Monday, August 17, 2009

सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान

कल शाम की सैर के बाद घर जाते हुए मैं सोच रहा था कि क्या शाहरुख खान के इस आरोप में दम है कि एक अमेरिकी हवाई अड्डे पर उनसे हुई पूछताछ के पीछे उनके उपनाम का भी हाथ है। पता नहीं ... मगर हल्ला काफी मचा। पिछले दिनों कमल हासन के साथ भी इसी तरह की घटना हुई थी। फर्क बस इतना ही था कि तब कहीं से कोई फतवा नहीं आया था और किसी ने भी इस घटना के नाम पर धर्म को नहीं भुनाया था। मैं सोच रहा था कि इस्लाम के नाम पर दुनिया भर में हिंसा फैलाने वालों ने इस्लाम की छवि इतनी ख़राब कर दी है कि जब तब किसी शाहरुख खान से पूछताछ हो जाती है और किसी इमरान हाशमी को घर नहीं मिलते। आख़िर खुदा के बन्दों ने इस्लाम का नेक नाम आतंकवादियों के हाथों लुटने से बचाया क्यों नहीं? मैं शायद सोच में कुछ ज़्यादा ही डूबा था, जभी तो सैय्यद चाभीरामानी को आते हुए देख नहीं पाया।

सैय्यद चाभीरमानी से आप पहले भी मिल चुके हैं। ज़रा याद करिए सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा वाली मुलाक़ात! कितना पकाया था हमें दाढी के नाम पर। हमारी ही किस्मत ख़राब थी कि अब फ़िर उनसे मुलाक़ात हो गयी। और इत्तेफाक देखिये कि शाहरुख खान को भी अपनी फ़िल्म की पब्लिसिटी कराने के लिए इसी हफ्ते अमेरिका आना पडा।

सैय्यद काफी गुस्से में थे। पास आए और शुरू हो गए, "अमेरिका में एयरपोर्ट के सुरक्षा कर्मियों की ज्यादती देखिये कि खान साहब से भी पूछताछ करली।"

"अरे वो सबसे करते हैं। कमल हासन से भी की थी और मामूती से भी। " हमने कड़वाहट कम करने के इरादे से कहा। बस जी, चाभीरामानी जी उखड गए हत्थे से। कहने लगे, "किंग खान कोई मामूली आदमी नहीं है। मजाल जो भारत में कोई एक सवाल भी पूछ के देख ले किसी शाही खान (दान) से! ये अमेरिका वाले तो इस्लाम के दुश्मन हैं। काफिरों की सरकार है वहाँ।"

"काफिरों की सरकार के मालिक तो आपके बराक हुसैन (ओबामा) ही हैं" हमने याद दिलाया।

"उससे क्या होता है? मुसलमानों के दिलों में बिग डैडी अमेरिका के खिलाफ नफरत ही रहेगी। यह गोरे तो सब हमसे जलते हैं" उन्होंने रंगभेद का ज़हर उगला।

हम जानते थे कि सैय्यद सुनेंगे नहीं फ़िर भी कोशिश की, "अरे वे गोरे नहीं काले ही हैं हम लोगों की तरह"

"हम लोगों की तरह? लाहौल विला कुव्वत? हम लोग कौन? काले होंगे आप। हमारा तो खालिस सिकन्दरी और चंगेजी खून है।"

हम समझ गए कि अगर चूक गए तो सैय्यद को बहुत देर झेलना पडेगा। इसलिए बात को चंगेज़ खान से छीनकर वापस शाहरूख खान तक लाने की एक कोशिश कर डाली। समझाने की कोशिश की कि वहाँ हवाई अड्डे पर सबकी चेकिंग होती है, जोर्ज क्लूनी की भी और टॉम हैंक्स की भी जिन्हें सारी दुनिया जानती है तो फ़िर खान साहब क्या चीज़ हैं। मगर आपको तो पता ही है कि जो मान जाए वो सैय्यद चाभीरामानी नहीं।

बोले, "बादशाह खान का कमाल और किलूनी जैसे मामूली एक्टरों से क्या मुकाबला? उनके फैन पाकिस्तान से लेकर कनाडा तक में है।" सैय्यद इतना बौरा गए थे कि उन्हें किंग खान (शाहरुख) और बादशाह खान (भारत रत्न फ्रंटियर गांधी स्वर्गीय खान अब्दुल गफ्फार खान) में कोई फर्क नज़र नहीं आया। हमने फ़िर समझाने की कोशिश की मगर वे अपनी रौ में खान-दान के उपादान ही बताते रहे।

हमें एक और खान साहब याद आए जिनका मन किया तो अभयारण्य में जाकर सुरक्षित, संरक्षित और संकटग्रस्त पशुओं का शिकार कर डालते है। हुई किसी सुरक्षाकर्मी की हिम्मत जो कुछ पूछता? हम सोचने लगे कि अगर पशु-हिंसा का विरोध करने वाला भारतीय विश्नोई समाज न होता तो पूरा जंगल एक खान साहब ही खा गए होते। मगर सैय्यद अभी चुप नहीं हुए थे। बोले, "खान तो हर जगह बादशाह ही होता है। बाकी सबसे ऊपर। दुबई, मुम्बई, कराची हो या लन्दन और न्यूयॉर्क हो।"

मुझे याद आया जब एक और खान साहब ने दारू पीकर सड़क किनारे सोते हुए मजलूमों पर गाडी चढ़ा दी थी पुराने ज़माने के तैमूरी या गज़न्दिव बादशाही की तरह। बस मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए। समझ आ गया कि यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि ९/११ में ३००० मासूमों को खोने के बाद भी अमेरिका को अपने ही हवाई अड्डे पर अनजान लोगों से पूछताछ करने का हक है या नहीं। सवाल यह है कि बादशाह भी वहाँ मनमानी क्यों नहीं कर सकता। बुतपरस्ती कुफ़्र है तो चाभीरमानी शख्सियतपरस्ती कर लेंगे, लेकिन करेंगे ज़रूर।

अगर आप पिट्सबर्ग में नहीं रहते हैं तो सय्यद चाभीरामानी से तो नहीं मिल पायेंगे। मगर क्या फर्क पड़ता है उनके कई और भाई इस घटना का इस्लामीकरण करने को तैयार बैठे हैं। और ऐसे लोग कोई अनपढ़ गरीब नहीं हैं बल्कि पत्रकारिता पढ़े लिखे जूताकार हैं।

सैय्यद ने ध्यान बँटा दिया इसलिए लित्तू भाई की अगली कड़ी आज नहीं प्रस्तुत कर रहा हूँ। परन्तु शीघ्र ही वापस आता हूँ। तब तक के लिए क्षमा चाहता हूँ।

Friday, August 14, 2009

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं! [इस्पात नगरी से- १५]

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सभी पाठकों को १५ अगस्त के शुभ अवसर पर मंगलकामनाएं। हमारा गणतंत्र फले फूले और हम सब भारत माता की सच्ची सेवा में अपना तन मन धन लगा सकें और मन, वचन, कर्म से सत्य के मार्ग पर चलें, इसी कामना के साथ पिट्सबर्ग में हर वर्ष मनाये जाने वाले स्वाधीनता दिवस समारोह की कुछ तस्वीरें लगा रहा हूँ। यह चित्र पिछले वर्षों के समारोहों से लिए गए हैं। बड़ा आकार देखने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें।













स्वतन्त्रता दिवस के इस शुभ अवसर पर रेडियो प्लेबैक इंडिया पर सुनें स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि में एक देशभक्त माँ-बेटे का द्वंद प्रेमचंद की कहानी कातिल
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इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
Time To Change!
Incredible Stories!
Around The World With Expedia!
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Wednesday, August 12, 2009

लित्तू भाई - भाग २

कथा की भुमिका पढने के लिए यहाँ क्लिक करे.
लित्तू भाई की सप्ताहांत गोष्ठियां बहुत खुशनुमा होती थीं। मेरे अलावा लगभग सभी आगंतुक या तो कलाकार थे या लेखक, शायर, गीतकार, संगीतकार - किसी न किसी कला के माहिर। एक साहब तो गणित पहेलियों और ताश के जादू के माहिर थे। अगर आप देश के बाहर रहते हुए भी तमाम बड़े-बड़े लोगों से सहजता से मिलना चाहते हों तो लित्तू भाई के घर से बेहतर कोई जगह हो ही नहीं सकती है। उनकी महफिलों में मैं एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के बेटे से भी मिला और और एक सेनाध्यक्ष की बेटी से भी। छोटे-मोटे नौकरशाह तो मामूली बात थे। भारतीय ही नहीं पाकिस्तानी डॉक्टर, प्रोफ़ेसर आदि सब से उनका दोस्ताना था।

पहले तो मुझे आश्चर्य होता था कि अंग्रेजी के तीन वाक्य भी सही न बोल सकने वाला यह साधारण सा व्यक्तित्व इतना मशहूर कैसे हुआ। फिर सोचता, "खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।" इन गोष्ठियों में लगातार जाते रहने से उनके प्रति मेरी धारणा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। मैंने पहचाना कि लित्तू भाई में कई दुर्लभ गुण थे। शायर तो वे थे ही साथ ही एक ज़बरदस्त किस्सागो भी थे। कैसा भी मौका हो, लित्तू भाई के पास उसके हिसाब का एक किस्सा ज़रूर मिल जाएगा। अपने चुटकुलों में वे अक्सर अपना ही मज़ाक उडाया करते थे। उनमें किसी रोते हुए व्यक्ति को पल भर में हंसा देने की अद्भुत क्षमता थी।
उनका व्यक्तित्व इतना हल्का लगता था कि पहली नज़र में कोई भी नज़रंदाज़ कर दे। मगर उनकी बातों में कुछ ऐसी कशिश थी की एक बार सुनने वाला फिर-फिर सुनना चाहेगा। भले ही उच्च शिक्षित न हों मगर उन्होंने पढा बहुत था। खासकर धर्म और अध्यात्म पर वे घंटों बोल सकते थे। बच्चों में उन्हें खासी रूचि थी और बच्चे भी उनसे एकदम हिल-मिल जाते थे। खेल-खेल में ही बच्चों को अच्छी बातें सिखाने में उनका कोई सानी नहीं था। लित्तू भाई साथ हों तो माँ-बाप अपने बच्चों के बारे में बेफिक्र होकर जो चाहे कर सकते थे।

जैसा मैंने देखा लित्तू भाई बहुत चतुर व्यक्ति थे। उनका नज़रिया भी सबसे अलग कुछ ऐसा था कि कैसी भी समस्या हो, वे उसका हल ढूंढ ही निकालते थे। लोग अक्सर अपनी परेशानियां उनसे बांटते थे और वे उन सबका कुछ न कुछ हल निकाल ही लेते थे। मुझे यकीन है कि उनके कंधे को बहुत आँखों ने गीला किया होगा। मजाल है लित्तू भाई ने कभी किसी की व्यक्तिगत बात का ज़िक्र कभी किसी और से किया हो।

कह नहीं सकता कि उन्हें बागवानी ज़्यादा पसंद थी या गायन मगर मेरा ऐसा ख्याल है कि वे कुछ भी करते रचनात्मक ज़रूर होते थे। उनके पैदाइशी कलाकार होने की वजह से ही जब "संस्कार" द्वारा गर्मियों की छुट्टियों में चलाये जाने वाले "युवा शिविर" के संचालक के रूप में जब पहली बार मेरा चयन हुआ तो कला और साज-सज्जा के काम के लिए मैंने उनकी सहायता मांगी। इस शिविर में हर साल देश भर से किशोर और युवा वर्ग के चार-पांच सौ लोग भाग लेते थे। जैसी कि उम्मीद थी लित्तू भाई ने मेरा आमंत्रण बड़े गरिमा से स्वीकार कर लिया।

हम सात-आठ स्वयं-सेवक हर शाम को एक कुंवारे मित्र के खाली पड़े घर में इकट्ठे होने लगे। वहीं बैठकर हम शिविर परिसर और मंच की सज्जा आदि के बारे में विचार करते थे। लित्तू भाई हर शाम बिला-नागा हमारे बीच आते और पारस की तरह अपने सुझावों से हर काम को बेहतर बना देते। शिविर में भाग लेने वाले बच्चों को भेजे जाने वाले प्रवेश-पत्रों की जगह उन्होंने पुराने सम्राटों के लिखे पत्रों की तरह लिपटे हुए कागज़ का मुट्ठा बनाने का सुझाव दिया। जब हमने छपे हुए कागज़ को उनके बताये तरीके से चाय के भीगे पानी से निकालकर उसके किनारे मोमबत्ती से जलाकर सिरकी चिपकाईं तो वह सचमुच में एक अति प्राचीन पत्र जैसा लगने लगा। इसी तरह से शिविर के द्वार, तोरण आदि बनाने में उन्होंने बहुत सहायता की। यूं समझिये कि विचार उनके थे हमने तो बस उनके विचारों की मजदूरी की थी। बच्चों के नाम की तख्तियों से लेकर टी-शर्ट के डिजाइन तक हर काम में लित्तू भाई की कला झलक रही थी।

सम्राट के पत्र से हमारा काम अनजाने ही कुछ ऐसी दिशा में मुडा कि सजावट का काम पूरा होते-होते उस बार के शिविर की थीम ही राजपुताना हो गयी। इसलिए जब फुर्सत के प्रतियोगितात्मक खेलों की बारी आयी तो उसमें लित्तू भाई का सुझाया हुआ गदका का खेल अपने आप ही आ गया। लित्तू भाई के सरल निर्देशों का अनुसरण करके हमने आनन-फानन में कई हल्की गदाएँ बना कर उन्हें सुनहरे रंग से रंग दिया। इस खेल में इनाम देने के लिए उन्होंने एक आला दर्जे की गदा अपने कुशल हाथों से स्वयं ही बनाई।
[क्रमशः]
कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:

खाली प्याला
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले
एक ब्राह्मण की आत्मा