(अनुराग शर्मा)
सत्य नहीं कड़वा होता
कड़वी होती है कड़वाहट
पराजय की आशंका और
अनिष्ट की अकुलाहट
सत्यासत्य नहीं देखती
मन पर हावी घबराहट
कड़वाहट तो दूर भागती
सुनते ही सत्य की आहट
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Thursday, March 14, 2019
Friday, January 11, 2019
दोस्त - द्विपदी
- अनुराग शर्मा
अपने नसीब में नहीं क्यों दोस्ती का नूर।
मिलते नहीं क्यों रहते हो इतने दूर-दूर॥
समझा था मुझे कोई न पहचान सकेगा।
यह होता कैसे दोस्त मेरे हैं बड़े मशहूर
मसरूफ़ रहे वर्ना मिलने आते वे ज़रूर॥
हम चाहते थे चार पल दोस्तों के साथ।
वह भी न हुआ दोस्त मेरे हो गये मगरूर॥
सोचा था बचपने के फिर साथी मिलेंगे।
ये हो न सका दोस्त मेरे हैं खट्टे अंगूर॥
दो पल न बिताये न जिलायी पुरानी याद।
तिनका था मैं, दोस्त मेरे थे सभी खजूर॥
Tuesday, January 1, 2019
काव्य: संवाद रहे
अनुराग शर्मा
नश्वरता की याद रहेजारी अनहदनाद रहे
मन भर जाये दुनिया से
कोई न फ़रियाद रहे
पिंजरा टूटे पिञ्जर का
पक्षी यह आज़ाद रहे
न हिचके झुकने में, उनके
जीवन में आह्लाद रहे
कभी सीखने में न चूके
वे सबके उस्ताद रहे
जितनों की सेवा संभव हो
बस उतनी तादाद रहे
भूखे पेट न जाये कोई
और भोजन में स्वाद रहे
अहं कभी न जकड़ सके
न कोई उन्माद रहे
कड़वी तीखी बातें भूलें
खट्टी मीठी याद रहे
कभी रूठ न जायें वे
चलता सब संवाद रहे
घर से छूटे जिनकी खातिर
घर उनका आबाद रहे॥
नव वर्ष 2019 की मंगलकामनाएँ
Sunday, November 4, 2018
व्यथा कथा - एक गीत
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)
ज़िंदगी की रैट-रेस में, जीवन की गलाकाट प्रतियोगिता में हम बहुत कुछ इकट्ठा करते हैं, बिना यह समझे कि एक बिंदु पर पहुँचकर समस्त संसार निस्सार लगने लगता है। इसी भाव को व्यक्त करता एक गीत -जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
हाथ से बालू फिसले ऐसे वक़्त गुज़रता जाता है
बचपन बीता यौवन छूटा तेज़ बुढ़ापा आता है
जल की मीन को है आतुरता जाल में जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की।
सपने छूटे, अपने रूठे, गली गाँव सब दूर हुए
कल तक थे जो जग के मालिक मिलने से मजबूर हुए
बुद्धि कितनी जुगत लगाए मन भरमाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
छप्पन भोग से पेट भरे यह मन न भरता है
भटक-भटक कर यहाँ वहाँ चित्त खूब विचरता है
लोभ सँवरता न कोई सीमा है हथियाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
मुक्त नहीं हूँ मायाजाल मेरा मन खींचे है
जितना छोड़ूँ उतना ही यह मुझको भींचे है
जीवन की ये गलियाँ फिर-फिर आने-जाने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
भारी कदम कहाँ उठते हैं, गुज़रे रस्ते कब मुड़ते हैं
तंद्रा नहीं स्वप्न न कोई, छोर पलक के कम जुड़ते हैं
कोई खास वजह न दिखती नींद न आने की
जीवन एक कथा है सब कुछ छूटते जाने की
जीवन एक व्यथा है सब कुछ छूटते जाने की ...
Wednesday, August 22, 2018
रोशनाई - कविता
(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
रात अपनी सुबह परायी हुई
धुल के स्याही भी रोशनाई हुई
उनके आगे नहीं खुले ये लब
रात-दिन बात थी दोहराई हुई
कवि होना सरल नहीं समझो
खुद न होते न तुमसे मिलते हम
ऐसी हमसे न आशनाई हुई॥
रात अपनी सुबह परायी हुई
धुल के स्याही भी रोशनाई हुई
उनके आगे नहीं खुले ये लब
रात-दिन बात थी दोहराई हुई
आज भी बात उनसे हो न सकी
चिट्ठी भेजी हैं, पाती आई हुई
कवि होना सरल नहीं समझो
कहा दोहा, सुना चौपाई हुई
खुद न होते न तुमसे मिलते हम
ऐसी हमसे न आशनाई हुई॥
Friday, July 27, 2018
आदमी (ग़ज़ल)
(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है।
ज़िंदगी है जब तलक उम्मीद भी कैसे मिटे
चार कंधों के लिये तो भारी तामझाम है।
काली घटा छाई हुई उस पे अंधेरा पाख है
रात ही बाकी है इसकी सुबह है न शाम है।
तारे हैं गर्दिश में और चाँद पे छाया गहन
धूप से चुंधियाते दीदों को मिला आराम है।
अश्व हो आरोही या, तृष्णा कभी जाती नहीं
घास भी मिलती नहीं पर चाहता बादाम है।
सात पीढ़ी को सँवारे दौड़ाभागी में जुटा
दो घड़ी का हो बसेरा, इतना इंतज़ाम है।
वीतरागी होने का, उपदेश डाकू दे रहे
बोलबाला झूठ का, सच अभी गुमनाम है।
बेईमानी का सफ़र, पूरा नहीं जिसका हुआ
वह डकैती का सभी पर थोपता इल्जाम है।
अपराध अपना हो भले पर दोष दूजे को ही दें
बच्चे बगल में छिप गये, नगर में कोहराम है।
हाशिये पर कर दिये निर्देश जिनसे लेना था
रहनुमा कारा गये जब पातकी हुक्काम है।
पाप पहले भी हुए अफ़सोस उनका लाज़मी
पर आगे भी होते रहेंगे क्यों नहीं विश्राम है?
निस्सार है संसार इसमें अर्थ सारा व्यर्थ है
एक बेघर* ही यहाँ हर गाँव का खैयाम है।
प्रात से हर रात तक भागना है बदहवास
ज़िंदगी के द्वीप की यह यात्रा अविराम है।
यात्रा लम्बी रही और फिर स्थानक आ गया
बस गये जो भस्म में उनको मिला आराम है।
* अनिकेत
आदमी यह आम है बस इसलिये नाकाम है
कामना मिटती नहीं, कहने को निष्काम है।
ज़िंदगी है जब तलक उम्मीद भी कैसे मिटे
चार कंधों के लिये तो भारी तामझाम है।
रात ही बाकी है इसकी सुबह है न शाम है।
धूप से चुंधियाते दीदों को मिला आराम है।
अश्व हो आरोही या, तृष्णा कभी जाती नहीं
घास भी मिलती नहीं पर चाहता बादाम है।
दो घड़ी का हो बसेरा, इतना इंतज़ाम है।
वीतरागी होने का, उपदेश डाकू दे रहे
बोलबाला झूठ का, सच अभी गुमनाम है।
बेईमानी का सफ़र, पूरा नहीं जिसका हुआ
वह डकैती का सभी पर थोपता इल्जाम है।
अपराध अपना हो भले पर दोष दूजे को ही दें
बच्चे बगल में छिप गये, नगर में कोहराम है।
हाशिये पर कर दिये निर्देश जिनसे लेना था
रहनुमा कारा गये जब पातकी हुक्काम है।
पाप पहले भी हुए अफ़सोस उनका लाज़मी
पर आगे भी होते रहेंगे क्यों नहीं विश्राम है?
निस्सार है संसार इसमें अर्थ सारा व्यर्थ है
एक बेघर* ही यहाँ हर गाँव का खैयाम है।
प्रात से हर रात तक भागना है बदहवास
ज़िंदगी के द्वीप की यह यात्रा अविराम है।
यात्रा लम्बी रही और फिर स्थानक आ गया
* अनिकेत
Tuesday, February 13, 2018
कविता: चले गये ...
(अनुराग शर्मा)
अनजानी राह में
जीवन प्रवाह में
बहते चले गये
आपके प्रताप से
दूर अपने आप से
रहते चले गये
आप पे था वक़्त कम
किस्से खुद ही से हम
कहते चले गये
सहर की रही उम्मीद
बनते रहे शहीद
सहते चले गये
माया है यह संसार
न कोई सहारा यार
ढहते चले गये ...
अनजानी राह में
जीवन प्रवाह में
बहते चले गये
आपके प्रताप से
दूर अपने आप से
रहते चले गये
आप पे था वक़्त कम
किस्से खुद ही से हम
कहते चले गये
सहर की रही उम्मीद
बनते रहे शहीद
सहते चले गये
माया है यह संसार
न कोई सहारा यार
ढहते चले गये ...
Monday, October 9, 2017
एक नज़र - कविता
(अनुराग शर्मा)
हर खुशी ऐसे बच निकलती है
रेत मुट्ठी से ज्यूँ फिसलती है
ये जहाँ आईना मेरे मन का
अपनी हस्ती यूँ ही सिमटती है
बात किस्मत की न करो यारों
उसकी मेरी कभी न पटती है
दिल तेरे आगे खोलता हूँ जब
दूरी बढ़ती हुई सी लगती है
धर्म खतरे में हो नहीं सकता
चोट तो मजहबों पे पड़ती है
सर्वव्यापी में सब हैं सिमटे हुए
छाँव पर रोशनी से डरती है।
साक्षात्कार: अनुराग शर्मा और डॉ. विनय गुदारी - मॉरिशस टीवी - 13 सितम्बर 2017
हर खुशी ऐसे बच निकलती है
रेत मुट्ठी से ज्यूँ फिसलती है
ये जहाँ आईना मेरे मन का
अपनी हस्ती यूँ ही सिमटती है
बात किस्मत की न करो यारों
उसकी मेरी कभी न पटती है
दिल तेरे आगे खोलता हूँ जब
दूरी बढ़ती हुई सी लगती है
धर्म खतरे में हो नहीं सकता
चोट तो मजहबों पे पड़ती है
सर्वव्यापी में सब हैं सिमटे हुए
छाँव पर रोशनी से डरती है।
साक्षात्कार: अनुराग शर्मा और डॉ. विनय गुदारी - मॉरिशस टीवी - 13 सितम्बर 2017
Wednesday, August 30, 2017
घोंसले - कविता
(अनुराग शर्मा)
बच्चे सारे कहीं खो गये
देखो कितने बड़े हो गये
घुटनों के बल चले थे कभी
पैरों पर खुद खड़े हो गये
मेहमाँ जैसे ही आते हैं अब
छोड़ के जबसे घर वो गये
प्यारे माली जो थे बाग में
उनमें से अब कई सो गये
याद से मन खिला जिनकी
यादों में ही नयन रो गये॥
بچچے سارے کہیں کھو گئے
دیکھو کتنے بعد_ا ہو گئے
گھٹنوں کے بل چلے تھے کبھی
پیروں پر خود کھڈے ہو گئے
مہمان جیسے ہی آتے ہیں اب
چھوڈ کے جب سے گھر وو گئے
پیارے ملے جو تھے باگ میں
انمیں سے اب کے سو گئے
یاد سے من کھلا جنکی
یاد میں ہی نہیں رو گئے
बच्चे सारे कहीं खो गये
देखो कितने बड़े हो गये
घुटनों के बल चले थे कभी
पैरों पर खुद खड़े हो गये
मेहमाँ जैसे ही आते हैं अब
छोड़ के जबसे घर वो गये
प्यारे माली जो थे बाग में
उनमें से अब कई सो गये
याद से मन खिला जिनकी
यादों में ही नयन रो गये॥
گھوںسلا
بچچے سارے کہیں کھو گئے
دیکھو کتنے بعد_ا ہو گئے
گھٹنوں کے بل چلے تھے کبھی
پیروں پر خود کھڈے ہو گئے
مہمان جیسے ہی آتے ہیں اب
چھوڈ کے جب سے گھر وو گئے
پیارے ملے جو تھے باگ میں
انمیں سے اب کے سو گئے
یاد سے من کھلا جنکی
یاد میں ہی نہیں رو گئے
Monday, June 26, 2017
ग़ज़ल?
मात्रा के गणित का शऊर नहीं, न फ़ुर्सत। अगर, बात और लय होना काफ़ी हो, तो ग़ज़ल कहिये वर्ना हज़ल या टसल, जो भी कहें, स्वीकार्य है।(अनुराग शर्मा)
काम अपना भी हो ही जाता मगर
कुछ करने का हमको सलीका न था
भाग इस बिल्ली के थे बिल्कुल खरे
फ़ूटने को मगर कोई छींका न था
ज़हर पीने में कुछ भी बड़प्पन नहीं
जो प्याला था पीना वो पी का न था
जिसको ताउम्र अपना सब कहते रहे
बेमुरव्वत सनम वह किसी का न था
तोड़ा है दिल मेरा कोई शिकवा नहीं
तोड़ने का यह जानम तरीका न था।
Monday, May 1, 2017
डर लगता है - कविता
सुबह-सुबह न रात-अंधेरे घर में कोई डर लगता है
बस्ती में दिन में भी उसको अंजाना सा डर लगता है
जंगल पर्वत दश्त समंदर बहुत वीराने घूम चुका है
सदा अकेला ही रहता, हो साथ कोई तो डर लगता है
कुछ दूरी भी सबसे रक्खी सबको आदर भी देता है
भिक्षुक बन दर आए रावण, पहचाने न डर लगता है
अक्खड़ और संजीदा उसकी सबसे ही निभ जाती है
भावुक लोगों से ही उसको थोड़ा-थोड़ा डर लगता है
नाग भी पूजे, गाय भी सेवी, शूकर कूकर सब पाला है
पशुओं से भी आगे है जो उस मानव से डर लगता है।
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)
Sunday, April 9, 2017
असलियत - कविता
छिपाए नहीं छिपते
न ही छिपते हैं
रक्तरंजित हाथ।
असलियत मिटती
नहीं है।
बहुत देर तक
नहीं छिपा सकोगे
बगल में छुरी।
भले ही
दिखावे के लिए
जपने लगो राम,
कुशलता से ढँककर
माओ, स्टालिन, पोलपोट
बारूदी सुरंग और
कलाश्निकोव को ...
अंततः टूटेंगे बुत तुम्हारे
और सुनोगे-देखोगे
सत्यमेव जयते
(अनुराग शर्मा)
Tuesday, February 28, 2017
फिरकापरस्त - एक कविता
(अनुराग शर्मा)
बंदूकों से
उगलते हैं मौत
और जहर
रचनाओं से
जैसे कि जहर और
गोली में बुद्धि होती हो
अपने-पराये का
अंतर समझने की
खुशी से उछल रहे हैं कि
दुश्मनों के खात्मे के बाद
समेट लेंगे उनकी
सारी पूंजी
और दुनिया उनकी
मेहनत से बनी
गिराकर सारे बुत
बताएंगे खुद को खुदा
और बैठकर पिएंगे चुरुट
चलाएँगे हुक्म
समझते नहीं कि जहर
अपने फिरके आप बनाता है
बंदूक की नाल
खुद पर तन जाती है
जब सामने दुश्मन का
कोई चिह्न नहीं बचता
क्यूबा के कम्युनिस्ट राजवंश का प्रथम तानाशाह |
उगलते हैं मौत
और जहर
रचनाओं से
जैसे कि जहर और
गोली में बुद्धि होती हो
अपने-पराये का
अंतर समझने की
खुशी से उछल रहे हैं कि
दुश्मनों के खात्मे के बाद
समेट लेंगे उनकी
सारी पूंजी
और दुनिया उनकी
मेहनत से बनी
गिराकर सारे बुत
बताएंगे खुद को खुदा
और बैठकर पिएंगे चुरुट
चलाएँगे हुक्म
समझते नहीं कि जहर
अपने फिरके आप बनाता है
बंदूक की नाल
खुद पर तन जाती है
जब सामने दुश्मन का
कोई चिह्न नहीं बचता
समाचार: अहिंसा का प्रवर्तक भारत झेलता है सर्वाधिक विस्फ़ोट, जेहाद, माओवाद के निशाने पर
Tuesday, November 22, 2016
स्वप्न - एक कविता
ये स्वप्न कहाँ ले जाते हैं
ये स्वप्न कहाँ ले जाते हैं
सच्चे से लगते कभी कभी
ये पुलाव खयाली पकाते है
सपने मनमौजी होते हैं
कोई नियम समझ न पाते हैं
ज्ञानी का ज्ञान धरा रहता
अपने मन की कर जाते हैं
सब कुछ कभी लुटा देते
सर्वस्व कभी दे जाते हैं
Tuesday, October 25, 2016
अनंत से अनंत तक - कविता
(अनुराग शर्मा)
जीवन क्या है एक तमाशा
थोड़ी आशा खूब निराशा
सब लीला है सब माया है
कुछ खोया है कुछ पाया है
न कुछ आगे न कुछ पीछे
कुछ ऊपर ही न कुछ नीचे
जो चाहे वो अब सुन कहले
उस बिन्दु से न कुछ पहले
उस बिन्दु के बाद नहीं कुछ
होगा भी तो याद नहीं कुछ
जो कुछ है वह सभी यहीं है
जितना सुधरे वही सही है.
जीवन क्या है एक तमाशा
थोड़ी आशा खूब निराशा
सब लीला है सब माया है
कुछ खोया है कुछ पाया है
न कुछ आगे न कुछ पीछे
कुछ ऊपर ही न कुछ नीचे
जो चाहे वो अब सुन कहले
उस बिन्दु से न कुछ पहले
उस बिन्दु के बाद नहीं कुछ
होगा भी तो याद नहीं कुछ
जो कुछ है वह सभी यहीं है
जितना सुधरे वही सही है.
सेतु हिंदी काव्य प्रतियोगिता में आपका स्वागत है, संशोधित अंतिम तिथि: 10 नवम्बर, 2016
Tuesday, September 13, 2016
ये दुनिया अगर - कविता
(अनुराग शर्मा)
बारूद उगाते हैं बसी थी जहाँ केसर
मैं चुप खड़ा कब्ज़े में है उनके मेरा घर
कैसे भला किससे कहूँ मैं जान न पाऊँ
दे न सकूँ आवाज़ मुझे जान का है डर
नक्सल कहीं माओ कहीं बैठे हैं जेहादी
कंधे बड़े लेकिन नहीं दीखे है कहीं सर
कोई अमल होता नहीं बेबस हुआ हाकिम
दर पे तेरे पटक के ये सर जायेंगे हम मर
बदलाव कभी आ नहीं सकता है वहाँ पे
परचम बगावत का हुआ चोरी जहाँ पर
बारूद उगाते हैं बसी थी जहाँ केसर
मैं चुप खड़ा कब्ज़े में है उनके मेरा घर
कैसे भला किससे कहूँ मैं जान न पाऊँ
दे न सकूँ आवाज़ मुझे जान का है डर
नक्सल कहीं माओ कहीं बैठे हैं जेहादी
कंधे बड़े लेकिन नहीं दीखे है कहीं सर
कोई अमल होता नहीं बेबस हुआ हाकिम
दर पे तेरे पटक के ये सर जायेंगे हम मर
बदलाव कभी आ नहीं सकता है वहाँ पे
परचम बगावत का हुआ चोरी जहाँ पर
Wednesday, September 7, 2016
शाब्दिक हिंसा - मत करो (कविता)
लोग अक्सर शाब्दिक हिंसा की बात करते हुए उसे वास्तविक हिंसा के समान ठहराते हैं. फ़ेसबुक पर एक ऐसी ही पोस्ट देखकर निम्न उद्गार सामने आये. शब्दों को ठोकपीट कर कविता का स्वरूप देने के लिये सलिल वर्मा जी का आभार. (अनुराग शर्मा)
मत करो
मत करो तुलना
कलम-तलवार में
और समता
शब्द और हथियार में
ताण्डव करते हुये हथियार हैं
शब्द पीड़ा-शमन को तैयार हैं
कुछ बुराई कर सके
अपशब्द माना
वह भी तभी जब
मैं समझ पाऊँ
गिरी भाषा तुम्हारी
और निर्बलता मेरी
आहत मुझे कर दे ज़रा
कुछ भी कहो
सामान्यतः
लेकिन तुम्हारी
आईईडी, बम, और बरसती गोलियाँ
इनसे भला किसका हुआ
हर कोई बस है मरा
नारी-पुरुष, आबाल-वृद्ध
कोई नहीं है बच सका
जो सामने आया
वही जाँ से गया
शब्द और हथियार की तुलना
तो केवल बचपने की बात है
ध्यान से सोचें तनिक तो
ये किन्हीं हिंसक दलों की
इक गुरिल्ला घात है
इनके कहे पर मत चलो तुम
वाद या मज़हब,
किसी भी बात पर
इनका हुकुम मानो नहीं तुम
छोड़कर हिंसा को ही
संसार यह आगे बढ़ा है
नर्क तल में और हिम ऊपर चढ़ा है
बस चेष्टा इतनी करो
हिंसा से तुम बचकर रहो
जब भी कहो, जैसा कहो, बस सच कहो
और धैर्य धर सच को सहो
शब्द से उपचार भी सम्भव है जग में
प्रेम तो नि:शब्द भी करता है अक्सर
फिर भला नि:शस्त्र होना
हो नहीं सकता है क्यों
पहला कदम इंसानियत के नाम पर
कर जोड़कर
कर लो नमन, हथियार छोड़ो
अग्नि हिंसा की बुझाने के लिये तुम
आज इस पर बस ज़रा सा प्रेम छोड़ो!
मत करो
मत करो तुलना
कलम-तलवार में
और समता
शब्द और हथियार में
ताण्डव करते हुये हथियार हैं
शब्द पीड़ा-शमन को तैयार हैं
कुछ बुराई कर सके
अपशब्द माना
वह भी तभी जब
मैं समझ पाऊँ
गिरी भाषा तुम्हारी
और निर्बलता मेरी
आहत मुझे कर दे ज़रा
कुछ भी कहो
सामान्यतः
हर शब्द ने है
दर्द अक्सर ही हरा
दर्द अक्सर ही हरा
लेकिन तुम्हारी
आईईडी, बम, और बरसती गोलियाँ
इनसे भला किसका हुआ
हर कोई बस है मरा
नारी-पुरुष, आबाल-वृद्ध
कोई नहीं है बच सका
जो सामने आया
वही जाँ से गया
शब्द और हथियार की तुलना
तो केवल बचपने की बात है
ध्यान से सोचें तनिक तो
ये किन्हीं हिंसक दलों की
इक गुरिल्ला घात है
इनके कहे पर मत चलो तुम
वाद या मज़हब,
किसी भी बात पर
इनका हुकुम मानो नहीं तुम
छोड़कर हिंसा को ही
संसार यह आगे बढ़ा है
नर्क तल में और हिम ऊपर चढ़ा है
बस चेष्टा इतनी करो
हिंसा से तुम बचकर रहो
जब भी कहो, जैसा कहो, बस सच कहो
और धैर्य धर सच को सहो
शब्द से उपचार भी सम्भव है जग में
प्रेम तो नि:शब्द भी करता है अक्सर
फिर भला नि:शस्त्र होना
हो नहीं सकता है क्यों
पहला कदम इंसानियत के नाम पर
कर जोड़कर
कर लो नमन, हथियार छोड़ो
अग्नि हिंसा की बुझाने के लिये तुम
आज इस पर बस ज़रा सा प्रेम छोड़ो!
Sunday, August 21, 2016
शिकायत - कविता
मुद्रा खरी खरी
कहती है
खोटे सिक्के चलते हैं।
साँप फ़ुंकारे
ज़हर के थैले
क्यों उसमें पलते हैं।
रोज़ लड़ा पर
कहती है
खोटे सिक्के चलते हैं।
साँप फ़ुंकारे
ज़हर के थैले
क्यों उसमें पलते हैं।
रोज़ लड़ा पर
हारा सूरज
दिन आखिर ढलते हैं।
पाँव दुखी कि
बदन सहारे
उसके ही चलते हैं।
मैल हाथ का पैसा
सुनकर
हाथ सभी मलते हैं।
आग खफ़ा हो
जाती क्योंकि
उससे सब जलते हैं॥
(अनुराग शर्मा)
Wednesday, March 16, 2016
याद के बाद - कविता
(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
क्यों ऐसी बातें करते हो
ज़ालिम दुनिया से डरते हो
जो आग को देखके राख हुए
क्यों तपकर नहीं निखरते हो
बस एक ही था वह रूठ गया
अब किसके लिये संवरते हो
हर रोज़ बिछड़ जन मिलते हैं
तुम मिलकर रोज़ बिखरते हो
सब निर्भय होकर उड़ते हैं
तुम फिक्र में डूबते तिरते हो
जब दिल में आग सुलगती है
तुम भय की ठंड ठिठुरते हो
इक बार नज़र भर देखो तो
जिस राह से रोज़ गुज़रते हो
कल त्याग आज कल पाता है
तुम भूत में कितना ठहरते हो
ज़ालिम दुनिया से डरते हो
जो आग को देखके राख हुए
क्यों तपकर नहीं निखरते हो
बस एक ही था वह रूठ गया
अब किसके लिये संवरते हो
हर रोज़ बिछड़ जन मिलते हैं
तुम मिलकर रोज़ बिखरते हो
सब निर्भय होकर उड़ते हैं
तुम फिक्र में डूबते तिरते हो
जब दिल में आग सुलगती है
तुम भय की ठंड ठिठुरते हो
इक बार नज़र भर देखो तो
जिस राह से रोज़ गुज़रते हो
कल त्याग आज कल पाता है
तुम भूत में कितना ठहरते हो
Saturday, January 9, 2016
मेरा दर्द न जाने कोय - कविता
दर्द मेरा न वो ताउम्र कभी जान सकेबेपरवाही यही उनकी मुझे मार गई॥
तेरे मेरे आँसू की तासीर अलहदा है बेआब नमक सीला, वो दर्द से पैदा है |
और उनके वजूहात को भी जानता हूँ मैं
पर उनके बहाने से जब टूटती हो तुम
बेवजहा बहुत मुझसे जो रूठती हो तुम
तुम मुझको जलाओ तो कोई बात नहीं है
अपनी उँगलियों को भी तो भूनती हो तुम
ये बात मेरे दिल को सदा चाक किए है
यूँ तुमसे कहीं ज़्यादा मैंने अश्क पिये हैं
मिटने से मेरे दर्द भी मिट जाये गर तेरा
तो सामने रखा है तेरे सुन यह सर मेरा
तेरे दर्द का मैं ही हूँ सबब जानता हूँ मैं
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं।
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