Tuesday, May 5, 2015

सांप्रदायिक सद्भाव

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
जब मुसलमानों ने मकबूल की जमीन हथियाकर उस पर मस्जिद बनाई तो हिंदुओं के एक दल ने मुकुल की जमीन पर मठ बना दिया। मुकुल और मकबूल गाँव के अलग-अलग कोनों में उदास बैठे हैं फिर भी गाँव में शांति है क्योंकि इस बार कोई यह नहीं कह सकता कि हिंदुओं ने मुसलमान या मुसलमानों ने हिन्दू को सताया है।

Monday, May 4, 2015

5 मई - क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन


प्रीतिलता वादेदार (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932)
5 मई को महान क्रांतिकारी व प्रतिभाशाली छात्रा प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन है। आइये इस दिन याद करें उन हुतात्माओं को जिन्होने अपने वर्तमान की परवाह किए बिना हमारे स्वतंत्र भविष्य की कामना में अपना सर्वस्व नोछावर कर दिया।

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 चटगाँव (अब बंगला देश) में हुआ था। उन्होने सन् 1928 में चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की और सन् 1929 में ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया था जो उन्हें 80 वर्ष बाद मरणोपरान्त प्रदान की गयी।

उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल की सक्रिय सदस्य प्रीतिलता ने 23 सितम्बर 1932 को एक क्रांतिकारी घटना में अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वयं ही मृत्यु का वरण किया था। अनेक भारतीय क्रांतिकारियों की तरह प्रीतिलता ने एक बार फिर यह सिद्ध किया किया कि त्याग और निर्भयता की प्रतिमूर्तियों के लिए मात्र 21 वर्ष के जीवन में भी अपनी स्थाई पहचान छोड़ कर जाना एक मामूली सी बात है।

प्रीतिलता वादेदार, विकीपीडिया पर

Thursday, April 16, 2015

अस्फुट मंत्र - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

प्रेम का जादू यही
इक एहसास वही

अमृती धारा  बही
पीर अग्नि में दही

मैं की दीवार ढही
रात यूँ ढलती रही

बंद होठों से सही
बात जो तूने कही 

Saturday, April 11, 2015

ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार - लघुकथा

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)
झुमकेचल प्रसाद काम में थोड़ा कमजोर था। बदमाशियाँ भी करता था। दिखने में ठीक-ठाक था और उसके साथियों ने उसके इस ठीक-ठाक का भाव काफी चढ़ाया हुआ था। सो, वह अपने आप को डैनी, नहीं, शायद राजेश खन्ना समझता था। अब नौजवान राजेश खन्ना अपने से कई साल छोटे और कई किलो हल्के अधिकारी के अधीनस्थ होकर आराम से तो काम कर नहीं सकता सो हर बात में थोड़ा बहुत विद्रोह भी दिखाता रहता था। अकारण द्रोह का एक कारण शायद उस अधिकारी का अनारक्षित कोटे से आना भी था।

झुमकेचल के काम में काफी कमियाँ थीं। लेकिन अधिकारी उसकी क्षमता को जानते हुए उसे कुछ जताए बिना शाम को घर जाने से पहले उसकी गलतियाँ ठीक कर देता था। जितना जायज़ था उतनी छूट अधिकारी उसे हमेशा देता रहा। वह फरीदाबाद से दिल्ली आता था। आने में अक्सर देर हो जाती थी। वरिष्ठ प्रबंधक कड़कसिंह रोज़ सुबह दरवाजे पर लगी घड़ी के नीचे खड़ा हर देर से आने वाले की क्लास लगाता था। उसकी समस्या को ध्यान से सुनने के बाद अधिकारी ने कड़कसिंह से कड़क बहसें कर के अपने अधीनस्थों की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उसकी देरी सदा के लिए अनुशासन के दायरे से निकलवा दी। हर सुबह बाकी लेट-लतीफों को झिड़कता कड़कसिंह जब उसे कुछ नहीं कहता तो उसकी सुबह, जोकि अब लगभग दोपहर हो चुकी होती थी, उत्साह से भर जाती। इसी उत्साह में अब वह नियमित रूप से देर से आने लगा। जब कई दिन तक अधिकारी की ओर से उसकी नियमित देरी का कोई प्रतिरोध नहीं दिखा तो एक दिन अपनी सुबह की देरी को कम्पनसेट करने के उद्देश्य से उसने शाम को जल्दी घर जाने की बात की। अधिकारी ने उस दिन आराम से जाने दिया तो अगले दिन से उसने जल्दी जाने का अधिकार अपने गमछे में खोंस लिया और प्रतिदिन जल्दी जाने लगा।

आप सोचेंगे कि अधिकारी से मिलने वाले हर लाभ के बाद वह बेहतर होता गया होगा लेकिन हुआ इसका उलट। न तो उसके काम की गलतियों में कोई सुधार हुआ, न ही उसके नाजायज अक्खड़पन में कोई कमी आई। कुछ दिन बाद जब उसके लंच से वापस आने का समय उसके स्वास्थ्य की अनिवार्यता, यानी टेबल टेनिस के खेल के कारण बढ़ गया तो अधिकारी ने उसे कुछ कहे बिना भविष्य में कोई रियायत न देने का निश्चय किया।

एक दिन उसने बताया कि घर में चल रही पुताई के कारण वह लंचटाइम में ही घर चला जाएगा। अधिकारी को क्या एतराज़ होता, उसने विनम्रता से बता दिया कि छुट्टियाँ उसकी कमाई हुई हैं, आधा दिन की ले या पूरे दिन की, उसकी मर्ज़ी। छुट्टी का नाम सुनते ही वह गरम हो गया। शोर-शराबा सुनकर टेबल टेनिस के कुछ दबंग कामरेड भी मौका-ए-वारदात पर पहुँच गए। जिन्होंने सरकारी बैंक में काम किया हो उन्हें पता ही होगा कि बैंकिंग चुटकुलों में अधिकारियों का प्रयोग अक्सर ताश के जोकर की तरह किया जाता है। सो एकाध महारथी ने अपने मित्र के पक्ष में घिसे हुये चुटकुले जैसा कुछ कहा। अधिकारी ने उसके अधूरे ज्ञान वाले चुट्कुले वाला पूरा उपन्यास बाँच दिया। एकाध साथी ने वैज्ञानिक तर्क दिये, तो उनके आगे वैज्ञानिक निष्कर्ष रख दिये गए। फिर शाखा के सबसे भारी बोझ ने अपने वजन का प्रयोग किया तो इस छोटे से अधिकारी ने उसी के वजन और मूमेंटम का तात्कालिक प्रयोग करते हुए उसे काउंटर की दीवार पे दोहरा हो जाने दिया। कराहता हुआ बोझ अपनी सीट पर जाकर बड़बड़ाते हुए स्टाफ सेक्शन के नाम एक हाथापाई की शिकायत लिखने लगा।

बात हाथ से निकलते देखकर झुमकेचल प्रसाद जी अधिकारी को बताने लगे कि वे रोज़ जल्दी भले चले जाते हों, अपना सारा काम सही-सही पूरा करके जाते हैं। बात गलत थी सो अधिकारी ने रिजेक्ट कर दी। झुमकेचल की आवाज़ फिर ऊँची हो गई। गरजकर बोला "मेरे काम में एक भी कमी निकाल कर दिखा दो।" अधिकारी ने उस महीने की बनाई उसकी विवरणियों के फोल्डर सामने रख दिये। हर पेज पर लाल स्याही से ठीक की हुई कम से कम एक गलती चमक रही थी। कहीं स्पेलिंग, कहीं संख्या, कहीं जोड़, कहीं कोड, कहीं कुछ और। क्षण भर में झुमकेचल का चेहरा, शरीर, हाव-भाव, सब ऐसा हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर दस जूते मारे हों। उसने मरी हुई आवाज़ में पूछा, "लेकिन आपने इसके लिए कभी डाँटा भी नहीं, न मुझसे कभी ठीक कराया।"

खैर, बंदा एकदम सुधर गया। जाने से पहले उसने छुट्टी की अर्ज़ी अधिकारी के सामने रख दी जो अधिकारी ने अपने विवेक से निरस्त भी कर दी। कुछ दिन बाद जब वह अधिकारी व्यक्तिगत काम से एक हफ्ते की छुट्टी पर गया तो उसके वापस आते ही झुमकेचल ने सबसे पहले अपने अधिकारी से उसके सब्स्टिट्यूट की शिकायत की, "मैंने बस 15 मिनट पहले जाने के लिए पूछा तो बोले सारा काम सही-सही पूरा करके चले जाना और जब सब कर दिया तो कहने लगे कि जाओ सीनियर मेनेजर से पर्मिशन ले लो।"

"आज चले जाना" कहकर अधिकारी मुस्करा दिया। पहाड़ ऊँट से ऊँचा हो गया था।
निष्कर्ष: शेर अगर हिरण को न खाये तो उसका मतलब ये नहीं होता कि हिरण शेर से ताकतवर हो गया है। इसका अर्थ ये है कि शेर शाकाहारी है। लेकिन हिरण तेंदुए से फिर भी काम नहीं निकलवा सकता।

Friday, March 27, 2015

पुरानी दोस्ती - लघुकथा

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

बेमेल दोस्ती की गंध
कल उसका फोन आया था। ताबड़तोड़ प्रमोशनों के बाद अब वह बड़ा अफसर हो गया है। किसी ज़माने में हम दोनों निगम के स्कूल में एक साथ काम करते थे। मिडडे मील पकाने से लेकर चुनाव आयोग की ड्यूटी बजाने तक सभी काम हमारे जिम्मे थे। ऊपर से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ। इन सब से कभी समय बच जाता था तो बच्चों की क्लास भी ले लेते थे।  

उसे अपने असली दिल्लीवाला (मूलनिवासी) होने का गर्व था। मुझे हमेशा 'ओए बिहारी' कहकर ही बुलाता था। दिल का बुरा नहीं था  लेकिन हज़ार बुराइयाँ भी उसे सामान्य ही लगती थीं। अपनी तो मास्टरी चलती रही लेकिन वह असिस्टेंट ग्रेड पास करके सचिवालय में लग गया। अब तो बहुत आगे पहुँच गया है।

आज मूड ऑफ था उसका। अपने पुराने दोस्त से बात करके मन हल्का करना चाहता था सो बरसों बाद उस दिन मुझे फोन किया।

"कैसा है तू?"

"हम ठीक हैं। आप कैसे हैं?"

"गुड ... और तेरी बिहारिन कैसी है?"

इतने साल बाद बात होने पर भी उसका यह लहज़ा सुनकर बुरा लगा। मुझे लगा था कि उम्र बढ़ने के साथ उसने कुछ तमीज़ सीख ली होगी। मैं आरा का सही, उसका इलाका तो दिल्ली देहात ही था। सोचा कि उसे उसी के तरीके से समझाया जा सकता है।

"हाँ, हम सब ठीक हैं, तू बता, तेरी देहातन कैसी है?"

"ओए बिहारी, ये तू-तड़ाक मुझे बिलकुल पसंद नहीं। और ये देहातिन किसे बोला? अपनी भाभी के बारे में इज़्ज़त से बात किया कर।"

फोन कट गया था। बरसों की दोस्ती चंद मिनटों में खत्म हो गई थी।

[समाप्त]

Saturday, March 21, 2015

सीमित जीवन - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
इस जीवन की आपूर्ति सीमित है, कृपया सदुपयोग करें

अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...

Monday, February 23, 2015

खिलखिलाहट - लघुकथा

दादी और दादा
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"बोलो उछलना।"

"उछलना।"

"अरे बिलकुल ठीक तो बोल रही हो।"

"हाँ, उछलना को ठीक बोलने में क्या खास है।"

"तो फिर बच्चों के सामने छुछलना क्यों कहती हो? सब हँसते हैं।"

"इसीलिए तो।"

"इसीलिए किसलिए?"

"ताकि वे हंस सकें। उनकी दैवी खिलखिलाहट पर सारी दुनिया कुर्बान।"

Thursday, February 19, 2015

लोगो नहीं, लोगों - हिन्दी व्याकरण विमर्श


मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों - बहुवचन सम्बोधन में अनुस्वार का प्रयोग व्याकरणसम्मत है

हिन्दी बहुवचन सम्बोधन और अनुस्वार
अनुस्वार सम्बोधन, राजभाषा विभाग के एक प्रकाशन से
इन्टरनेट पर कई जगह यह प्रश्न देखने में आता है कि बच्चा का बहुवचन बच्चों होगा या बच्चो। इसी प्रकार कहीं दोस्तों और दोस्तो के अंतर के बारे में भी हिन्दी, हिन्दुस्तानी, उर्दू मंडलों में चर्चा सुनाई देती है। शायद कभी आप का सामना भी इस प्रश्न से हुआ होगा। जब कोई आपको यह बताता है कि जिन शब्दों को आप सदा प्रयोग करते आए हैं, वे व्याकरण के किसी नियम के हिसाब से गलत हैं तो आप तुरंत ही अपनी गलती सुधारने के प्रयास आरंभ कर देते हैं।

सुनने में आया कि आकाशवाणी के कुछ केन्द्रों पर नए आने वाले उद्घोषकों को ऐसा बताया जाता है कि किसी शब्द के बहुवचन में अनुस्वार होने के बावजूद उसी शब्द के संबोधन में बहुवचन में अनुस्वार का प्रयोग नहीं होता है। इन्टरनेट पर ढूंढने पर कई जगह इस नियम का आग्रह पढ़ने को मिला। इस आग्रह के अनुसार "ऐ मेरे वतन के लोगों" तथा "यारों, सब दुआ करो" जैसे प्रयोग तो गलत हुए ही "बहनों और भाइयों" या "देवियों, सज्जनों" आदि जैसे आम सम्बोधन भी गलत कहे जाते हैं।

बरसों से न, न करते हुए भी पिछले दिनों अंततः मुझे भी इसी विषय पर एक चर्चा में भाग लेना पड़ा तो हिन्दी व्याकरण के बारे में बहुत सी नई बातें सामने आईं। आज वही सब अवलोकन आपके सामने प्रस्तुत हैं। मेरा पक्ष स्पष्ट है, मैं अनुस्वार हटाने के आग्रह को अनुपयोगी और अनर्थकारी समझता हूँ। आपके पक्ष का निर्णय आपके विवेक पर छोडता हूँ।
1) 19 वीं शताब्दी की हिन्दी और हिन्दुस्तानी व्याकरण की कुछ पुस्तकों में बहुवचन सम्बोधन के अनुस्वाररहित होने की बात कही गई है। मतलब यह कि किसी को सम्बोधित करते समय लोगों की जगह लोगो, माँओं की जगह माँओ, कूपों की जगह कूपो, देवों की जगह देवो के प्रयोग का आग्रह है।    
2) कुछ आधुनिक पुस्तकों और पत्रों में भी यह आग्रह (या नियम) इसके उद्गम, कारण, प्रचलन या परंपरा की पड़ताल किए बिना यथावत दोहरा दिया गया है।
ऐ मेरे वतन के लोगो (logo)

3) हिन्दी व्याकरण की अधिसंख्य पुस्तकों में ऐसे किसी नियम का ज़िक्र नहीं है अर्थात बहुवचन के सामान्य स्वरूप (अनुस्वार सहित) का प्रयोग स्वीकार्य है।

4) जिन पुस्तकों में इस नियम का आग्रह है, वे भी इसके उद्गम, कारण और लाभ के बारे में मूक है।

5) भारत सरकार के राजभाषा विभाग सहित अधिकांश प्रकाशन ऐसे किसी नियम या आग्रह का ज़िक्र नहीं करते हैं।

6) हिन्दी उर्दू के गीतों को आदर्श इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उनमें गलत उच्चारण सुनाई देने की घटनाएँ किसी सामान्य श्रोता के अनुमान से कहीं अधिक हैं। एक ही गीत में एक ही शब्द दो बार गाये जाने पर अलग-अलग सुनाई देता है। सम्बोधन ही नहीं बल्कि हमें, तुम्हें, उन्होंने आदि जैसे सामान्य शब्दों से भी अक्सर अनुस्वार गायब लगते हैं।

7) ध्यान से सुनने पर कुछ अहिंदीभाषी गायक तो अनुस्वार को नियमित रूप से अनदेखा करते पाये गए हैं। यद्यपि कुछ गीतों में में ये माइक्रोफोन द्वारा छूटा या संगीत द्वारा छिपा हुआ भी हो सकता है। पंकज उधास और येसूदास जैसे प्रसिद्ध गायक भी लगभग हर गीत में मैं की जगह मै या मय कहते हैं।  
आकाशवाणी के कार्यक्रम "आओ बच्चों" की आधिकारिक वर्तनी

8) मुहम्मद रफी और मुकेश बहुवचन सम्बोधन में कहीं भी अनुस्वार का प्रयोग करते नहीं सुनाई देते हैं। अन्य गायकों पर असहमतियाँ हैं। मसलन, किशोर "कुछ ना पूछो यारों, दिल का हाल बुरा होता है" गाते हैं तो दोनों बार अनुस्वार एकदम स्पष्ट है। अमिताभ बच्चन भी आम हिंदीभाषियों की तरह बहुवचन सम्बोधन में भी सदा अनुस्वार का प्रयोग करते पाये गए हैं।

9) ऐ मेरे वतन के लोगों गीत की इन्टरनेट उपस्थिति में बहुवचन सम्बोधन शब्द लोगों लगभग 16,000 स्थानों में अनुस्वार के साथ और लगभग 4,000 स्थानों में अनुस्वार के बिना है। सभी प्रतिष्ठित समाचारपत्रों सहित भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट में भी "ऐ मेरे वतन के लोगों" ही छपा है। लता मंगेशकर के गायन में भी अनुस्वार सुनाई देता है।

11) rekhta.org और बीबीसी उर्दू जैसी उर्दू साइटों पर सम्बोधन को अनुस्वार रहित रखने के उदाहरण मिलते हैं।

अनुस्वार हटाने से बने अवांछित परिणामों के कुछ उदाहरण - देखिये अर्थ का अनर्थ:
  1. लोटों, यहाँ मत लोटो (सही) तथा लोटो, यहाँ मत लोटो (भ्रामक - लोटो या मत लोटो? लोटा पात्र की जगह भूमि पर लोटने या न लोटने की दुविधा) 
  2. भेड़ों, कपाट मत भेड़ो (सही) तथा भेड़ो, कपाट मत भेड़ो (भ्रामक - भेड़ों का कोई ज़िक्र ही नहीं?)
  3. बसों, यहाँ मत बसो (सही) तथा बसो, यहाँ मत बसो (भ्रामक - बस वाहन का ज़िक्र ही नहीं बचा, बसो या न बसो की गफ़लत अवश्य आ गई?)
  4. ऐ मेरे वतन के लोगों (देशवासी) तथा ऐ मेरे वतन के लोगो (देश का प्रतीकचिन्ह, अशोक की लाट)
उपरोक्त उदाहरणों में 1, 2 व 3 में लोटे, भेड़ और बस को बहुवचन में सम्बोधित करते समय यदि आप अनुस्वार हटा देंगे तो आपके आशय में अवांछित ही आ गए विरोधाभास के कारण वाक्य निरर्थक हो जाएँगे। साथ ही लोटों, भेड़ों और बसों के संदर्भ भी अस्पष्ट (या गायब) हो जाएँगे। इसी प्रकार चौथे उदाहरण में भी अनुस्वार लगाने या हटाने से वाक्य का अर्थ बदल जा रहा है। मैंने आपके सामने चार शब्दों के उदाहरण रखे हैं। ध्यान देने पर ऐसे अनेक शब्द मिल सकते हैं जहाँ अनुस्वार हटाना अर्थ का अनर्थ कर सकता है।
10) कवि प्रदीप के प्रसिद्ध गीत "इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के" गीत के अनुस्वार सहित उदाहरण कवि प्रदीप फाउंडेशन के शिलापट्ट तथा अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों पर हैं जबकि अधिकांश अनुस्वाररहित उदाहरण फेसबुक, यूट्यूब या अन्य व्यक्तिगत और अप्रामाणिक पृष्ठों पर हैं।
ऐ मेरे वतन के लोगों - टिकट पर अनुस्वार है

12) इस विषय पर छिटपुट चर्चायें हुई हैं। इस नियम (या आग्रह) के पक्षधर, बहुसंख्यक जनता द्वारा इसके पालन न करने को प्रचलित भूल (ग़लतुल-आम) बताते हैं।

13) अर्थ का अनर्थ होने के अलावा इस पूर्णतः अनुपयोगी आग्रह/नियम के औचित्य पर कई सवाल उठते हैं, यथा, "ऐ दिले नादाँ ..." और "दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है" जैसी रचनाओं में एकवचन में भी अनुस्वार हटाया नहीं जाता तो फिर जिस बहुवचन में अनुस्वार सदा होता है उससे हटाने का आग्रह क्योंकर हो?

14) अनुस्वार हटाकर बहुवचन का एक नया रूप बनाने के आग्रह को मैं हिन्दी के अथाह सागर का एक क्षेत्रीय रूपांतर मानता हूँ और अन्य अनेक स्थानीय व क्षेत्रीय रूपांतरों की तरह इसके आधार पर अन्य/भिन्न प्रचलित परम्पराओं को गलत ठहराए जाने का विरोधी हूँ। हिंदी मातृभाषियों का बहुमत बहुवचन में सदा अनुस्वार का प्रयोग स्वाभाविक रूप से करता रहा है।

15) भारोपीय मूल की अन्य भाषाओं में भी ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उदाहरण के लिए अङ्ग्रेज़ी में boy का बहुवचन boys होता है तो सम्बोधन में भी वह boys ही रहता है। सम्बोधन की स्थिति में boys के अंत से s हटाने या उसका रूपांतर करने जैसा कोई नियम वहाँ नहीं है, उसकी ज़रूरत ही नहीं है। ज़रूरत हिंदी में भी नहीं है।

16) इस नियम (या आग्रह) से अपरिचित जन और इसके विरोधी, इसके औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए एक आपत्ति यह रखते हैं कि इस नियम के कारण एक ही शब्द के दो बहुवचन संस्करण बन जाएँगे जो अनावश्यक तो हैं ही, कई बार भिन्न अर्थ वाले समान शब्द होने के कारण अर्थ का अनर्थ करने की क्षमता भी रखते हैं। उदाहरणार्थ बिना अनुस्वार के "ऐ मेरे वतन के लोगो" कहने से अशोक की लाट (भारत का लोगो) को संबोधित करना भी समझा जा सकता है जबकि लोगों कहने से लोग का बहुवचन स्पष्ट होता है और किसी भी भ्रांति से भली-भांति बचा जा सकता है।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि हिन्दी के बहुवचन सम्बोधन से अनुस्वार हटाने का आग्रह एक फिजूल की बंदिश से अधिक कुछ भी नहीं। कुछ पुस्तकों में इसका ज़िक्र अवश्य है और हिन्दुस्तानी के प्रयोगकर्ताओं का एक वर्ग इसका पालन भी करता है। साथ ही यह भी सच है कि हिंदीभाषियों और व्याकरणकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसे किसी आग्रह को जानता तक नहीं है, मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस आग्रह का कारण और उद्गम भी अज्ञात है। इसके प्रायोजक, प्रस्तोता और पालनकर्ता और पढने के बाद इसे दोहराने वाले, इसके उद्गम के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। संभावना है कि हिन्दी की किसी बोली, संभवतः लश्करी उर्दू या क्षेत्र विशेष में इसका प्रचालन रहा है और उस बोली या क्षेत्र के लोग इसका प्रयोग और प्रसार एक परिपाटी की तरह करते रहे हैं। स्पष्टतः इस आग्रह के पालन से हिन्दी भाषा या व्याकरण में कोई मूल्य संवर्धन नहीं होता है। इस आग्रह से कोई लाभ नहीं दिखता है, अलबत्ता भ्रांति की संभावना बढ़ जाती है। ऐसी भ्रांतियों के कुछ उदाहरण इस आलेख में पहले दिखाये जा चुके हैं।
कुछ समय से यह बहस सुनता आया हूँ, फिर भी इस पर कभी लिखा नहीं क्योंकि उसकी ज़रूरत नहीं समझी। लेकिन अब जब इस हानिप्रद आग्रह के पक्ष में लिखे हुए छिटपुट उदाहरण सबूत के तौर पर पेश किए जाते देखता हूँ और इस आग्रह का ज़िक्र न करने वाली पुस्तकों को सबूत का अभाव माना जाता देखता हूँ तो लगता है कि शांति के स्थान पर नकार का एक स्वर भी आवश्यक है ताकि इन्टरनेट पर इस भाषाई दुविधा के बारे में जानकारी खोजने वालों को दूसरा पक्ष भी दिख सके, शांति का स्वर सुनाई दे। इस विषय पर आपके अनुभव, टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है। यदि आपको बहुवचन सम्बोधन से अनुस्वार हटाने में कोई लाभ नज़र आता है तो कृपया उससे अवगत अवश्य कराएं। धन्यवाद!

ऐ मेरे वतन के लोगों - लता मंगेशकर का स्वर, कवि प्रदीप की रचना

* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Saturday, February 14, 2015

मुफ्तखोर - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)


कमरे की बत्ती और पंखा खुला छोडकर वह घर से निकला और बस में बिना टिकट बैठ गया। आज से सब कुछ मुफ्त था। आज़ादी के लंबे इतिहास में पहली बार मुफ्तखोर पार्टी सत्ता में आई थी। उनके नेता श्री फ़ोकटपाल ने चुनाव जीतते ही सब कुछ मुफ्त करने का वादा किया था। उसने भी मुफ्तखोर पार्टी को विजयी बनाने के लिए बड़ी लगन से काम किया था। कारखाने में रोज़ हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद घर आते ही पोस्टर लगाने निकल पड़ता था। सड़क पर पैदल या बस में आते जाते भी लोगों को मुफ्तखोर पार्टी के पक्ष में जोड़ने का प्रयास करता।

फैक्टरी पहुँचते ही उल्लास से काम पर जुट गया। एक तो सब कुछ मुफ्त होने की खुशी ऊपर से आज तो वेतन मिलने का दिन था। लंच के वक्फ़े में जब वह तन्खाबाबू को सलाम ठोकने गया तो उन्हें लापता पाया। वापसी में सेठ उधारचंद दिख गए। सेठ उधारचंद फैक्ट्री के मालिक हैं और अपने नाम को कितना सार्थक करते हैं इसकी गवाही शहर के सभी सरकारी बैंक दे सकते हैं।

उसने सेठजी को जयरामजी कहने के बाद हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, "तन्खाबाबू नहीं दिख रहे, आज छुट्टी पर हैं क्या?"

"कुछ खबर है कि नईं? मुफतखोर पार्टी की जीत का जशन चल रिया हैगा।"

"तन्खाबाबू क्या जश्न में गए हैं?"

"बीस-बीस हज़ार के लंच करे हैं हमने फ़ोकटपाल्जी के साथ। पचास-पचास हज़ार के चेक भी दिये हैं चंदे में। इसीलिए ना कि वे हमें भी कुछ मुफत देवें।"

"जी" वह प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गया था।

"हमने फ़ोकटपाल्जी को जिताया है। अब तन्खाबाबू की कोई जरूरत ना है। आज से इस फैक्ट्री में सब काम मुफत होगा। गोरमींट अपनी जाकिट की पाकिट में हैगी।"

उसे ऐसा झटका लगा कि नींद टूट गई। बत्ती, पंखा, सब बंद था क्योंकि मुफ्तखोर पार्टी जीतने के बावजूद भी उसकी झुग्गी बस्ती में बिजली नहीं थी।

[समाप्त] 

Saturday, January 31, 2015

किनाराकशी - लघुकथा

(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है?  ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।

हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।

Monday, January 12, 2015

कंजूस मक्खीचूस - लघुकथा

दिवाली मिलन के समारोह में जब सुरेखा जी मुस्कराती हुई नजदीक आईं तो खुशी के साथ मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। शहर की सबसे धनी और प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर। बड़े-बड़े लोगों से पहचान। बिना अपॉइंटमेंट के एक मिनट की बात भी संभव नहीं और बिना कनेक्शन के अपोइंटमेंट भी संभव नहीं।

अरे इन्हें तो मेरा नाम भी पता है, यह भी मालूम है कि मेरा घर दिल्ली में है और मैं परसों छुट्टी पर भारत जा रहा हूँ। दो मिनट की बातचीत में ही इतनी नजदीकी। लोग यूँ ही इन्हें नकचढ़ा और घमंडी बताते हैं। जलते हैं सब इनकी समृद्धि से। ऐसी सुंदरी को काले दिल वाली और इतनी धनाढ्य होने पर भी एक नंबर की कंजूस मक्खीचूस बताते हैं। जलें, मेरी बला से। मैं तो किसी की बातों में आने से रहा।

समारोह के बाद घर आकर पैकिंग आदि करके सोया तो सुबह देर से उठा। अलसाई नींद में ऐसा लगा था जैसे किसी ने द्वार की घंटी बजाई थी। सोचा, उठकर देख ही लूँ। शायद कोई सचमुच आया ही हो, थक हारकर लौट न गया हो। दरवाजा खोला तो बाहर पोलीथीन का एक बड़ा सा लिफाफा रखा था। साथ में एक नोट भी था।

"बुरा न मानें, अपना समझकर यह हक़ जता रही हूँ। इस पैकेट में कुछ रेशमी साड़ियाँ हैं। आप भारत जा ही रहे हैं। वहाँ से ड्राइक्लीन करवा लाइये, यहाँ तो बहुत महंगा है। वापसी पर बिल के अनुसार भुगतान कर दूँगी।

~ आपकी सुरेखा।"