Wednesday, August 12, 2009

लित्तू भाई - भाग २

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लित्तू भाई की सप्ताहांत गोष्ठियां बहुत खुशनुमा होती थीं। मेरे अलावा लगभग सभी आगंतुक या तो कलाकार थे या लेखक, शायर, गीतकार, संगीतकार - किसी न किसी कला के माहिर। एक साहब तो गणित पहेलियों और ताश के जादू के माहिर थे। अगर आप देश के बाहर रहते हुए भी तमाम बड़े-बड़े लोगों से सहजता से मिलना चाहते हों तो लित्तू भाई के घर से बेहतर कोई जगह हो ही नहीं सकती है। उनकी महफिलों में मैं एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के बेटे से भी मिला और और एक सेनाध्यक्ष की बेटी से भी। छोटे-मोटे नौकरशाह तो मामूली बात थे। भारतीय ही नहीं पाकिस्तानी डॉक्टर, प्रोफ़ेसर आदि सब से उनका दोस्ताना था।

पहले तो मुझे आश्चर्य होता था कि अंग्रेजी के तीन वाक्य भी सही न बोल सकने वाला यह साधारण सा व्यक्तित्व इतना मशहूर कैसे हुआ। फिर सोचता, "खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान।" इन गोष्ठियों में लगातार जाते रहने से उनके प्रति मेरी धारणा में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा। मैंने पहचाना कि लित्तू भाई में कई दुर्लभ गुण थे। शायर तो वे थे ही साथ ही एक ज़बरदस्त किस्सागो भी थे। कैसा भी मौका हो, लित्तू भाई के पास उसके हिसाब का एक किस्सा ज़रूर मिल जाएगा। अपने चुटकुलों में वे अक्सर अपना ही मज़ाक उडाया करते थे। उनमें किसी रोते हुए व्यक्ति को पल भर में हंसा देने की अद्भुत क्षमता थी।
उनका व्यक्तित्व इतना हल्का लगता था कि पहली नज़र में कोई भी नज़रंदाज़ कर दे। मगर उनकी बातों में कुछ ऐसी कशिश थी की एक बार सुनने वाला फिर-फिर सुनना चाहेगा। भले ही उच्च शिक्षित न हों मगर उन्होंने पढा बहुत था। खासकर धर्म और अध्यात्म पर वे घंटों बोल सकते थे। बच्चों में उन्हें खासी रूचि थी और बच्चे भी उनसे एकदम हिल-मिल जाते थे। खेल-खेल में ही बच्चों को अच्छी बातें सिखाने में उनका कोई सानी नहीं था। लित्तू भाई साथ हों तो माँ-बाप अपने बच्चों के बारे में बेफिक्र होकर जो चाहे कर सकते थे।

जैसा मैंने देखा लित्तू भाई बहुत चतुर व्यक्ति थे। उनका नज़रिया भी सबसे अलग कुछ ऐसा था कि कैसी भी समस्या हो, वे उसका हल ढूंढ ही निकालते थे। लोग अक्सर अपनी परेशानियां उनसे बांटते थे और वे उन सबका कुछ न कुछ हल निकाल ही लेते थे। मुझे यकीन है कि उनके कंधे को बहुत आँखों ने गीला किया होगा। मजाल है लित्तू भाई ने कभी किसी की व्यक्तिगत बात का ज़िक्र कभी किसी और से किया हो।

कह नहीं सकता कि उन्हें बागवानी ज़्यादा पसंद थी या गायन मगर मेरा ऐसा ख्याल है कि वे कुछ भी करते रचनात्मक ज़रूर होते थे। उनके पैदाइशी कलाकार होने की वजह से ही जब "संस्कार" द्वारा गर्मियों की छुट्टियों में चलाये जाने वाले "युवा शिविर" के संचालक के रूप में जब पहली बार मेरा चयन हुआ तो कला और साज-सज्जा के काम के लिए मैंने उनकी सहायता मांगी। इस शिविर में हर साल देश भर से किशोर और युवा वर्ग के चार-पांच सौ लोग भाग लेते थे। जैसी कि उम्मीद थी लित्तू भाई ने मेरा आमंत्रण बड़े गरिमा से स्वीकार कर लिया।

हम सात-आठ स्वयं-सेवक हर शाम को एक कुंवारे मित्र के खाली पड़े घर में इकट्ठे होने लगे। वहीं बैठकर हम शिविर परिसर और मंच की सज्जा आदि के बारे में विचार करते थे। लित्तू भाई हर शाम बिला-नागा हमारे बीच आते और पारस की तरह अपने सुझावों से हर काम को बेहतर बना देते। शिविर में भाग लेने वाले बच्चों को भेजे जाने वाले प्रवेश-पत्रों की जगह उन्होंने पुराने सम्राटों के लिखे पत्रों की तरह लिपटे हुए कागज़ का मुट्ठा बनाने का सुझाव दिया। जब हमने छपे हुए कागज़ को उनके बताये तरीके से चाय के भीगे पानी से निकालकर उसके किनारे मोमबत्ती से जलाकर सिरकी चिपकाईं तो वह सचमुच में एक अति प्राचीन पत्र जैसा लगने लगा। इसी तरह से शिविर के द्वार, तोरण आदि बनाने में उन्होंने बहुत सहायता की। यूं समझिये कि विचार उनके थे हमने तो बस उनके विचारों की मजदूरी की थी। बच्चों के नाम की तख्तियों से लेकर टी-शर्ट के डिजाइन तक हर काम में लित्तू भाई की कला झलक रही थी।

सम्राट के पत्र से हमारा काम अनजाने ही कुछ ऐसी दिशा में मुडा कि सजावट का काम पूरा होते-होते उस बार के शिविर की थीम ही राजपुताना हो गयी। इसलिए जब फुर्सत के प्रतियोगितात्मक खेलों की बारी आयी तो उसमें लित्तू भाई का सुझाया हुआ गदका का खेल अपने आप ही आ गया। लित्तू भाई के सरल निर्देशों का अनुसरण करके हमने आनन-फानन में कई हल्की गदाएँ बना कर उन्हें सुनहरे रंग से रंग दिया। इस खेल में इनाम देने के लिए उन्होंने एक आला दर्जे की गदा अपने कुशल हाथों से स्वयं ही बनाई।
[क्रमशः]
कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:

खाली प्याला
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले
एक ब्राह्मण की आत्मा

Tuesday, August 11, 2009

लित्तू भाई - गदा का रहस्य - कहानी - भाग 1

शायद इन लोगों की बुद्धि में ही कोई कमी है। या तो इन्हें घटना की पूरी जानकारी ही नहीं है या फिर यह लित्तू भाई को बदनाम करने की एक गहरी साजिश है। ये लोग जैसा चाहें कहें और जो चाहे यकीन करें। मगर मैं इनकी बातों में क्यों आऊँ? मैं तो लित्तू भाई को बहुत करीब से जानता हूँ। वे ऐसा नहीं कर सकते - कभी भी - किसी भी हालत में। इंसान गलतियों का पुतला है। इस पूरे घटनाक्रम में भी कहीं कोई बड़ी गलती ज़रूर हुई है वरना लित्तू भाई का नाम ऐसे जघन्य अपराध से नहीं जुड़ सकता था।

अपने घर से बाहर जितने भी लोगों को मैं जानता हूँ, उन सबमें, लित्तू भाई सबसे भले और सच्चे इंसान हैं। उम्र में मुझसे दो-एक साल बड़े हैं मगर लगते कहीं उम्रदराज़ हैं। अपने कपड़े-लत्ते और दिखावे के प्रति बिल्कुल बेपरवाह लित्तू भाई का नफासत से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कभी किसी इंसान की औकात उसके कपडों से नहीं लगाई। इसके उलट वे "सादा जीवन उच्च विचार" के सच्चे अनुयायी हैं।

लित्तू भाई से मेरी पहली मुलाक़ात दद्दू के घर पर हुई थी। दद्दू मेरे चचाजात भाई की ससुराल वालों के दूर के रिश्तेदार हैं। रिश्ता तो वैसे काफी दूर का है मगर अमेरिका में वे मेरे अकेले रिश्तेदार हैं इसलिए किसी अपने सगे से भी बढ़कर हैं। दद्दू का मिजाज़ थोडा फ़ल्सफ़ाना सा है। लित्तू भाई का भी ज़मीनी हकीकत में कोई ख़ास भरोसा नहीं है। आर्श्चय नहीं कि इन दोनों की खूब छनती है।

शुरू में तो अपनी छितरी मूँछें, बिखरे बाल और बेतुके कपडों की वजह से लित्तू भाई ने मुझे विकर्षित ही किया था मगर जब धीरे-धीरे मैंने उन्हें पहचानना शुरू किया तो उनसे दोस्ती सी होने लगी। हँसोड़पन तो उनकी खूबी थी ही, मुझे वे बुद्धिमान भी लगे। अनजाने में ही मैं उनके अन्तरंग समूह का हिस्सा बन गया। आलम यह था कि मेरे सप्ताहांत भी लित्तू भाई के घर पर जमने वाली बैठकों में ही गुजरने लगे।
[क्रमशः]

Monday, August 10, 2009

श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले

हुतात्मा खुदीराम बसु
(3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) 
कल की बात भी आज याद रह जाए, वही बड़ी बात है। फ़िर एक सौ एक साल पहले की घटना भला किसे याद रहेगी। मात्र 18 वर्ष का एक किशोर आज से ठीक 101 साल पहले अपने ही देश में अपनों की आज़ादी के लिए हँसते हुए फांसी चढ़ गया था।

आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।

तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।

मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।

पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी

सम्बंधित कड़ी: नायकत्व क्या है?