी। स्कूल भी नहीं गया। उसकी अम्मी तुमसे मिली थीं। बताना चाहती थीं, मगर तुम जल्दी में थे।”

“हाँ, उस दिन मिल गई थीं, कम्पनी बाग के पास। वासिफ़ कैसा है अब?”

“कमज़ोरी बनी हुई है। उसे किताबों की लिस्ट और अब तक के होमवर्क की कॉपियाँ चाहिये। यही बताने यहाँ आयी थी वह।”

“नवीन से कहके भिजा दूंगा, उधर ही रहता है वह।”

“कल हो आते हैं, मैं भी मिल लूंगी उन लोगों से” माँ कुछ उतावली सी दिखीं।

अगले दिन स्कूल में वीर ने किताबों की लिस्ट और तब तक का सारा गृहकार्य वासिफ़ के घर पहुँचाने की हिदायत देकर नवीन को दे दिया। उन्हें अच्छी प्रकार पता था कि इतने भर से उन्हें छुटकारा नहीं मिलने वाला है। अगर माँ का मन है तो वासिफ़ का काम हो जाने के बाद भी वह उन्हें लेकर वहाँ जायेगी ही। घर आते समय वे वासिफ के घर न जाने के सर्वश्रेष्ठ बहाने खोज रहे थे। हाथ मुँह धोकर डरते-डरते माँ के साथ चाय पीने बैठे तो माँ ने बताया कि वे दिन में वासिफ़ के घर हो आयी थीं।

“तुम्हें पूछ रहा था। बहुत कमज़ोर हो गया है।”

“मैंने कॉपियाँ और लिस्ट भिजा दी है।”

“ठीक किया। तुम्हें पता है कि उसकी बहन की शादी है दो महीने में?”

“अच्छा! मुझे नहीं पता” वीर ने अचरज में आँखें फैलाकर कहा। मुहब्बत का इज़हार किसी से और इकरार किसी से। वीर का मन कड़वा सा हो गया।

“बहुत प्यारी बच्ची है। तुम्हारी बहन आज होती तो शायद वैसी ही होती ...” वाक्य पूरा करते-करते माँ का गला भर आया। अब वीर को सचमुच आश्चर्य हुआ।

“मेरी बहन?”

“हाँ बेटा, तुम अकेले नहीं थे। तुम्हारी एक जुड़वाँ बहन भी थी ... तुमसे बड़ी। एक दिन भी जीवित नहीं रही।”

वीर को समझ नहीं आया कि जिस बहन के बारे में वे अब तक अन्धेरे में थे, उसके अवसान पर क्या कहें। हाँ, यह गुत्थी ज़रूर सुलझ गयी कि उनके जन्मदिन पर माँ उदास क्यों होती है। भगवान पर उनका क्रोध और बढ़ गया। उनकी बहन को जन्मते ही क्यों छीन लिया? माँ-पापा ने कैसे सहा होगा उसका जाना?

“क्या हुआ था उसे? इलाज नहीं हो सकता था? इसके बाद भी आप भगवान को कैसे पूज लेती हैं? गुस्सा नहीं आता क्या?”

“जन्म के समय तुम दोनों ही मृतप्राय थे। तब ज़माना काफ़ी पिछड़ा हुआ था। डॉक्टरों को तो पहले से यह भी पता नहीं था कि मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं ...” माँ ने आँख पोंछते हुए कहा, “और भगवान से गुस्सा तो हो ही नहीं सकती थी। वह चाहता तो मेरे दोनों बच्चे छीन सकता था मगर उसने इतना प्यारा बेटा मेरी गोद में जीवित छोड़ दिया न।”

वीर को अचानक माँ पर असीमित दया और प्यार दोनों ही आ गये। परंतु भगवान के प्रति उनका क्रोध कम नहीं हुआ।

[क्रमशः]