Thursday, February 5, 2009

खाली प्याला - कहानी

उस दफ्तर में काम कर पाना कोई आसान बात नहीं थी। वहाँ मेरी बात सुनने का वक़्त किसी के पास नहीं था। न ही किसी को यह जानने की ज़रूरत थी कि मैं उनकी शाखा का कर्मचारी नहीं था। न तो मैं उनके अस्त-व्यस्त लेखे संतुलित करने वहाँ गया था और न ही उनकी महीनों से लम्बित पडी कानूनी विवरणी बनाने। उनके असंतुष्ट ग्राहकों के प्रति भी मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी। मैं तो एक परिवीक्षाधीन अधिकारी था जो कि उस शाखा में कुछ महीने सिर्फ़ प्रशिक्षण के लिए पहुँचा था और चार महीने बाद किसी और शहर में उड़ जाने वाला था। अभी दो साल तक मुझे देश भर में अलग-अलग जगहों की ख़ाक छाननी थी। ग्रामीण बैंकिंग सीखने किसी ठेठ देहात जाना था तो कॉर्पोरेट बैंकिंग सीखने किसी महानगर की बड़ी शाखा में भी समय बिताना था। और इन तबादलों के बीच में कई बार बंगलोर भी जाना होता था बैंकिंग और प्रबंधन की सैद्धांतिक कक्षाओं के लिए, जहाँ मेरे बाकी बैचमेट्स भी होते थे। सीखते भी थे, मस्ती भी करते थे और एक दूसरे से अपने अनुभव भी बांटते थे।

बैंक हमारी शिक्षा पर काफी संसाधन झोंकता था। मुख्यालय में मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत एक खंड सिर्फ़ हमारे विकास और निगरानी के लिए रहता था। शाखाओं को अपने काम के लिए हमारा दुरुपयोग न करने के स्पष्ट निर्देश थे। हमारे कामों की सूची शाखा में हमारे पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थी। हर महीने प्रगति रिपोर्ट भी बनती थी। मगर फिर भी कुछ घिसे हुए प्रबंधक निर्देशों व प्रणाली के बीच में गहरे गोता लगाकर कोई न कोई ऐसा छिद्र ज़रूर निकाल लाते थे कि हममें से कई लोगों का सारा दिन उनका काम करते ही बीत जाता था। शाखा प्रबंधक जितना निकम्मा और गैर-जिम्मेदार होता था, हमें उतना ही ज़्यादा काम मिलता था क्योंकि उस शाखा में एक हम ही होते थे जो ऐसे प्रबंधक की सुनते थे। अब आपने इतनी देर तक मेरी बात ध्यान से सुनी है तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं विषय से न भटकूँ और मुख्य मुद्दे पर वापस आ जाऊं।

यह बैंक दक्षिण भारतीय था इसलिए इसे उत्तर में पैर ज़माना उतना आसान नहीं था। (ज्ञान दत्त जी की भाषा में कहूं तो - हमारे बैंक के पास इनिशिअल एडवांटैज नहीं था।) उत्तर में हमारी शाखाएँ भी कम थीं और उनमें भी करोड़ों का व्यापार करने बड़ी शाखाएँ तो नाम-मात्र की ही थीं। हमारे बैंक की आगरा शाखा उत्तर भारत की प्रमुख शाखाओं में से एक थी। पर्यटन, निर्यात आदि का काम तो था ही, सैनिक छावनी होने के कारण सेना का भी काफी बड़ा कारोबार हमारे साथ ही होता था। इसके अलावा हम उस इलाके के ग्रामीण बैंकों के प्रायोजक भी थे।

हमारे बैंक में बहुत से अधिकारियों को अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी। कई लोगों को भारत में रहते हुए भी भारत की सांस्कृतिक विविधता का अहसास भी कम था। सुदूर दक्षिण से आए अधिकाँश उच्चाधिकारियों को उत्तर के क्षेत्रों का इतिहास-भूगोल कुछ भी पता न था। इन सब कमियों की भरपाई करने के लिए बैंक अक्सर यह बात ध्यान में रखता था कि अपने सबसे चटक अधिकारियों को ही उत्तर में भेजता था - खासकर बड़ी शाखाओं में। यह लोग खासे पढ़े-लिखे और मेहनती तो थे ही, युवा, तेज़-तर्रार और महत्त्वाकांक्षी भी थे। आगरा में भी मेरे सारे सहकर्मी ऐसे ही थे। उपरोक्त बातों के अतिरिक्त इनमें एक और समानता भी थी - इनमें से किसी को भी मेरा वहाँ रहना पसंद न था। पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
[क्रमशः]

नोट:अभी तक मैंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं. कुछ प्रकाशित भी हुई हैं मगर ज़्यादातर इस वजह से मेरी डायरी में ही सिमटी रहीं क्योंकि मुझे हिन्दी टाइप करना नहीं आता था. इसी कारण से प्रस्तुत कहानी मुझे अंग्रेजी में लिखनी पड़ी थी. अब यूनिकोड के आने से वह समस्या भी हल हो गयी है. आपने पहले भी कहानियों को पसंद किया है. उसी से प्रोत्साहित होकर मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में यह कथा सामने रख रहा हूँ. कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले





Tuesday, February 3, 2009

पिट्सबर्ग या सिक्सबर्ग [इस्पात नगरी 8]


अमेरिकी जीवन में खेलों का बहुत महत्त्व है। स्कूल, कोलेज, विशिष्ट विद्यालय, सभी की खेल की अपनी टीम होती हैं। पिट्सबर्ग में भी इस तरह के अनेकों दल हैं। नगर की बेसबाल टीम का नाम "पाइरेट्स" है और उनका प्रतीक भी एक आँख वाला समुद्री डाकू है। आइस हॉकी की स्थानीय टीम का नाम "पेंगुइन्स" है। इस्पात के उल्टे कटोरे जैसा उनका स्टेडियम मेरे दफ्टर के साथ में ही है और मेरी खिड़की से किसी खिलौने जैसा दिखता है। अमेरिकन फुटबाल का खेल पिट्सबर्ग में न सिर्फ़ बहुत लोकप्रिय है, इस खेल में यहाँ की स्थानीय फौलादी टीम "स्टीलर्स" देश भर में अग्रणी है।


पिछले रविवार को नेशनल फुटबाल लीग (NFL) द्वारा प्रायोजित वार्षिक विश्व चैंपियनशिप में फिर से विजय पाकर "स्टीलर्स" छठी बार यह गौरव पाने वाली देश की अकेली टीम बन गयी है। जब यह खेल चल रहा था, सारे शहर में स्टीलर्स का जादू छाया हुआ था। हमारे दफ्तर में भी एक दिन बहुत से लोग स्टीलर्स की जर्सीयाँ, मफलर, टोपे आदि पहनकर आए थे। भवन के अन्दर स्टीलर्स के आधिकारिक रंग के काले-पीले गुब्बारे सजाये गए थे। नीचे के चित्र में मेरे अमेरिकी सहकर्मी अपनी स्टीलर्स टाई में नज़र आ रहे हैं।


स्टीलर्स की इस अभूतपूर्व विजय के सम्मान में आज नगर में एक विशाल विजय शोभा यात्रा का आयोजन किया गया था। नगर की हर शोभा-यात्रा की तरह यह यात्रा भी मेरे कार्यालय के बाहर से होकर गुज़री। शून्य से नीचे तापमान में हजारों लोगों ने सुबह से खड़े होकर इस यात्रा-जुलूस का आनंद उठाया। भोजनावकाश में मैं भी अपने साथियों के साथ बाहर आया और अद्भुत भीड़ के इस उत्साह को देखा।



[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]

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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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Sunday, February 1, 2009

जावेद मामू - समापन किस्त

जावेद मामू - पिछले अंश: खंड 1; खंड 2]
जावेद मामू के पिछले खंड में आपने पढा:
"गाडी वाले कोई ठेठ देहाती गाली देते और गंजी वानर सेना उसका जवाब उर्दू की निहायत ही भद्दी गालियों से देती। कभी कोई चोर पकड़ में आ जाता था तो किसान उसे मुर्गा भी खूब बनाते थे और तरह तरह की हरकतें जैसे बन्दर-नाच आदि करने की सज़ा देते थे ..."
अब पढिये आगे की कहानी:


कभी-कभी शीरे की चाहत में बच्चे किसानों की खिदमत में अपने आप ही कुछ बाजीगरी या शेरो-शायरी करने को उत्सुक रहते थे। बैलगाड़ी वाले किसान लोग अक्सर कोई विषय देते थे और शीरा पाने के इच्छुक बच्चे उस शब्द पर आधारित शायरी गाकर सुनाते थे। और जनाब, शायरी तो ऐसी गज़ब की होती थी कि मिर्ज़ा ग़ालिब सुन लें तो ख़ुद अपनी कब्र में पलटियाँ खाने लग जाएँ। ऐसे समारोहों के समय छोटे बच्चे तो मजमा लगाते ही थे, राहगीर भी रूककर भरपूर मज़ा लेते थे। मैं भी ऐसी कई मजलिसों का चश्मदीद गवाह रहा हूँ इसलिए बरसों बीतने के बाद भी बहुत सी लाजवाब शायरी हूबहू प्रस्तुत कर सकता हूँ। प्रस्तुत है ऐसी ही एक झलक, मुलाहिज़ा फ़रमाएँ - विषय है "गंजी चाँद":

पहला बच्चा, "हम थे जिनके सहारे, उन्ने जूते उतारे, और सर पे दे मारे, क्या करें हम बेचारे, हम थे जिनके सहारे..."

दूसरा बच्चा, "गंजी कबूतरी, पेड़ पे से उतरी, कौव्वे ने उसकी चाँद कुतरी..."

एक दोपहरी को जब मैं जावेद मामू से बात कर रहा था उस समय कुछ उद्दंड बच्चों ने पत्थर मारकर एक गाड़ीवान के कई सारे घड़े एक साथ तोड़ दिए और गाडी के पीछे लटककर उनमें से बहता हुआ शीरा बर्तनों में इकठ्ठा करने लगे। एकाध घड़े की बात पर कोई भी किसान कुछ नहीं कहता था मगर तीन-चार घड़े टूटते देखकर इस किसान को काफी गुस्सा आया और उसने ग्रामीण बोली में उन बच्चों को जमकर खरी-खोटी सुनाईं। जब उसे लगा कि बच्चों पर उसकी बोली का कोई असर नहीं हुआ तो उसने शहरी ज़ुबान में चिल्लाकर ज़ोर आजमाया, "ज़रा देखो तो इन छुटके डकैतन को, कोई तो बतावै जे मुसलमान बालक ही काहे हमार घड़ा फोड़त हैं?

हालांकि उस गाडीवान की व्यथा, शिकायत और आरोप तीनों में सच्चाई थी, उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा असहज हो गया था। मुझे समझ नहीं आया कि मैं क्या कहूँ। जब तक मैं शब्द ढूंढ पाता, जावेद मामू ने पलटकर जवाब दिया, "भाई तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो, हिन्दू अपने बच्चों की और उनकी पढ़ाई की परवाह करते हैं। हमारे लोग तो इन दोनों से ही लापरवाह रहते हैं।"

किसान जवाब में कुछ कहे बिना अपनी गाड़ी में चलता गया। बच्चे जावेद मामू की आवाज़ सुनकर छितर गए। मैं पाषाणवत खडा था कि मामू मेरी ओर उन्मुख हुए और एक पुरानी हिन्दी फ़िल्म का गीत गुनगुनाने लगे, "तालीम है अधूरी, मिलती नहीं मजूरी, मालूम क्या किसी को दर्द ऐ निहाँ हमारा..."

मैं सोचने लगा कि उन पंक्तियों में उनके तत्कालीन समाज का कितना सजीव चित्रण था। शायद मेरा ध्यान पाकर उनको आगे की पंक्तियाँ गाने का हौसला मिला। निम्न पंक्तियों तक पहुँचने तक तो उनकी आँख से अश्रुधार बहने लगी, "मिल जुल के इस वतन को ऐसा बनायेंगे हम, हैरत से मुँह तकेगा सारा जहाँ हमारा..."

वे रूंधे हुए गले से बोले, "राजू बेटा, मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान को दुनिया के सामने शान से सर ऊँचा करके खड़ा कराने वालों में हिंद के मुसलमान सबसे आगे खड़े हों।"

मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय फखरुद्दीन अली अहमद भारत के राष्ट्रपति थे। और वे भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बल्कि डॉक्टर ज़ाकिर हुसेन के बाद दूसरे थे। उनकी पत्नी बेगम आबिदा अहमद ने बाद में बरेली से चुनाव भी लड़ा और सांसद बनीं। ऐवान-ऐ-गालिब की प्रमुख बेगम बाद में महिला कॉंग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं।

इस घटना के तीन दशक बाद, आज जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ था तब मुझे इस इत्तेफाक पर खुशी हुई कि देश के वर्तमान राष्ट्रपति ऐ पी जे अब्दुल कलाम न सिर्फ़ मुस्लिम थे बल्कि एक वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने देश का सर ऊँचा करने में बहुत योगदान दिया था। बिल्कुल वैसे ही, जैसा सपना जावेद मामू देखा करते थे। तीस साल में कितना कुछ बदल गया, मगर अफ़सोस कि इतना कुछ बदलना बाकी है। बरेली के आसपास के ग्रामीण मुस्लिम इलाकों में गुस्साई भीड़ ने अज्ञानवश पोलियो निवारण के लिए आने वालों पर हमले किए क्योंकि उनके बीच ऐसी अफ़वाहें फैलाई गयीं कि इस दवा से उनके बच्चे निर्वंश हो जायेंगे। छोटी-छोटी बातों पर फ़तवा जारी कर देने वाले धार्मिक नेताओं में से किसी ने भी अपने समाज के लिए घातक इन घटनाओं को संज्ञान में नहीं लिया है। न ही पुलिस द्वारा अभी तक इन हमलों के लिए किसी जिम्मेदार आदमी को पकड़ा गया है।

मैं विचारमग्न था कि, "हाशिम का सुरमा..." और "दीनानाथ की लस्सी..." की आवाजों ने मेरा ध्यान भंग किया। मेरा बरेली स्टेशन आ गया था। मैं ट्रेन से उतरा तो देखा कि टिल्लू मुझे लेने स्टेशन पर आया था। इतने दिन बाद उसे देखकर खुशी हुई। हम गले लगे। टिल्लू के साथ उसका पाँच-वर्षीय बेटा पाशू भी था। पाशू बिल्कुल वैसा ही दिख रहा था जैसा कि तीस साल पहले टिल्लू दिखता था।

घर के आसपास सब कुछ बदल गया था। इतना बदलाव था कि अगर मैं अकेला आता तो शायद उस जगह को पहचान भी न पाता। घर की शक्ल भी बदल चुकी थी और उसके सामने की इमारतें भी एकदम चकाचक दिख रही थीं। खंडसाल की ज़मीन बेचकर लाला जी ने बाहर कहीं बड़ा व्यवसाय लगाया था। खंडसाल की जगह पर एक शानदार इमारत बन गयी थी। टिल्लू ने बताया कि यह भव्य इमारत जावेद मामू की है जहाँ उन्होंने एक आधुनिक आटा चक्की लगाई है। वे अभी भी परचूनी की दूकान चलाते हैं मगर नई दुकान उनकी पुरानी बित्ते भर की दुकान से कहीं बड़ी और बेहतर है।

मैं मामू की फ्लोर मिल की ओर चल रहा था। जब तक मैं जावेद मामू को देख पाता, टिल्लू ने मुझे उनके बारे में बहुत सी नयी बातें बताईं। जावेद मामू हर साल दो बच्चों के स्कूल की किताबों का प्रबंध करते हैं। बीस साल पहले जब यह अफवाह उड़ी कि किसी ने मुहर्रम के जुलूस पर पत्थर फेंका है और गुस्साई मुस्लिम भीड़ हिन्दुओं की दुकानें जलाने के लिए दौड़ पड़ी थी तो जावेद मामू सीना तानकर उन लोगों के सामने खड़े हो गये और उन्हें चुनौती दी कि एक भी हिन्दू की दूकान जलाने से पहले उन्हें मामू की दुकान जलानी पड़ेगी। बाद में उन्होंने सबको समझाया कि लूट और आगज़नी किसी एक समुदाय को नहीं जलाती है, यह देश का चैनो-अमन जलाती है और इसमें अंततः सभी को जलना पड़ता है। भीड़ ने उनकी बात को ध्यान से सुना और मामूली हील-हुज्जत के बाद माना भी। उनकी उस तक़रीर के बाद से मुहल्ले में कभी भी टकराव की नौबत नहीं आयी। टिल्लू ने बताया कि मामू के बेटे ने हाल ही में मेडिकल शिक्षा पूरी की है और दिल्ली में एक महंगे अस्पताल की नौकरी को ठुकराकर पास के मीरगंज क्षेत्र में ग्रामीणों की सेवा का प्राण लिया है।

जावेद मामू की बूढ़ी आँखों ने मुझे पहचानने में बिल्कुल भी देर नहीं लगाई, "अरे राजू बेटा तुम, आओ, आओ मेरे हिन्दी के मास्साब!" वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ मेरी ओर बढ़े। अपनी बाहें फैलाकर वे बोले, "बेटा पास आओ, इतने दिनों बाद तुम्हें ठीक से देख तो लूँ ..."

जब मैंने आगे बढ़कर उनके चरण छुए तो उनकी आँखों से आँसू टप-टप बह रहे थे।
[समाप्त]