Thursday, October 20, 2011

क्वेकर विवाह के साक्षी - इस्पात नगरी से 47

अमेरिका आने के बाद से बहुत से पाणिग्रहण समारोहों में उपस्थिति का अवसर मिला है जिनमें भारतीय और अमेरिकन दोनों प्रकार के विवाह शामिल हैं। किसी विवाह में वर पक्ष से, किसी में वधू पक्ष से, किसी में दोनों ओर से शामिल हुआ हूँ और एक विवाह में संचालक बनकर कन्या-वर को पति-पत्नी घोषित भी किया है। यह सभी विवाह अपनी तड़क-भड़क, शान-शौकत और सज्जा में एक से बढकर एक थे।

काली घटा छायी, प्रेम रुत आयी
मगर यह वर्णन है एक सादगी भरे विवाह का। जब हमारे दो पारिवारिक मित्रों ने बताया कि वे क्वेकर विधि से विवाह करने वाले हैं और उसमें हमारी उपस्थिति आवश्यक है तो मैंने तीन महीने पहले ही अपनी छुट्टी चिन्हित कर ली। इसके पहले देखे गये भारतीय विवाह तो होटलों में हुए थे परंतु अब तक के मेरे देखे अमरीकी विवाह चर्च में पादरियों की उपस्थिति में पारम्परिक ईसाई विधियों से सम्पन्न हुए थे। यह उत्सव उन सबसे अलग था।

नियत दिन हम लोग पहाड़ियों पर बसे पिट्सबर्ग नगर के सबसे ऊंचे बिन्दु माउंट वाशिंगटन के लिये निकले। पर्वतीय मार्गों को घेरे हुए काली घटाओं का दृश्य अलौकिक था। कुछ ही देर में हम वाशिंगटन पर्वत स्थित एक भोजनालय के सर्वोच्च तल पर थे। समारोह में अतिथियों की संख्या अति सीमित थी। बल्कि यूँ कहें कि केवल परिजन और निकटस्थ सम्बन्धी ही उपस्थित थे तो अतिश्योक्ति न होगी। और उस पर भारतीय तो बस हमारा परिवार ही था। वर वधू दोनों ही अमरीकी उत्साह के साथ अतिथियों का स्वागत करते दिखे। हम उनके परिजनों के साथ-साथ उनके पिछले विवाहों से हुए वर के 18 वर्षीय पुत्र और वधू की 16 वर्षीय पुत्री से भी मिले। अन्य अतिथियों की तरह वे दोनों भी सजे धजे और बहुत उत्साहित थे।

मनोहारी पिट्सबर्ग नगर
समारोह स्थल जलचरीय भोजन के लिये प्रसिद्ध है। लेकिन जब एक शाकाहारी को बुलायेंगे तो फिर अमृत शाकाहार भी कराना पड़ेगा, उस परम्परा का निर्वाह बहुत गरिमामय ढंग से किया जा रहा था। समारोह में कोई पादरी या धार्मिक प्रतिनिधि नहीं था। पूछने पर पता लगा कि क्वेकर परम्परा में पादरी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रभु और मित्र ही साक्षी होते हैं। आरम्भ में वर के भाई ने ईश्वर और अतिथियों का धन्यवाद देने के साथ-साथ अपने महान राष्ट्र का धन्यवाद दिया और उसकी गरिमा को बनाये रखने की बात कही। जाम उछाले गये। वर-वधू ने वचनों का आदान-प्रदान किया। वर की माँ ने एक संक्षिप्त भाषण पढकर उन्हें पति-पत्नी घोषित किया। वर ने वधू का चुम्बन लिया और दोनों ने विवाह का केक काटा।

सभी अतिथियों ने एक बड़े कागज़ पर पति-पत्नी द्वारा कलाकृति की तरह लिखे गये अति-सुन्दर किन्तु सादे विवाह घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी साक्षी दर्ज़ की। पेंसिल्वेनिया राज्य के नियमों के अनुसार क्वेकर विवाह में इस प्रकार का घोषणापत्र हस्ताक्षरित कर देना ही विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान करता है। इसके बाद भोजन लग गया और सभी पेटपूजा में जुट गये। मेज़ पर हमारे सामने बैठे वृद्ध दम्पत्ति हमें देखकर ऐसे उल्लसित थे मानो कोई खोया हुआ सम्बन्धी मिल गया हो। पता लगा कि वे लोग मेरे जन्म से पहले ही आइ आइ टी कानपुर के आरम्भिक दिनों में तीन वर्षों तक वहाँ रहे थे। उसके बाद उन्होंने नेपाल में भी निवास किया। उनकी बेटी और पौत्र के नाम संस्कृत में है। बातों में समय कहाँ निकल गया, पता ही न लगा।
चीफ़ गुयासुता व जॉर्ज वाशिंगटन
जब चलने लगे तब एक युवती ने रोककर बात करना आरम्भ किया। पता लगा कि वे एक योग-शिक्षिका हैं और अभी दक्षिण भारत की व्यवसाय सम्बन्धित यात्रा से वापस लौटी थीं। वे बहुत देर तक भारत की अद्वितीय सुन्दरता और सरलता के बारे में बताती रहीं। 25-30 लोगों के समूह में तीन भारत-प्रेमियों से मिलन अच्छा लगा और हम लोग खुश-खुश घर लौटे।

होटल से नगर का दृश्य सुन्दर लग रहा था। हमने कई तस्वीरें कैमरा में क़ैद कीं। नीचे आने पर जॉर्ज वाशिंगटन व सेनेका नेटिव अमेरिकन नेता गुयासुता की 29 दिसम्बर 1790 मे हुई मुलाकात का दृश्य दिखाने वाले स्थापत्य का सुन्दर नज़ारा भी कैमरे में उतार लिया। इस ऐतिहासिक सभा में जॉर्ज वाशिंगटन ने एक ऐसे अमेरिका की बात की थी जिसमें यूरोपीय मूल के अमरीकी, मूल निवासियों के साथ मिलकर भाईचारे के साथ रहने वाले थे। अफ़सोस कि बाद में ऐसा हुआ नहीं। जॉर्ज वाशिंगटन के साथ वार्तारत सरदार गुयासुता की यह मूर्ति 25 अक्टूबर 2006 को लोकार्पित की गयी थी।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ

Wednesday, October 19, 2011

अनुरागी मन - कहानी अंतिम कड़ी (भाग 21)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19भाग 20;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया। वापस घर आते समय एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मारी और पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया।
अब आगे भाग 21 ...

दिल्ली मेरी दिल्ली
पुलिस ने फ़ोन से तीनों के घर पर सूचना भिजवा दी। ईर और फ़त्ते को तो प्राथमिक चिकित्सा के बाद छोड़ दिया गया। मगर वीर को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। तब तक सुबह हो चुकी थी। ईर और फ़त्ते उनीन्दे बैठे बाहर इंतज़ार कर रहे थे। बीच में कुछ डॉक्टरों ने इन दोनों को वीर की स्थिति के बारे में ब्रीफ़िंग भी दी। उनके जाने के बाद दोनों विचारमग्न थे कि बाहर का दरवाज़ा खुला और मानो सुबह की रोशनी की किरण जगमगाई हो। सूर्य के प्रकाश के साथ ही एक बदहवास कंचनकाया अन्दर आयी। एक पल ठिठककर झरना ने ईर और फ़त्ते को देखा और फिर घबराकर पूछा, "वीर? ... वीर कहाँ है?"

"ठीक है। अन्दर है।" ईर ने बताया।

"तुम लोग यहाँ हो तो वह अन्दर क्यों है?" झरना की आँखों से स्पष्ट था कि वह रात भर सो नहीं सकी थी।

"उसके कन्धे में लगी है थोड़ी। सीरियस है पर ठीक हो जायेगा।" फ़त्ते ने झरना को दिलासा देते हुए कहा। वह कहना चाहता था कि अगर आज आना ही था तो कल क्यों चली गयी थीं। मगर उसे यह समय ऐसी बात के लिये ठीक नहीं लगा। झरना ने बताया कि वह वीर से अब भी बहुत प्यार करती है और सदा करती रहेगी। दिल्ली आने से पहले वह नई सराय जाकर उसकी दादी और माँ से मिली भी थी और नोएडा का पता भी लेकर आयी थी। लेकिन साथ-साथ वह वीर के पिछले व्यवहार के कारण उससे बहुत गुस्सा भी थी और उसे यह भी समझाना चाहती थी कि बेरुखी कितनी क्रूर होती है। लेकिन परिक्रमा में वीर के प्रति अपने दुर्व्यवहार के बाद वह रात भर सो न सकी। अलस्सुबह फ़त्ते के घर पहुँची और वहाँ से सारी बात पता लगते ही अस्पताल आयी।

झरना ने बताया कि उसके माता-पिता के जाने के बाद बस वीर ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह नितांत अपना मानती है और उस पर अपना अधिकार समझती है। शायद इसी कारण उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ गयी थी। उसे लगा कि जब वह परिक्रमा से बाहर जायेगी तो वीर आगे बढकर उसे रोक लेगा, जाने नहीं देगा। फ़त्ते ने बताया कि वीर तो रोकने जा रहा था पर उसे फ़त्ते ने पकड़कर रोका हुआ था। झरना ने अपने हाथों से उन दोनों का एक-एक हाथ पकड़कर एक घेरा बनाया। फिर आंखें बन्द करके वीर के लिये एकसाथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। तीनों ने मन में भगवान का नाम लिया। तीनों की आँख से मानो अनुराग के झरने बह रहे थे।

आँखें खुलीं तो दो डॉक्टर उनके सामने खड़े थे।

एक ने कहना आरम्भ किया, "हमें अफ़सोस है कि ..."

दूसरे ने वाक्य पूर्ण किया, "ही इज़ नो मोर! वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी! ... ... ..." वे बोलते गए पर शब्द मानो अपना अर्थ खो चुके थे।

अपने साथ आने का इशारा करके डॉक्टर उन्हें वहाँ तक ले गये जहाँ वीर ने अंतिम साँस ली थी। फ़फ़क-फ़फ़क कर रोते हुए फ़त्ते ने अपनी जेब से निकालकर कागज़ का एक छोटा सा टुकड़ा सिसकती हुई झरना को दिया जिसे वीर ने दुर्घटना के तुरन्त बाद फ़त्ते की सहायता से लिखा था।
प्रिय झरना,

बाबा रे, मेरी परी को इतना गुस्सा आता है! सब दिखावा है न? मुझे पता है कि तुम मुझे चाहती हो। मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मेरे मरते दम तक तुम मेरे दिल में रहोगी। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे।

केवल तुम्हारा,
अनुरागी मन
[समाप्त (अंततः)]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं जाना कुँवर जी - पीनाज़ मसानी - अमीर आदमी गरीब आदमी
* अनुरागी मन - लता मंगेशकर - रजनीगन्धा

अनुरागी मन - कहानी (भाग 20)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया।
अब आगे भाग 20 ...
कंसर्ट के समापन तक कार्यक्रम स्थल का माहौल किसी उत्सव जैसा हो गया था। मगर वीर के दिल में मुर्दनी छाई थी। वे मानो नई सराय की उसी रात को उसी नहर के किनारे के श्मशानघाट में खड़े थे जहाँ दादाजी की चिता जल रही थी। लपटें उनके बदन को छू रही थीं, वे झुलस रहे थे। उनको बार-बार अपने जीवन पर धिक्कार हो रहा था। कैसे व्यक्ति हैं वे? अनजाने में ही सही, पर पहले किसी को इतना सताया और अब समय आने पर ढंग से क्षमा तक नहीं मांग पाये।

बाहर आकर कार में बैठने तक दोनों साथी वीर का एक-एक हाथ पकड़े हुए उनके दायें-बायें चलते रहे। ईर ने प्रस्ताव रखा कि आज गाड़ी वह चलायेगा और फ़त्ते वीर के साथ पीछे बैठेगा।

"मैं उससे मिलने जाऊँगा। वासिफ़ के अब्बा से मिलकर उसे खोजूंगा। उनसे ज़रूर मिली होगी वह।"

"मिल तो लिया तू एक बार। अब क्यों जायेगा फिर से?" अरविन्द झ्ंझलाया। वह आज की घटना से बहुत अप्रसन्न था।

"माफ़ी मांगने, और क्यों?" वीर ने स्पष्ट किया।

"आज मांग तो ली तूने माफ़ी" फत्ते ने दृढ स्वर में कहा, "तू नहीं जाता, अब वह आयेगी तुझसे मिलने, माफ़ी मांगने ..." फ़त्ते रुका नहीं "हम कोई गिरे पड़े नहीं है। लाइन लगी है लड़कियों की। वह समझती क्या है अपने आप को। "

"लेकिन ... उसकी ग़लती नहीं है" वीर ने सफ़ाई सी दी।

"बहुत खूबसूरत है वो? हूर की परी? मेरा भाई भी लाखों में एक है। जो लड़की तेरे जैसे को नहीं पहचानी, वो बेकार है, एकदम बेकार! शराफ़त की भी एक हद होती है।"

"और मैंने जो दुःख दिया है उसे, उसका क्या?"

"अरे तू गया तो था माफ़ी मांगने। हम सब सुन रहे थे पीछे खड़े हुए। ओ वीर, दुनिया देखी है मैंने। ये लड़की तेरे लायक नहीं है" फ़त्ते पहले तो गुस्सा हुआ और फिर अपने को शांत करते हुए बोला, "लेकिन सब्र कर, अगर तेरी मर्ज़ी यही है तो वो तुझे मिलेगी ज़रूर, वो खुद आयेगी। लेकिन ये होगा तभी जब तू अपनी तरफ़ से उससे बिल्कुल भी न मिले।"

"कैसे आयेगी अपने आप? क्या पता आज की ही वापसी फ़्लाइट हो उसकी?" वीर सम्भावनायें तलाश रहे थे।

"तो अगली फ़्लाइट में मिलना" गाड़ी चलाता हुआ ईर भी बातचीत में शामिल था।

"ओये तू मुर्गे की तरह गर्दन पाछे क्यों कर रहा है। सामने देख के चला। छोरे को घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अब तेरे ही ऊपर है।

"और तुम्हारा क्या?" ईर हँसा।

"हम तो अब इसके लिये एक स्वर्ग की परी ढूँढकर लायेंगे ... अब हँस भी दे मेरे भाई। कह दिया न वो आयेगी। कैसे आयेगी ये हमारे भरोसे पर छोड़ दे।"

चींSSS ...। जब तक ईर देख पाता चौराहे पर बती लाल हो चुकी थी। उसने एकदम से ब्रेक लगाये। नई गाड़ी, नये टायर होते हुए भी सड़क पर पड़ी नन्ही रोड़ी व धूल के कारण पहियों की पकड़ न बन सकी। गाड़ी एक झटके के साथ रुकी लेकिन जब तक तीनों होश पाते, एक झटका और लगा। ईर तो रुक गया था मगर उनके पीछे तेज़ी से आता हुआ ट्रक रुकने के मूड में नहीं था। जब तक संभलते, लोहे की शीट्स से लदा ट्रक इनकी कार का बायाँ भाग छील चुका था। और कार के साथ ही छिले थे वीर सिंह। झटके तीनों को लगे परंतु वीर सिंह का वामस्कन्ध रगड़ा गया, शायद हड्डी टूटी थी। रक्त भी बहने लगा। वे बहुत पीड़ा में थे और दुर्भाग्य यह कि पूरे होशोहवास में थे।

ईर ने गाड़ी से बाहर निकलकर आते जाते वाहनों को रोकने का असफल प्रयास किया जबकि फ़त्ते ने वीर को सम्भाला।

"अगर मैं जीवित नहीं रहूँ तो परी से मेरी तरफ़ से तुम ही माफ़ी मांग लेना।"

"तुझे तो कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे मत बोल। मरहम पट्टी करके ठीक कर देंगे तुझे।"

"एक काम कर दो मेरा ..." वीर ने हाथ बढ़ाया। फ़त्ते ने वीर को इतना हताश पहले कभी भी नहीं देखा था।

किस्मत अच्छी थी। कुछ ही देर में, दिल्ली पुलिस की एक पीसीआर जिप्सी वहाँ थी, पीछे-पीछे दूसरी। कुछ ही देर में तीनों सफ़दरजंग अस्पताल में थे। वीर पहले उधर से कई बार निकल चुके थे। एमर्जेंसी के बाहर कतार से सीधे खड़े शाल्मली के लाल फूलों से आच्छादित ऊँचे विशाल वृक्ष उन्हें बहुत पसन्द थे मगर आज यहाँ होते हुए भी वे उन्हें देख नहीं सके थे।

[क्रमशः]