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Thursday, August 8, 2019
Tuesday, July 9, 2019
कुछ साक्षात्कार
विडियो Video
हिंदी सम्पादन की चुनौतियाँ - टैग टीवी कैनैडा पर अनुराग शर्मा, सुमन घई और शैलजा सक्सेना
Anurag Sharma with Suman Ghai and Shailja Saxena on Tag TV Canada
मॉरिशस टीवी पर डॉ. विनय गुदारी के साथ अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Anurag Sharma's Interview by Dr. Vinay Goodary on Mauritius TV
आप्रवासी साहित्य सृजन सम्मान का फ़्रैंच समाचार French News about MGI Mauritius Award
अनुराग शर्मा का साक्षात्कार (अंग्रेज़ी में) In discussion with Sparsh Sharma (English)
एनएचके (जापान) पर अनुराग शर्मा से नीलम मलकानिया की वार्ताऑडियो Audio
Neelam Malkania speaks to Anurag Sharma on NHK Radio (Japan)
रेडियो सलाम नमस्ते (अमेरिका) पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Hindi Interview with Anurag Sharma on Radio Salam Namaste, Texas
मुद्रित, व अन्य Print and Online
Friday, June 28, 2019
ब्राह्मण कौन? - भाग 3
1. मूल प्रश्न जटिल है, उत्तर भी सरल नहीं। यह सही लगता है कि ब्राह्मण और शूद्र दोनों ही बाद की बातें हैं लेकिन प्रकृति में बल, कौशल से पहले है। वर्णाश्रम व्यवस्था से बाहर के समाज देखें तो आज के सभ्य समाज में वे मुख्यतः व्यवसायी हैं, और व्यवसायी बनने से पहले ही योद्धा थे और आज वणिकवृत्ति करते हुये भी वैश्य से अधिक योद्धा ही हैं। यूरोप की विभिन्न ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ हों, भारतीय क्षेत्र के राजवंशों के संघर्ष हों, या देवासुर संग्राम जैसे आख्यान, ये सभी उदाहरण आत्मरक्षा से आगे जाकर, आक्रामकता और पराक्रम को नैसर्गिक गुण दर्शाते हैं। गौतम का बुद्ध हो जाना वास्तव में मानव और समाज, दोनों के विकास की प्रक्रिया का अगला चरण है।
2. शक्ति के अनेक रूप हैं, ज्ञान भी एक बड़ी शक्ति है। अविकसित समाज में राजा का शक्तिशाली होना स्वाभाविक है, बल्कि वहाँ शक्ति ही नेतृत्व प्रदाता है। जिस ईख, या गन्ने के लिये गिरमिटिया, फ़ीजी, मॉरिशस से लेकर वेस्ट इंडीज़ तक ले जाये गये उसका ज्ञान सैकड़ों वर्षों तक ईक्ष्वाकुओं का पेटेंट रहा हो यह स्वाभाविक है। वर्ण-व्यवस्था से पहले का राजा ब्रह्म-क्षत्रिय है। उसमें ये दोनों वर्ण हैं, बल्कि कुछ सीमा तक चारों वर्ण समाहित हैं। उसके विश्वस्त भी किसी भी अन्य अविकसित/विकासशील समाज की तरह योद्धा अधिक हैं, वैश्य कम। वैश्यवृत्ति विकास का उपादान भी है, और उत्पाद भी। ब्राह्मण व शूद्र वृत्तियाँ किसी भी अविकसित समाज में अनुपस्थित है। वे दोनों ही विकसित समाजों का नवोन्मेष हैं, और उनकी आवश्यकता भी।
4. अहिंसा तो फिर भी आचरण की बात थी, ज्ञान को राजा की बपौती से बाहर निकालकर गुरुकुलों द्वारा, ब्रह्मविद्या द्वारा, वेदों-उपवेदों द्वारा पब्लिक डोमेन में लाने का कार्य करने वाले ब्राह्मण हुये। वे राजाओं में से भी आये होंगे, क्षत्रियों, वैश्यों, और शूद्रों में से भी। बेशक जो पीढ़ी ब्राह्मण हो चुकी है, उसकी संतति का ब्राह्मण होना सरल है। जो परिवार 5,000 वर्षों से शाकाहारी हैं, उनके बच्चों के शाकाहारी होने में कोई चमत्कार नहीं, लेकिन अन्यों का ब्राह्मणत्व उपार्जित है, जिसे सरल करने का कार्य वर्णाश्रम व्यवस्था ने किया। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद राजा और मंत्रिमण्डल राजपुरोहित के नेतृत्व में राज्य के हित के लिये मिलकर काम करने लगे लेकिन उससे पहले का काल निश्चित रूप से इन दो संस्थाओं के संघर्ष का भी गवाह रहा है।
5. क्षत्रियत्व मानवों सहित असुरों में भी जन्मजात है, और देवों में भी। ब्राह्मणत्व केवल मानवों में उपस्थित है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि ब्राह्मण मानव होते हुये भी देव हो गये हैं। क्यों के उत्तर की खोज हमें ब्राह्मणत्व के दो मूल लक्षणों परमार्थ (स्वार्थ नहीं), तथा दान (लेना भी, देना भी - समन्वय, विकास, और विस्तार ) की ओर इंगित करती है। याद रहे, दान देवता की मूल प्रवृत्ति है।
6. जंगल प्राकृतिक हैं लेकिन कृषि नैसर्गिक नहीं। हज़ारों वर्ष पहले के भारत की बात छोड़ भी दें तो कुछ सौ साल पहले के - अमेरिका पहुँचे यूरोपीय 'पिलग्रिम' भूखे मरने को थे क्योंकि उन्हें कृषि का कख भी नहीं आता था। व्यवसाय कृषि के विकास से हज़ारों साल पहले भी होता रहा है। अरब और यूरोप के व्यापारी प्राचीन काल से भारत के साथ व्यापार करते रहे हैं, जबकि कृषि के मामले में वे निरक्षर थे। समस्त भारत में कृषि और गौपालन की स्वीकार्यता, उसका ज्ञान, और विस्तार ब्राह्मणों की ही देन है। कृषि और शाकाहार का सामान्य ज्ञान हमें आज वैसा ही सरल और स्वाभाविक लगता है, जैसा मेरे बच्चों का अमेरिका में रहते हुये भी शाकाहारी होना, लेकिन है नहीं। इसके पीछे सहस्रों वर्षों का तप और त्याग है। वेदों को बार बार चोरों के मुँह में हाथ डालकर निकाला गया है ताकि समाज का कल्याण हो। गौदान के द्वारा गौसंवर्धन, दूध, दही, मक्खन, खीर, घी आदि के प्रयोग द्वारा पोषण, गौ को माँ का स्थान देकर भारतीय समाज में इतना सहज बना दिया गया जैसा संसार में और कहीं नहीं हुआ।
7. वर्ण और विशेषकर वर्ण-संकर भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक ग़लत समझे गये शब्द हैं। ग्रंथों में जहाँ भी वर्ण-संकर शब्द का प्रयोग हुआ है उसे जाति-संकर कहना न केवल एक भूल है बल्कि महा-अज्ञान है। ऐसा अनर्थ करने वाले यदि शंकराचार्य के पद पर भी बैठे हों तो भी वे भारतीय संस्कृति की आत्मा से दूर हैं। सामान्यजन तो खैर संसार भर में कुछ हद तक जातिवादी होते हैं, और अपने परिवार, वंश, जाति, या राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ मानना कोई नई या अस्वाभाविक बात नहीं है। वर्ण इस जातिगत श्रेष्ठता की काट भी बने और व्यक्ति और समाज के विकास का साधन भी।
7. ब्राह्मणत्व के अनेक कर्तव्यों में से एक दान लेना और दान देना भी है। अपने को अयाचक मानकर, ब्राह्मणों को याचक या हीन कहना निश्चित रूप से एक अब्राह्मण प्रवृत्ति है। अनेक जन्मना ब्राह्मण भी संसार की देखादेखी आजकल परशु को ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते दिखते हैं लेकिन तथ्य यही है कि सत्यनिष्ठा और विनम्रता ब्राह्मणत्व के मूलभूत गुण हैं, और इस बात को न समझने वालों का ब्राह्मणत्व नाममात्र का ही है।
8. किसी को ब्राह्मण कहने का आधार उसके माता पिता का ब्राह्मण होना भी मात्र उतना ही है जितना किसी के क्षत्रिय, वैश्य, सिख, ईसाई, जैन, तुरक, या किसी अन्य वर्ण, जाति, या मज़हब का होना। न उससे तनिक भी कम, न अधिक। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अधोपतन के इस काल में भी भारत में सर्वाधिक अंतरजातीय विवाह ब्राह्मणों में ही मिलेंगे जो इस बात का द्योतक है कि ब्राह्मण जाति के बंधन में उतने नहीं फँसे हुये जितने अन्य समुदाय। वर्ण जन्मना नहीं, जाति नहीं, बल्कि जातिवाद के विरुद्ध क्रांति के प्रतीक हैं, वे जन्मना अहंकार का प्रतिरोध हैं।
... अभी के लिये इतना ही, शेष फिर ...
2. शक्ति के अनेक रूप हैं, ज्ञान भी एक बड़ी शक्ति है। अविकसित समाज में राजा का शक्तिशाली होना स्वाभाविक है, बल्कि वहाँ शक्ति ही नेतृत्व प्रदाता है। जिस ईख, या गन्ने के लिये गिरमिटिया, फ़ीजी, मॉरिशस से लेकर वेस्ट इंडीज़ तक ले जाये गये उसका ज्ञान सैकड़ों वर्षों तक ईक्ष्वाकुओं का पेटेंट रहा हो यह स्वाभाविक है। वर्ण-व्यवस्था से पहले का राजा ब्रह्म-क्षत्रिय है। उसमें ये दोनों वर्ण हैं, बल्कि कुछ सीमा तक चारों वर्ण समाहित हैं। उसके विश्वस्त भी किसी भी अन्य अविकसित/विकासशील समाज की तरह योद्धा अधिक हैं, वैश्य कम। वैश्यवृत्ति विकास का उपादान भी है, और उत्पाद भी। ब्राह्मण व शूद्र वृत्तियाँ किसी भी अविकसित समाज में अनुपस्थित है। वे दोनों ही विकसित समाजों का नवोन्मेष हैं, और उनकी आवश्यकता भी।
विकास का नैसर्गिक क्रम: क्षत्रिय → वैश्य → शूद्र → ब्राह्मण3. भारतीय समाज और वर्णाश्रम व्यवस्था के अहिंसा सहित अनेक अद्वितीय/अपूर्व धर्म/लक्षण हैं - ऐसे सारे लक्षण ब्राह्मणत्व का उदय भी दर्शाते हैं, और उसका आधार भी बने हैं। यह धर्म, ये लक्षण ही भारतीय संस्कृति को पश्चिम से, बल्कि सारे संसार से अलग खड़ा करते हैं। ब्राह्मणत्व का सिद्धांत भारतीय संस्कृति का वह बिंदु है जो अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं है। दान देना और दान लेना, विशेषकर ब्रह्मदान, जनकल्याण के लिये ज्ञान का विस्तार, पुर के हित के लिये पौरोहित्य, और निरंकुश शासक के लिये संघर्ष का परशु, बनना। सिद्धांततः ब्राह्मणत्व विनम्रता की मूर्ति होते हुये भी भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का अडिग आधार है।
4. अहिंसा तो फिर भी आचरण की बात थी, ज्ञान को राजा की बपौती से बाहर निकालकर गुरुकुलों द्वारा, ब्रह्मविद्या द्वारा, वेदों-उपवेदों द्वारा पब्लिक डोमेन में लाने का कार्य करने वाले ब्राह्मण हुये। वे राजाओं में से भी आये होंगे, क्षत्रियों, वैश्यों, और शूद्रों में से भी। बेशक जो पीढ़ी ब्राह्मण हो चुकी है, उसकी संतति का ब्राह्मण होना सरल है। जो परिवार 5,000 वर्षों से शाकाहारी हैं, उनके बच्चों के शाकाहारी होने में कोई चमत्कार नहीं, लेकिन अन्यों का ब्राह्मणत्व उपार्जित है, जिसे सरल करने का कार्य वर्णाश्रम व्यवस्था ने किया। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद राजा और मंत्रिमण्डल राजपुरोहित के नेतृत्व में राज्य के हित के लिये मिलकर काम करने लगे लेकिन उससे पहले का काल निश्चित रूप से इन दो संस्थाओं के संघर्ष का भी गवाह रहा है।
5. क्षत्रियत्व मानवों सहित असुरों में भी जन्मजात है, और देवों में भी। ब्राह्मणत्व केवल मानवों में उपस्थित है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि ब्राह्मण मानव होते हुये भी देव हो गये हैं। क्यों के उत्तर की खोज हमें ब्राह्मणत्व के दो मूल लक्षणों परमार्थ (स्वार्थ नहीं), तथा दान (लेना भी, देना भी - समन्वय, विकास, और विस्तार ) की ओर इंगित करती है। याद रहे, दान देवता की मूल प्रवृत्ति है।
6. जंगल प्राकृतिक हैं लेकिन कृषि नैसर्गिक नहीं। हज़ारों वर्ष पहले के भारत की बात छोड़ भी दें तो कुछ सौ साल पहले के - अमेरिका पहुँचे यूरोपीय 'पिलग्रिम' भूखे मरने को थे क्योंकि उन्हें कृषि का कख भी नहीं आता था। व्यवसाय कृषि के विकास से हज़ारों साल पहले भी होता रहा है। अरब और यूरोप के व्यापारी प्राचीन काल से भारत के साथ व्यापार करते रहे हैं, जबकि कृषि के मामले में वे निरक्षर थे। समस्त भारत में कृषि और गौपालन की स्वीकार्यता, उसका ज्ञान, और विस्तार ब्राह्मणों की ही देन है। कृषि और शाकाहार का सामान्य ज्ञान हमें आज वैसा ही सरल और स्वाभाविक लगता है, जैसा मेरे बच्चों का अमेरिका में रहते हुये भी शाकाहारी होना, लेकिन है नहीं। इसके पीछे सहस्रों वर्षों का तप और त्याग है। वेदों को बार बार चोरों के मुँह में हाथ डालकर निकाला गया है ताकि समाज का कल्याण हो। गौदान के द्वारा गौसंवर्धन, दूध, दही, मक्खन, खीर, घी आदि के प्रयोग द्वारा पोषण, गौ को माँ का स्थान देकर भारतीय समाज में इतना सहज बना दिया गया जैसा संसार में और कहीं नहीं हुआ।
7. वर्ण और विशेषकर वर्ण-संकर भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक ग़लत समझे गये शब्द हैं। ग्रंथों में जहाँ भी वर्ण-संकर शब्द का प्रयोग हुआ है उसे जाति-संकर कहना न केवल एक भूल है बल्कि महा-अज्ञान है। ऐसा अनर्थ करने वाले यदि शंकराचार्य के पद पर भी बैठे हों तो भी वे भारतीय संस्कृति की आत्मा से दूर हैं। सामान्यजन तो खैर संसार भर में कुछ हद तक जातिवादी होते हैं, और अपने परिवार, वंश, जाति, या राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ मानना कोई नई या अस्वाभाविक बात नहीं है। वर्ण इस जातिगत श्रेष्ठता की काट भी बने और व्यक्ति और समाज के विकास का साधन भी।
7. ब्राह्मणत्व के अनेक कर्तव्यों में से एक दान लेना और दान देना भी है। अपने को अयाचक मानकर, ब्राह्मणों को याचक या हीन कहना निश्चित रूप से एक अब्राह्मण प्रवृत्ति है। अनेक जन्मना ब्राह्मण भी संसार की देखादेखी आजकल परशु को ज्ञान से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते दिखते हैं लेकिन तथ्य यही है कि सत्यनिष्ठा और विनम्रता ब्राह्मणत्व के मूलभूत गुण हैं, और इस बात को न समझने वालों का ब्राह्मणत्व नाममात्र का ही है।
8. किसी को ब्राह्मण कहने का आधार उसके माता पिता का ब्राह्मण होना भी मात्र उतना ही है जितना किसी के क्षत्रिय, वैश्य, सिख, ईसाई, जैन, तुरक, या किसी अन्य वर्ण, जाति, या मज़हब का होना। न उससे तनिक भी कम, न अधिक। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अधोपतन के इस काल में भी भारत में सर्वाधिक अंतरजातीय विवाह ब्राह्मणों में ही मिलेंगे जो इस बात का द्योतक है कि ब्राह्मण जाति के बंधन में उतने नहीं फँसे हुये जितने अन्य समुदाय। वर्ण जन्मना नहीं, जाति नहीं, बल्कि जातिवाद के विरुद्ध क्रांति के प्रतीक हैं, वे जन्मना अहंकार का प्रतिरोध हैं।
... अभी के लिये इतना ही, शेष फिर ...
सम्बंधित कड़ी: ब्राह्मण कौन? भाग 1
Sunday, June 16, 2019
ब्राह्मण कौन 2 (उपजातियाँ, गोत्र, प्रवर, और घर)
रेखाचित्र: अनुराग शर्मा |
भारत में ही नहीं, कबीले और जातियाँ संसार भर में पाये जाते रहे हैं। कोई समूह अपने रंग के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानता था, कोई अपनी क्रूरता के आधार पर, तो कोई अपनी समृद्धि के आधार पर। अपने जैसे समूह में मिलना, और स्वयं को अपने से भिन्न लगने वालों से श्रेष्ठ समझना कुछ हद तक स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
प्राचीन भारतीय समाज और संस्कृति कई मायनों में क्रांतिकारी रही है। भारतीय समाज के अनूठे विचारों में से एक वर्णाश्रम व्यवस्था भी थी। जन्मजात श्रेष्ठता की विश्वव्यापीधारणाओं को नकारकर, जाति के बजाय कर्म और शालीनता को महत्व देना वर्ण व्यवस्था का आधार है।
पितृसत्ता तो संसार भर में सामान्य थी, केरल के नायर समुदाय में मातृकुल आज भी मान्य है। लेकिन भारतीय संस्कृति ने जन्म या रक्त के सम्बंध से कहीं ऊपर उठकर गोत्र द्वारा गुरुकुल से जुड़ने जैसी अपूर्व धारणा की नींव रखी। शास्त्रीय परम्परानुसार, भगवान राम का वंश इक्ष्वाकु, कुल रघुकुल, परंतु गोत्र वसिष्ठ है। किसी भी गुरुकुल के शिष्यों का गोत्र सामान्यतः उस गुरुकुल के संस्थापक के नाम पर होता था और सगोत्रियों को सगे-सम्बंधियों की तरह माना जाता था। इसी कारण उनमें विवाह सम्बन्ध प्रतिबंधित थे। अंतर्गोत्रीय विवाह दो भिन्न गुरुकुलों के बीच सेतु बनकर ज्ञान के आदान-प्रदान का कार्य भी करते थे। जब सारा संसार लगभग जंगली जीवन जीता था तब इतने बड़े देश को दुग्ध और शाकाहार आधारित स्वस्थ पोषण जैसी जानकारी, दशमलव गणित, और खगोलशास्त्र जैसे विज्ञान, शर्करा जैसा बहूपयोगी उत्पाद, हीरक-खनन जैसा अद्वितीय और अपूर्व कार्य, जातिवादी अहंकार और फ़िरकापरस्ती की जगह कर्म-आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था जैसे सिद्धांत देने में गोत्र व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
मूल गोत्र सप्तर्षियों के नाम पर रहे। बाद के ऋषि सामान्यतः प्रवर के रूप में मान्य हुये लेकिन सम्भव है कि कुछ क्षेत्रों में वे गोत्र-प्रवर्त्तक भी मान लिये गये हों। गोत्रों के कुछ सामान्य उदाहरण पराशर, वसिष्ठ, भरद्वाज, कश्यप आदि हैं। कहीं पढ़ा था कि काशी में 47 गोत्र ऋषियों के मंदिर ज्ञात हैं। काशी में और अन्यत्र ऐसे अधिक मंदिर भी हो सकते हैं, लेकिन मुझे उसकी जानकारी नहीं है।
गोत्र से इतर एक अन्य विभाजन क्षेत्र का भी है। सागरतट से दूर उत्तरभारतीय ब्राह्मण गौड़ तथा तटीय क्षेत्र के ब्राह्मण द्रविड़ कहलाये। द्रविड़ का उद्भव द्रव से हो सकता है, जिससे उनके तटीय क्षेत्रों में निवास के साथ-साथ समृद्धि का संकेत भी मिलता है। जातिवादी गोरे शासकों द्वारा आर्यन रेस तथा आर्य-द्रविड़ संघर्ष जैसी मिथ्या मान्यताओं की स्थापना उनकी अपनी स्वार्थसिद्धि के पथ में स्वाभाविक होते हुये भी पूर्णतः निराधार है।
गौड़ क्षेत्र के ब्राह्मणों को गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल, उत्कल, सरयूपारीण, गुर्जर, देशस्थ, कोंकणस्थ आदि अनेक वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। इसी प्रकार द्रविड़ ब्राह्मणों को तैलंग, अय्यर, अयंगार, नम्बूदरी, आदि अनेक खण्डों में विभक्त किया जा सकता है। लेकिन इनके अतिरिक्त सनाढ्य जैसे कुछ समूह आज भी क्षेत्रीय नाम से मुक्त हैं। कश्मीरी ब्राह्मण जैसे कुछ क्षेत्रीय नाम बाद में बने हुये भी लगते हैं।
जाति व्यवस्था के विपरीत वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी लेकिन कालांतर में वह भी लगभग जाति की समरूप ही हो गयी। विवाह सम्बंध के मामलों में अधिकांश समूह अन्य समूहों से अलग होते गये। चीन-जापान आदि अनेक देशों में कुलनाम बदलना आज भी कानून के विरुद्ध है लेकिन भारत में कुलनामों के विषय में कोई कानून न होना अपने समूह के बाहर के अपरिचितों के वास्तविक वर्ण, परम्परा, खानपान, शुचिता आदि के प्रति अविश्वास का कारण भी बना और अपनी-अपनी परम्पराओं को बाह्य आक्रमणों से बचाये-बनाये रखने का एकमात्र साधन भी।
सात्विक भोजन (प्याज़-लहसुन आदि गंधक-वनस्पति रहित शाकाहार व दुग्ध उत्पाद मात्र) के प्रति सनाढ्य ब्राह्मणों का अटूट आग्रह कुछ अन्य ब्राह्मण समूहों विशेषकर कान्यकुब्ज समूह से उनके अलगाव का कारण बना। गोत्र-प्रवर के वर्गीकरण के अनुसार सनाढ्य ब्राह्मण समुदाय स्वयं भी दो उपवर्गों दसघर और साढ़े-तीन घर में बँट गया। जहाँ दसघर कुल 10 गोत्रों का समूह था वहीं साढ़े तीन घर में दो प्रकार के गोत्र थे, पहले वे जिनके हर गोत्र में तीन अल्ल (शासन, प्रवर या कुलनाम) हैं, और दूसरे वे जिनमें कोई प्रवर नहीं। तीन प्रवर वाले गोत्रों का एक उदाहरण पाराशर गोत्र है जिसमें तीन कुलनाम पाण्डेय, पाराशरी, व त्रिगुणायत पाये जाते हैं तथा एकल-प्रवर वाले गोत्र का उदाहरण च्यवन है जिनका कुलनाम कष्टहा (तद्भव कटिहा) है। सांख्यधर (तद्भव शंखधार) कुलनाम भी भी साढ़े-तीन घर के सनाढ्यों के एकल-प्रवर कुल का एक उदाहरण है। साढ़े-तीन घर में प्रयुक्त अर्थ इन्हीं एकल-प्रवर कुलों के प्रतीक हैं।
गोत्र के सामान्य नियमों के अनुसार दसघर के गोत्र एक-दूसरे में विवाह सम्बंध बनाते रहे हैं। परम्परानुसार उनकी कन्याओं का विवाह साढ़े-तीन घर के वरों के साथ हो सकता था, यद्यपि उसके विलोम से सामान्यतः बचा जाता था, लेकिन पूर्ण मनाही जैसी स्थिति नहीं थी। हाँ ये दोनों ही वर्ग अन्य ब्राह्मण या अब्राह्मण समूहों में विवाह नहीं करते थे। मुख्य बाधा खानपान की पवित्रता की अवधारणा ही थी। स्नान के बिना या चप्पल आदि पहनकर रसोई में प्रवेश प्रतिबंधित था। दिन का भोजन कच्चा अर्थात, दाल, भात, रोटी, रायता, सलाद आदि होता था जबकि शाम का भोजन पक्का अर्थात पूरी, पराँठे, सब्ज़ी (तली हुई) आदि होते थे। इनके सामान्य व्यवसायों में कथावाचन, वैद्यकी, ज्योतिष, व पौरोहित्य भी थे। पौरोहित्य व्यवसाय के कारण इनका खानपान सभी हिंदू जातियों में होता था। लेकिन उसमें पका खाना और कच्चा खाना के नियम थे जिसके अनुसार दाल, चावल, रोटी आदि जैसे बिना-तले पदार्थ घर से बाहर के पके नहीं खाये जाते थे। पवित्रता का ध्यान रखते हुए फलाहार, तथा पक्का खाना आवश्यकतानुसार बाहर की रसोई का भी खाया जा सकता था। इनके हाथ के बनाये हुए कच्चे भोजन सहित सभी सामग्री सभी जातियों और धर्मों में भोज्यपदार्थ के लिये समान रूप से विश्वसनीय और स्वीकार्य थी। शायद इसी कारण यह समुदाय भोजन, मिष्ठान्न आदि के व्यवसाय से भी जुड़ा रहा है। खाना पकाने वाले कर्मी को महाराज कहने का रिवाज़ भी इनके इस व्यवसाय से ही आया है क्योंकि इस समुदाय के व्यक्तियों को आदर से 'पण्डित जी महाराज', पण्डितजी, या महाराज कहने की प्रथा है। इसीलिये कुछ क्षेत्रों में रसोइये को ही महाराज कहा जाने लगा।
नमस्कार के लिये सामान्यतः पण्डित जी पालागन या दण्डवत महाराज जैसे सम्बोधन सामान्य थे। मुझे याद है कि बरेली में मेरे मुस्लिम अध्यापक भी मुझे पण्डित जी महाराज कहकर ही बुलाते थे।
अधिकांश सनाढ्य अपने नाम में अपनी अल्ल/अल्ह (कुलनाम) का प्रयोग करते हैं, कुछ सामान्य ब्राह्मण नाम 'शर्मा' का भी प्रयोग करते हैं और कोई-कोई अपने गोत्र का। उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक, मुख्य न्यायाधीश रामस्वरूप पाठक, केंद्रीय विद्यालय संगठन के मुख्य आयुक्त श्री रमेश चंद्र शर्मा आदि इस समुदाय के ही हैं। कुछ कुलनामों का प्रयोग इसलिये नहीं किया जाता था क्योंकि वे अन्य समुदायों के कुछ अन्य कुलनामों से मिलते-जुलते होने के कारण सुनने वाले को भ्रमित कर सकते थे। उदाहरण के लिये सनाढ्य शब्द को ही कुलनाम में प्रयुक्त नहीं किया जाता था क्योंकि वह अब्राह्मण जाति सनौढ़िया से भ्रमित कर सकता था। इसी प्रकार कष्टहा, या कटिहा कुलनाम वाले सामान्यतः शर्मा लिखते थे ताकि उन्हें कट्ट्या महाब्राह्मण न समझ लिया जाये। ज्ञातव्य है कि महाब्राह्मण हिंदुओं का अंतिम संस्कार कराने वाले ब्राह्मण वर्ग के लिये रूढ़ नाम है जो श्मशान में अंतिम संस्कार कराने के कारण सामान्य पूजा-पाठ से अलग हो गये थे, और सामान्य व्यवहार में लगभग अब्राह्मण जैसे ही समझे जाने लगे थे। सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक स्थिति में भी कट्ट्या समुदाय देश के सर्वाधिक पिछड़े वर्गों में से एक और दलितों में भी अति-दलित जैसे हैं। आर वी रसैल (R. V. Russell) ने भी अपने अज्ञान के कारण ही 'The Tribes and Castes of the Central Provinces of India - Volume II' में जब साढ़े-तीन घर के सनाढ्यों को एक बार महाब्राह्मणों में विवाहित (*Further, it is said that the Three-and-a-half group were once made to intermarry with the degraded Kataha or Maha-Brahmans, who are funeral priests.) बताया है तो उसका कारण कष्टहा तथा कट्ट्या को समान समझने का भ्रम ही है।
सनेन तपसा वेदेन च सना निरंतरमाढ्य: पूर्ण सनाढ्य:साढ़े-तीन घर के कई कुलनाम दसघर के कुलनामों के समान होते हुए भी अलग हैं। इसी प्रकार दसघर के अधिकांश कुलनाम कान्यकुब्ज या गौड़ ब्राह्मणों के समान होते हुए भी वास्तव में उनसे भिन्न हैं। महाराष्ट्र से नेपाल तक पाया जाने वाला पाण्डेय कुलनाम अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग ब्राह्मण समूहों का प्रतिनिधित्व करता है। सनाढ्यों के मिश्र में ही भेद (सरैय के मिसर, या कटैय्या के मिसर) हैं। इसी प्रकार साढ़े-तीन घर के पाठक दसघर के पाठकों से भिन्न हैं।
सनाढ्यों में प्रचलित कुछ कुलनाम
साढ़े-तीन घर: मिश्र (गोत्र: कश्यप), पाठक (गोत्र: कश्यप), पाण्डेय (गोत्र: पाराशर), कटिहा (गोत्र: च्यवन), पाराशरी (गोत्र: पाराशर), त्रिगुणायत (गोत्र: पाराशर), शंखधार (गोत्र: अगस्त्य),
दसघर: मिश्र, पाठक (गोत्र: भरद्वाज), उपाध्याय, चतुर्वेदी
विषय विस्तृत है, इस पर प्रकाशित प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। अधिकांश उपलब्ध जानकारी अपने-अपने क्षेत्र या कुल को औरों से श्रेष्ठ बताने के पूर्वाग्रह से युक्त, तथ्यहीन, और असत्य है। अंतर्जाल पर उपलब्ध जानकारी में अनेक ऊलजलूल कहानियाँ कट-पेस्ट करके दोहरायी गयी हैं। इसके अतिरिक्त नई पीढ़ी के बच्चे अपने गोत्र-प्रवर-समूह आदि की जानकारी से वंचित भी हैं। इस आलेख का उद्देश्य लुप्त हो रही जानकारी को लिपिबद्ध करना है। लेखक का विश्वास किसी भी जाति को उच्च या निम्न न मानते हुये प्राणिमात्र की उन्नति की भारतीय अवधारणा में है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।
Friday, June 7, 2019
कविता: अनुनय
अनुराग शर्मा
सुबह की ओस में आँखें मुझे भिगोने दो
युगों से सूखी रहीं आँसुओं से धोने दो
बहुत थका हूँ मुझे रात भर को सोने दो
हँसी लबों पे बनाये रखी दिखाने को
अभी अकेला हूँ कुछ देर मुझको रोने दो
सफ़र भला था जहाँ तक तुम्हारा साथ रहा
मधुर हैं यादें उन्हीं में मुझे यूँ खोने दो
कँटीली राह रही आसमान तपता हुआ
खुशी के बीज मुझे भी कभी तो बोने दो
रहो सुखी सदा जहाँ भी रहो जैसे रहो
हुआ बुरा जो मेरे साथ उसको होने दो
Friday, March 29, 2019
दादी माँ कुछ बदलो तुम भी
(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
सदा खिलाया औरों को
खुद खाना सीखो दादी माँ
सबको देते उम्र कटी
अब पाना सीखो दादी माँ
थक जाती हो जल्दी से
अब थोड़ा सा आराम करो
चुस्ती बहुत दिखाई अब
सुस्ताना सीखो दादी माँ
रूठे सभी मनाये तुमने
रोते सभी हँसाये तुमने
मन की बात रखी मन में
बतलाना सीखो दादी माँ
दिन छोटा पर काम बहुत
खुद करने से कैसे होगा
पहले कर लेती थीं अब
करवाना सीखो दादी माँ
हम बच्चे हैं सभी तुम्हारे
जो चाहोगी वही करेंगे
मानी सदा हमारी अब
मनवाना सीखो दादी माँ
सदा खिलाया औरों को
खुद खाना सीखो दादी माँ
सबको देते उम्र कटी
अब पाना सीखो दादी माँ
थक जाती हो जल्दी से
अब थोड़ा सा आराम करो
चुस्ती बहुत दिखाई अब
सुस्ताना सीखो दादी माँ
रूठे सभी मनाये तुमने
रोते सभी हँसाये तुमने
मन की बात रखी मन में
बतलाना सीखो दादी माँ
दिन छोटा पर काम बहुत
खुद करने से कैसे होगा
पहले कर लेती थीं अब
करवाना सीखो दादी माँ
हम बच्चे हैं सभी तुम्हारे
जो चाहोगी वही करेंगे
मानी सदा हमारी अब
मनवाना सीखो दादी माँ
Thursday, March 14, 2019
सत्य - लघु कविता
(अनुराग शर्मा)
सत्य नहीं कड़वा होता
कड़वी होती है कड़वाहट
पराजय की आशंका और
अनिष्ट की अकुलाहट
सत्यासत्य नहीं देखती
मन पर हावी घबराहट
कड़वाहट तो दूर भागती
सुनते ही सत्य की आहट
सत्य नहीं कड़वा होता
कड़वी होती है कड़वाहट
पराजय की आशंका और
अनिष्ट की अकुलाहट
सत्यासत्य नहीं देखती
मन पर हावी घबराहट
कड़वाहट तो दूर भागती
सुनते ही सत्य की आहट
Saturday, March 2, 2019
लघुकथा: असंतुष्ट
दबे-कुचले, दलितों में भी अति-दलित वर्ग के उत्थान के सभी प्रयास असफल होते गये। शिक्षा में सहूलियतें दी गईं तो ग़रीबी के कारण वे उनका पूरा लाभ न उठा सके। फिर आरक्षण दिया गया तो बाहुबली ज़मींदारों ने लट्ठ से उसे झटक लिया। व्यवसाय के लिये ऋण दिये तो भी कहीं अनुभव की कमी, कहीं ठिकाने की - कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि अति-दलित वर्ग समाज के सबसे निचले पायदान पर ही रहा। अन्य सभी जातियाँ, मज़हब, और वर्ग उनके व्यवसाय को हीन समझते रहे।
मेरा शिक्षित और सम्पन्न, लेकिन असंतुष्ट मित्र फत्तू अति-दलितों की चिंता जताकर हर समय सरकार की शिकायत करता था। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि सरकार बदल गयी। नया प्रशासक बड़े क्रांतिकारी विचारों वाला था। उसने बहुत से नये-नये काम किये। यूँ कहें कि सबको हिला डाला।
पहले वाले प्रशासक तो हवाई जहाज़ से नीचे कदम ही नहीं रखते थे। इस प्रशासक ने अति-दलित वर्ग के कर्मियों के साथ जाकर नगर के मार्गों पर झाड़ू लगाई, साफ़-सफ़ाई की।
मेरा असंतुष्ट मित्र फ़त्तू बोला, “पब्लिसिटी है, अखबार में फ़ोटो छपाने को किया है। झाड़ू लगाने में क्या है? अरे, उनके चरण पखारे तब मानूँ ...”
इत्तेफाक़ ऐसा हुआ कि कुछ दिन बाद प्रशासक ने सफ़ाईकर्मियों के मुहल्ले में जाकर उनके चरण भी धो डाले।
मैंने कहा, “फ़त्तू, अब तो तेरे मन की हो गई। अब खुश?”
फतू मुँह बिसूरकर बोला, “पैर धोने में क्या है, उनका चरणामृत पीता, तो मानता।”
सभी दोस्त हँसने लगे। मैंने कहा, "फत्तू, तू भी न, कमाल है।"
Monday, January 28, 2019
बलिहारी गुरु आपने …
(अनुराग शर्मा)
लल्लू: मालिक, जे इत्ते उमरदार लोग आपके पास लिखना-पढ़ना सीखने क्यों आते हैं?
साहब: गधे हैं इसलिये आते हैं। सोचते हैं कि लिखना सीखकर कवि-शायर बन जायेंगे और मुशायरे लूट लाया करेंगे।
लल्लू: मुशायरों में तो बहुत भीड़ होती है, लूटमार करेंगे तो लोग पीट-पीट के मार न डालेंगे?
साहब: अरे लल्लू, तू भी न... बस्स! अरे वह लूट नहीं, लूट का मतलब है बढ़िया शेर सुनाकर वाहवाही लूट लेना।
लल्लू: तो उन्हें पहले से लिखना नहीं आता है क्या?
साहब: न, बिल्कुल नहीं आता। अव्वल दर्ज़े के धामड़ हैं, सब के सब।
लल्लू: लेकिन मालिक... आप तौ उनकी बात सुनकर वाह-वाह, जय हो, गज्जब, सुभानल्ला ऐसे कहते हैं जैसे उन्हें बहुत अच्छा लिखना पहले से आता हो।
साहब: तारीफ़ करता हूँ, तभी तो ये प्यादे मुझे गुरु मानते हैं। लिखना सिखा दूंगा तो मुझ से ही सीखकर मुझे ही सिखाने लगेंगे, बुद्धू।
लल्लू: मालिक, जे इत्ते उमरदार लोग आपके पास लिखना-पढ़ना सीखने क्यों आते हैं?
साहब: गधे हैं इसलिये आते हैं। सोचते हैं कि लिखना सीखकर कवि-शायर बन जायेंगे और मुशायरे लूट लाया करेंगे।
लल्लू: मुशायरों में तो बहुत भीड़ होती है, लूटमार करेंगे तो लोग पीट-पीट के मार न डालेंगे?
साहब: अरे लल्लू, तू भी न... बस्स! अरे वह लूट नहीं, लूट का मतलब है बढ़िया शेर सुनाकर वाहवाही लूट लेना।
लल्लू: तो उन्हें पहले से लिखना नहीं आता है क्या?
साहब: न, बिल्कुल नहीं आता। अव्वल दर्ज़े के धामड़ हैं, सब के सब।
लल्लू: लेकिन मालिक... आप तौ उनकी बात सुनकर वाह-वाह, जय हो, गज्जब, सुभानल्ला ऐसे कहते हैं जैसे उन्हें बहुत अच्छा लिखना पहले से आता हो।
साहब: तारीफ़ करता हूँ, तभी तो ये प्यादे मुझे गुरु मानते हैं। लिखना सिखा दूंगा तो मुझ से ही सीखकर मुझे ही सिखाने लगेंगे, बुद्धू।
[समाप्त]
Friday, January 11, 2019
दोस्त - द्विपदी
- अनुराग शर्मा
अपने नसीब में नहीं क्यों दोस्ती का नूर।
मिलते नहीं क्यों रहते हो इतने दूर-दूर॥
समझा था मुझे कोई न पहचान सकेगा।
यह होता कैसे दोस्त मेरे हैं बड़े मशहूर
मसरूफ़ रहे वर्ना मिलने आते वे ज़रूर॥
हम चाहते थे चार पल दोस्तों के साथ।
वह भी न हुआ दोस्त मेरे हो गये मगरूर॥
सोचा था बचपने के फिर साथी मिलेंगे।
ये हो न सका दोस्त मेरे हैं खट्टे अंगूर॥
दो पल न बिताये न जिलायी पुरानी याद।
तिनका था मैं, दोस्त मेरे थे सभी खजूर॥
Tuesday, January 1, 2019
काव्य: संवाद रहे
अनुराग शर्मा
नश्वरता की याद रहेजारी अनहदनाद रहे
मन भर जाये दुनिया से
कोई न फ़रियाद रहे
पिंजरा टूटे पिञ्जर का
पक्षी यह आज़ाद रहे
न हिचके झुकने में, उनके
जीवन में आह्लाद रहे
कभी सीखने में न चूके
वे सबके उस्ताद रहे
जितनों की सेवा संभव हो
बस उतनी तादाद रहे
भूखे पेट न जाये कोई
और भोजन में स्वाद रहे
अहं कभी न जकड़ सके
न कोई उन्माद रहे
कड़वी तीखी बातें भूलें
खट्टी मीठी याद रहे
कभी रूठ न जायें वे
चलता सब संवाद रहे
घर से छूटे जिनकी खातिर
घर उनका आबाद रहे॥
नव वर्ष 2019 की मंगलकामनाएँ
Sunday, November 4, 2018
व्यथा कथा - एक गीत
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)
ज़िंदगी की रैट-रेस में, जीवन की गलाकाट प्रतियोगिता में हम बहुत कुछ इकट्ठा करते हैं, बिना यह समझे कि एक बिंदु पर पहुँचकर समस्त संसार निस्सार लगने लगता है। इसी भाव को व्यक्त करता एक गीत -जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
हाथ से बालू फिसले ऐसे वक़्त गुज़रता जाता है
बचपन बीता यौवन छूटा तेज़ बुढ़ापा आता है
जल की मीन को है आतुरता जाल में जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।
सपने छूटे, अपने रूठे, गली गाँव सब दूर हुए
कल तक थे जो जग के मालिक मिलने से मजबूर हुए
बुद्धि कितनी जुगत लगाए मन भरमाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
छप्पन भोग से पेट भरे यह मन न भरता है
भटक-भटक कर यहाँ वहाँ चित्त खूब विचरता है
लोभ सँवरता न कोई सीमा है हथियाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
मुक्त नहीं हूँ मायाजाल मेरा मन खींचे है
जितना छोड़ूँ उतना ही यह मुझको भींचे है
जीवन की ये गलियाँ फिर-फिर आने-जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
भारी कदम कहाँ उठते हैं, गुज़रे रस्ते कब मुड़ते हैं
तंद्रा नहीं स्वप्न न कोई, छोर पलक के कम जुड़ते हैं
कोई खास वजह न दिखती नींद न आने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
जीवन एक व्यथा है सब कुछ छूटते जाने की ...
Tuesday, October 2, 2018
लघुकथा: तर्पण
गंगा घाट के निकट उसे मेहनत से मसूर के खेत में पानी देते देखकर दिल्ली से आये पर्यटक से रहा न गया। पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “कितनी फसल होती है तुम्हारे खेत में?”
“यह मेरा खेत नहीं है।”
“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”
“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”
“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”
“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”
“हैं!?”
“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”
“यह मेरा खेत नहीं है।”
“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”
“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”
“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”
“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”
“हैं!?”
“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”
Thursday, September 27, 2018
स्वप्न का अर्थ
नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे की पिछली कड़ियाँ
भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7;
सत्याभास (कहानी); किशोर चौधरी के नाम (पत्र)
सपने सबको आते हैं। सपने न आने का एक ही अर्थ है, सपना भूल जाना। और सपने देखने का अर्थ भी एक ही है, सपने के बीच नींद खुल जाना। स्वप्न वह दृश्यावली नहीं है जो आपने देखी, स्वप्न वह कहानी है जो एकसाथ घटती बीसियों ऊलजलूल घटनाओं को बलपूर्वक एक क्रम में बांधकर तारतम्य बिठाने के लिये आपके मस्तिष्क ने गढ़ी है।
स्वप्न: मैं सपने में जो भी काम करना शुरु करता हूँ वह कभी भी सम्पन्न नहीं हो पाता। क्या कोई मित्र इसकी व्याख्या या अर्थ समझा सकता है? ऐसा लगभग 20-25 साल से तो अवश्य ही घटित हो रहा है।
व्याख्या: सर्वप्रथम, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आपका स्वप्न वह नहीं जो आपने नींद में अनुभव किया, बल्कि उस अनुभव में से जितने अंश याद रह गये, स्वप्न उन अंशों से बुनी हुई तार्किक कथा मात्र है। इनमें से अनेक अंश एक दूसरे से पूर्णतः असम्बद्ध हो सकते हैं।
यदि आप स्वप्न में अक्सर कोई न कोई कार्य आरम्भ कर रहे होते हैं तो इसका सरल अर्थ यही है कि आपके मानकों के अनुसार आपके कार्य अभी अपूर्ण हैं। स्वप्न में उनका सम्पन्न न हो पाना भी यही दर्शाता है कि अभी आप अपने उद्देश्य को पूर्ण मानने की स्थिति में नहीं हैं।
सुझाव: मेरी सलाह यही है कि आप एक नई नोटबुक लेकर अपने जीवन के अपूर्ण/ पेंडिंग कार्यों की सूची बनाएँ, और उन कार्यों से सम्बंधित समस्त जानकारी, जैसे कार्य का महत्व, लागत, समय, बाधाएँ, सहयोगी, आदि को एकत्र करके उनकी परियोजना बनाकर कार्य करें। इससे दोहरा लाभ होगा। सम्पन्न होते जा रहे कार्यों की सूची सदा उपलब्ध होगी, और अपूर्ण कार्यों की वर्तमान स्थिति और सम्भावित अवधि अद्यतन रहेगी।
- अनुराग शर्मा
[क्रमशः]
Monday, September 3, 2018
कहानी: सत्याभास
आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1]; खंड [2]; खंड [3]; खंड [4]; खंड [5]; खंड [6]; खंड [7]और अब आज की कड़ी में, एक कहानी
वीरान जगह पर बने उस पुराने महलनुमा घर के विशाल आंगन में पड़ी चारपाई पर दुखी सा बैठा हुआ मैं सोच रहा था कि यूरोप के इस अनजान पहाड़ी जंगल के बीचोंबीच स्थित ऐसी भुतहा सी जगह में घर लेने की बात मैंने सोची ही क्यों। और अगर सोची भी तो घर देखे बिना ही बात नक्की क्यों कर दी। चूंकि इस घर की हमारी खरीद इसे देखे बिना ही ऑनलाइन तथा फ़ोन पर हुई थी इसलिये हमारी प्रॉपर्टी एजेंट आज यहाँ आकर हमें अपने इस नये खरीदे ऐतिहासिक भवन का टूर कराने वाली थी।
थकाने वाली कठिन यात्रा करके मैं सपत्नीक यहाँ पहुँचा था। पास के नगर में रहने वाले पुराने पर्वतारोही मित्र को पहले ही संदेश देकर यहाँ बुला लिया था। प्रॉपर्टी एजेंट का इंतज़ार करते-करते पत्नी को तो नींद भी आ गई थी सो वे अंदर जाकर सो गई थीं और मैं मित्र के साथ पीली पुती पुरानी दीवारों से घिरे आंगन के एक कोने में पड़ी मूंज की चारपाई पर बैठा बात कर रहा था। मित्र उस क्षेत्र का इतिहास बता रहा था। एक रेखाचित्र दिखाकर उसने समझाया कि प्राचीनकाल में किस प्रकार सेना विपक्षी किले से ऊपर की पहाड़ियों से मलमूत्र के ढेर बहाना शुरू करती थी। गंदगी आती देख किले के सैनिक ऊपर के पहाड़ी स्रोत से किले को आते पेयजल की आपूर्ति दूषित होने से बचाने जाते थे और वहाँ पहले से ही रणनीतिक ठिकानों पर छिपे शत्रुपक्ष द्वारा घेरकर मार दिये जाते थे।
झुटपुटा होने लगा है। घर में बिजली नहीं है। बड़े से आंगन के एक तरफ़ घर का बरामदा और फिर उसके पीछे बहुत से कमरे हैं। उस बरामदे के विपरीत दिशा में बाहर का दरवाज़ा और चबूतरे से नीचे उतरती हुई सीढ़ियाँ हैं। जंगली रात की नीरव शांति में वहीं दूर नीचे से इस मकान की एजेंट की आवाज़ सुनाई देती है। अभी वह दिखती नहीं है। उसकी आवाज़ सुनते ही कुछ सकपकाया सा मित्र बड़ी जल्दबाज़ी में मुझसे विदा लेकर लगभग भागता हुआ सा घर से बाहर निकल जाता है।
उसकी इस हरकत से आश्चर्यचकित मैं, अपने वर्तमान घर की गरमाहट याद करके सोचता हूँ कि अच्छा-भला घर होने के बावजूद ऐसे बेहूदे घर के लिये हमने हाँ की ही क्यों? आंगन की शेष दो दिशाओं में बिना दरवाज़ों के अनेक प्राचीन दर हैं, बारादरियों जैसे, जिनकी गहराई का अंधेरे के कारण मुझे अंदाज़ नहीं लग पा रहा। मेरी सतर्क बुद्धि उन्हें सुरक्षा का खतरा मानकर मन ही मन यह तय कर रही है कि सुबह उठते ही मेरा पहला काम उन्हें बंद कराने का होना चाहिये।
प्रॉपर्टी एजेंट भीतर आ गई है। उससे फ़ोन पर पहले बात हो चुकी है लेकिन भेंट का यह पहला अवसर होगा। अंधेरे में उसका चेहरा स्पष्ट नहीं दिखता, तो भी उसका बड़ा अजीब सा चश्मा और एक मर्दाना सा विग उसे रहस्यमयी बना रहा है। मेरे शक़्क़ी दिल को ऐसा लगता है जैसे वह अपनी पहचान छिपाने का प्रयास कर रही हो। पत्नी उसके स्वागत में बरामदे से बाहर आती है। पत्नी उससे इस जगह और घर के वीरान होने की शिकायत करती है तो वह पत्नी को समझाती है कि इस घर में हैलोवीन के पर्व पर ‘स्पूकी नाइट’ का खेल मज़े से खेला जा सकता है। एजेंट पत्नी को अपने फ़ोन पर इन्स्टाल्ड स्पूकी ऐप दिखाती है जिसे त्रिविमीय प्रोजेक्टर से जोड़ा जा सकता है। वे दोनों बातें करने लगते हैं। मैं उसकी बात सुनना तो चाहता हूँ लेकिन दिन भर की यात्रा और काम की थकान के कारण मुझे बहुत नींद आ रही है। न चाहते हुए भी सर भारी हो रहा है और आँखें मुंदने लगी हैं। लेकिन एजेंट द्वारा चलाई जा रही ‘स्पूकी ऐप’ की दर्दनाक और भयावह आवाज़ें सुन पा रहा हूँ। पत्नी की आवाज़ सुनाई देती है, “अरे ये सब तो एकदम सचमुच के भूत जैसे लग रहे हैं। आभासी होकर भी इतने वास्तविक!” मैं आँख खोलकर देखने की कोशिश करता हूँ लेकिन तब तक एप्प बंद हो चुकी है। मैं एजेंट को एक बार फिर से ऐप चलाने को कहता हूँ, ताकि मैं ठीक से देख और समझ सकूँ लेकिन वह कहती है कि एक प्रीव्यू चल चुकने के बाद अब इसे खरीदने के बाद ही चलाया जा सकता है। वह पत्नी को ऐप की खरीद के सारे डिटेल दे देती है।
एजेंट ने पत्नी को घर का नक्शा दिखाया। नक्शा देखकर पत्नी कहने लगी कि जब इस जंगल में जगह की कोई कमी नहीं थी तो फिर ठीक कब्रिस्तान के ऊपर ही घर बनाने की क्या ज़रूरत थी? यह सुनते ही मैंने नक्शा अपने हाथ में लेकर ध्यान से देखा। उसमें घर के ठीक नीचे एक के ऊपर एक सैकड़ों कब्रों की कई परतें बनी हुई दिखाई दीं। मुझे लगा कि यह तो बुरे फँसे। मैंने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन एजेंट ने कुछ ऐसी नज़रों से मुझे देखा कि तीन-चार बार प्रयास करने पर भी किसी भयावह सपने की तरह मेरे सूखे गले से आवाज़ बाहर नहीं आ सकी। एजेंट को इशारे से घर दिखाने को कहा तो वह मुख्य भवन के बरामदे और बेडरूम की ओर जाने के बजाय उजाड़ बारादरी की ओर चल पड़ी। घर में बिजली नहीं थी। रात भी या तो कृष्णपक्ष की थी या फिर आकाश में घने बादल थे। हम तीनों में किसी के पास भी कोई टॉर्च या लैम्प आदि नहीं था लेकिन फिर भी किसी हल्की सी रोशनी में कुछ दूर तक का दिखाई दे रहा था।
पत्नी अब वहाँ नहीं है, मैं इधर-उधर देखता हूँ और उसे पास न पाकर उसके बारे में एजेंट से पूछना चाहता हूँ। लेकिन उसने अपने ठण्डे, हड़ियल हाथ से मेरी कलाई कुछ ऐसे पकड़ ली है कि मैं कुछ कह नहीं पाता। वह मेरे साथ चल रही है लेकिन मैं उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे पूछे बिना ही वह समझ जाती है कि मैं उसके अदृश्य होने का कारण जानना चाहता हूँ। तब वह मेरे सर से चिपका तकिया दिखाती है जो उसके लिये मेरी दृष्टिबाधा बन रहा था। तकिये पर ध्यान जाते ही मुझे लगता है जैसे मैं तब नींद में ही था और सोते-सोते, तकिये पर सिर रखे हुए ही उसके साथ चल रहा था।
बीच में कई भयावह बातें हुईं, जिनका ज़िक्र यहाँ निरर्थक है। मैं इस विषय में पत्नी से कुछ बात करना चाहता था पर वह तब भी मुझे नहीं दिखी। शायद वह मुख्य भवन में, बरामदे के पीछे वाले कमरों के अंदर ही कहीं थी। एजेंट ने घर की एक दीवार दिखाते हुए उस पर पुते रंग का कोई अंग्रेज़ी या लैटिन नाम बताया। स्पष्ट कर दूँ कि उस परदेस में हम लोगों की समस्त वार्ता अंग्रेज़ी में ही चल रही थी। घुप्प अंधेरे में मुझे न तो दीवार ठीक से दिखी, और न ही अंग्रेज़ी में कहा वह रंग समझ आया। मैं उससे उस रंग के नाम का अर्थ पूछता हूँ तो हिंदी का वाक्य सुनाई दिया, 'अरे बैंगनी रंग, और क्या?' मैं अचम्भित हो उठा कि एक अनजान देश में अनजान जाति की महिला अचानक स्पष्ट हिंदी कैसे बोलने लगी। तब मैंने चौकन्ने होकर पूछा, “यह कौन बोला? हिंदी में किसने कहा?” तभी अचानक से सामने दिखने लगी एक सुंदर युवती ने कहा, “आई वर्क्ड विथ एन इंडियन फैमिली। वे बेंगाली थे, मैंने वहीं हिंदी सीखी।" सब कुछ स्पष्ट सा दिखने लगा। रोशनी का स्रोत कहीं नहीं दिखा लेकिन देखा कि वहाँ सब कुछ हल्का सा प्रकाशित था। कुछ कमरे थे, और उन कमरों के आगे और भी कमरे थे, शायद बुरी तरह पकी काली ककैया ईंट के। लड़की के पास ही एक और लड़की खड़ी थी, इस लड़की से थोड़ी सी बड़ी। छोटी लड़की ने बड़ी लड़की को इंगित करके कहा, “इसी ने मेरा खून कर दिया था।”
अब मुझे स्पष्ट होने लगता है कि मैं किसी गड़बड़झाले में फँस चुका हूँ। प्रॉपर्टी एजेंट सहित वे सभी शायद भूत थे। दृष्टि कुछ और साफ़ हुई है। आगे के कमरों में काले सूट-बूट, चिमनी हैट और सफ़ेद दस्ताने पहने कई लोग स्ट्रेचर जैसे लेकर जा रहे हैं। उनका केवल चेहरा खुला है। चेहरा आम इंसानों जैसा न होकर अस्थिमात्र है। हम उनसे कुछ इस तरह घिर गये हैं कि उनके साथ ही चलना पड़ रहा है। वे अचानक दीवार में बने खुले दरवाज़े से बाहर निकलकर दरवाज़े के बाहर दीवार से लगी बिना रेलिंग की खुली सीढ़ियों से चलकर कई मंज़िल नीचे बने खुले बड़े आंगन, या अंटिया की ओर जाने लगते हैं। कुछ लोग हमारे आगे हैं कुछ पीछे।
मैं उनकी असलियत जानने को उत्सुक हूँ। एक बार साहस करके उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिये ‘हरि ॐ’ कहता हूँ तो मेरे आगे वाला व्यक्ति अपना मुख मेरी ओर मोड़कर बिना सामने देखे आराम से सीढ़ी उतरते हुए मुँह पर उंगली रखकर श्श्श कहकर मुझे कुछ दिखाते हुए कहता है, “आवाज़ से उनके ध्यान में बाधा पहुँचेगी।” मैं देखता हूँ कि हर सीढ़ी के समांतर, हवा में ही लामाओं की तरह पद्मासन में बैठे हुए कई कंकाल, काले कपड़ों में ऐसे लिपटे हुए हैं कि उनकी केवल खोपड़ी दिख रही है हैं। मेरी आवाज़ सुनकर उनमें से कई अपना-अपना मुँह घुमाकर मेरी ओर करते हैं और अपनी तरेरने वाली नज़र से आँखों के गड्ढे मुझ पर केंद्रित कर देते हैं। उनकी नज़रों की उपेक्षा कर मैंने एक बार और अधिक ज़ोर से ‘हरि ॐ’ कहा, और मेरी नींद खुल गयी।
हे भगवान, यह कैसा स्वप्न था। अब मैं आभासी जगत से वापस यथार्थ में आ तो गया था लेकिन आँखें जल रही थीं, खोलने में भी कठिनाई हो रही थी। मैं मुँह धोने के लिये स्नानागार में जाता हूँ। बत्ती जलाकर शीशे में देखता हूँ तो मेरे कंधे के पीछे से कोई मुस्कुराता हुआ दिखता है। मेरे ठीक पीछे हवा में टंगा हुआ कंकाल काले कपड़ों में पद्मासन लगाये हुए ही, मुझे देखकर हँसता है।
“तुम कौन हो?” मैं कहना चाहता हूँ, परंतु आवाज़ नहीं निकलती। गला घुट सा गया है। चिल्लाता हूँ तो हाथ मसहरी के हैडबोर्ड से टकराता है। अब मैं सचमुच जग गया हूँ, तकिया मेरी गर्दन से चिपका हुआ है। और पसीने से लथपथ अपने बिस्तर पर पड़ा हूँ। पंखा चल रहा है लेकिन हवा मुझ तक नहीं आ रही। पंखे से उल्टा लटका हुआ कंकाल मुझे एकटक देख रहा है।
Wednesday, August 22, 2018
रोशनाई - कविता
(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
रात अपनी सुबह परायी हुई
धुल के स्याही भी रोशनाई हुई
उनके आगे नहीं खुले ये लब
रात-दिन बात थी दोहराई हुई
कवि होना सरल नहीं समझो
खुद न होते न तुमसे मिलते हम
ऐसी हमसे न आशनाई हुई॥
रात अपनी सुबह परायी हुई
धुल के स्याही भी रोशनाई हुई
उनके आगे नहीं खुले ये लब
रात-दिन बात थी दोहराई हुई
आज भी बात उनसे हो न सकी
चिट्ठी भेजी हैं, पाती आई हुई
कवि होना सरल नहीं समझो
कहा दोहा, सुना चौपाई हुई
खुद न होते न तुमसे मिलते हम
ऐसी हमसे न आशनाई हुई॥
Friday, July 27, 2018
आदमी (ग़ज़ल)
(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है।
ज़िंदगी है जब तलक उम्मीद भी कैसे मिटे
चार कंधों के लिये तो भारी तामझाम है।
काली घटा छाई हुई उस पे अंधेरा पाख है
रात ही बाकी है इसकी सुबह है न शाम है।
तारे हैं गर्दिश में और चाँद पे छाया गहन
धूप से चुंधियाते दीदों को मिला आराम है।
अश्व हो आरोही या, तृष्णा कभी जाती नहीं
घास भी मिलती नहीं पर चाहता बादाम है।
सात पीढ़ी को सँवारे दौड़ाभागी में जुटा
दो घड़ी का हो बसेरा, इतना इंतज़ाम है।
वीतरागी होने का, उपदेश डाकू दे रहे
बोलबाला झूठ का, सच अभी गुमनाम है।
बेईमानी का सफ़र, पूरा नहीं जिसका हुआ
वह डकैती का सभी पर थोपता इल्जाम है।
अपराध अपना हो भले पर दोष दूजे को ही दें
बच्चे बगल में छिप गये, नगर में कोहराम है।
हाशिये पर कर दिये निर्देश जिनसे लेना था
रहनुमा कारा गये जब पातकी हुक्काम है।
पाप पहले भी हुए अफ़सोस उनका लाज़मी
पर आगे भी होते रहेंगे क्यों नहीं विश्राम है?
निस्सार है संसार इसमें अर्थ सारा व्यर्थ है
एक बेघर* ही यहाँ हर गाँव का खैयाम है।
प्रात से हर रात तक भागना है बदहवास
ज़िंदगी के द्वीप की यह यात्रा अविराम है।
यात्रा लम्बी रही और फिर स्थानक आ गया
बस गये जो भस्म में उनको मिला आराम है।
* अनिकेत
आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है।
ज़िंदगी है जब तलक उम्मीद भी कैसे मिटे
चार कंधों के लिये तो भारी तामझाम है।
रात ही बाकी है इसकी सुबह है न शाम है।
धूप से चुंधियाते दीदों को मिला आराम है।
अश्व हो आरोही या, तृष्णा कभी जाती नहीं
घास भी मिलती नहीं पर चाहता बादाम है।
दो घड़ी का हो बसेरा, इतना इंतज़ाम है।
वीतरागी होने का, उपदेश डाकू दे रहे
बोलबाला झूठ का, सच अभी गुमनाम है।
बेईमानी का सफ़र, पूरा नहीं जिसका हुआ
वह डकैती का सभी पर थोपता इल्जाम है।
अपराध अपना हो भले पर दोष दूजे को ही दें
बच्चे बगल में छिप गये, नगर में कोहराम है।
हाशिये पर कर दिये निर्देश जिनसे लेना था
रहनुमा कारा गये जब पातकी हुक्काम है।
पाप पहले भी हुए अफ़सोस उनका लाज़मी
पर आगे भी होते रहेंगे क्यों नहीं विश्राम है?
निस्सार है संसार इसमें अर्थ सारा व्यर्थ है
एक बेघर* ही यहाँ हर गाँव का खैयाम है।
प्रात से हर रात तक भागना है बदहवास
ज़िंदगी के द्वीप की यह यात्रा अविराम है।
यात्रा लम्बी रही और फिर स्थानक आ गया
* अनिकेत
Sunday, July 15, 2018
हल - लघुकथा
(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
प्लास्टिक और पॉलीथीन के खिलाफ़ आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि प्रशासन को यह समस्या हल करने के लिये आपातकालीन सभा बुलानी पड़ी। दो-चार पदाधिकारी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और बलप्रयोग के पक्ष में थे लेकिन अन्य सभी समस्या को गम्भीर मानते हुए एक वास्तविक हल चाहते थे।
“पूर्ण प्रतिबंध” गहन विमर्श के बाद सभा के अध्यक्ष ने कहा। अधिकांश सदस्यों ने सहमति में तालियाँ बजाईं।
“पॉलीथीन के बिना सामान दुकान से घर तक कैसे आयेगा?” एक असंतुष्ट ने पूछा।
“बेंत की कण्डी, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े और कपड़े के थैलों में” किसी ने सुझाया।
“खाना पकाने के लिये घी-तेल भी तो चाहिये, वह?”
“घर से शीशे की बोतल लेकर जाइये।”
“एक घर से कोई कितनी बोतलें लेकर जा पायेगा? एक पानी की, एक सरसों के तेल की, एक नारियल के तेल की, एक सिरके की, एक ...” एक सदस्या ने आपत्ति की
“तो तेल-सिरके को भी बैन करना पड़ेगा। दूध लेकर आइये और उसी से घर पर घी बनाइये।” उत्तर तैयार था।
“... दूध? लेकिन सरकारी डेयरी का दूध भी तो पॉलीथीन के पाउच में ही आता है!”
“तो हम दूध को भी बैन कर देंगे।”
“लेकिन, उससे तो बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ...”
“स्वास्थ्य के लिये दूध छोड़कर अण्डे खाइये न, वे तो दफ़्ती के डब्बों में भी मिलते हैं।”
रात बढ़ती गई, बात बढ़ती गई, प्रतिबंधित सामग्री की सूची भी बढ़ती गई।
अगले दिन अखबार में खबर छपी कि तुरंत प्रभाव से राज्य के बाज़ारों में दूध, और घरों में रसोईघर प्रतिबंधित कर दिये गये हैं। समाचार से यह तथ्य ग़ायब था कि प्रशासनिक परिषद के एक प्रमुख सदस्य राज्य ढाबा संघ के पदाधिकारी थे और दूसरे अण्डा उत्पादक समिति के।
[समाप्त]
प्लास्टिक और पॉलीथीन के खिलाफ़ आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि प्रशासन को यह समस्या हल करने के लिये आपातकालीन सभा बुलानी पड़ी। दो-चार पदाधिकारी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और बलप्रयोग के पक्ष में थे लेकिन अन्य सभी समस्या को गम्भीर मानते हुए एक वास्तविक हल चाहते थे।
“पूर्ण प्रतिबंध” गहन विमर्श के बाद सभा के अध्यक्ष ने कहा। अधिकांश सदस्यों ने सहमति में तालियाँ बजाईं।
“पॉलीथीन के बिना सामान दुकान से घर तक कैसे आयेगा?” एक असंतुष्ट ने पूछा।
“बेंत की कण्डी, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े और कपड़े के थैलों में” किसी ने सुझाया।
“खाना पकाने के लिये घी-तेल भी तो चाहिये, वह?”
“घर से शीशे की बोतल लेकर जाइये।”
“एक घर से कोई कितनी बोतलें लेकर जा पायेगा? एक पानी की, एक सरसों के तेल की, एक नारियल के तेल की, एक सिरके की, एक ...” एक सदस्या ने आपत्ति की
“तो तेल-सिरके को भी बैन करना पड़ेगा। दूध लेकर आइये और उसी से घर पर घी बनाइये।” उत्तर तैयार था।
“... दूध? लेकिन सरकारी डेयरी का दूध भी तो पॉलीथीन के पाउच में ही आता है!”
“तो हम दूध को भी बैन कर देंगे।”
“लेकिन, उससे तो बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ...”
“स्वास्थ्य के लिये दूध छोड़कर अण्डे खाइये न, वे तो दफ़्ती के डब्बों में भी मिलते हैं।”
रात बढ़ती गई, बात बढ़ती गई, प्रतिबंधित सामग्री की सूची भी बढ़ती गई।
अगले दिन अखबार में खबर छपी कि तुरंत प्रभाव से राज्य के बाज़ारों में दूध, और घरों में रसोईघर प्रतिबंधित कर दिये गये हैं। समाचार से यह तथ्य ग़ायब था कि प्रशासनिक परिषद के एक प्रमुख सदस्य राज्य ढाबा संघ के पदाधिकारी थे और दूसरे अण्डा उत्पादक समिति के।
[समाप्त]
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