Sunday, October 16, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 17)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया।
अब आगे भाग 17 ...
अब वीर झरना के अपराधी थे और हरदम प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे। पाप धोने का कोई साधन उनके पास नहीं था। झरना का केन्या का कोई सम्पर्क वासिफ़ के पास नहीं था। उसके माता-पिता के अवसान के कारण यह भी तय नहीं था कि उसकी अगली भारत यात्रा कब होगी, होगी भी या नहीं। मुलाकात का कोई और रास्ता सूझता नहीं था। पिछले झटकों से हाल ही में उबरे वीर के लिये यह चोट काफ़ी गहरी थी। अपने किसी खास का दिल दुखाने का बोझ उनके दिल पर बैठ गया था। पढाई में सदा अव्वल रहने वाले वीर पिछड़ने लगे। सगे सम्बन्धियों ने घोषणा सी कर दी कि अब वे आगे पढ नहीं पायेंगे। आस-पड़ोस की महिलायें भी माँ को उनसे कोई नौकरी करवाने की सलाह देने लगीं। वीर को स्वयं भी यह समझ नहीं आता था कि वे अब तक अपने माता-पिता पर बोझ क्यों बने हुए हैं। क्या से क्या हो गया और वे कुछ कर भी नहीं पाये। काश वे पल भर के लिये अपनी समस्याओं के खोल से बाहर आ पाते और झरना के हृदय के भावों को पहचानने का प्रयास करते!

समय बीतता गया। विद्यालय में उल्टे सीधे अंकों से वीर आगे तो बढे परंतु कक्षा बढने के साथ-साथ उनका वैराग्य भी अधिक बढता गया। अब वे अपने नगर और सभी परिचितों से बुरी तरह उकता चुके थे। उन्होंने कुछ सरकारी नौकरियों की तलाश आरम्भ की। बीए पास होते-होते वे इक्कीस वर्ष के हो गये और जल्दी ही उन्होंने अपने आपको एक प्रतिष्ठित बैंक में काम करते हुए पाया। माँ दादी के पास रहने चली गयीं और वे अरविन्द के साथ फ़त्ते के घर नोइडा में किराये पर रहने लगे।

नई नौकरी और नये मित्रों का साथ मिलने से वीरसिंह का दर्द कम हुआ था। तीनों अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। दिन में डटकर काम करते और शाम को मस्ती। सप्ताहांत में दिल्ली या आसपास के किसी पर्यटन स्थल चले जाते। जंतर मंतर और कुतुब मीनार से आरम्भ हुई साप्ताहिक यात्रायें बडकल और सूरजकुण्ड होते हुए अब मसूरी, हरिद्वार तक पहुँच चुकी थीं। सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी हँसते-खेलते वीर को अचानक अपने घेरे में ले लेने वाली उदासी का कारण जानने के लिये पिछले कई दिनों से अरविन्द और फ़तह उनके पीछे पड़े हुए थे। अब झरना-वीर की कहानी पूरी होते तक सभी होनी के खेल से दुखी थे। ईर व फ़त्ते ने वीर को ढाढस बन्धाया कि झरना उसे जल्दी ही मिलेगी। फत्ते तो अगले रविवार को ही उसे हरयाणा में थानेसर स्थित शेख चिल्ली की मज़ार ले जाने वाला था। उसकी मान्यता है कि वहाँ मन्नत मांगने से बिछड़े हुए प्रेमी अवश्य मिलते हैं। वह ऐसे कई लोगों को जानता भी है जिनका काम वहाँ जाने से हुआ।

वीर तो शेख चिल्ली की बात को मज़ाक ही समझ रहे थे मगर जब ईर ने बताया कि दारा शिकोह के गुरु सूफ़ी संत रज़्ज़ाक अब्दुल रहीम अब्दुल करीम ही चालीस दिन तक थानेसर में ईश्वर की उपासना "चिल्ला" करते रहने के कारण शेख चिल्ली कहलाते थे तो बात वीर की समझ में धंस गयी। अगले रविवार को वे तीनों थानेसर पहुँच गये। लाल पत्थर और संगे-मरमर का बना हुआ शेख चिल्ली का मकबरा एक सुन्दर भवन था। यह भवन दारा शिकोह ने अपने गुरु के लिये बनवाया था और वह महीनों तक यहाँ अपने गुरु के चरणों में अध्ययन-मनन करता था। शेख चिल्ली की मृत्यु के बाद इसी इमारत को उनका मकबरा बना दिया गया। भवन और उसका उद्यान मनभावन थे। पुराना तालाब, सूखी नहर, मुग़ल बाग़ की हरियाली, पत्थर मस्जिद आदि भी वीर को बहुत सुन्दर लगा।

तीनों ने झरना की वापसी की दुआ मांगी
पता नहीं यह साथियों का सहारा था या दिल की गिरह खुल जाने की बात थी या सचमुच शेख चिल्ली की इनायत, थानेसर जाने के बाद से वीर अब प्रसन्न रहने लगे थे। उनके पास अपनी खोयी हुई ज़िन्दगी का सुराग़ लगाने का कोई निश्चित तरीका तो नहीं था पर फिर भी अब उन्हें कहीं न कहीं यह लगने लगा था कि उनका और झरना का मिलन जल्दी ही होने वाला है। क्या पता वह नई सराय आये और फिर माँ और दादी से मिलकर उनका पता मांगकर यहाँ आये। या फिर वहाँ पहुँचकर वासिफ़ द्वारा उन्हें बुलवा भेजे। कौन जाने कैसे हो, मगर यह मिलन जल्दी ही होना है, उनका ऐसा विश्वास बनने लगा था। क्या आशा की यह किरण सच्ची थी?


[क्रमशः]

Saturday, October 15, 2011

करवाचौथ की शुभकामनायें!

चन्द्रमा के कुछ रूप, मेरे सेलफ़ोन व कैमरों से 
शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा

पेड़ पर टँगा सायंकालीन चन्द्रमा

बर्फ़ीली रात का चान्द

स्वर्णिम चन्द्रमा

दूज का चान्द (चित्र: श्री रवि दत्त द्वारा)

भोर का हिमाच्छादित चान्द

सूर्य से प्रकाशित

ठंड में ठिठुरते चन्दामामा

Thursday, October 13, 2011

क्या आपको कुछ पता है?

छः जून की उनके ब्लॉग की पोस्ट में उंगलियों में दर्द की चिंता व्यक्त की गयी थी। उन्हें यद्यपि ज्योतिष के सहारे का विश्वास भी था। फिर भी, जिन्हें विश्वास हो उनके लिये भी ज्योतिष चिकित्सा का स्थान तो नहीं ले सकता है। उन्होंने लिखा था:
उनके आश्वासन से मै फिर से डाक्तर के पास जाने से रुक गयी और एक देसी इलाज शुरू किया, डरी इस लिये भी थी कि पहले एक अंगूठे मे इसी प्राब्लम के चलते उसका टेंडर कटवाना पडा था।उस देसी दवा से ही ठीक हुयी हूँ लेकिन कुछ दिन स्प्लिन्ट जरूर बान्धना पडा। बेशक ज्योतिश आपकी समस्या हल नही कर देता लेकिन कई बार ऐसे आश्वासन से आशा सी बन जाती है और आशा ही जीवन है। इतने दिनो पढा सब को लेकिन कुछ कह नही पाई लिख नही पाई। अब भी अधिक देर लिखने से अँगुली दुखने लगती है लेकिन ये भी ठीक हो जायेगी कुछ दिन मे ।
निर्मला कपिला जी
इसके बाद उनकी दो प्रविष्टियाँ और आयीं और अब दो मास से अधिक बीत जाने पर भी कोई अपडेट नहीं है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, खुशमिजाज़ ब्लॉगर, कवयित्री, कथाकार श्रीमती निर्मला कपिला की| आशा है कि वे ठीक होंगी, फिर भी चिंता है।

जिस प्रकार निर्मला जी के बारे में चिंतित हूँ, लगभग उसी प्रकार भावों से भरपूर कविता रचने वाली सन्ध्या गुप्ता जी की पिछली (दो महीने पुरानी) पोस्ट में भी उनकी गम्भीर बीमारी के बारे में चिंतातुर करने वाला निम्न सन्देश था:

मित्रों, एकाएक मेरा विलगाव आपलोगों को नागवार लग रहा है, किन्तु शायद आपको यह पता नहीं है की मैं पिछले कई महीनो से जीवन के लिए मृत्यु से जूझ रही हूँ । अचानक जीभ में गंभीर संक्रमण हो जाने के कारन यह स्थिति उत्पन्न हो गयी है। जीवन का चिराग जलता रहा तो फिर खिलने - मिलने का क्रम जारी रहेगा। बहरहाल, सबकी खुशियों के लिए प्रार्थना।
डॉ. सन्ध्या गुप्ता
मैं जानता हूँ कि हम भारतीय लोग बहुत भावुक होते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निभाते हुए तुरंत हिल मिल जाते हैं। रेल का सफ़र हो या बस का, मंज़िल आने तक सम्पर्क सूत्रों का आदान-प्रदान हो ही जाता है। हिन्दी ब्लॉग जगत में भी भाई बहन से लेकर सास-ननद तक बहुत से रिश्ते जोड़े गये हैं, बहुत अच्छी बात है। आभासी रिश्ते जोड़ें न जोड़ें, परंतु यदि हम एक दूसरे की हारी-बीमारी में हाल पता कर सकें और आवश्यकता पड़ने पर किसी काम आ सकें तो मेहरबानी होगी। मेरे पास इन दोनों ही का सम्पर्क नम्बर नहीं है, बस ईमेल पता है सो किया मगर उसका कोई उत्तर नहीं मिला। यदि आप में से किसी को इन दोनों की खैरियत के बारे में जानकारी हो तो कृपया अवश्य दें। यदि आपके पास उनका या किसी परिवारजन का फ़ोन नम्बर हो तो बात करने का प्रयास कीजिये, यदि कोई निकट रहता हो तो मिल ही लीजिये। बस यही मेरा निवेदन है।

धन्यवाद व शुभकामनायें!

[दोनों चित्र रिस्पेक्टिव ब्लॉग प्रोफ़ाइल्स से]
==============
सम्बन्धित कड़ियाँ
==============
* वीरबहूटी - निर्मला जी का ब्लॉग
* फिर मिलेंगे - सन्ध्या जी की पोस्ट
* श्रद्धांजलि - नहीं रही डॉ.संध्या गुप्ता
==============