Tuesday, June 7, 2011

शब्दों के टुकड़े - भाग 3

विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। मन में ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा चटख/क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। .

1. शक्ति के बिना धैर्य ऐसे ही है जैसे बिना बत्ती के मोम।
2. कुछ की महानता छप जाती है कुछ की छिपी रह जाती है।
3. दुश्मन का दुश्मन दोस्त कैसे होगा? दुश्मन ख़त्म तो दोस्ती भी ख़त्म!
4. मेरी अपेक्षा के बंधन में गैर क्यों बंधे?
5. बेलगाम खरी-खोटी कहने भर से कोई सत्यवादी नहीं हो जाता, सत्य सुनने का साहस, और सत्य स्वीकारने की समझ भी ज़रूरी है।
6. ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं है। ईमानदार तो ईमानदार, बेईमान भी अपने प्रति ईमानदारी चाहते हैं।
7. जो व्यवसाय विश्वास पर टिका हो उसमें किसी का भी विश्वास नहीं किया जा सकता है।
8. अगर आपको अपने अस्तित्व पर आस्था है तो आप नास्तिक कहाँ हुए?
9. स्वयम् को बनाने और बदलने का अधिकार व्यक्ति का है, छवि को दूसरे बनाते और बदलते हैं।
10. जिसकी जैसी खाज, उसका वैसा इलाज।

आज आपके लिये दो और कथन जिनका अनुवाद नहीं हुआ है। कृपया अच्छा सा हिन्दी अनुवाद सुझायें:

11. I hate being pregnant, I love being a mother/father though.
12. Art can't stand on its own, furniture does.

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* शब्दों के टुकड़े - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6
* सत्य के टुकड़े
* मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २) - अभिषेक ओझा
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अनुरागी मन - कहानी - भाग 12

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झांक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे।
अब आगे भाग 12 ...
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वीरसिंह को रह-रहकर दादाजी की याद आती थी। उनका मन पिछली नईसराय यात्रा से बाहर आ ही नहीं पा रहा था। दादाजी के अवसान के समय अपनी अनुपस्थिति के लिये वे अपने को माफ नहीं कर पा रहे थे। काश वे उस समय झरना के मोहपाश में बन्धने के बजाय अपने घर होते तो दादाजी को बचाने का कुछ उपाय ज़रूर कर पाते। शायद दादाजी आज जीवित होते। इस कृत्य के लिये वे अपने आप को शायद कभी भी माफ नहीं कर पायेंगे।

"हाय हसन हम न हुए ..." बाहर से नारों की आवाज़ आ रही थी। शायद मुहर्रम का जुलूस निकल रहा था। वीर बाहर आ गये। मातम करने वाले धर्मयुद्ध में अपनी अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे लोहे की जंज़ीरों से अपने आप को लहूलुहान करके। वीर अपने आप को वहाँ देख पा रहे थे। उनके मुँह से बेसाख्ता निकला, "हाय हसन हम न हुए ...।" पहले कभी ऐसी बेचैनी से गुज़रे होते तो शायद वासिफ से मिलने गये होते। लेकिन अब किस मुँह से वहाँ जायें। उसकी बहन की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे वे। इतने आहत थे वे कि अप्सरा के बारे में सोचना तक नहीं चाहते थे। उसका ख्याल अपने दिमाग से झटककर वे अन्दर आये और पिताजी को एक पत्र लिखने बैठे। हर मुसीबत के समय अंततः वे पिताजी को ही याद करते थे। बहुत कोशिश की लेकिन इस बार कागज़ कोरा ही रहा। इस बार की मुलाकात से उन्हें पिताजी की कार्य सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों का पूरा अहसास था। वे उनके काम में बाधक नहीं बनना चाहते थे।

"कम्पनी बाग तक जा रहा हूँ माँ!"

वे बाहर निकले और अपने ख्यालों में खोये से कम्पनी बाग की ओर बढ़ चले। घर-नगर के कोलाहल से दूर शांति चाहने वालों के लिये एक वही स्थान था शहर में। सोचा था कि ताज़ी हवा में ताज़गी मिलेगी परंतु हुआ इसका उलट। हर कदम के साथ उनकी उदासी बढती ही जा रही थी। दादाजी के अवसान का शोक तो था ही पिताजी ऐवम अन्य सैनिकों की भीषण कार्यपरिस्थिति के प्रति राष्ट्र की उदासीनता उन्हें काटे डाल रही थी। इन सब के ऊपर उन्हें लगातार झरना से धोखा खाने का अहसास भी कचोट रहा था। पिछले कुछ सप्ताहों में उन्होंने न जाने कितनी बार जीवन की नश्वरता के बारे में बडी शिद्दत से सोचा था। वे बलपूर्वक संसार में मन लगाना चाहते थे परंतु सब कुछ अर्थहीन सा लगता था।

"अरे, यह तो वीर है" किसी महिला की आवाज़ उनके कान में पड़ी। जब तक वे समझ पाते, वासिफ की माँ और झरना उनके सामने खड़ी थीं। झरना के गाल और कान हया से या खुशी से सुर्ख से हो रहे थे। ढलते हुए सूरज की किरणों में उसकी स्वर्णिम रंगत पर यह लालिमा एक और ही सूर्योदय का संकेत दे रही थी।

"हम भी वासिफ भाई के साथ ही आ गये, दो हफ्ते यहीं रहेंगे। आप चलिये न साथ में ..." माँ के कुछ बोलने से पहले ही झरना उत्साह में भरकर बोलने लगी।

वह बोलती जा रही थी और वीरसिंह के मन में समुद्र मंथन सा हो रहा था, "झूठी कहीं की ... ।"

उनका गला सूखने लगा। जैसे तैसे मुँह से बस इतना ही निकला, "जल्दी में हूँ, बाद में आपके घर आऊँगा, वासिफ से मिलने।"

झटके से उन्होंने घर की ओर दौड़ सी लगा दी।

सोमवार से विद्यालय खुल गया। पुराने दोस्त मिले, सिवाय एक वासिफ के। उसने स्कूल बदल लिया या छोड़ ही दिया, भगवान जाने । पर उसकी अनुपस्थिति से वीर को कोई शिकायत नहीं हुई। बल्कि उन्होंने अपने को बन्धनमुक्त ही महसूस किया। पहले दो दिन तो नये सहपाठियों, अध्यापकों, पाठ्यक्रम और पुस्तकों से परिचय होने में ही चले गये पर उसके बाद फिर से जीवन की निरर्थकता का बोध उनके ऊपर हावी होने लगा। बल्कि हर पल के साथ उनके हृदय का खालीपन बढता जाता था। अध्यापक पूरे सत्र में बोलते चले जाते थे और वीर के दिमाग में कभी झरना का प्यार और झूठ चल रहा होता, कभी दादाजी की चिता दिखती कभी उससे पहले का आन्धी-तूफान। इन सबसे बच पाते तो अपने को नक्सलियों से घिरे एक भारतीय सैनिक के रूप में पाते। उन्हें लगता कि उनके अधिकारी दुश्मनों से मिल गये हैं।

ऐसा नहीं कि वीर को अपने अन्दर होते इस परिवर्तन का अहसास नहीं था। वे इसे समझ भी रहे थे और इससे जूझने के उपाय भी कर रहे थे। जीवन जितना उदास लगता वे अपने आप से लड़कर उसे उतना ही रोचक बनाने का प्रयास करते। घर में होते तो फिल्मी गीत और ग़ज़लें सुनते रहते। बाहर आते तो फिल्म देखने निकल जाते। रिज़र्व प्रकृति के वीर ने आसपास के बच्चों के साथ पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। शहर में एक ही तरणताल था, वहाँ जाना शुरू कर दिया। कहाँ तो माँ इस घर-घुस्सू को बाहर निकालते-निकालते थक जाती थी और कहाँ अब जैसे बस खाना खाने और सोने के लिये ही घर आते थे।

भले ही भारत के अनेक नगरों में गुड़ी पडवा या पन्द्रह अगस्त का दिन पतंगों का होता हो, बरेली में हर दिन पतंगबाज़ी का होता है। रोज़ाना ही पेंच लड़ रहे होते हैं। तपते सूरज का सामना करते वीर इतवार को छत पर थे कि सामने सडक पर नज़र पड़ी तो प्रकाश की एक किरण वहाँ चमकी। झरना ही थी। हाथ में एक पर्ची लिये दलबीर की दुकान के बाहर खडी थी। दलबीर ने वीर की ओर इशारा किया। उनकी नज़रें झरना से मिलीं। ठीक उसी समय वीर ने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।

[क्रमशः]

Sunday, June 5, 2011

विश्वसनीयता का संकट - हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ अनुभव

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हमारे ज़माने में लोग अपनी डायरी में इधर-उधर से सुने हुए शेर आदि लिख लेते थे और अक्सर मूल लेखक का नाम भूल भी जाते थे। आजकल कई मासूम लोग अपने ब्लॉग पर भी ऐसा कर बैठते हैं। मगर कई कवियों को दूसरों की कविताओं को अपने नाम से छाप लेने का व्यसन भी होता है। कहीं दीप्ति नवल की कविता छप रही है, कहीं जगजीत सिंह की गायी गयी गज़ल, और कहीं हुल्लड़ मुरादाबादी की पैरोडी का माल चोर ले जा रहे हैं। और कुछ नहीं तो चेन-ईमेल में आयी तस्वीरें ही छप रही हैं।

चेन ईमेल के दुष्प्रभावों के बारे में अधिकांश लोग जानते ही हैं। यह ईमेल किसी लुभावने विषय को लेकर लिखे जाते हैं और इन्हें आगे अपने मित्रों व परिचितों को फॉरवर्ड करने का अनुरोध होता है। ऐसे अधिकांश ईमेल में मूल विषय तक पहुँचने के लिये भी हज़ारों ईमेल पतों के कई पृष्ठों को स्क्रोल डाउन करना पडता है। हर नये व्यक्ति के पास पहुँचते हुए इस ईमेल में नये पते जुडते जाते हैं और भेजने वालों के एजेंट तक आते हुए यह ईमेल लाखों मासूम पतों की बिक्री के लिये तैयार होती है। ऐसे कुछ सन्देशों में कुछ बातें अंशतः ठीक भी होती हैं परंतु अक्सर यह झूठ का पुलिन्दा ही होते हैं। मेरी नज़रों से गुज़रे कुछ उदाहरण देखिये

* यूनेस्को ने 'जन गण मन' को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान बताया है
* ब्रिटिश संसद में लॉर्ड मैकाले का शिक्षा द्वारा भारत को दास बनाने का ड्राफ्ट
* गंगाधर नेहरू का असली नाम गयासुद्दीन गाजी था
* टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादक ने मुम्बैया चूहा के नाम से पत्र लिखा
* ताजमहल तेजो महालय नामक शिव मन्दिर है
* हिटलर शाकाहारी था
* चीन की दीवार अंतरिक्ष से दिखने वाली अकेली मानव निर्मित संरचना है

पण्डित गंगाधर नेहरू
ऐसे ईमेल सन्देशों पर बहुत सी ब्लॉग पोस्ट्स लिखी जा चुकी हैं और शायद आगे भी लिखी जायेंगी। फ़ॉरवर्ड करने और लिखने से पहले इतना ध्यान रहे कि बिना जांचे-परखे किसी बात को आगे बढाने से हम कहीं झूठ को ही बढावा तो नहीं दे रहे हैं। और हाँ, कृपया मुझे ऐसा कोई भी चेन ईमेल अन्धाधुन्ध फॉरवर्ड न करें।

जब ऐसी ही एक ईमेल से उत्पन्न "एक अफ्रीकी बालक की य़ूएन सम्मान प्राप्त कविता" एक पत्रकार के ब्लॉग पर उनके वरिष्ठ पत्रकार के हवाले से पढी तो मैंने विनम्र भाषा में उन्हें बताया कि यूएन में "ऐन ऐफ़्रिकन किड" नामक कवि को कोई पुरस्कार नहीं दिया गया है और वैसे भी इतनी हल्की और जातिवादी तुकबन्दी को यूएन पुरस्कार नहीं देगा। जवाब में उन्होंने बताया कि "जांच-पड़ताल कर ही इसे प्रकाशित किया गया है। कृपया आप भी जांच लें।" आगे सम्वाद बेमानी था।

भारत की दशा रातोंरात बदलने का हौसला दर्शाते कुछ हिन्दी ब्लॉगों पर दिखने वाली एक सामान्य भूल है भारत का ऐसा नक्शा दिखाना जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य का अधिकांश भाग चीन-पाकिस्तान में दिखाया जाता है। कई नक्शों में अरुणाचल भी चीन के कब्ज़े में दिखता है। नैतिकता की बात क्या कहूँ, कानूनी रूप से भी ऐसा नक्शा दिखाना शायद अपराध की श्रेणी में आयेगा। दुर्भाग्य से यह भूल मैंने वरिष्ठ बुद्धिजीवी, पत्रकारों और न्यायवेत्ताओं के ब्लॉग पर भी देखी है। जहाँ अधिकांश लोगों ने टोके जाने पर भूल सुधार ली वहीं एक वरिष्ठ शिक्षाकर्मी ब्लॉगर ने स्पष्ट कहा कि उन्होंने तो नक़्शा गूगल से लिया है।

मेरी ब्लॉगिंग के आरम्भिक दिनों में एक प्रविष्टि में मैंने नाम लिये बिना एक उच्च शिक्षित भारतीय युवक द्वारा अपने उत्तर भारतीय नगर के अनुभव को ही भारत मानने की बात इंगित की तो एक राजनीतिज्ञ ब्लॉगर मुझे अमेरिकी झंडे के नीचे शपथ लिया हुआ दक्षिण भारतीय कहकर अपना ज्ञानालोक फैला गये। उनकी खुशी को बरकरार रखते हुए मैंने उनकी टिप्पणी का कोई उत्तर तो नहीं दिया पर उत्तर-दक्षिण और देसी-विदेशी के खेमों में बंटे उनके वैश्विक समाजवाद की हवा ज़रूर निकल गयी। उसके बाद से ही मैंने ब्लॉग पर अपना प्रचलित उत्तर भारतीय हिन्दी नाम सामने रखा जो आज तक बरकरार है।

मेरे ख्याल से हिन्दी ब्लॉग में सबसे ज़्यादा लम्बी-लम्बी फेंकी जा रही है भारतीय संस्कृति, भाषा और सभ्यता के क्षेत्र में। उदाहरणार्थ एक मित्र के ब्लॉग पर जब हिन्दी अंकों के उच्चारण के बारे में एक पोस्ट छपी तो टिप्पणियों में हिन्दी के स्वनामधन्य व्यक्तित्व राजभाषा हिन्दी के मानक अंकों को शान से रोमन बता गये। अन्य भाषाओं और लिपियों की बात भी कोई खास फर्क नहीं है। भारतीय देवता हों, पंचांग हों, या शास्त्र, आपको हर प्रकार की अप्रमाणिक जानकारी तुरंत मिल जायेगी।

अब तक के मेरे ब्लॉग-जीवन में सबसे फिज़ूल दुर्घटना एक प्रदेश के कुछ सरल नामों पर हुई जिसकी वजह से सही होते हुए भी एक स्कूल से अपना नाम पर्मानैंटली कट गया। बाद में सम्बद्ध प्रदेश के एक सम्माननीय और उच्च शिक्षित भद्रपुरुष की गवाही से यह स्पष्ट हुआ कि स्कूल के जज उतने ज्ञानी नहीं थे जितने कि बताये जा रहे थे। उस घटना के बाद से अब तक तो कई जगह से नाम कट चुके हैं और शायद आगे और भी कटेंगे लेकिन मेरा विश्वास है कि विश्वसनीयता की कीमत कभी भी कम नहीं होने वाली।

हिन्दी ब्लॉगिंग में अपने तीन वर्ष पूरे होने पर मैं इस विषय में सोच रहा था लेकिन समझ नहीं आया कि हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता और प्रामाणिकता की मात्रा कैसे बढ़े। आपके पास कोई विचार हो तो साझा कीजिये न।