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Wednesday, February 8, 2012

गन्धहीन - कहानी [समापन]

पिछली कड़ी में आपने पढा:
सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा जहाँ चल रहे नाटक के एक कलाकार से उसकी एक चौकन्नी मुलाकात और जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं।
अब आगे की कहानी:

घर आते समय गाड़ी चालू करते ही सीडी बजने लगी। देबू ने फूलों का गुलदस्ता डैशबोर्ड पर रख लिया। उसकी भावनाओं को आसानी से कह पाना कठिन है। वह एक साथ खुश भी था और सामान्य भी। उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें चल रही थीं। वह सोच नहीं रहा था बल्कि विचारों से जूझ रहा था। घर पहुँचने तक उसके जीवन के अनेक वर्ष किसी सोप ऑपरा की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़र गये। कार में चल रहा कबीर का गीत "माया महाठगिनी हम जानी ..." उन उलझे हुए विचारों के लिये सटीक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहा था।

घर आ गया। गराज खुली, कार रुकी, गराज का दरवाज़ा बन्द हुआ। गायक व गीतकार वही थे, गीत बदल गया था।

जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।।

"पापा ... कहाँ हैं आप?" बन्द कार में चलते संगीत में विनय की आवाज़ बहुत मद्धम सी लगी। घर में किसी को होना नहीं चाहिये, शायद आवाज़ का भ्रम हुआ था।

"जो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीन्ही चदरिया, झीनी रे झीनी ..." संतों की वाणी में कितना सार है! देशकाल के पार। बिना देखे भी सब देख सकते हैं। जो हो चुका है, और जो होना है, सब कुछ देख चुके हैं, कह चुके हैं। हर कविता पढी जा चुकी है और हर कहानी लिखी जा चुकी है।

"कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू ..." संत बनने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। देबू तो खुद कवि है। क्या उसका मन वहाँ तक पहुँचता है जहाँ साधारण मानव का मन नहीं पहुँच सकता? क्या मन की गति सबसे तेज़ है? नहीं, सच्चाई यह है कि यक्षप्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मन सबसे गतिमान नहीं हो सकता। मन का विस्थापन शून्य है, इसलिये उसकी गति भी शून्य ही है।

"आता और न जाता है मन, यहीं पड़ा इतराता है मन" वाह! देबू ने अपनी ताजातरीन काव्य पंक्ति को स्वगत ही उच्चारा और मन ही मन प्रसन्न हुआ।

"कहाँ खड़े रह गये? हम इतनी देर से इंतज़ार कर रहे हैं, अब आयेंगे, अब आयेंगे!" इस बार रीटा की आवाज़ थी।

"जो आयेगी सो रोयेगी, ऐसे पूर्णतावादी के पल्ले बन्ध के" माँ कहती थीं तो नन्हा देबू हँसता था, "आप तो इतनी खुश हैं बाबूजी के साथ!"

"किस्मत वाले हो जो रीटा जैसी पत्नी मिली है" जो देखता, अपने-अपने तरीके से यही कहता था। वह मुस्करा देता। लोग तो कुछ भी कह देते हैं, लेकिन देबू आज तक तय नहीं कर सका है कि वह पूर्णतावादी है या किस्मत वाला। हाँ वह यथास्थितिवादी अवश्य हो गया है, गीत भी अभी बदल गया है, "उज्जवल वरण दिये बगुलन को, कोयल कर दीन्ही कारी, संतों! करम की गति न्यारी ..."

पहले तो चला जाता था। तब सब ठीक हो जाता था। लेकिन इस बार ... प्रारब्ध से कब तक लड़ेगा इंसान? वैसे भी ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं कि इन सब संघर्षों में गँवाने के लिये छोड़ दी जाये। इस बार तो आने को भी नहीं कहा था।

"आप चुपके से आ जाना। स्कूल में 12 बजे। किसी को पता नहीं लगेगा।"

आज पहली बार उसने जाते-आते दोनों समय गराज के स्वचालित द्वार की आवाज़ को महसूस करने का प्रयास किया था।

"रोज़ शाम को ... गराज खुलने की आवाज़ से ही दिल दहल जाता है, ... आज न जाने कौन सी बिजली गिरने वाली है। जब होश ही ठिकाने न हों तो कुछ भी हो सकता है। नॉर्मल नहीं है यह आदमी।"

आना-जाना लगा रहता था। सन्देश मिलते ही वह चला जाता था। लाने के बाद सुनने में आता था, "हज़ार बार नाक रगड़ कर गया है, तब भेजा है हमने।" इस बार का सन्देसा अलग था। इस बार नोटिस अदालत से आया था। वापस बुलाने का नहीं, हर्ज़ा-खर्चा देने का नोटिस, "हम इस आदमी के साथ नहीं रह सकते। जान का खतरा है। इसके पागलपन का इलाज होना चाहिये। मेरा बच्चा उसके साथ एक ही घर में सुरक्षित नहीं है।"

चित्र व कथा: अनुराग शर्मा
देबू कैसे सहता इतना बड़ा आरोप? एकदम झूठ है, वह तो मच्छर भी नहीं मारता। अदालत के आदेश पर वह मनोचिकित्सक के सामने बैठा है। दीवार पर बड़ा सा पोस्टर लगा है, "घरेलू हिंसा से बचें। इस शख्स को देखें। यह मक्खी भी नहीं मार सकता, मगर अपनी पत्नी को रोज़ पीटता है।" उसे लगता है पोस्टर उसके लिये खास ऑर्डर पर बनवाया गया है। उसे पोस्टर देखता देखकर मनोचिकित्सक अपनी डायरी में कुछ नोट करती है।

जब से दोनों गये हैं, देबू अक्सर घर आकर भी अन्दर नहीं आता। गराज में ही कार में सीट बिल्कुल पीछे कर के अधलेटा सा पड़ा रहता है। "बिन घरनी घर भूत का डेरा" जिस तरह दोनों की अनुपस्थिति में भी उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं, उसे लगता है कि वह सचमुच पागल हो गया है। यह नहीं समझ पाता कि अब हुआ है या पहले से ही था। शायद रीटा की बात ही सही हो। शायद माँ की बात भी सही हो। या शायद स्त्रियों का सोचने का तरीका भिन्न होता हो। नहीं, वह खुद ही भिन्न होगा। लेकिन अगर ऐसा होता तो अपने स्कूल के वार्षिक समारोह के लिये विनय चुपके से फ़ोन करके उसे बुलाता नहीं। शायद बच्चा अपने पिता के मोह में कुछ देख नहीं पाता।

"पापा, आप ज़रूर आना, गंगावतरण की नाटिका में मैं भी हूँ। ... आपको देखने का कितना मन करता है मेरा, लेकिन माँ और नानाजी लेकर ही नहीं आते।"

किसी चलचित्र के मानिन्द तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं। "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं तो भी माँ टोकती नहीं। मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ।"

"पापा, आप आ गये?" विनय कार का दरवाज़ा बाहर से खोलता है। निष्चेष्ट पड़ा देबू उठकर बेटे का माथा चूमता है। विनय उसकी बाहों में होते हुए भी वहाँ नहीं है। आइरिस के फूल सामने हैं मगर उनमें गन्ध नहीं है। देबू विनय से कहता है, "मैं तुम्हारा अहित सोच भी नहीं सकता। तुम्हारी माँ को कोई भारी ग़लतफ़हमी हुई है।"

"आप यहाँ क्यों सो रहे हैं? अन्दर आ जाइये" रीटा तो कभी ऐसे मनुहार नहीं करती।

"बहुत थक गया हूँ ... अभी उठ नहीं सकता" शब्द शायद मन में ही रह गये।

बन्द गराज में कार के रंगहीन धुएँ के साथ भरती हुई कार्बन मोनोऑक्साइड पूर्णतया गन्धहीन है, बिल्कुल आइरिस के फूलों की तरह ही। बस, आइरिस के फूल जानलेवा नहीं होते। देबू सो रहा है, कार का इंजन अभी चालू है पर गीत बदल गया है।

जल में घट औ घट में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा घट जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ ज्ञानी।।

[समाप्त]

Author's note: Unintentional Carbon Monoxide (CO) exposure accounts for an estimated 15,000 emergency department visits and 500 unintentional deaths in the United States each year.

Saturday, February 4, 2012

गन्धहीन - कहानी भाग 2

पिछली कड़ी में आपने पढा: सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा।
अब आगे की कहानी:

स्कूल का पार्किंग स्थल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि देबू निर्धारित समय से कुछ पहले ही आ गया था परंतु फिर भी उसे मुख्य भवन से काफ़ी दूर कार खड़ी करने की जगह मिली। एक हाथ में गुलदस्ता और दूसरे में कैमरा लेकर देबू उछलता हुआ ऑडिटोरियम की ओर जा रहा था कि उसने एलेना को देखा। जैसी कि यहाँ परम्परा है - नज़र मिल जाने पर अजनबी भी मुस्करा देते हैं - उसे अपनी ओर देखते हुए वह मुस्कराया, हालांकि इस समय वह किसी से नज़र मिलाना नहीं चाहता था।

"हाय रंजिश" एलेना ने मुस्कुराते हुए कहा।

"हाय एलेना" कहकर वह चलने को हुआ मगर तब तक एलेना उसके करीब आई और बोली, "कितने साल बाद मिले हैं हम, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम याद रहा।"

देबू अपनी हँसी रोक नहीं सका। वह समझ गया था कि चार साल पहले की नौकरी में उसकी सहकर्मी रही एलेना उसे दूसरा भारतीय सहकर्मी रजनीश समझ रही है। परन्तु इस समय उसने अपने नाम के बारे में चुप रहना ही ठीक समझा और आगे बढने को हुआ लेकिन अब एलेना उसके ठीक सामने खड़ी थी।

"मैंने ठीक कहा न? आपका नाम रंजिश ही है न?"

रेखाचित्र व कथा: अनुराग शर्मा
"नहीं! रंजिश किसी का नाम नहीं होता" कहकर उत्तर का इंतज़ार किये बिना वह मुख्य खण्ड की ओर बढ चला। ऑडिटोरियम काफ़ी बड़ा था लेकिन भीड़ भी कम नहीं थी। कुछ देर इधर-उधर देखने के बाद दूसरी पंक्ति में उसे किनारे की सीट खाली नज़र आई। वह फ़टाफट वहाँ जाकर जम गया। कुछ देर बाद ही हाल में शांति छा गयी और उद्घोषणायें शुरू हो गयीं। संगीत के कुछ कार्यक्रम होने के बाद भारतीय नृत्य-नाटिका का समय आया। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का दृश्य था। शंकर जी के गणों में से एक ने सबकी नज़र बचाकर हाथ हिलाकर देबू को विश किया। तुरंत ही दूसरी ओर देखकर हाथ नीचे कर लिया। दोनों की आँखों में चमक आ गई। देबू ने शीघ्र ही कई फ़ोटो खींचकर अपने स्वागत का उत्तर दिया और चोर नज़रों से शिवगण की नज़रों का पीछा किया। चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। समारोह जारी रहा, कार्यक्रम चलते रहे लेकिन देबू की नज़रें कुछ खोजती सी इधर-उधर ही दौड़ती रहीं। उन एक जोड़ी नयनों को अधिक देर भटकना नहीं पड़ा। शिवजी का गण उनके सामने खड़ा था। दोनों ऐसे गले मिले जैसे कई जन्म बाद मिले हों। देबू ने गुलदस्ता शिवगण को पकड़ाया तो बदले में एक विनम्र मनाही मिली, "कितना मन है, लेकिन आपको तो पता ही है कि यह नहीं हो सकता।"

देबू ने अनमना सा होकर हाँ में सिर हिलाया। दोनों चौकन्ने थे। उनमें जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं। एक दूसरे से फिर से गले मिले और देबू बाहर की ओर चल दिया और शिवगण वापस स्टेज की ओर।

[क्रमशः]

Thursday, February 2, 2012

गन्धहीन - कहानी

शरद ऋतु की अपनी ही सुन्दरता है। इस दुनिया की सारी रंगीनी श्वेत-श्याम हो जाती है। हिम की चान्दनी दिन रात बिखरी रहती है। लेकिन जब बर्फ़ पिघलती है तब तो जैसे जीवन भरक उठता है। ठूंठ से खड़े पेड़ नवपल्लवों द्वारा अपनी जीवंतता का अहसास दिलाते हैं। और साथ ही खिल उठते हैं, किस्म-किस्म के फूल। रातोंरात चहुँ ओर बिखरकर प्रकृति के रंग एक कलाकृति सी बना लेते हैं। और दृष्टिगत सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें होती हैं विभिन्न प्रकार की गन्ध। गन्ध के सभी नैसर्गिक रूप; फिर भी कभी वह एकदम जंगली लगती हैं और कभी परिष्कृत। मानव मन के साथ भी तो शायद ऐसा ही होता है। सुन्दर कपड़े, शानदार हेयरकट और विभिन्न प्रकार के शृंगार के नीचे कितना आदिम और क्रूर मन छिपा है, एक नज़र देखने पर पता ही नहीं लगता।

रेस्त्राँ में ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता। नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है। मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएं जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता। मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं। हम और आप देख ही नहीं पाते। देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहाँ नहीं मिलता।
~ नक़्श लायलपुरी
कथा व चित्र: अनुराग शर्मा 
खैर, हम बात कर रहे थे बहार की, फूलों की, और सुगन्ध की। संत तुलसीदास ने कहा है "सकल पदारथ हैं जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं। जीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये। फूलों की नगरी में रहते हुए लोगों को फूलों के परागकणों या सुगन्धि से परहेज़ हो सकता है। मगर देबू को तो इन दोनों ही से गम्भीर एलर्जी थी। घर खरीदने के बाद पहला काम उसने यही किया कि लॉन के सारे पौधे उखडवा डाले। पत्नी रीटा और बेटे विनय, दोनों ही फूलों और वनस्पतियों के शौकीन हैं, लेकिन अपने प्रियजन की तकलीफ़ किसे देखी जाती है। सो तय हुआ कि ऐसे पौधे लगाये जायें जो रंगीन हों, सुन्दर भी हों, परंतु हों गन्धहीन। सूरजमुखी, गुड़हल, डेहलिया, ऐज़लीया, ट्यूलिप जैसे कितने ही पौधे। इन पौधों में भी लम्बी डंडियों वाले खूबसूरत आइरिस देबू की पहली पसन्द बने।

देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था। दिन ही ऐसा खुशी का था। आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी। रात में कई बार आँख खुल जा रही थी। समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी। नहा धोकर अविलम्ब तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली। कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल अपनी लम्बी डंडियों के साथ बड़ी सफ़ाई से काट लिये। भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक सुन्दर सा गुलदस्ता बनाया। कार में साथ की सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली। गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी। कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।"
[क्रमशः]


Wednesday, December 7, 2011

क़ौमी एकता - लघुकथा

"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी!  कहाँ चल दिये?

"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"

"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"

"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"

"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"

"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"

"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"

"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"

"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"

"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"

"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"

"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "

"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"

"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"

"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"

"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"

"एक नहीं, दो!"

"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"

"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"

"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"

"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"

"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"

"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"

"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"

"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"

"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"

"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"

"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"

Tuesday, November 29, 2011

इमरोज़, मेरा दोस्त - लघुकथा

फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।

जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।

मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"

"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।

"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।

जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।

पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।

घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।

इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"

30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन
[समाप्त]

Tuesday, November 22, 2011

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र

आभार
यह लघुकथा गर्भनाल के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।
... और अब कहानी

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
जब लोमडी को आदमी के बच्चों के मांस का चस्का लगा तो उसने बाकी कठिन शिकार छोड़कर भोले और कमज़ोर मनु-पुत्रों को निशाना बनाना शुरू किया। गाँव के बुज़ुर्गों को चिंता हुई तो उन्होंने बच्चों को गुलेल चलाना सिखा दिया। अभ्यास के लिये बच्चों ने जब गुलेल को ऊपर चलाया तो आम, जामुन और न जाने क्या-क्या अमृत वर्षा हुई। अभ्यास के लिये नीचे नहीं भी चलाया बस खुद चले तो भी कीचड़ और अन्य प्रकार की अशुद्धियाँ और मल आदि में सने। बच्चों ने सबक यह सीखा कि सज्जनों से पंगा भी हो जाय तो उसमें भी सब का भला होता है और दुर्जनों से कितनी भी दूरी रखो, बचा नहीं जा सकता।

उधर बच्चों के सशस्त्र होते ही लोमड़ी बेचैन सी इधर-उधर घूमने लगी। जब भी बच्चों की ओर मुँह मारती, पत्थर मुँह पर पड़ते। थक हारकर बिना कुछ सोचे-समझे एक गुफ़ा के सामने खेलते नन्हें शावकों पर झपट पड़ी और शावकों के पिता सिंह जी वनराज का भोजन बनी। शावकों ने सबक यह सीखा कि भूखी और बेचैन होने पर लोमड़ियों को अपनी खाल के अन्दर सुरक्षित रह पाने लायक बुद्धि नहीं बचती।

[समाप्त]

Sunday, August 21, 2011

कोकिला, काक और वो ... लघुकथा

काक
खुदा जब बरक्कत देता है तो आस-औलाद के रूप में देता है। पिछले बरस काकिनी ने 5 अंडे दिये थे। शाम को जब हम भोज-खोज से वापस आये तो अंडे अपने-आप बढकर दस हो गये। कोई बेचारी शायद फ़ॉस्टर-पेरेंट्स की तलाश में थी। हम दोनों ने सभी को अपने बच्चों जैसे पाला। इस बरस दूसरे पाँच तो उड गये, खुदा उन्हें सलामत रखे। हमारे पाँच सहायता के लिये वापस आ गये हैं, हम तो इसी में खुश हैं।

कोकिला
कैसे मूर्ख होते हैं यह कौवे भी। पिछले बरस भी मैं अपने अंडे छोड आयी थी। बेवक़ूफ अपने समझकर पालते रहे। कितना श्रम व्यर्थ किया होगा, नईं? खैर, अपनी-अपनी किस्मत है। अब इस साल फिर से ... अब अण्डे सेना, बच्चे पालना, कोई बुद्धिमानों के काम तो हैं नहीं। कुछ हफ़्तों में जब पले पलाये उड जायेंगे तब मिल आऊंगी। मुझे तो दूसरे कितने बडे-बडे काम करने हैं इस जीवन में। पंछीपुर के मंत्रिमंडल के लायक भी तो बनाना है अपने बच्चों को। चलो, आज के अण्डे रखकर आती हूँ मूर्खों के घर में।

हंस
पंछीपुर तो बस अन्धेरनगरी में ही बदलता जा रहा है अब धीरे-धीरे। गरुडराज को तो अन्धाधुन्ध शिकार के अलावा किसी काम-धाम से कोई मतलब ही नहीं रहा है अब। मंत्रिमंडल में सारे के सारे मौकापरस्त भर गये हैं। आम जनता भी भ्रष्ट होती जा रही है। कोकिला तक केवल ज़ुबान की मीठी रह गयी है। मुझ जैसे ईमानदार तो किसी को फ़ूटी आँख नहीं सुहाते। सच बोलना तो यहाँ पहले भी कठिन था, लेकिन अब तो खतरनाक भी हो गया है। मैं तो कल की फ़्लाइट से ही चला मानसरोवर की ओर ...

गरुड
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम। काम करने के लिये तो चील-कौवे हैं ही। राज-काज का भार कोयल और मोर सम्भाल लेते हैं। अपन तो बस शिकार के लिये नज़रें और पंजे तेज़ करते हैं और जम के खाते हैं। और कभी कभी तो शिकार की ज़रूरत भी नहीं पडती। आज ही किस्मत इतनी अच्छी थी कि घोंसला महल में अपने आप ही पाँच अंडे आ गये। पेट तो तीन में ही भर गया, दो तो सांपों के लिये फेंकने पडे। आडे वक्त में काम तो वही आते हैं न!

[समाप्त]

प्रसन्नमना मोर, नववृन्दावन मन्दिर वैस्ट वर्जीनिया में  

Saturday, July 30, 2011

बी. एल. “नास्तिक”

कहानी: अनुराग शर्मा
चित्र: रवि मिश्र द्वारा
आज बीस साल के बाद दिखा था बौड़मलाल। वह भी वृन्दावन में। बिल्कुल पहले जैसा ही, गोरा, गोल-मटोल। सिर पर घने बालों की जगह चमकते चांद ने ले ली थी, शेष अधिक नहीं बदला था। पहले की तरह ही धूप का चश्मा, लाल टीका। हाँ हाथ में कलावे के साथ सोने की घडी भी विराज रही थी और चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ। गले में सोने की मोटी सी लड़ और उंगलियों में आठ अंगूठियाँ।

स्कूल में मेरे साथ ही पढता था बौड़मलाल। उसे देखते ही कोई भी पहचान सकता था कि धर्मकर्म में उनका कितना विश्वास था। माथे पर टीका और अक्षत और कलाई में कलावा उनकी पहचान थी। जब दोस्तों के बीच गाली-गलौच न कर रहा हो तब धर्म-कर्म की कहानियाँ भी सुनाने लगता था। वैसे तो उसकी भक्ति  बारहमासी थी लेकिन परीक्षा से पहले उसमें विशेष बहार आ जाती थी।

पढने लिखने से ज़्यादा ज़ोर मन्दिर जाने पर होता। यह भगवान की कृपा ही थी कि हर साल उसकी वैतरणी पार हो ही जाती थी। उस साल भी परीक्षा हो चुकी थी। परिणाम बस आया ही था। हम लोग पिताजी का तबादला हो जाने के कारण नगर छोडकर जा रहे थे। जाने से पहले मैं सभी साथियों से मिलना चाहता था। बौड़मलाल के घर भी गया। उसे देखकर आश्चर्य हुआ। न भस्म न चन्दन, न गंडा न तावीज़। मेरी “राम-राम” के जवाब में अपनी चिर-परिचित “जय श्रीराम” की जगह जब उसने “@#$% है भगवान” कहा तो मेरा माथा ठनका। दो मिनट में ही बात खुल गयी कि इस नटखट भगवान ने इस बार पहली बार उसके साथ छल कर डाला। पाँच दस मिनट तक उसकी भड़ास सुनने के बाद मैं चल दिया।

नये नगर में मन अच्छी तरह लग गया। पिछ्ले स्कूल के मित्रों से पत्र-व्यवहार चलता रहा। बौड़मलाल की खबर भी मिलती रही। पता लगा कि जब भगवान ने उसे मनमाफ़िक फल नहीं दिया तबसे ही वह ईश्वर के खिलाफ धरने पर बैठा है। परमेश्वर-खुदा-भगवान से खफ़ा होकर वह नास्तिक ही नहीं बल्कि धर्म-द्रोही हो गया है। डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था। लेकिन यह सब घर के अन्दर पर्दे के पीछे की मजबूरी थी। घर के बाहर मज़ाल थी कि कोई उसके सामने भगवान का नाम ले ले। बौड़मलाल हुज्जत कर-कर के उस व्यक्ति की नाक में दम कर देता था।

कॉलेज पहुँचने पर उसकी प्रतिष्ठा एक गुमनाम राष्ट्रीय पार्टी “मुर्दाबाद” तक पहुँची और उसे छात्र संघ के चुनाव का टिकट भी मिल गया। बौड़मलाल का नया नामकरण हुआ बी. एल. “नास्तिक”। वह बड़ा वक्ता बना, हर विषय का विशेषज्ञ। “मुर्दाबाद” पार्टी ने उसकी कई किताबें प्रकाशित कराईं। कालांतर में वह पार्टी के साप्ताहिक पत्र “भाड़ में झोंक दो” का प्रबन्ध सम्पादक भी रहा।

समय के साथ मैं भी नौकरी में लग गया और बाकी मित्र भी। पता लगा कि कई साल कॉलेज में लगाने के बाद भी बौड़मलाल बिना डिग्री के बाहर आ गया। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि उसकी पार्टी ने उसे अपनी केन्द्रीय कार्यकारिणी में ले लिया। फिर सब मित्र अपने-अपने परिवार में मगन हो गये और लम्बे समय तक न उनकी कोई खबर मिली न ही बौड़मलाल की।

आज उसे यहाँ देखकर मुझे उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना उसके लाल टीके और कलावे को देखकर। पूछा तो बौड़मलाल एक गहरी सांस लेकर बोला, “अब तुमसे क्या छिपाना ... पहले वाली बात अब कहाँ?”

“क्यों? अब क्या हुआ?” मैने आश्चर्य से पूछा।

“सोवियत संघ टूटा तो पैसा आना बन्द हो गया ...” फिर कुछ देर रुककर अपनी सुनहरी घड़ी को देखता हुआ बोला, “अब चीन पर इतना दवाब है कि हथियार आने भी बन्द हो गये हैं।”

“मगर तुम्हें पैसे से क्या? तुम्हारी पार्टी तो गरीबों, मज़दूर-किसानों की है।”

“अरे वह भी कब तक हमारे लिये जान देते। उन्हें तो अब ज़मीन का एकमुश्त इतना हर्ज़ाना मिल जाता है जितना मेरे स्तर के नेता साल भर में नहीं जमा कर पाते थे। बिक गये &*$# सब के सब।”

“फिर? तुम्हारा क्या होगा?”

“दो-तीन साल से तो मैं मन्दिरवाद पार्टी में हूँ, सेठों का बड़ा पैसा है उनके पास। एक तो धार्मिक, ऊपर से अहिंसक, खून-खराबा तो क्या लाल रंग से भी बचते हैं। मुर्दाबाद पार्टी में तो हर तरफ़ खूनम-खून, लालम-लाल। हमेशा तलवार लटकी रहती थी। इधर कोई आका नाराज़ हुआ, उधर सर क़लम।”

“तो अब यहीं रहने का इरादा है क्या?”

“अरे नहीं, धर्म की दुकान देसी है। बहुत दिन नहीं चलेगी, बाहर से बहुत पैसा आ रहा है ...”

मैंने उस पर एक प्रश्नात्मक दृष्टि डाली तो धूर्तता से मुस्कराते हुए बोला, “खबर है कि सद्दाम और ओसामा एक डॉन के साथ मिलकर बहुत सा पैसा एक नई पार्टी में लगा रहे हैं।”

“तुम्हें क्यों लेंगे वे?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“क्यों नहीं लेंगे?” उसने बेफ़िक्री से एक तरफ़ थूकते हुए एक कागज़ मेरी ओर बढ़ाया, “ये देखो।”

मैंने देखा तो वह एक हलफ़नामा था जिसमें बी. राम “आस्तिक” अपना नाम बदलकर बी. ग़ाज़ी “नियाज़ी” कर रहा था।

“क्या इतना काफ़ी है?” मैंने पूछा।

“मुझे पता है क्या करना काफ़ी है और वो मैंने करा भी लिया है।”

[समाप्त]

Tuesday, June 21, 2011

बेमेल विवाह - एक कहानी

आभार
यह कहानी गर्भनाल के जून 2011 के अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।

... और अब कहानी

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.-<>-. बेमेल विवाह .-<>-.
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डॉ. अमित
मेरे साथ तो हमेशा से अन्याय हुआ है। ज़िंदगी सदा अधूरी ही रही। बचपन में बेमेल विवाह, मेडिकल कॉलेज में आरक्षण का ताना और अब पिताजी की यह सनक – उनकी सम्पत्ति से बेदखली। अपने ही दुश्मन हो जायें तो जीवन कैसे कटे। मेरा दिल तो घर जाने को करता ही नहीं। सोचता हूँ कि सारी दुनिया बीमार हो जाये और मेरा काम कभी खत्म न हो।

कु. रीना
कितनी खडूस हैं डॉ निर्मला। ऐसी भी क्या अकड़? पिछली बार बीमार पडी थी तब वहाँ गयी थी। छूकर देखा तक नहीं। दूर से ही लक्षण पूछ्कर पर्चा बना दिया था। आज तो मैं डॉ. अमित के पास जाऊंगी। कैसे हँसते रहते हैं हमेशा। आधा रोग तो उन्हें देखकर ही भाग जाये।

डॉ. अमित
क्या-क्या अजीब से सपने आते रहते हैं। वो भी दिन में? लंच के बाद ज़रा सी झपकी क्या ले ली कि एक कमसिन को प्रेमपत्र ही लिख डाला। यह भी नहीं देखा कि हमारी उम्र में कितना अंतर है। क्या यह सब मेरी अतृप्त इच्छाओं का परिणाम है? खैर छोड़ो भी इन बातों को। अब मरीज़ों को भी देखना है।

कु. रीना
कितने सहृदय हैं डॉ. अमित। कितने प्यार से बात कर रहे थे। पर मेरे बारे में इतनी जानकारी किसलिए ले रहे थे? कहाँ रहती हूँ, कहाँ काम करती हूँ, क्या शौक हैं मेरे, आदि। एक मिनट, दवा के पर्चे के साथ यह कागज़ कैसा? अरे ये क्या लिखा है बुड्ढे ने? आज रात का खाना मेरे साथ फाइव स्टार में खाने का इरादा है क्या? मुझे फोन करके बता दीजिये। समझता क्या है अपने आप को? मैं कोई ऐरी-गैरी लड़की नहीं हूँ। अपनी पत्नी से ... नहीं, अपनी माँ से पूछ फाइव स्टार के बारे में। सारा शहर जानता है कि यह मर्द शादीशुदा है। फिर भी इसकी यह मज़ाल। मुझ पर डोरे डाल रहा है। मैं भी बताती हूँ तूने किससे पंगा ले लिया? यह चिट्ठी अभी तेरे घर में तेरी पत्नी को देकर आती हूँ मैं।

श्रीमती अमिता
जाने कौन लडकी थी? न कुछ बोली न अन्दर ही आयी। बस एक कागज़ पकड़ाकर चली गयी तमकती हुई।

डॉ. अमित
अपने ऊपर शर्म आ रही है। मेरे जैसा पढा लिखा अधेड़ कैसे ऐसी बेवक़ूफी कर बैठा? पहले तो ऐसा बेतुका सपना देखा। ऊपर से ... जान न पहचान डिनर का बुलावा दे दिया मैंने … और लड़की भी इतनी तेज़ कि सीधे घर पहुँचकर चिट्ठी अमिता को दे आयी। ज़रा भी नहीं सोचा कि एक भूल के लिये कितना बड़ा नुकसान हो जाता। मेरा तो घर ही उजड जाता अगर अमिता अनपढ न होती।

[समाप्त]

Tuesday, May 31, 2011

छोटे मियाँ - लघुकथा

रिसेप्शनिस्ट मानो सवालों की बौछार सी किये जा रही थी और राजा भैया शांति से हर प्रश्न का जवाब देते जा रहे थे। वह पूछती, वे बताते और वह अपने कम्प्यूटर में दर्ज़ कर लेती। उम्र पूछी तो राजा ने मेरी ओर देखा। मैंने जवाब दिया तो रिसेप्शनिस्ट मुस्कराई, "द यंगेस्ट मैन इन द कम्युनिटी।"

जवाब में राजा भैया मुस्करा दिये और मेरे होठों पर भी मुस्कान आ गयी। एक ऐसी मुस्कान जिसमें हज़ारों खुशियाँ छिपी थीं। चौथी कक्षा में था तब दशहरे-दिवाली की छुट्टियों से पहले एक बार कक्षा एक से लेकर 12 तक के सभी छात्रों की सम्मिलित सभा में प्राचार्य ने छात्रों को मंच पर आकर इन पर्वों के बारे में बोलने का आमंत्रण दिया था। जब कोई नहीं उठा तो मैं चल पडा। बोलना खत्म करने तक सबका दिल जीत चुका था। भीमकाय प्राचार्य ने नकद पुरस्कार तो दिया ही, गोद में उठाकर जब "छोटे मियाँ" कहा तो जैसे वह मेरी पदवी ही बन गयी। जब तक उस विद्यालय में रहा सभी "छोटे मियाँ" कहकर बुलाते रहे।

नगर बदला तो स्कूल भी बदला। कक्षा में सबसे छोटा था। छोटे मियाँ कहलाया जा सकता था मगर यहाँ की संस्कृति भिन्न थी सो यहाँ नाम पडा "कुंवर जी।" नाम का अंतर भले ही रहा हो रुतबा वही था। वैसी ही प्यार की बौछार और छोटा होने पर भी बडे सहपाठियों और सहृदय अध्यापकों से मिलने वाला वैसा ही सम्मान।

समय कैसे बीतता है पता ही नहीं लगता। काम पर गया तो भी सबसे युवा होने के कारण बडी मज़ेदार घटनायें घटीं। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि छात्र प्रशिक्षुओं ने अपने में से ही एक समझा। यहाँ पर मैं "बेबी ऑफ द टीम" कहलाया। होली पर सबके तो हास्यास्पद नामकरण हुए मगर अपने लिये मिला, "... यहाँ के हम हैं राजकुमार।"

वैसे तो मैं अकेला ही आराम से आ सकता था। मगर राजा भैया आजकल साथ में चिपके से रहते हैं। फार्म तक भरने नहीं दिया। खुद ही भरते जा रहे थे। औपचारिकतायें पूरी होने के बाद रिसेप्शनिस्ट उठी और राजा भैया को धन्यवाद देकर मुझसे उन्मुख होकर बोली, "आइये कैप्टेन, आपको टीम से मिला दूँ।"

"सर्वश्रेष्ठ जगह है यह" राजा भैया ने मेरे पाँव छूते हुए कहा। उनके साथ मेरी आँख भी नम हुईं जब वे बोले, "यहाँ आपको कोई परेशानी नहीं होगी। वृद्धाश्रम नहीं, फाइव स्टार होटल है ये, पापा।"

[समाप्त]

Thursday, May 5, 2011

डैडी – कहानी अंतिम भाग [भाग 2]

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डैडी – कहानी के प्रथम भाग में आपने पढा कि:
डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराज़ें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोडकर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।
अब आगे की कथा:
एक बार जब डैडी टूर पर गए थे तो मुझे उनकी इतनी याद आई कि मैं बहुत रोई। उनके वापस आने पर मेरे मना करते करते भी माँ ने यह बात उन्हें बता दी। तब डैडी ने मुझे बताया कि उन्हें भी मेरी और माँ की बहुत याद आती है लेकिन वे जब भी हमें याद करते हैं तो वे दुखी नहीं होते, बल्कि उन्हें बहुत ही उन्हें अच्छा लगता है।

“याद से खुशी होनी चाहिए दुःख नहीं।”

“हाँ डैडी!”

उनकी यह बात आज भी मेरे जीवन का मूलमंत्र है और अब मैं जब भी उन्हें याद करती हूँ मुझे दुःख नहीं होता बल्कि याद करना अच्छा लगता है।

उस दिन जब मैं उनके कमरे में गयी तो वे एक डब्बा लिये कुछ देख रहे थे। कुछ चमकता सा दिखा तो मैंने पूछा कि क्या मैं पास से देख सकती हूँ तो उन्हों ने हाँ की। मैंने पास जाकर देखा तो उसमें तरह-तरह के सिक्के रखे थे। डैडी के डब्बे में संसार भर से अनेक प्रकार के सिक्के थे। सोने और चांदी के भी। चमचमाते सिक्के खूबसूरत पैकिंग में इस प्रकार रखे थे मानो अमूल्य गहने हों। मैं कोई एक घंटे तक उस डब्बे में रखे विभिन्न प्रकार के सिक्कों, नोटों, रंग बिरंगे फीतों और डाक टिकटों से खेलती रही। फिर माँ ने हमें डिनर के लिये बुला लिया। डैडी उस दिन मुझे पहली बार बहुत कूल लगे।

खाना खाते-खाते डैडी के लिए कोई फोन आ गया। भोजन छोड़कर वे अपने रहस्यमय कमरे में चले गये। जब वे वापस आये तो मैं सोने के लिये अपने कमरे में जाने ही वाली थी। डैडी ने गोद में लेकर मुझे गुडनाइट कहा और हमें बताया कि अगले दिन वे विदेश जाने वाले हैं। अपने बिस्तर से मैंने माँ को रोते हुए सुना। मैं कुछ जान पाती उससे पहले ही मुझे नींद आ गयी।

माँ अभी भी रसोई की सिंक के साथ गुत्थमगुत्था हो रही हैं। कुछ बोल नहीं रहीं पर उनके आँसू झर-झर बह रहे हैं। उन्हें देखकर मैं भी सुबकने लगी हूँ। मुझे पता है कि हम दोनों ही सिंक की रोती हुई टोटी के लिये नहीं रो रहे हैं। हम दोनों रो रहे हैं उस कूल इंसान के लिये जिसके होते हुए इस घर में न कभी कोई टोटी टपकी और न ही कोई आँख। जब तक डैडी यहाँ थे हमें पता ही नहीं चला कि कैसे चुपचाप वे इस मकान को हमारा प्रिय घर बनाने में लगे रहते थे।

डैडी, आप तो बुद्धा हो, आपको ज़रूर पता होगा कि हम आपको कितना मिस कर रहे हैं। आँखें गीली हैं, मन भीगा है, लेकिन मैं ज़रा भी दुखी नहीं हूँ। हँसकर याद करती हूँ। आपने मेरे लिये जो क्लब हाउस बनाया था, उसके बाहर मैंने एक गुलाब लगाया है आपकी याद में। मुझे मालूम है कि आप अपनी तस्वीर से बाहर नहीं आ सकते मगर वहीं से मुस्कराकर अपना प्यार हम तक पहुँचा रहे हैं।  मैने माँ से पूछकर आपके रिबन और मेडल सिक्कों के डब्बे से निकालकर शोकेस में लगा दिये हैं। एक नया मेडल भी है जो आपको मरणोपरांत मिला है।

मुझे आप पर गर्व है डैडी!

[समाप्त]
[कथा व चित्र :: अनुराग शर्मा]

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* एक शाम बेटी के नाम
* A day of my life

Wednesday, May 4, 2011

डैडी – कहानी

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माँ जुटी हुई हैं संघर्ष में। रसोई की टोटी आज फिर से बहने लगी है शायद। घर चाहे कितना भी बड़ा हो। घर का मालिक भी चाहे जितना बड़ा हो। अमेरिका में यह सारे काम स्वयं ही करने होते हैं। यह टोटी पहले भी कभी खराब ज़रूर हुई होगी लेकिन सच यह है कि तब हमें कभी इसका पता न चला। डैडी यहाँ थे तब माँ को घर-बाहर किसी बात की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं थी। तब तो शायद माँ को यह भी पता नहीं था कि ये चीज़ें कभी खराब होती भी हैं।

जब तक माँ और मैं सोकर उठते थे, डैडी नहा-धोकर, ध्यान करके या तो अखबार पढ रहे होते थे या उसके बाद अपनी ईमेल आदि देखते थे। बोलते वे कम ही थे मगर अपनी सुबह की चाय बनाने से लेकर बाकी सब काम भी ऐसे दबे पाँव करते थे कि कहीं गलती से भी हमारी नींद में खलल न पडे।

जब मैं तैयार हो जाती तब वे मुझे अपनी कार में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे। उस समय मैं उनसे ढेर सारी बातें करती थी। उस समय वे भी अन्य वक़्तों जैसे शांत और चुप्पा नहीं रहते थे। लगता था जैसे डैडी किसी और आदमी से बदल गये हों। स्कूल की छुट्टी होने पर वे मुझे लेने आ जाते थे। मुझे घर छोड़कर वे वापस अपने काम पर चले जाते थे। डैडी अस्पताल में थे या स्टील मिल में? क्या करते थे? यह मुझे तब ठीक से नहीं पता था। लेकिन इतना पता था कि जब वे शहर में होते थे तब ज़रूरत पड़ने पर किसी भी समय उन्हें घर बुलाया जा सकता था। लेकिन बीच-बीच में वे काम के सिलसिले में नगर से बाहर की यात्रायें भी करते थे। कभी-कभी वे विदेश भी चले जाते थे और हफ्तों तक हमें दिखाई नहीं देते थे। उनकी कोई भी यात्रा पहले से तय नहीं होती थी। किसी भी दिन चले जाते थे और किसी भी दिन वापस आ जाते थे। उनकी वापसी के बाद ही ठीक से पता लगता था कि कहाँ-कहाँ गये थे।

डैडी यूरोप में कहीं गये हुए थे। पाँच साल की छोटी सी मैं खिड़की में बैठी अपनी गुड़ियों से खेल रही थी कि मुझे उनकी कोई बात याद आयी। मेरे मन में एकदम यह विचार आया कि मेरे डैडी हमारे घर के महात्मा बुद्ध हैं, जानकार और शांत। मैं यह बात सोच ही रही थी कि उन्होंने घर में प्रवेश किया। लपककर मुझे गोद में उठाया तो मैंने खुश होकर कहा, “डैडी, आप न, बिल्कुल भगवान बुद्ध ही हो। फर्क बस इतना है कि भगवान बुद्ध बहुत ज़्यादा बुद्धिमान हैं और आप उतने बुद्धिमान नहीं हैं।“

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
डैडी ने वैरी गुड कहकर मुझे चूम लिया। कुछ ही देर में उनके सूटकेस से मेरे लिये उपहारों की झड़ी लगने लगी, जैसे कि हमेशा होता था। माँ कुछ खुश नहीं दिख रही थी। घर में कुछ तो ऐसा चलता था जिसे मैं समझ नहीं पाती थी। माँ शायद डैडी के जॉब से अप्रसन्न रहती थीं। वे चाहती थीं कि डैडी भी आस-पड़ोस के पुरुषों की तरह हमेशा शहर में ही रहने वाली कोई नौकरी करें।

डैडी जब फोन पर अपने काम की बात कर रहे होते थे तब कमरा अन्दर से बन्द रहता था। बाकी समय उनके कमरे में जाना एक रोमांचक अनुभव होता था। घर के अन्दर भी उनके कमरे की अलमारियाँ और दराजें सदैव तालाबन्द रहती थीं। कभी-कभी मैं उनका रहस्य जानने के लिये चुपके से उनके कमरे में चली जाती थी और वे अपना सब काम छोड़कर लपककर मुझे गोद में उठा लेते थे।

[क्रमशः]

Saturday, April 9, 2011

घर और बाहर - लघुकथा

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" ... ऊँच-नीच से ऊपर उठे बिना क्रांति नहीं आयेगी। ... मैं और मेरा, यह सब पूंजीपतियों के चोंचले हैं। ... धर्म अफीम है। ... शादी, विवाह, परिवार जैसी रस्में हमें बान्धने के लिये, हमारी सोच को कुंद करने के लिये पिछड़े, धर्मभीरु समाजों ने बनाई थीं। ... अपना घर फूंककर हमारे साथ आइये।"

कामरेड का ओजस्वी भाषण चल रहा था। उनके चमचे जनता को विश्वास दिला रहे थे कि क्रांति दरवाज़े तक तो आ ही चुकी है। जिस दिन इलाके के स्कूल, कारखाने, थाने, और इधर से गुज़रने वाली ट्रेनों को आग लगा दी जायेगी, क्रांति का प्रकाश उसी दिन उनके जीवन को आलोकित कर देगा।

भाषण के बाद जब कामरेड अपनी कार तक पहुँचे तो देखा कि उनके नौकर एक अधेड़ को लुहूलुहान कर रहे थे।

"क्या हुआ?" कामरेड ने पूछा।

"हुज़ूर, चोरी की कोशिश में था ... शायद।"

"तेरी ये हिम्मत, जानता नहीं कार किसकी है?" कामरेड ने ज़मीन पर तड़पते हुए अधेड़ को एक लात लगाते हुए कहा और अपने काफिले के साथ निकल लिये। उनका समय कीमती था।

उस सर्द रात के अगले दिन एक स्थानीय अखबार के एक कोने में एक लावारिस भिखारी सड़क पर मरा पाया गया। दो भूखे अनाथ बच्चों पर अखबार की नज़र अभी नहीं पडी है क्योंकि वे अभी भी जीवित हैं।

मंत्री जी कमिश्नर से कह रहे थे, "कोई लड़का बताओ न! अपने कामरेड जी की बेटी के लिये। दहेज़ खूब देंगे, फैक्ट्री लगा देंगे, एनजीओ खुला देंगे। उत्तर-दक्षिण, देश-विदेश कहीं से भी हो शर्त बस एक है, लडका ऊँची जाति का होना चाहिये।"

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ऑडियो प्रस्तुतियाँ - आपके ध्यानाकर्षण के लिये
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उपाय छोटा काम बड़ा
बांधों को तोड़ दो
कमलेश्वर की "कामरेड"

Tuesday, December 21, 2010

आती क्या खंडाला?

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एक हसीन सुबह को मैंने कहा, "मसूरी चलें, सुबह जायेंगे, शाम तक वापस आ जायेंगे।"
उसने कहा, "नहीं, सब लोग बातें बनायेंगे, पहले ही हमारा नाम जोड़ते रहते हैं।"

वह मुड़ गयी और मैं कह भी न सका कि बस स्टॉप तक तो चल सकती हो।

मैंने कहा, "ऑफिस से मेरे घर आ जाना, बगल में ही है।"

"नहीं आ सकती आज भैया का कोई मित्र मुुुुझे लेने आयेगा, उसके साथ ही जाना होगा" कहकर उसने फोन रख दिया, मैं सोचता ही रह गया कि दुनिया आज ही खत्म होने वाली तो नहीं। क्या कल भी हमारा नहीं हो सकता?

मैंने कहा, "सॉरी, तुम्हारा समय लिया।"
उसने कहा, "कोई बात नहीं, लेकिन अभी मेरे सामने बहुत सा काम पड़ा है।"

मैंने कहा, "कॉनफ़्रेंस तो बहाना थी, आया तो तुमसे मिलने हूँ।"
उसने कहा, "कॉनफ़्रेंस में ध्यान लगाओ, तुम्हारे प्रमोशन के लिये ज़रूरी है।"

मैंने कहा, "एक बेहद खूबसूरत लडकी से शादी का इरादा है।"
उसने कहा, "मुझे ज़रूर बुलाना।
मैंने कहा, "तुम्हें तो आना ही पड़ेगा।"
उसने कहा, "ज़िन्दगी गिव ऐंड टेक है..." और इठलाकर बोली, "तुम मेरी शादी में आओगे तो मैं भी तुम्हारी में आ जाऊंगी।"

मैं अभी तक वहीं खडा हूँ। वह तो कब की चली भी गयी अपनी शादी का कार्ड देकर।

[तारीफ उस खुदा की जिसने जहाँ बनाया]

Wednesday, September 8, 2010

पागल – लघु कथा

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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”

स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”

स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”

पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”

स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

Wednesday, August 18, 2010

चोर - कहानी [भाग 4]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
...
मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दांत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”
...
“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।
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[भाग 1] [भाग 2] [भाग 3] अब आगे की कहानी:
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“कल रात एक सफेद कमीज़ यहाँ टांगी थी, तुमने देखी क्या?” सुबह दफ्तर जाते समय जब कमीज़ नहीं दिखी तो मैंने श्रीमती जी से पूछा।

“वह तो भैया ले गये।“

“भैया? भैया कब आये?”

“केके कस्साब भैया! कल रात ही तो आये थे। जिन्होंने मुझे राखी बांधी थी।“

“मेरी कमीज़ उस राक्षस को कहाँ फिट आयेगी?” पत्नी को शायद मेरी बड़बड़ाहट सुनाई नहीं दी। जल्दी से एक और कमीज़ पर इस्त्री की। तैयार होकर बाहर आया तो देखा कि ट्रिपल के भैया मेरी कमीज़ से रगड़-रगड़कर अपने जूते चमका रहे थे। मैं निकट से गुज़रा तो वह बेशर्मी से मुस्कराया, “ओ हीरो, तमंचा देता है क्या?”

मेरा सामान गायब होने की शुरूआत भले ही कमीज़ से हुई हो, वह घड़ी और ब्रेसलैट तक पहुँची और उसके बाद भी रुकी नहीं। अब तो गले की चेन भी लापता है। मैंने सोचा था कि तमंचे की गुमशुदगी के बाद तो यह केके कस्साब हमें बख्श देगा मगर वह तो पूरी शिद्दत से राखी के पवित्र धागे की पूरी कीमत वसूलने पर आमादा था।

शाम को जब दफ्तर से थका हारा घर पहुँचा तो चाय की तेज़ तलब लगी। रास्ते भर दार्जीलिंग की चाय की खुश्बू की कल्पना करता रहा था। अन्दर घुसते ही ब्रीफकेस दरवाज़े पर पटककर जूते उतारता हुआ सीधा डाइनिंग टेबल पर जा बैठा। रेडियो पर “हार की जीत” वाले पंडित सुदर्शन के गीत “तेरी गठरी में लागा चोर...” का रीमिक्स बज रहा था। देखा तो वह पहले से सामने की कुर्सी पर मौजूद था। सभ्यता के नाते मैंने कहा, “जय राम जी की!”

”सारी खुदाई एक तरफ, केके कसाई एक तरफ” केके कसाई कहते हुए उसने अपने सिर पर हाथ फेरा। उसके हाथ में चमकती हुई चीज़ और कुछ नहीं मेरा तमंचा ही थी।

“खायेगा हीरो?” उसने अपने सामने रखी तश्तरी दिखाते हुए मुझसे पूछा।

“राम राम! मेरे घर में ऑमलेट लाने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?” तश्तरी पर नज़र पड़ते ही मेरा खून खौल उठा।

“दीदीऽऽऽ” वह मेरी बात को अनसुनी करके ज़ोर से चिल्लाया।

जब तक उसकी दीदी वहाँ पहुँचतीं, मैंने तश्तरी छीनकर कूड़ेदान में फेंक दी।

“मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा” मैंने गुस्से में कहा।

“मैने तो आपके खाने को कभी बुरा भला नहीं कहा, आप मेरा निवाला कैसे छीन सकते हैं?”

“भैया, मैं आपके लिये खाना बनाती हूँ अभी ...” बहन ने भाई को प्यार से समझाया।

“मगर दीदी, किसी ग्रंथ में ऑमलेट को मना नहीं किया गया है” वह रिरिआया, “बल्कि खड़ी खाट वाले पीर ने तो यहाँ तक कहा है कि आम लेट कर खाने में कोई बुराई नहीं है”।

“ऑमलेट का तो पता नहीं, मगर अतिथि सत्कार और शरणागत-वात्सल्य का आग्रह हमारे ग्रंथों में अवश्य है” कहते हुए श्रीमती जी ने मेरी ओर इतने गुस्से से देखा मानो मुझे अभी पकाकर केकेके को खिला देंगी।

चाय की तो बात ही छोड़िये उस दिन श्रीमान-श्रीमती दोनों का ही उपवास हुआ।

और मैं अपने ही घर से “बड़े बेआबरू होकर...” गुनगुनाता हुआ जब दरी और चादर लेकर बाहर चबूतरे पर सोने जा रहा था तब चांदनी रात में मेरे घर पर सुनहरी अक्षरों से लिखे हुए नाम “श्रीनगर” की चमक श्रीहीन लग रही थी।

[समाप्त]

यूँ ही याद आ गये, अली सिकन्दर "जिगर" मुरादाबादी साहब के अल्फाज़:
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है

Monday, August 16, 2010

चोर - कहानी [भाग 3]

पिछले अंकों में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।

मैंने कड़क कर चोर से कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

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[भाग 1] [भाग 2] अब आगे की कहानी:
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उस रात मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ से हिंसा हो जायेगी। यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि इतना भारी-भरकम आदमी कोई प्रतिरोध किये बिना इतने आराम से धराशायी हो जायेगा। जब पत्नी ने विजयी मुद्रा में हमारे कंधे पर हाथ रखा तो समझ में आया कि बन्दा धराशायी नहीं हुआ था बल्कि उन्हें देखकर दण्डवत प्रणाम कर रहा था।

“ममाSSS, ... नहीं नहीं दीदी!” ज़मीन पर पड़े उस पहलवान ने बनावटी रुदन के साथ जब श्रीमती जी को चरण स्पर्श किया तो मुझे उसकी धूर्तता स्पष्ट दिखी।

“मैं आपकी शरण में हूँ ममा, ... नहीं, नहीं... मैं आपकी शरण में हूँ दीदी!” मुझपर एक उड़ती हुई विजयी दृष्टि डालते हुए वह शातिर चिल्लाया, “कई दिन का भूखा हूँ दीदी, थाने भेजने से पहले कुछ खाने को मिल जाता तो अच्छा होता... पुलिस वाले भूखे पेट पिटाई करेंगे तो दर्द ज़्यादा होगा।”

मैं जब तक कुछ कहता, श्रीमती जी रसोई में बर्तन खड़खड़ कर रही थीं। उनकी पीठ फिरते ही वह दानव उठ बैठा और तमंचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए बोला, “ये पिस्तॉल मुझे दे दे ठाकुर तो अभी चला जाउंगा। वरना अगर यहीं जम गया तो...” जैसे ही उसने श्रीमतीजी को रसोई से बाहर आते देखा, बात अधूरी छोड़कर किसी कुशल अभिनेता की तरह दोनों हाथ जोड़कर मेरे सामने सर झुकाये घुटने के बल बैठकर रोने लगा।

“मुझे छोड़ दो! इतने ज़ालिम न बनो! मुझ ग़रीब पर रहम खाओ।” पत्नी के बैठक में आते ही रोन्दू पहलवान का नाटक फिर शुरू हो गया।

“इनसे घबराओ मत, यह तो चींटी भी नहीं मार सकते हैं। लो, पहले खाना खा लो” माँ अन्नपूर्णा ने छप्पन भोगों से सजी थाली मेज़ पर रखते हुए कहा, “मैं मिठाई और पानी लेकर अभी आयी।”

“दीदी मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, मेरी कोई सगी बहन नहीं है...” कहते कहते उसने अपने घड़ियाली आँसू पोंछते हुए जेब से एक काला धागा निकाल लिया। जब तक मैं कुछ समझ पाता, उसने वह धागा अपनी नई दीदी की कलाई में बांधते हुए कहा, “जैसे कर्मावती ने हुमायूँ के बांधी थी, वैसी ही यह राखी आज हम दोनों के बीच कौमी एकता का प्रतीक बन गयी है।”

“आज से मेरी हिफाज़त का जिम्मा आपके ऊपर है” मुझे नहीं लगता कि श्रीमती जी उसकी शरारती मुस्कान पढ़ सकी थीं। मगर मेरी छाती पर साँप लोट रहे थे।

“फिकर नास्ति। शरणागत रक्षा हमारा राष्ट्रीय धर्म और कर्तव्य है” श्रीमती जी ने राष्ट्रीय रक्षा पुराण उद्धृत करते हुए कहा।

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यह कड़ी लिखते समय यूँ ही फिराक़ गोरखपुरी साहब के शब्द याद आ गये, बांटना चाहता हूँ:

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने यह राज़ खोला
के अब जज़्बा-ओ-शौक़ की
वहशतों के ज़माने गये
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता
चारों तरफ देखता
मुझ से कहने लगा
अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहाँ से भी मिल जाये,
दौलत समेटो
गर्ज़ कुछ तो तहज़ीब सीखो।
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विनम्र निवेदन: क्षमाप्रार्थी हूँ। छोटे-छोटे खंडों को पढने से होने वाली आपकी असुविधा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु अभी उतना समय नहीं निकाल पा रहा हूँ कि एक बड़ी कड़ी लिख सकूँ। समय मिलते ही पूरा करूंगा। भाई संजय, आपका अनुरोध भी व्यस्तता के कारण ही पूरा नहीं हो सका है।
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Sunday, August 15, 2010

चोर - कहानी [भाग 2]

चोर - कहानी [भाग 1] में आपने पढा कि प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। डरावने सपने आते हैं। ऐसे ही एक सपने के बीच जब पत्नी ने मुझे जगाकर बताया कि किसी घुसपैठिये ने हमारे घर का दरवाज़ा खोला है।
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अब आगे की कहानी:
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मैंने तकिये के नीचे से तमंचा उठाया और अन्धेरे में ही बिस्तर से उठकर दबे पाँव अपना कमरा और बैठक पार करके द्वार तक आया। छिपकर अच्छी तरह इधर-उधर देखा। जब कोई नहीं दिखाई दिया तो दरवाज़ा बेआवाज़ बन्द करके वापस आने लगा। इतनी देर में आँखें अन्धेरे में देखने की अभ्यस्त हो चुकी थीं। देखा कि बैठक के एक कोने में कई सूटकेस, अटैचियाँ आदि खुली पड़ी थीं।

काला कुर्ता और काली पतलून पहने एक मोटे-ताज़े पहलवान टाइप महाशय तन्मयता के साथ एक काले थैले में बड़ी सफाई से कुछ स्वर्ण आभूषण, चान्दी के बर्तन और कलाकृति आदि सहेज रहे थे। या तो वे अपने काम में कुछ इस तरह व्यस्त थे कि उन्हें मेरे आने का पता ही न चला या फिर वे बहरे थे। अपने घर में एक अजनबी को इतने आराम से बैठे देखकर एक पल के लिये तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। आज के ज़माने में ऐसी कर्मठता? आधी रात की तो बात ही क्या है मेरे ऑफिस के लोगों को पाँच बजे के बाद अगर पाँच मिनट भी रोकना चाहूँ तो असम्भव है। और यहाँ एक यह खुदा का बन्दा बैठा है जो किसी श्रेय की अपेक्षा किये बिना चुपचाप अपने काम में लगा है। लोग तो अपने घर में काम करने से जी चुराते हैं और एक यह समाजसेवी हैं जो शान्ति से हमारा सामान ठिकाने लगा रहे हैं।

अचानक ही मुझे याद आया कि मैं यहाँ उसकी कर्मठता और लगन का प्रमाणपत्र देने नहीं आया हूँ। जब मैंने तमंचा उसकी आँखों के आगे लहराया तो उसने एक क्षण सहमकर मेरी ओर देखा। और फिर अचानक ही खीसें निपोर दीं। सभ्यता का तकाज़ा मानते हुए मैं भी मुस्कराया। दूसरे ही क्षण मुझे अपना कर्तव्य याद आया और मैंने कड़क कर उससे कहा, “मुँह बन्द और दाँत अन्दर। अभी! दरवाज़ा तुमने खोला था?”

“जी जनाब! अब मेरे जैसा लहीम-शहीम आदमी खिड़की से तो अन्दर आ नहीं सकता है।”

“यह बात भी सही है।”

उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरा प्रश्न व्यर्थ था। उसके उत्तर से संतुष्ट होकर मैंने उसे इतना मेहनती होने की बधाई दी और वापस अपने कमरे में आ गया। पत्नी ने जब पूछा कि मैं क्या अपने आप से ही बातें कर रहा था तो मैंने सारी बात बताकर आराम से सोने को कहा।

“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। घर में चोर बैठा है और तुम आराम से सोने की बात कर रहे हो। भगवान जाने किस घड़ी में मैने तुमसे शादी को हाँ की थी।”

“अत्ता मी काय करा?” ये मेरी बचपन की काफी अजीब आदत है। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती है तो अनजाने ही मैं मराठी बोलने लगता हूँ।

“क्या करूँ? अरे उठो और अभी उस नामुराद को बांधकर थाने लेकर जाओ।”

“हाँ यही ठीक है” पत्नी की बात मेरी समझ में आ गयी। एक हाथ में तमंचा लिये दूसरे हाथ में अपने से दुगुने भारी उस चोर का पट्ठा पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।”

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Tuesday, August 10, 2010

चोर - कहानी

प्याज़ खाना मेरे लिये ठीक नहीं है। पहले तो इतनी तेज़ महक, ऊपर से आँख में आँसू भी लाता है। जैसे तैसे खा भी लूँ तो मुझे पचता नहीं है। अन्य कई दुष्प्रभाव भी है। गला सूख जाता है और रात में बुरे-बुरे सपने आते हैं। एक बार प्याज़ खाकर सोया तो देखा कि दस सिर वाली एक विशालकाय मकड़ी मुझे अपने जाल में लपेट रही है।

एक अन्य बार जब प्याज़ खाया तो सपना देखा कि सड़क पर हर तरफ अफ़रातफ़री मची हुई है. ठेले वाले, दुकानदार आदि जान बचाकर भाग रहे हैं। सुना है कि माओवादियों की सरकार बन गयी है और सभी दुकानदारों और ठेला मालिकों को पूंजीवादी अनुसूची में डाल दिया गया है। सरकारी घोषणा में उन्हें अपनी सब चल-अचल सम्पत्ति छोड़कर देश से भागने के लिये 24 घंटे की मोहलत दी गयी है। दो कमरे से अधिक बड़े मकानों को उसमें रहने वाले शोषकों समेत जलाया जा रहा है। सरकारी कब्रिस्तान की लम्बी कतारों में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते शांतचित्त मुर्दों के बीच की ऊँच-नीच मिटाने के उद्देश्य से उनके कफन एक से लाल रंग में रंगे जा रहे हैं। रेल की पटरियाँ, मन्दिर-मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे तोड़े जा रहे हैं। सिगार, हँसिये और हथौड़े मुफ्त बंट रहे हैं और अफ़ीम के खेत काटकर पार्टी मुख्यालय में जमा किये जा रहे हैं। सभी किसान मज़दूरों को अपना नाम पता और चश्मे के नम्बर सहित पूरी व्यक्तिगत जानकारी दो दिन के भीतर पोलित ब्यूरो के गोदाम में जमा करवानी है। कितने ही बूढ़े किसानों ने घबराकर अपने चश्मे तोड़कर नहर में बहा दिये हैं कि कहीं उन्हें पढ़ा-लिखा और खतरनाक समझकर गोली न मार दी जाये। आंख खुलने पर भी मन में अजीब सी दहशत बनी रही। कई बार सोचा कि सुरक्षा की दृष्टि से अपना नाम भगवानदास से बदलकर लेनिन पोलपोट ज़ेडॉङ्ग जैसा कुछ रख लूँ।

पिछ्ली बार का प्याज़ी सपना और भी डरावना था। मैंने देखा कि हॉलीवुड की हीरोइन दूरी शिक्षित वृन्दावन गार्डन में “धक धक करने लगा” गा रही है। अब आप कहेंगे कि दूरी शिक्षित वाला सपना डरावना कैसे हुआ, तो मित्र सपने में वह अकेली नहीं थी। उसके हाथ में हाथ डाले अरबी चोगे में कैनवस का घोडा लिये हुए नंगे पैरों वाला एक बूढ़ा भी था। ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह टोफू सैन था। जब तक मैं पास पहुँचा, टोफू ने अपने साँप जैसे अस्थिविहीन हाथ से दूरी की कमर को लपेट लिया था। दूरी की तेज़ नज़रों ने दूर से ही मुझे आते हुए देख लिया था। किसी अल्हड़ की तरह शरमाते हुए उसने उंगलियों से अपना दुपट्टा उमेठना शुरू कर दिया। वह कुछ कहने लगी मगर पता नहीं शर्म के कारण या अचानक रेतीले हो गये उस बाग में फैलती मुर्दार ऊँट की गन्ध की वजह से वह ऐसे हकलाने लगी कि मैं उसकी बात ज़रा भी समझ न सका।

जब मैंने अपना सुपर साइज़ हीयरिंग एड लगाया तो समझ में आया कि वह अपने पति फाइटर फ़ेणे को तलाक देने की बात कर रही थी। मुझे गहरा धक्का लगा मगर वह कहने लगी कि वह भारत की हरियाली और खुलेपन से तंग आकर टोफू के साथ किसी सूखे रेगिस्तान में भागकर ताउम्र उसके पांव की जूती बनकर सम्मानजनक जीवन बिताना चाहती है।

“लेकिन फाइटर फेणे तो इतना भला है” मैं अभी भी झटका खाये हुए था।

“टोफू जैसा हैंडसम तो नहीं है न!” वह इठलाकर बोली।

“टोफू और सुन्दर? यह कब से हो गया?” मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी, “उसके मुँह में तो दांत भी नहीं हैं।”

“यह तो सोने में सुहागा है” वह कुटिलता से मुस्कुराई।

मैं कुछ कहता कि श्रीमती जी बिना कोई अग्रिम सूचना दिये अचानक ही प्रकट हो गयीं। मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। मुल्ला दो प्याज़ी सपनों में ऐसी डरावनी बातें तो होती ही रहती हैं।

“घर का दरवाज़ा बन्द नहीं किया था क्या?” श्रीमती जी बहुत धीरे से बोलीं।

“फुसफुसा क्यों रही हो सिंहनी जी? तुम्हारी दहाड़ को क्या हुआ? गले में खिचखिच?”

वे फिर से फुसफुसाईं, “श्शशशश! आधी रात है और घर के दरवाज़े भट्टे से खुले हैं, इसका मतलब है कि कोई घर में घुसा है।”

अब मैं पूर्णतया जागृत था।

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Wednesday, August 4, 2010

सम्बन्ध - लघुकथा

कल शनिवार की छुट्टी थी लेकिन वे तरणताल में नहीं थे। पूरा दिन कम्प्यूटर पर बैठकर अपने बचपन के चित्र लेकर उनके सम्पादन और छपाई पर हाथ साफ करते रहे। आज भी कल का बचा काम पूरा किया है। घर होता तो माँ अब तक कई बार कमरे से बाहर न निकलने का उलाहना दे चुकी होती। शायद चाय भी बनाकर रख गयी होती। अब यहाँ परदेस में है ही कौन उनका हाल पूछने वाला। कितनी बार तो कहा है माँ-बाबूजी को कि बस एक बार आकर देख तो लीजिये कैसा लगता है। किस तरह वसंत में पेड़ों से इतने फूल झड़ते हैं जैसे कि आकाश से देव पुष्प वर्षा कर रहे हों। और सड़क के दोनों ओर के हरे-भरे जंगलों से अचानक बीच में आ गये हरिणों के झुंड देखकर बचपन में पढे तपोवनों के वर्णन साक्षात हो जाते हैं। गर्मियों की दोपहरी में लकडी की डैक पर बैठ जाओ तो कृष्णहंस से लेकर गरुड तक हर प्रकार का पक्षी दिखाई दे जाता है। ऐसा मनोरम स्थल है। लेकिन कोई फायदा नहीं। बाबूजी हंसकर कहते हैं, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?" माँ कहेंगी कि बाबूजी के बिना अकेले कैसे आयेंगी। और घूमफिर कर बात वहीं पर आ जाती है जहाँ वे इस समय अकेले बैठकर काम कर रहे हैं।

चालीस के होने को हैं लेकिन अभी तक अकेले। अमेरिका में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके जैसे कितने ही हैं यहाँ पर। किसी ने एक बार भी शादी नहीं की और किसी ने कुछ साल शादीशुदा रहकर आपसी सहमति से अलग होने का निर्णय ले लिया बिना किसी चिकचिक के। वे कभी-कभी सोचते हैं तो आश्चर्य होता है कि भारतीय समाज में विवाह कितना ज़रूरी है। रिश्वती, चोर-डाकू, हत्यारे, बलात्कारी, जीवन भर चाहे कितने भी कुकर्म करते रहें कोई बात नहीं मगर जहाँ किसी को अविवाहित देखा तो सारे मुहल्ले में अफवाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। यहाँ भी उनके भारतीय परिचित जब भी मिलते हैं, एक ही सवाल करते हैं, "शादी कब कर रहे हो? कब का मुहूर्त निकला है? किसी गोरी को पकड़ लो। अबे इंडिया चला जा ..." आदि-आदि।

शुरू-शुरू में वे सफाई देते थे। वैसे सफाई की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनके एक मामा और एक चाचा भी अविवाहित रहे थे। नानाजी के एक भाई तो गांव भर में ब्रह्मचारी के नाम से प्रसिद्ध थे। बुआ-दादी मरने तक अविवाहित रहीं। जिस लड़के को दिल दिया था वह भारी दहेज़ के लोभ में तोताचश्म हो गया। किसी दूसरे के साथ रहने को मन नहीं माना। "मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली" गाते-गाते ही जीवन बिता दिया।

प्रारम्भ में सोचा था कि कुछ पैसा इकट्ठा करके वापस चले जायेंगे। लेकिन दूसरे बहुत से सपनों की तरह यह सपना भी जल्दी ही टूट गया। एक साल भी वहाँ रह नहीं सके। दिन रात सरकारी-अर्धसरकारी विभागों और अखबारों के चक्कर काटने के बावजूद घर के दरवाज़े पर यमलोक के द्वार की तरह खुले पड़े मैनहोल भी बन्द नहीं करवा सके। मकान मालिक के घर में चोरी हुई तो इलाके के थानेदार ने उन्हें सिर्फ इस बात पर चोरों की तरह जलील किया कि उन्होने कोई आहट क्यों नहीं सुनी। और फिर जब स्कूल जाती बच्चियों से छेड़छाड़ करने से रोकने पर कुछ गुंडों ने बीच बाज़ार में ब्लेड से उनकी कमर पर चीरा लगा दिया और रोज़ दुआ सलाम करने वाले दुकानदारों और राहगीरों ने उस समय बीच में पड़ने के बजाय बाद में बाबूजी को समझाना शुरू किया कि इसे वापस भेज दो, विदेश में रहकर सनक गया है, हमारी दुकानदारी चौपट कराएगा तो भयाक्रांत माता-पिता ने भी यही उचित समझा। अब तक उनका मन भी काफी खट्टा हो चुका था सो बिना स्यापा किये वापस आ गये।

खुश ही है यहाँ। अपना घर है, नौकरी भी ठीक-ठाक सी ही है। हाँ, माँ-बाबूजी साथ होते तो उल्लास ही उल्लास होता। छोटी सी कम्पनी है। कुल जमा पांच लोग। पूरे दफ्तर में वह अकेले मर्द हैं। एक बार भारत में चार लड़कियों के बीच काम करना पडा था तो हमेशा सचेत रहना पड़ता था। कभी अंजाने में मुँह से कुछ गलत न निकल जाये। यहाँ ऐसा कुछ चक्कर नहीं है। सच कहूँ तो पांचों के बीच उन्हीं की भाषा सबसे संयत है। यहाँ की संस्कृति भारत-पाक से एकदम अलग है। न ऑनर किलिंग है, न खाप अदालतें। लड़कोंकी तरह लड़कियाँ भी कभी भी अकेले घर से बाहर निकलने में सुरक्षित महसूस करतई हैं। अपना जीवन साथी भी स्वयम ही ढूँढना पड़ता है। स्वयँवर – वैदिक स्टाइल? कई बार लड़कियों ने उनसे भी इस बाबत बात की है परंतु जब उन्होने अरुचि दिखाई तो अपना रास्ता ले लिया।

दिन यूं ही गुज़र रहे थे मगर अब कुछ तो बदलाव आया है। पिछली नौकरी में पाकिस्तानी सहकर्मी करीना के साथ अच्छा अनुभव नहीं रहा था सो वहाँ से त्यागपत्र देकर यहाँ आ गये। यहाँ किसी को भी उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता नहीं है। फिर भी पिछ्ले कुछ दिनों से सोन्या उनके साथ बैठने का कोई न कोई बहाना ढूंढती रहती है, वह भी अकेले में। जब कोई साथ न हो तो उनके पास आकर अपने पति की शिकायत सी करती रहती है। शुरू में तो उन्होने अपने से आधी आयु की लड़की की बात को सामान्य बातचीत समझा। वैसे भी बचपने की दोस्ती में प्यार कम शिकायतें ज़्यादा होती हैं। बाबूजी हमेशा कहते हैं, "नादान की दोस्ती, जी का जंजाल"। जब उन्होने भारतीय अन्दाज़ में सोन्या को समझाया कि बच्चा होने पर घर गुलज़ार हो जायेगा तो सोन्या भड़क गयी, "मुझे उसका बच्चा नहीं पैदा करना है, उसके जैसा ही होगा।"

एक दिन सुबह जब कोई नहीं था तो उनके पास आकर कहने लगी, "आप तो इतने सुन्दर और बुद्धिमान हैं, आपके बच्चे भी बहुत होशियार होंगे।" वह तो अच्छा हुआ कि तभी उनको छींक आ गयी और वे बहाने से गुसलखाने की ओर दौड़ लिये। बात आयी गयी हो गयी। परसों कहने लगी, "आपमें कितना सब्र है, आप बहुत अच्छे पिता सिद्ध होंगे।" तब से उनका दिल धक-धक कर रहा है। दो दिन लगाकर तीन चार चित्र छापे हैं। सुन्दर चौखटों में जड़कर लैप्टॉप के थैले में रख लिये हैं। सोमवार को सोन्या कोई प्रश्न करे इससे पहले ही मेज़ पर धरे यह चित्र स्वयम ही उनका पितृत्व स्थापित कर देंगे और साथ ही एक नये रिश्ते में अनास्था भी। उन्होने मुस्कराकर शाबाशी की एक चपत खुद ही अपनी गंजी होती चान्द पर लगा ली और सोने चल दिये।