Friday, February 6, 2009

खाली प्याला - भाग २

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यह कथा मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में है। पिछली कड़ी में आपने पढा कि मेरे सहकर्मी मेरे आने से खुश नहीं थे। आगे पढिये कि वहाँ एक अपवाद भी था - अमर सहाय सब्भरवाल।
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उस पूरी शाखा में अगर कोई एक व्यक्ति मेरे साथ बात करता था तो वह था अमर सहाय सब्भरवाल। अमर एक पतला दुबला खुशमिजाज लड़का था जोकि अपने ऊपर भी व्यंग्य कर सकता था। एक दिन उसने अंग्रेजी में अपने नाम का संक्षिप्तीकरण किया तो हम दोनों खूब हँसे। अपने उत्सुक व्यक्तित्व के अनुरूप ही मैं अपने आस-पास के माहौल को अच्छी तरह से जानना-परखना चाहता था। अमर की सांगत से यह काम सरल हो गया था। हम दोनों एक साथ भोजन करते थे। चूंकि मुझे टाइप करना नहीं आता था, अमर मुझे अपनी प्रगति-रिपोर्ट टाइप करने में सहायता करने लगा।

बचत खाते के काउंटर के ठीक पीछे मुझे कागज़-पत्र और खातों से भरी हुई एक बड़ी सी मेज़ दे दी गयी। कम्प्यूटर तो उस ज़माने में प्रचलित नहीं थे - कम से कम भारतीय बैंकिंग व्यवसाय में तो उनकी घुसपैठ नहीं हो पायी थी। सारे लेखे-जोखे बड़े-बड़े बही खातों में लिखे जाते थे। इन खातों में लकडी के मुखपृष्ठ होते थे और अन्दर के लेखा पृष्ठों को एक चाभी द्वारा सुरक्षित कर देने की व्यवस्था थी।

अमर मेरे सामने ही बचत बैंक काउंटर पर बैठता था। उसके साथ में दो अन्य लिपिक भी थे। इन तीनों के पीछे एक वयस्थ व्यक्ति भी बैठता था। बाद में पता लगा कि उस व्यक्ति का नाम नीलाम्बक्कम था और वह अमर का अधिकारी था, कभी-कभार मैं सोचता था कि नौजवानों से घिरी उस शाखा में सेवानिवृत्ति की आयु वाला वह व्यक्ति क्या कर रहा है।

हमेशा की तरह इस बार भी अमर ने मेरी उत्सुकता को शांत किया। उसीसे पता लगा कि नीलाम्बक्कम दरअसल उतना वृद्ध नहीं है जितना दिखता है। अमर ने बताया कि नीलाम्बक्कम तमिलनाडु के एक गाँव से था। वह एक विधुर था और इस शाखा के अन्य कर्मियों जैसा उच्च शिक्षित भी नहीं था। वह लिपिक भारती हुआ था और बहुत इच्छा के बावजूद कभी प्रोन्नति-परीक्षा पास नहीं कर सका था। मगर देखिये किस्मत भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है। बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा और बैंक ने अपनी प्लेटिनम जुबली के उपलक्ष्य में अपने उन कर्मचारियों को प्रोन्नति देकर पुरस्कृत करने का निर्णय किया जिन्होंने तीस वर्षों तक इसी बैंक में निष्कलंक सेवा की हो और वे अधिकारी बनकर अपने प्रदेश से बाहर जाने को तैयार हों।

अंधा क्या चाहे, दो आँखें। नीलाम्बक्कम जी ने फ़टाफ़ट इस अवसर का लाभ उठाया और अधिकारी बनकर आगरा के पास के एक डकैतियों के लिए बदनाम गाँव झंडूखेड़ा में विराजमान हो गए। अपने जीवन के सबसे बड़े सपने को सार्थक करने के लिए उन्हें अपने इकलौते बेटे को तमिलनाडु में ही एक हॉस्टल में छोड़ना पडा। झंडूखेड़ा आने तक उन्हें हिन्दी का एक अक्षर भी लिखना, पढ़ना या बोलना नहीं आता था। दुर्भाग्य से झंडूखेड़ा के ग्रामीणों को उनकी तमिलीकृत अंग्रेजी का एक शब्द भी समझ नहीं आता था। इतनी बात सुनाकर अमर ने अपने स्वभाव के अनुसार मज़ाक करते हुए कहा कि नीलाम्बक्कम की अंग्रेजी समझने के लिए उसे एक साल तक तमिल सीखनी पडी थी।
[क्रमशः]

Thursday, February 5, 2009

खाली प्याला - कहानी

उस दफ्तर में काम कर पाना कोई आसान बात नहीं थी। वहाँ मेरी बात सुनने का वक़्त किसी के पास नहीं था। न ही किसी को यह जानने की ज़रूरत थी कि मैं उनकी शाखा का कर्मचारी नहीं था। न तो मैं उनके अस्त-व्यस्त लेखे संतुलित करने वहाँ गया था और न ही उनकी महीनों से लम्बित पडी कानूनी विवरणी बनाने। उनके असंतुष्ट ग्राहकों के प्रति भी मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी। मैं तो एक परिवीक्षाधीन अधिकारी था जो कि उस शाखा में कुछ महीने सिर्फ़ प्रशिक्षण के लिए पहुँचा था और चार महीने बाद किसी और शहर में उड़ जाने वाला था। अभी दो साल तक मुझे देश भर में अलग-अलग जगहों की ख़ाक छाननी थी। ग्रामीण बैंकिंग सीखने किसी ठेठ देहात जाना था तो कॉर्पोरेट बैंकिंग सीखने किसी महानगर की बड़ी शाखा में भी समय बिताना था। और इन तबादलों के बीच में कई बार बंगलोर भी जाना होता था बैंकिंग और प्रबंधन की सैद्धांतिक कक्षाओं के लिए, जहाँ मेरे बाकी बैचमेट्स भी होते थे। सीखते भी थे, मस्ती भी करते थे और एक दूसरे से अपने अनुभव भी बांटते थे।

बैंक हमारी शिक्षा पर काफी संसाधन झोंकता था। मुख्यालय में मानव संसाधन विभाग के अंतर्गत एक खंड सिर्फ़ हमारे विकास और निगरानी के लिए रहता था। शाखाओं को अपने काम के लिए हमारा दुरुपयोग न करने के स्पष्ट निर्देश थे। हमारे कामों की सूची शाखा में हमारे पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थी। हर महीने प्रगति रिपोर्ट भी बनती थी। मगर फिर भी कुछ घिसे हुए प्रबंधक निर्देशों व प्रणाली के बीच में गहरे गोता लगाकर कोई न कोई ऐसा छिद्र ज़रूर निकाल लाते थे कि हममें से कई लोगों का सारा दिन उनका काम करते ही बीत जाता था। शाखा प्रबंधक जितना निकम्मा और गैर-जिम्मेदार होता था, हमें उतना ही ज़्यादा काम मिलता था क्योंकि उस शाखा में एक हम ही होते थे जो ऐसे प्रबंधक की सुनते थे। अब आपने इतनी देर तक मेरी बात ध्यान से सुनी है तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं विषय से न भटकूँ और मुख्य मुद्दे पर वापस आ जाऊं।

यह बैंक दक्षिण भारतीय था इसलिए इसे उत्तर में पैर ज़माना उतना आसान नहीं था। (ज्ञान दत्त जी की भाषा में कहूं तो - हमारे बैंक के पास इनिशिअल एडवांटैज नहीं था।) उत्तर में हमारी शाखाएँ भी कम थीं और उनमें भी करोड़ों का व्यापार करने बड़ी शाखाएँ तो नाम-मात्र की ही थीं। हमारे बैंक की आगरा शाखा उत्तर भारत की प्रमुख शाखाओं में से एक थी। पर्यटन, निर्यात आदि का काम तो था ही, सैनिक छावनी होने के कारण सेना का भी काफी बड़ा कारोबार हमारे साथ ही होता था। इसके अलावा हम उस इलाके के ग्रामीण बैंकों के प्रायोजक भी थे।

हमारे बैंक में बहुत से अधिकारियों को अच्छी हिन्दी बोलनी नहीं आती थी। कई लोगों को भारत में रहते हुए भी भारत की सांस्कृतिक विविधता का अहसास भी कम था। सुदूर दक्षिण से आए अधिकाँश उच्चाधिकारियों को उत्तर के क्षेत्रों का इतिहास-भूगोल कुछ भी पता न था। इन सब कमियों की भरपाई करने के लिए बैंक अक्सर यह बात ध्यान में रखता था कि अपने सबसे चटक अधिकारियों को ही उत्तर में भेजता था - खासकर बड़ी शाखाओं में। यह लोग खासे पढ़े-लिखे और मेहनती तो थे ही, युवा, तेज़-तर्रार और महत्त्वाकांक्षी भी थे। आगरा में भी मेरे सारे सहकर्मी ऐसे ही थे। उपरोक्त बातों के अतिरिक्त इनमें एक और समानता भी थी - इनमें से किसी को भी मेरा वहाँ रहना पसंद न था। पता नहीं उन्हें मेरा कमउम्र होना नापसंद था या मेरा सीधे अधिकारी बन जाना परन्तु इतना ज़रूर था कि अगर उनका बस चलता तो वे पहले दिन ही मुझे खिड़की से उठाकर बाहर फेंक देते...
[क्रमशः]

नोट:अभी तक मैंने बहुत सी कहानियाँ लिखी हैं. कुछ प्रकाशित भी हुई हैं मगर ज़्यादातर इस वजह से मेरी डायरी में ही सिमटी रहीं क्योंकि मुझे हिन्दी टाइप करना नहीं आता था. इसी कारण से प्रस्तुत कहानी मुझे अंग्रेजी में लिखनी पड़ी थी. अब यूनिकोड के आने से वह समस्या भी हल हो गयी है. आपने पहले भी कहानियों को पसंद किया है. उसी से प्रोत्साहित होकर मेरे सहकर्मी नीलाम्बक्कम के बारे में यह कथा सामने रख रहा हूँ. कुछ अन्य कहानियाँ और संस्मरण नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करके पढ़े जा सकते हैं:
जावेद मामू
वह कौन था
सौभाग्य
सब कुछ ढह गया
करमा जी की टुन्न-परेड
गरजपाल की चिट्ठी
लागले बोलबेन
तरह तरह के बिच्छू
ह्त्या की राजनीति
मेरी खिड़की से इस्पात नगरी
हिंदुत्वा एजेंडा
केरल, नारी मुक्ति और नेताजी
दूर के इतिहासकार
सबसे तेज़ मिर्च - भूत जोलोकिया
हमारे भारत में
मैं एक भारतीय
नसीब अपना अपना
संस्कृति के रखवाले





Tuesday, February 3, 2009

पिट्सबर्ग या सिक्सबर्ग [इस्पात नगरी 8]


अमेरिकी जीवन में खेलों का बहुत महत्त्व है। स्कूल, कोलेज, विशिष्ट विद्यालय, सभी की खेल की अपनी टीम होती हैं। पिट्सबर्ग में भी इस तरह के अनेकों दल हैं। नगर की बेसबाल टीम का नाम "पाइरेट्स" है और उनका प्रतीक भी एक आँख वाला समुद्री डाकू है। आइस हॉकी की स्थानीय टीम का नाम "पेंगुइन्स" है। इस्पात के उल्टे कटोरे जैसा उनका स्टेडियम मेरे दफ्टर के साथ में ही है और मेरी खिड़की से किसी खिलौने जैसा दिखता है। अमेरिकन फुटबाल का खेल पिट्सबर्ग में न सिर्फ़ बहुत लोकप्रिय है, इस खेल में यहाँ की स्थानीय फौलादी टीम "स्टीलर्स" देश भर में अग्रणी है।


पिछले रविवार को नेशनल फुटबाल लीग (NFL) द्वारा प्रायोजित वार्षिक विश्व चैंपियनशिप में फिर से विजय पाकर "स्टीलर्स" छठी बार यह गौरव पाने वाली देश की अकेली टीम बन गयी है। जब यह खेल चल रहा था, सारे शहर में स्टीलर्स का जादू छाया हुआ था। हमारे दफ्तर में भी एक दिन बहुत से लोग स्टीलर्स की जर्सीयाँ, मफलर, टोपे आदि पहनकर आए थे। भवन के अन्दर स्टीलर्स के आधिकारिक रंग के काले-पीले गुब्बारे सजाये गए थे। नीचे के चित्र में मेरे अमेरिकी सहकर्मी अपनी स्टीलर्स टाई में नज़र आ रहे हैं।


स्टीलर्स की इस अभूतपूर्व विजय के सम्मान में आज नगर में एक विशाल विजय शोभा यात्रा का आयोजन किया गया था। नगर की हर शोभा-यात्रा की तरह यह यात्रा भी मेरे कार्यालय के बाहर से होकर गुज़री। शून्य से नीचे तापमान में हजारों लोगों ने सुबह से खड़े होकर इस यात्रा-जुलूस का आनंद उठाया। भोजनावकाश में मैं भी अपने साथियों के साथ बाहर आया और अद्भुत भीड़ के इस उत्साह को देखा।



[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा. हरेक चित्र पर क्लिक करके उसका बड़ा रूप देखा जा सकता है.]

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इस्पात नगरी से - अन्य कड़ियाँ
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