Wednesday, March 16, 2016

याद के बाद - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)


क्यों  ऐसी  बातें  करते  हो
ज़ालिम दुनिया से डरते हो

जो आग को देखके राख हुए
क्यों तपकर नहीं निखरते हो

बस एक ही था वह रूठ गया
अब किसके लिये संवरते हो

हर रोज़ बिछड़ जन मिलते हैं
तुम मिलकर रोज़ बिखरते हो

सब निर्भय होकर उड़ते हैं
तुम फिक्र में डूबते तिरते हो

जब दिल में आग सुलगती है
तुम भय की ठंड ठिठुरते हो

इक बार नज़र भर देखो तो
जिस राह से रोज़ गुज़रते हो

कल त्याग आज कल पाता है
तुम भूत में कितना ठहरते हो


Saturday, February 27, 2016

भूत, पिशाच और राक्षस - देवासुर संग्राम 8



इस शृंखला की पिछली कड़ियों में हमने देव और असुर के सम्बंध को समझने का प्रयास किया, देवताओं के शास्त्रीय लक्षणों की चर्चा की, और सुर और असुर के अंतर की पडताल की है। देव, देवता, और सुर जैसे शब्दों के अर्थ अब स्पष्ट हैं लेकिन लोग अक्सर असुर, दैत्य, दानव, राक्षस और पिशाच आदि शब्दों को समानार्थी मानते हुए जिस प्रकार उनका प्रयोग शैतानी ताकतों के लिये ही करते हैं, वह सही नहीं है। इन सभी शब्दों में सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण अंतर हैं। असुर शब्द तो सम्माननीय ही है और जैसा कि हमने पिछली कड़ियों में देखा, असुर तो सुरों के पूर्वज ही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सुर असुर की ही एक विकसित शाखा हैं। आइये आगे बढने से पहले आज तीन सम्बंधित शब्दों भूत, पिशाच और राक्षस पर दृष्टिपात करते हैं।

भूत 
सर्वभूत, या पंचभूत जैसे शब्दों में मूलतत्व की भावना छिपी है। संसार में जो कुछ भी दृष्टव्य है वह इन्हीं भूतों से बना है. भौतिक शब्द, भूत से ही सम्बंधित है। शरीर का भौतिक स्वरूप है लेकिन उसमें जीवन का संचरण हमें वास्तविक स्वरूप देता है। प्राणांत के बाद केवल देह यानि भौतिक तत्व अर्थात पंचभूत (या मूलभूत) ही बचते हैं. तो भूत का सामान्य अर्थ मृतक से ही लिया जाना चाहिये। जो अब जीवित नहीं है, वह भूतमात्र रहा है। शायद इसी कारण से केवल प्राणी ही नहीं, काल के प्रयोग में भी भूत अतीत को भी दर्शाता है। वर्तमान से अलग, विगत ही भूत है, जो था परंतु अब नहीं है

पिशाच
अंग्रेज़ी में अतीत के लिये एक शब्द है, पास्ट (past). संस्कृत का पश्च भी उसी का समानार्थी है। भारत को विश्वगुरु कहा जाता है तो उसके पीछे यह भावना है कि भारत ने हज़ारों वर्ष पहले समाज को ऐसे क्रांतिकारी कार्य सफलतापूर्वक कर दिखाये जिन्हें अपनाने के लिये शेष विश्व आज भी संघर्ष कर रहा है। समाज के एक बडे वर्ग को अहिंसक बनाना. कृषिकर्म, शाकाहार की प्रवृत्ति, अग्नि द्वारा अंतिम संस्कार, शर्करा की खोज, लहू में लौह के होने की जानकारी सहित उन्नत धातुकर्म, अंकपद्धति, गणित, तर्क, ज्योतिष, हीरे जैसे रत्न को शेष विश्व से परिचित कराना आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो भारतीय संस्कृति को विश्व की अन्य संस्कृतियों से अलग धरातल पर रखते हैं। स्पष्ट है कि यह समाज अपने समकालीनों से कहीं उन्नत थी। अहिंसक जीवनशैली का प्रकाश आने के बाद भी हमारे आस-पडोस के जो पिछडे समुदाय उस नए क्रांतिकारी दौर को न अपना सके, पिशाच (पश्च past पिछला, पिछड़ा) कहलाए। वैसे ही ‪देवनागरी‬ जैसी उन्नत ‪लिपि‬ के आगमन के समय जो लिपियाँ पश्च (past) हो गईं, ‪पैशाची‬ कहलाईं। कई पैशाची प्रचलन से बाहर हो गईं, कई आज भी मूल/परवर्धित रूप में जीवित हैं। पिशाच या पैशाची कोई भाषा, जाति, नस्ल या क्षेत्र नहीं, पिछडेपन का तत्सम है।

राक्षस
ऋषि पुलस्त्य के दो पौत्र क्रमशः यक्षों व राक्षसों के शासक बने। यक्ष समुदाय भी क्रूर माना गया है परंतु वे अतीव धनवान थे। पूजा-पाठ के अलावा जादू-टोने में विश्वास रखते थे। मनोविलास और पहेलियां पूछना उनका शौक था। सही उत्तर देने पर प्रसन्न होते थे और गलत उत्तर पर क्रूर दण्ड भी देते थे। रक्ष संस्कृति यक्ष संस्कृति से कई मायनों में भिन्न थी। जहाँ यक्ष अक्सर एकाकी भ्रमण के किस्सों में मिलते हैं वहीं रक्ष समूहों में आते हैं। यक्ष मानव समाज में मिलने में कठिनाई नहीं पाते वहीं रक्षगण युद्धप्रिय हैं। यक्षों के आदर्शवाक्य वयम् यक्षामः की तर्ज़ पर राक्षसों का आदर्श वाक्य वयम् रक्षामः था, जोकि उनके बारे में काफ़ी कुछ कह जाता है। वयं रक्षामः से तात्पर्य यही है कि वे अपनी रक्षा स्वयं अपने बलबूते पर करने का दावा कर रहे हैं। वे किसी दैवी सहारे की आवश्यकता नहीं समझते, और वे भौतिक बल को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। राक्षसी विचारधारा के कई समूह रहे होंगे लेकिन ब्राह्मण पिता और दैत्य माता की संतति राक्षसराज रावण द्वारा अपने लंकाधिपति भाई कुबेर से हथियाये लंका में शासित वर्ग सबसे प्रसिद्ध राक्षस समूह बना।

[क्रमशः]

Saturday, January 9, 2016

मेरा दर्द न जाने कोय - कविता

दर्द मेरा न वो ताउम्र कभी जान सके
बेपरवाही यही उनकी मुझे मार गई॥
तेरे मेरे आँसू की तासीर अलहदा है
बेआब  नमक सीला, वो दर्द से पैदा है
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं
और उनके वजूहात को भी जानता हूँ मैं

पर उनके बहाने से जब टूटती हो तुम
बेवजहा बहुत मुझसे जो रूठती हो तुम

तुम मुझको जलाओ तो कोई बात नहीं है
अपनी उँगलियों को भी तो भूनती हो तुम

ये बात मेरे दिल को सदा चाक किए है
यूँ तुमसे कहीं ज़्यादा मैंने अश्क पिये हैं

मिटने से मेरे दर्द भी मिट जाये गर तेरा
तो सामने रखा है तेरे सुन यह सर मेरा

तेरे दर्द का मैं ही हूँ सबब जानता हूँ मैं
सब दर्द तेरे सच हैं सखी, मानता हूँ मैं।

Thursday, December 31, 2015

2016 की शुभकामनायें! कविता

चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा

बीतते हुए वर्ष की
अंतिम रात्रि
यूँ लगती है
जैसे अंतिम क्षण
किसी जाते हुए  
अपने के
साथ तो हैं पर
साथ की खुशी नहीं
जाने का गम है
सच पूछो तो
यही क्या कम है!
नववर्ष 2016 आप सबके जीवन में सफलता, समृद्धि और खुशियाँ बढ़ाये  

Thursday, December 24, 2015

अहिंसा - लघुकथा


ग्रामीण - हम पक्के अहिंसक हैं जी। हिंसा को रोकने में लगे रहते हैं।
आगंतुक - गाँव में लड़ाई झगड़ा तो हो जाता होगा
ग्रामीण - न जी न। सभी पक्के अहिंसक हैं। हम न लड़ते झगड़ते आपस में
आगंतुक - अगर आस-पड़ोस के गाँव से कोई आके झगड़ने लग जाय तो?
ग्रामीण - आता न कोई। दूर-दूर तक ख्याति है इस गाम की।
आगंतुक - मान लो आ ही जाये?
ग्रामीण - तौ क्या? जैसे आया वैसे चला जाएगा, शांति से। हम शांतिप्रिय हैं जी  ...
आगंतुक - और अगर वह शांतिप्रिय न हुआ तब?
ग्रामीण - शांतिप्रिय न हुआ से क्या मतलब है आपका?
आगंतुक - अगर वह झगड़ा करने लगे तो ...
ग्रामीण - तौ उसे प्यार से समझाएँगे। हम पक्के अहिंसक हैं जी।
आगंतुक - समझने से न समझा तब?
ग्रामीण - तौ घेर के दवाब बनाएँगे, क्योंकि हम पक्के अहिंसक हैं जी।
आगंतुक - फिर भी न माने?
ग्रामीण - मतलब क्या है आपका? न माने से क्या मतलब है?
आगंतुक - मतलब, अगर वह माने ही नहीं ...
ग्रामीण - तौ हम उसे समझाएँगे कि हिंसा बुरी बात है।
आगंतुक - तब भी न माने तो? मान लीजिये लट्ठ या बंदूक ले आए?
ग्रामीण - ... तौ हम उसे पीट-पीट के मार डालेंगे,लेकिन इस गाम में हिंसा नहीं करने देंगे। हम पक्के अहिंसक हैं जी। हिंसा को रोकने के लिए किसी भी हद तक जा सके हैं।  

Thursday, November 26, 2015

कबाड़ - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
यादों का कबाड़

कचरा ढोते रहे
दुखित रोते रहे

ढेर में कबाड़ के
खुदको खोते रहे

तेल जलता रहा
लौ पर न जली

था अंधेरा घना
जुगनू सोते रहे

मूल तेरा भी था
सूद मेरा भी था

कर्ज़ दोनों का
अकेले ढोते रहे

शाम जाती रही
दिन बदलते रहे

बौर की चाह में
खत्म होते रहे।

Saturday, November 21, 2015

आतंकियों का मजहब

सवाल पुराना है। पहले भी पूछा जाता था लेकिन आज का विश्व जिस तरह सिकुड़ गया है, पुराना प्रश्न अधिक सामयिक हो गया है। आतंकवाद जिस प्रकार संसार को अपने दानवी अत्याचार के शिकंजे में कसने लगा है, लोग न चाहते हुए भी बार-बार पूछते हैं कि अधिकांश नृशंस आतंकवादी किसी विशेष मजहब या राजनीतिक विचारधारा से ही सम्बद्ध क्यों हैं?

इस प्रश्न का उद्देश्य किसी मज़हब को निशाने पर लाना नहीं है बल्कि एक निर्दोष उत्सुकता और सहज मानवाधिकार चिंता है। कोई कहता है कि किसी व्यक्ति के पापकर्म के लिए किसी भी समुदाय को दोषी ठहराना जायज़ नहीं है जबकि कोई कहता है कि यदि ऐसा होता तो फिर आतंकवादियों की पृष्ठभूमि में भी वैसी ही विभिन्नता दिखती जैसी विश्व में है। लेकिन हमारा अवलोकन ऐसा नहीं कहता। अधिकांश आतंकवादी कुछ सीमित मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े हुये हैं।

किसी व्यक्ति के मन में नृशंसता का क्रूर विचार चाहे उसके अपने चिंतन से आया हो चाहे उसे बाहर से पढ़ाया-सिखाया गया हो, उसे अपनाने का दोष सबसे पहले उसका अपना ही हुआ। हत्यारा किसी भी धर्म का हो उसका पाप उसका ही है। लेकिन अगर संसार भर के आतंकवादियों की प्रोफाइल देखने पर निष्कर्ष किसी मजहब या विचारधारा विशेष के विरुद्ध जाता है और एक आम धारणा यही बनती है कि उस पंथ या समुदाय की नीतियों और शिक्षा में कहीं भारी कमी हो सकती है तो हमें गहराई तक जाकर यह ज़रूर देखना पडेगा की ऐसा क्यों हो रहा है।

पंजाब के आतंकवाद के आगे जब सुपरकॉप कहे जाने वाले रिबेरो जैसे मशहूर अधिकारी बुरी तरह असफल हो गए तो खालसा के नाम पर फैलाये जा रहे उस आतंकवाद को एक सिख के. पी. एस. गिल और उसकी सिख टीम ने ही कब्जे में लिया। जितने सिख आतंकवाद के साथ थे उससे कहीं अधिक उसके ख़िलाफ़ न सिर्फ़ लड़े बल्कि शहीद हुए। इसी तरह मिजोरम, नागालैंड, उत्तरी असम, या झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के ईसाई आतंकवादियों की बात करें तो भी कभी भी किसी भी चर्च या मिशनरी ने निर्दोषों की हत्याओं का समर्थन नहीं किया।

"एकम् सत विप्र: बहुधा वदंति" के पालक हिन्दुओं की तो बात ही निराली है। अहिंसा और विश्वबंधुत्व, हिन्दुत्व के मूल में है। मानव के आपसी प्रेम की बात आज के सभ्य समाज में अब आम है लेकिन भारतीय परंपरा में मानव के आपसी प्रेम के आत्मानुशासन से कहीं आगे जीवमात्र के प्रति भूतदया की अवधारणा है। भूतदया और अहिंसा की यह हज़ारों साल पुरानी अवधारणा भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक विचारधाराओं के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। हिन्दुत्व के "सर्वे भवन्तु सुखिन:" जैसे निर्मल सिद्धांतों के पालकों के लिए, असहिष्णुता और मजहबी आक्रोश की बात करने वाले लोग, धर्म के ऐसे दुश्मन हैं जो कभी भी प्रमुख धार्मिक नेताओं का समर्थन नहीं पा सकते।

दुर्भाग्य से इस मामले में इस्लाम की स्थिति थोड़ी अलग है। आतंकवादी घटनायें दुनिया में कहीं भी हों, जांच से पहले ही लोगों का शक इस्लाम के अनुयायियों पर जाता है। कम्युनिस्ट, हिन्दू या ईसाई बहुल देश ही नहीं, आतंकी घटना जब किसी इस्लामिक राष्ट्र में हो तो भी शक किसी न किसी इस्लामी समुदाय की संलिप्तता पर ही जाता है। शर्म की बात है कि ऐसे शक शायद ही कभी गलत साबित होते हों।

लोगों की धारणाएं बनती हैं जुम्मे की नमाज़ के बाद के बाद आने वाले भड़काऊ बयानों से जिन्हें दुनिया भर की मस्जिदों में इस्लाम के नाम पर परोसा जाता है। ये बनती हैं ओसामा बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, मुअम्मर गद्दाफी, जिया उल हक़ और जनरल मुशर्रफ़ जैसे निर्दयी तानाशाहों को हीरो बनाने से। मुसलमानों के असहिष्णु होने का संदेश जाता है जब तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी की जान भारत में खतरे में पड़ती है और उनको इस "अतिथि देवो भवः" देश से बाहर जिंदगी गुजारनी पड़ती है। इस्लाम की ग़लत छवि बनती है जब गांधी की अहिंसा की धारणा को इस्लाम-विरोधी करार दिया जाता है और हिन्दू बहुल धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु राष्ट्र को नकारकर पाकिस्तान को मुसलमानों की जन्नत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। देश को काटकर पाकिस्तान बनाने के लिए जिन हिंदुओं के गाँव के गाँव काट दिये गए थे, उनके बच्चे असहिष्णुता का असली अर्थ समझते हैं। कश्मीर से लेकर कुनमिंग, न्यूयॉर्क, पेरिस, जेरूसलम, बमाको, मयादुगुरी, मुंबई, संसार भर में कहीं भी, निर्दोषों के हत्यारे अपने कुकृत्यों को इस्लाम पर आधारित धर्मयुद्ध ही बताते हैं।  

तैमूर लंग की तकनीकी क्षमता के अभाव के कारण मामूली क्षति मात्र झेलने वाले बमियान के बुद्ध को नष्ट करने के धार्मिक एजेंडा का काम जब तालेबान पूरा करती है तब राम जन्मभूमि को बाबरी मस्जिद कहने वालों की नीयत पर शक स्वाभाविक लगता है। और इसके नाम पर इस्लाम को खतरे में बताकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में आतंक फैलाने की कार्यवाही करनेवालों की मजहबी प्रतिबद्धता छिपने का कोई बहाना नहीं बचता।  

मुझे ग़लत न समझें लेकिन जब बकरा ईद आने से हफ्तों पहले जानबूझकर ऐसा दुष्प्रचार किया जाता है कि पशुबलि हिंदू धर्म की अनिवार्यता है तो उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता। जब खास होली के दिन कुछ लोग जानबूझकर बुर्राक सफ़ेद कपड़े पहन कर तमंचे लेकर रंग डालने वाले बच्चों को "ये हिंदू पागल हो गए हैं" कहते हुए धमकाते हैं तब पूरा समुदाय बदनाम होता है और तब भी जब दीवाली के दिन पर्यावरण की और गंगा दशहरा के दिन जल-प्रदूषण की बढ़-चढ़कर चिंता की जाती है। जब अबू कासिम और याक़ूब मेमन जैसे आतंकियों के जनाज़े में मजहब के नाम पर लाखों की भीड़ जुटती है तो वह कुछ और ही कहानी कहती है। जब कश्मीर में AK-47 चला रहे आतंकवादियों को आड़ देने के लिए बुर्काधारी महिलायें ढाल बनकर चल रही होती हैं या जब लाखों पंडितों के पुश्तैनी घरों के दरवाज़े पर एक तारीख चस्पा करके कहा जाता है कि - धर, इस दिन के बाद यहाँ रहे तो ज़िंदा नहीं रहोगे और एक प्राचीन राज्य के मूल निवासी समुदाय को अपने ही देश में शरणार्थी बनकर भटकना पड़ता है - तब इस्लाम बदनाम होता है। अफ़सोस कि इस्लाम के अनुयाइयों की ओर से  ऐसे गंदे काम करने वाले हैवानों का स्पष्ट विरोध किये जाने के बजाय उनके कृत्यों को हर बार अमरीकी-यहूदी (और अब तो हिन्दू भी) साजिश बताया जाता है। आतंक के ख़िलाफ़ मुसलमानों द्वारा दबी ढकी ज़ुबाँ में कुछ सुगबुगाहट, कवितायें आदि तो मिलती हैं मगर करारा और स्पष्ट विरोध कतई नहीं दिखता है। बल्कि ऐसे हर कुकृत्य के बाद जब लश्कर-ए-तोएबा से लेकर अल कायदा और हिज़्बुल-मुजाहिदीन होते हुए बोको हराम तक सभी इस्लामिक आतंकी संगठनों के कुकर्मों का दोष अमेरिका और इसराएल पर डालने का प्रोपेगेंडा किया जाता है तब आतंक का इस्लाम से संबंध कमजोर नहीं होता बल्कि उसकी कड़ियाँ स्पष्ट होने लगती हैं।

आतंकवाद और धर्म की बात चलने पर एक और पक्ष अक्सर छिपा रह जाता है। जिस प्रकार किसी देश, धर्म, जाति या संप्रदाय मेँ सब लोग अच्छे नहीँ होते उसी प्रकार सब देश, धर्म, जाति, संविधान, विचारधारायें, या संप्रदाय अच्छे और सहिष्णु हों ही यह ज़रूरी नहीं। एक खराब इंसान का इलाज अच्छे संविधान, प्रशासन, कानून या अन्य वैकल्पिक सामाजिक तंत्र से किया जा सकता है। लेकिन यदि कोई तंत्र ही आधा-अधूरा असहिष्णु या असंतुलित हो तो स्थिति बड़ी खतरनाक हो जाती है। क्योंकि उस तंत्र के अंतर्गत पाये गए उदार और बुद्धिमान लोग विद्रोही मानकर उड़ा दिये जाते हैं और कट्टर, कायर, हिंसक, अल्पबुद्धि, असहिष्णु रोबोट उसके योगक्षेम और प्रसार-प्रचार का साधन बनते हैं। जब लोग एक बुरे देश, धर्म, जाति या संप्रदाय की बात करते हैं तो उनका संकेत अक्सर इस नियंत्रणवादी असंतुलन की ओर ही होता है जो अपने से अलग दिखने वाली हर संस्कृति के प्रति असहिष्णु होता है और उसे नष्ट करना अपना उद्देश्य समझता है।

ऐसी स्थिति में जमिअत-उल-उलमा-ए-हिंद, मुंबई के मौलाना मंज़र हसन खाँ अशरफी मिसबही, केरल के नदवातउल मुजाहिदीन आदि की पहल पर भारत में जारी ताज़े फतवे एक स्वागतयोग्य पहल हैं। भारत में पहले भी इस प्रकार के फतवे सामने आए हैं लेकिन इससे आगे बढ़कर आतंकवाद के मसले पर संसारभर को  एकमत होकर दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की आवश्यकता है।
संबन्धित कड़ियाँ
* माओवादी नक्सली हिंसा हिंसा न भवति
* मुम्बई - आतंक के बाद

Saturday, October 17, 2015

अंगूठाटेक हस्ताक्षर की भाषा - हिन्दी विमर्श

भारत वैविध्य से भरा देश है। अन्य विविधताओं के साथ-साथ यहाँ भाषाई व लिपिक विविधता भी प्रचुर है। विभिन्न भाषाओं के सक्रियतावादी अपने-अपने उद्देश्यों के लिए समय-समय पर बहुत से काम करते रहते हैं। तमिलनाडु में हिन्दी के नामपट्टों पर कालिख पोतने का आंदोलन भी एक समय में फैशन में रहा था, यद्यपि आज उसका कोई जनाधार नहीं है। अपनी-अपनी भाषा या बोली को संविधान में राष्ट्रीय भाषा के रूप में या अपने राज्य की एक राज्यभाषा के रूप में मान्यता दिलाने के आंदोलन भी चलते रहते हैं। इसी प्रकार कई सरकारी कार्यालय हिन्दी पखवाड़े में हिन्दी हस्ताक्षर अभियान भी चलाते हैं।

सं. रा. अमेरिका के निधि-सचिव जेकब जोसेफ ल्यू के आधिकारिक हस्ताक्षर 
हस्ताक्षर या दस्तख़त किसी व्यक्ति द्वारा किसी विशिष्ट शैली में बनाई हुई प्रामाणिक पहचान और आशय का प्रतीक है। यह उसका लिखा हुआ नाम, उपनाम, चिह्न, प्रतीक, रेखाचित्र या कुछ भी हो सकता हैं। किसी प्रपत्र पर किया हस्ताक्षर उस प्रपत्र को प्रमाणिक बनाता है। हस्ताक्षर किसी भी ज्ञात या अज्ञात लिपि में किया जा सकता है। यदि व्यक्ति हस्ताक्षर करने में सक्षम न हो तो अंगूठे का निशान लगाने के विकल्प को वैश्विक स्वीकृति है।

प्राचीन काल में भारतीय समाज में मुद्रिका चिह्न लगाने की प्रथा थी। आज भी कितने राजकीय, न्यायिक व शैक्षिक दस्तावेजों में मुद्रिका (seal) का प्रयोग होता है जो किसी भी लिपि, शब्द, संकेत, चिह्न, चित्र या कला या इनके संयोजन से बने हुए हो सकते हैं। कम आधिकारिक महत्व के कागजों पर किए जाने वाले हस्ताक्षर के लघु रूप को मज़ाक में हम लोग चिड़िया उड़ाना कहते थे।

आधिकारिक प्रपत्र पर किए जाने वाले हस्ताक्षर के साथ साथ हस्ताक्षरकर्ता का पूरा नाम, पद आदि भी अक्सर प्रपत्र में प्रयुक्त लिपि में लिखा जाता है, यद्यपि ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। हस्ताक्षर के अलावा पहले कागज पर एम्बोसिंग का प्रयोग भी होता था। फिर हाल-फिलहाल तक रबर स्टेम्प का भी काफी प्रचालन रहा। जापान में छोटे और सामान्यतः गोलाकार मुद्रिकाओं का प्रयोग आज भी होता है जिन्हें लोग साथ लेकर चलते हैं और हस्ताक्षर की जगह प्रयोग में लाते हैं।

भारत में लंबे समय तक बैंक की नौकरी में अन्य अधिकारियों की तरह मुझे भी अपने हस्ताक्षरों के अधीन बहुत से आधिकारिक लेन-देन निबटाने पड़ते थे। ये कागज बैंक की हजारों शाखाओं और कार्यालयों में जाते थे, कई बार बैंक की परिधि के बाहर देश-विदेश स्थित अन्य बैंकों, ग्राहकों और न्यायालय आदि में भी प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे। हस्ताक्षर की प्रामाणिकता के लिए सक्षम अधिकारियों के हस्ताक्षर का एक नमूना लेकर उसे एक विशिष्ट कूट संख्या देकर सभी शाखाओं को उपलब्ध कराया जाता था और न्यायिक वाद की स्थिति में उसी मूल नमूने से पहचान कराकर सत्यापन होता था। धोखाधड़ी आदि के कितने ही मामलों की जाँच इसी आधार पर निर्णीत हुई हैं कि हस्ताक्षर बैंक में सुरक्शित रखे गए नमूने से मिलते हैं या नहीं। इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि प्रपत्र किस भाषा या लिपि में लिखित या टंकित है। हस्ताक्षर को बिलकुल वैसा ही होना चाहिए जैसा कि नमूने में अंकित हो।

एक जापानी हस्ताक्षर इंका 
दिल्ली की एक विशालकाय शाखा में जब मैं हिन्दी या अङ्ग्रेज़ी में बने डिमांड ड्राफ्ट बनाता था तो उनपर भी अपने प्रामाणिक हस्ताक्षर ही अंकित करता था क्योंकि भाषा या लिपि (या अपने मूड, आलस या सनक) के हिसाब से हस्ताक्षर बदले नहीं जा सकते। ऐसा करना न केवल उनकी प्रामाणिकता को नष्ट करता बल्कि अफरा-तफरी का माहौल भी पैदा करता क्योंकि यह डिमांड ड्राफ्ट जिस शाखा में भी भुनाने के लिए प्रस्तुत होता वहाँ उसकी प्रामाणिकता का सत्यापन जारीकर्ता के हस्ताक्षरों की उस शाखा में सुरक्षित रखे आधिकारिक प्रति से मिलान करके ही किया जाता। बैंक अधिकारी ही नहीं, बैंक के ग्राहकों के लिए भी यही नियम लागू रहे हैं। ये संभव है कि ग्राहक अपना चेक आदि देवनागरी, रोमन या किसी अन्य मान्यता प्राप्त लिपि या भाषा में तैयार करें लेकिन उस पर उनका हस्ताक्षर नमूने के हस्ताक्षर जैसा ही होना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर बैंक-कर्म से संबन्धित परक्राम्य लिखत अधिनियम (नेगोशिएबल इन्स्ट्रूमेंट एक्ट = Negotiable Instrument Act) को भी मैंने सदा एकरूप हस्ताक्षरों के पक्ष में ही पाया है।

कंप्यूटर युग ने हस्ताक्षर को एक और कूटरूप प्रदान किया है जो आपके कंप्यूटर के पहचान अंक, आपका ईमेल पता या संख्याओं या अक्षरों का ऐसा कोई संयोग हो सकता है जिसे केवल आप ही जान सकें। किसी इलेक्ट्रोनिक करार पर हस्ताक्षर करने के बजाय आपको अपनी जन्मतिथि, पिनकोड संख्या और मकान नंबर को एक ही क्रम में लिखने को कहा जा सकता है। इस नए आंकिक या गणितीय हस्ताक्षर को डिजिटल या इलेक्ट्रोनिक सिग्नेचर कहा जाता है।

अंगूठा टेकने से लेकर, राजमुद्रा तक होते हुए आंकिक कूटचिह्न तक पहुँची इस यात्रा में, समझने की बात इतनी ही है कि हस्ताक्षर का उद्देश्य किसी भाषा या लिपि का प्रचार या विरोध नहीं बल्कि एक कानूनी पहचान का सत्यापन मात्र है। यह लिपि से स्वतंत्र एक प्रतीक चिह्न है। नाम किसी लिपि (भाषा नहीं,लिपि) में लिखा जाता है, हस्ताक्षर को ऐसी बाध्यता नहीं है। हस्ताक्षर का उद्देश्य अभिव्यक्ति नहीं, पहचान और आशय की स्थापना या/और सत्यापन है। व्याकरण, लिपि या भाषा का विषय नहीं विधिक विषय है और बुद्धिमता इसे वहीं रहने देने में ही है।

Saturday, October 10, 2015

तुम और हम - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

तुम खूब रहे हम खूब रहे
तुम पार हुए हम डूब रहे

अपना न मुरीद रहा कोई
पर तुम सबके मतलूब रहे

तुम धूप हिमाल शुमाल की
हम शामे-आबे-जुनूब रहे

दोज़ख की आग तपाती हमें
और तुम फ़िरदौसी खूब रहे

हमसे पहचान हुई न मगर
तुम दुश्मन के महबूब रहे

शब्दार्थ:
मतलूब = वांछनीय, मनवांछित; हिमाल = हिमालय; शुमाल = उत्तर दिशा; आब = जल, सागर;
शाम = संध्या; जुनूब = दक्षिण दिशा; दोज़ख = नर्क; दुश्मन = शत्रु;
महबूब = प्रिय; फ़िरदौसी = फिरदौस (स्वर्ग) का निवासी = स्वर्गलोक का आनंद उठाता हुआ

Monday, September 14, 2015

श और ष का अंतर


हिन्दी दिवस पर बधाई और मंगलकामनायें !
भारतीय भाषाओं में कुछ ध्वनियाँ ऐसी हैं जिनके आंचलिक उच्चारण कालांतर में मूल से छिटक गए हैं। कुछ समय के साथ लुप्तप्राय हो गए, कुछ बहस का मुद्दा बने और कुछ मिलती-जुलती ध्वनि के भ्रम में फंस गए। उच्चारण के विषय में इस प्रकार की दुविधा को देखते हुए इस ब्लॉग पर तीन आलेख पहले लिखे जा चुके हैं (अ से ज्ञ तक, लिपियाँ और कमियाँ, और उच्चारण ऋ का)। आज हिन्दी दिवस पर इसी शृंखला में एक और बड़े भ्रम पर बात करना स्वाभाविक ही है। यह भ्रम है श और ष के बीच का।

भारतीय वाक् में ध्वनियों को जिस प्रकार मुखस्थान या बोलने की सुविधा के हिसाब से बांटा गया है उससे इस विषय में किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए परंतु हमारे हिन्दी शिक्षण में जिस प्रकार वैज्ञानिकता के अभाव के साथ-साथ तथाकथित विद्वानों द्वारा परंपरा के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता है उससे ऐसे भ्रम पैदा होना और बढ़ना लाज़मी है।

आरंभ "श" से करते हैं। श की ध्वनि सरल है। आमतौर पर विभिन्न भाषाओं में और भाषाओं से इतर आप श (SH) जैसी जो ध्वनि बोलते सुनते हैं वह श है। यदि आज तक आप श और ष को एक जैसे ही बोलते रहे हैं तो यक़ीन मानिए आप श की ध्वनि को एकदम सही बोलते रहे हैं, अलबत्ता ष का कबाड़ा ज़रूर करते रहे हैं। ओंठों को खोलकर, दंतपंक्तियों को निकट लाकर, या चिपकाकर, जीभ आगे की ओर करके हवा मुँह से बाहर फेंकते हुये श आराम से कहा जा सकता है। श बोलते समय जीभ का स्थान स से थोड़ा सा ऊपर है। वस्तुतः यह एक तालव्य ध्वनि है और इसके बोलने का तरीका तालव्य व्यंजनों (चवर्ग) जैसा ही है। इसमें कुछ विशेष नहीं है।

अब आते हैं ष पर। जहाँ श तालव्य है, ष एक मूर्धन्य ध्वनि है। कई शब्दों में आम वक्ता द्वारा "श" जैसे बोलने के अलावा कुछ भाषाई क्षेत्रों में इसे "ख" जैसे भी बोला जाता है। अगर स और श से तुलना करें तो ष बोलने के लिए जीभ की स्थिति श से भी ऊपर होती है। बात आसान करने के लिए यहाँ मैं बाहर से आई एक ध्वनि को भी इस वर्णक्रम के बीच में जोड़ कर इन सभी ध्वनियों को जीभ की स्थिति नीचे से उठकर उत्तरोत्तर ऊपर होते जाने के क्रम में रख रहा हूँ

स (s) => श (sh) => ज़ (z) => ष (?)

कहते समय क्षैतिज (दंत्य) रहा जीभ का ऊपरी सिरा कहने तक लगभग ऊर्ध्वाधर (मूर्धन्य) हो जाता है। इन दोनों ध्वनियों के बीच की तालव्य ध्वनि आती है। शब्दों में के प्रयोग का त्वरित अवलोकन इसे और सरल कर सकता है। आइये ऐसे कुछ शब्दों पर नज़र डालें जिनमें का प्रयोग हुआ है -

विष्णु, जिष्णु, षण्मुख, दूषण, ऋषि, षड, षडयंत्र, षोडशी, षडानन, षट्‌कोण, चतुष्कोण, झष, श्रेष्ठ, कोष्ठ, पुष्कर, कृषि, आकर्षण, कष्ट, चेष्टा, राष्ट्र, संघर्ष, ज्योतिष, धनिष्ठा, निरामिष, पोषण, शोषण, भाषा, परिषद, विशेष

संस्कृत वाक् में ध्वनियों को सहज बनाने का प्रयास तो है ही, उनके मामूली अंतर को भी प्रयोग के आधार पर चिन्हित किया गया है। यद्यपि उपरोक्त अधिकांश शब्दों में ष को श से प्रतिस्थापित करना आसान है लेकिन आरंभ के शब्दों में यदि आप यह प्रतिस्थापन करेंगे तो आप शब्द को प्रवाह से नहीं बोल सकते। यदि अंतर अभी भी स्पष्ट नहीं हुआ है तो निम्न दो शब्दों को प्रवाह से बोलकर देखिये और उनमें आने वाली SH की ध्वनि (और जिह्वा की स्थिति) के अंतर को पकड़िए -

विष्णु और विश्नु या विष्णु और विश्ड़ु

मूर्धन्य स्वर ऋ तथा मूर्धन्य व्यंजनों र, ट, ठ, ड, ढ, ण के साथ ‘ष’ की उपस्थिति सहज और स्वाभाविक है। ण के साथ तो ष का चोली-दामन का साथ है। इसके अतिरिक्त अवसरानुकूल अन्य वर्गों के वर्णों (उपरोक्त उदाहरणों में क, घ, त आदि) के साथ भी प्रयुक्त किया जा सकता है। एक बार फिर एक सरल सूत्र -
स - दंत्य
श - तालव्य
ष - मूर्धन्य

क्या भाषा/लिपि पढ़ाते समय इन ध्वनियों को अंत में एक साथ समूहित करने के बजाय संबन्धित व्यंजनों के साथ पढ़ाया जाना चाहिए ताकि गलतियों को रोका जा सके? 
* हिन्दी, देवनागरी भाषा, उच्चारण, लिपि, व्याकरण विमर्श *
अ से ज्ञ तक
लिपियाँ और कमियाँ
उच्चारण ऋ का
लोगो नहीं, लोगों
श और ष का अंतर

Monday, August 24, 2015

सोशल मीडिया पर मेरे प्रयोग

अंतर्जाल पर अपनी उपस्थिति के बारे में मैं आरंभ से ही बहुत सजग रहा हूँ। बरेली ब्लॉग और पिटरेडियो (Pitt Radio) के अरसे बाद 2008 में शुरू किए इस ब्लॉग "बर्ग वार्ता" पर भी स्मार्ट इंडियन (Smart Indian) के छद्मनाम से ही आया। उद्देश्य परिचय छिपाने का नहीं था बल्कि नाम की इश्तिहारी पर्चियाँ उड़ाने से बचने का था। जिसे अधिक जानकारी की इच्छा और आवश्यकता होती उससे कुछ छिपाने की ज़रूरत मैंने कभी महसूस नहीं की, लेकिन खबरों में रहने की कोई इच्छा भी कभी नहीं थी। कालांतर में विचार करने पर ऐसा लगा कि इस हिन्दी चिट्ठास्थल पर अपना नाम और परिचय सामने रखना ही मेरे पाठकों के हित में है।

व्यवहार से संकोची व्यक्ति हूँ। भीड़ जुटाने या खबरों में रहने का कभी शौक नहीं रहा। यत्र-तत्र तैरते-उतराते मठों और उनके महंतो से मेरा कोई लेना-देना नहीं था तो भी कुछ आशंकित मठाधीशों ने शायद मुझे विपक्षी मानकर जो दूरी बनाई वह मेरे जैसे रिजर्व प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए लाभप्रद ही सिद्ध हुई। किसी से जुड़ने, न जुड़ने के प्रति "तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वमनुपश्यतः" वाली धारणा चलती रही लेकिन समय गुजरने के साथ एक से बढ़कर एक मित्र मिले और अपनी हैसियत से कहीं अधिक ही प्रेम मिला। बेशक, एकाध लोग मेरी स्पष्टवादिता से खफा भी हुए, लेकिन यह तय है कि वे लोग जिस प्रकार किसी को पहले शत्रु बनाकर, फिर उन्हें व्यूह में बुलाकर, घेरकर मारने में लगे थे, वैसा कोई काम मैंने न कभी किया, न ही उसे समर्थन दिया। कमजोर अस्थाई अवरोधों से बाधित हुए बिना मेरी हिन्दी ब्लॉगिंग लेखन, वाचन, पठन-पाठन के साथ निर्विघ्न चलती रही। इस ब्लॉग के अतिरिक्त सामूहिक ब्लॉगों में निरामिष और रेडियो प्लेबैक इंडिया (जो पहले हिंदयुग्म पर आवाज़ के नाम से चल रहा था) पर सर्वाधिक सक्रियता रही। हाल के दिनों में भारत मननशाला द्वारा कुछ काम की बातें सामने रखने का भी प्रयास किया जो कि मित्रों की और अपनी दुनियादारी के झमेलों के कारण अभी तक शैशवावस्था में ही रहा।

आज तो हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्पणी मॉडरेशन आम हो चुका है लेकिन मैंने हिन्दी ब्लॉगिंग के पहले दिन से ही मॉडरेशन लागू कर दिया था। ब्लॉगिंग के आरंभिक दिनों में बहुत से लोग मॉडरेशन लगाने के कारण खफा हुए। एक संपादक जी ने तो यह भी कहा कि मॉडरेशन से उन्हें ऐसा लगता है जैसे किसी ने घर बुलाकर दरवाजा बंद कर दिया हो। लेकिन मेरा दृष्टिकोण ऐसा नहीं था। मेरा दरवाजा सदा खुला था, बस इतनी निगरानी थी कि कोई अवैध या जनहित-विरोधी वस्तु वहाँ न छोड़ी जाये। और यह बात मैंने अपने टिप्पणी बॉक्स पर स्पष्ट शब्दों में लिखी थी। अपने ब्लॉग के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि वहाँ कोई क्या छोडकर जाता है उसे जनता के सामने प्रकाशित होने से पहले हम जाँचें और समाज के लिए हानिप्रद बातों को अवांछित समझकर हटाएँ।

सूचना प्रोद्योगिकी, कंप्यूटर, और डिजिटल जगत लंबे समय से मेरी रोज़ी होने के कारण उसकी अद्यतन जानकारी भी मेरे लिए महत्वपूर्ण विषय था और वहाँ व्यावसायिक उपस्थिति भी थी। लेकिन पुरानी कहावत, "मजहब उत्ता ही पालना चाहिए जित्ते में नफा अपना और नुकसान पराया हो" का अनुसरण करते हुए सेकंड लाइफ, ट्विटर आदि से जल्दी ही सन्यास ले लिया। ख़ानाबदोश ब्राह्मणों के साधारण परिवार की पृष्ठभूमि होने के कारण देश-विदेश में बिखरे परिजनों से जुड़े रहने के लिए ऑर्कुट ठीकठाक युक्ति थी, सो चलती रही। समय के साथ कुछ साथी ब्लॉगर भी मित्र-सूची में जुडते गए। गूगल द्वारा ऑर्कुट की हत्या किए जाने से पहले ही जब फेसबुक ने उसे मृतप्राय कर दिया तो अपन भी फेसबुक पर सक्रिय हो गए।
  
पिछले साल तक मैं अपनी फेसबुक फ्रेंडलिस्ट के प्रति बहुत सजग था। जहाँ मेरे कई मित्र 5,000 का शिखर छू रहे थे वहीं 200 के अंदर सिमटा मैं फेसबुक पर केवल अपने परिजनों, सहकर्मियों और मित्रों से संपर्क बनाए रखने के लिए यहाँ था। मेरी मित्र-सूची में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिसकी वास्तविकता से मैं परिचित न होऊँ। अधिकांश (99%) मित्रों से मेरी फोन-वार्ता या साक्षात्कार हो चुका था। हिन्दी ब्लॉग जगत के अधिकांश मठाधीशों का मुझसे कोई संपर्क नहीं था, मुझे तो उनसे जुड़ने की क्या आकांक्षा होती। ज़्यादातर से, 'कैसे कह दूँ के मुलाक़ात नहीं होती है, रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है' वाला संबंध था। सो वे किसी तीसरे की वाल पर आमने-सामने पड़ जाने के बावजूद अपने-अपने गुटों में सीमित रहकर मुझसे अलग ही रहे।

मेरी सूची में घूघूती-बासूती अकेली ऐसी व्यक्ति हैं जिन्हें मैंने पूर्ण अपरिचित होते हुए भी, उनका वास्तविक चित्र देखे बिना, उनका नाम तक पता न होते हुए भी खुद मैत्री अनुरोध भेजा। नारीवाद जैसे कुछ विषयों पर हमारे अनुभव, पृष्ठभूमि और निष्कर्ष आदि में अंतर होते हुए भी समस्त हिन्दी ब्लोगिंग में अगर कोई एक व्यक्ति विचारधारा में मुझे अपने सबसे निकट दिखा तो ये वे ही थीं। जानने वालों से भी अक्सर बचकर निकलने वाले किसी व्यक्ति के लिए किसी को जाने बिना इतना विश्वसनीय समझना सुनने में शायद अजीब लगे, लेकिन मेरे लिए यह भी सामान्य सी बात है।

किसी अन्जान व्यक्ति से मैत्री-अनुरोध आने पर मैंने कभी उनके स्टेटस/व्यवसाय/शिक्षा आदि पर ध्यान न देकर केवल इतना देखा कि समाज और मानवता के प्रति उनका दृष्टिकोण कैसा है। फिर पिछले दो वर्षों में वह समय आया जब उनमें से भी कुछ लोग अपनी खब्त के आधार पर कम करने शुरू किए। कई सिर्फ इसलिए गए क्योंकि वे अपने को ज़ोर-शोर से जिस उद्देश्य के लिए लड़ने वाला बताते थे उसी उद्देश्य का गला घोंटने वालों के कुकर्मों पर न केवल चुप थे बल्कि उनके साथ हाथ में हाथ डाले घूम रहे थे। तड़ीपार की कुछ क्रिया दूसरी ओर से भी हुई, खासकर नियंत्रणवादी विचारधाराओं के ऐसे प्रचारक जो अपनी असलियत बलपूर्वक छिपाए रखते हैं, मेरे साथ संवाद नहीं रख सके। व्हाट्सऐप पर आए मेसेजों को ब्लॉग पर चेप-चेपकर नवलखी साहित्यकार बने एक व्यक्ति द्वारा एक जाति-विशेष के विरुद्ध विषवमन करने पर जब मैंने उससे एक प्रश्न किया तो उसने अपने कुकृत्य की ज़िम्मेदारी किसी और पर डाली, कुछ बहाने बनाए फिर वे बहाने गलत साबित किए जाने पर वह पोस्ट तो हटा ली लेकिन तड़ से मुझे ब्लॉक कर दिया। अच्छी बात ये हुई कि उस दिन के बाद उसने अपने ब्लॉग से वे लघुकथाएँ हटा दीं जिनका अन्यत्र स्वामित्व स्पष्ट था और कॉपीराइट की चोरी सिद्ध होने में कोई शंका नहीं थी। फेसबुक वाल से हटीं या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। कुछ लोगों को मैंने भी ब्लॉक किया है लेकिन उसका कारण कोई व्यक्तिगत परिवाद नहीं है। ऐसे किसी भी व्यक्ति से फेसबुक पर मेरा संवाद नहीं रहा है। बस उनके मन की स्थायी कड़वाहट पढ़-पढ़्कर मेरे मन में कभी खीझ उत्पन्न न हो इसीलिए उनसे बचना ही श्रेयस्कर समझा। इसके अलावा कुछ अन्य मित्रों का सूची से हटना ऐसा रहस्य है जहाँ न मुझे उन्हें हटाना याद है, न उन्हें मुझे हटाना। लंबे समय बाद जब हमारी मुलाक़ात हुई तो पता लगा कि एक दूसरे की सूची में नहीं हैं। अब मुझे लगता है कि शायद हम फेसबुक पर कभी मित्र रहे ही नहीं होंगे, और हमें ऑर्कुट की दोस्ती की वजह से यह गलतफहमी हुई होगी।

ऐसे मुक्तहस्त और उदार मित्र भी मिले जिन्होंने मित्रसूची से बाहर होने के बाद फिर से मैत्री अनुरोध भेजे और मैं अपनी भूल स्वीकारते हुए उनसे फिर जुड़ा। 2014 के अंत में जब बहुतेरे पाँच-हजारी हर तीसरे दिन "ऐसा किया तो लिस्ट से बाहर कर दूंगा/दूँगी", "कभी लाइक/कमेन्ट नहीं करते तो फ्रेंडशिप क्यों?" और "आज मैंने अपनी सूची इतनी हल्की की" के स्टेटस लगाने में व्यस्त थे, मैंने तय किया कि समय देकर पेंडिंग पड़े मित्रता अनुरोधों का अध्ययन करके उन सभी को स्वीकृत कर लूँगा जो किसी भी प्रकार का द्वेष फैलाने में नहीं जुटे हुए हैं। मित्र सूची में 'रिस्टरिक्टेड' विकल्प प्रदान करके फेसबुक ने यह काम और आसान कर दिया। मेरे नव वर्ष संकल्प का एक भाग यह भी था कि अंतर्जाल पर अक्सर सामने पड़ते रहे उन सभी लोगों को मित्रता अनुरोध भेजूँगा जो अपनी किसी भी सार्वजनिक या गुप्त गतिविधि के कारण मेरी अवांछित व्यक्ति (persona non grata) सूची में नहीं हैं।

आरंभ उन लोगों से करने की सोची जिन्हें मैंने ही यह सोचकर अनफ्रेंड किया था कि जिनसे व्यक्तिगत परिचय नहीं, मित्र-सूची में होने न होने से संवाद में कोई अंतर नहीं, वे मेरे पोस्ट्स पढ़कर मित्र सूची के बाहर रहते हुए भी कमेन्ट कर सकते हैं और मैं उनकी पोस्ट्स पर। सुखद आश्चर्य की बात है कि उनमें से अनेक तक मेरा निवेदन पहुँच भी न सका क्योंकि वे अभी भी फेसबुक की मित्र सीमा से आगे थे। उसके बाद उन लोगों का नंबर आया जिनसे किसी को कोई शिकायत नहीं, लेकिन मेरी उनसे मैत्री या परिचय का अब तक कोई मौका नहीं पड़ा। उन्हें शायद मेरे बारे में जानकारी न हो लेकिन मैंने कभी न कभी उन्हें पढ़ा, सुना हो। इनमें भी बहुत से अपनी मित्र-सीमा के कारण निवेदन पा न सके। जिन तक निवेदन पहुँचे उनमें से कुछ कई महीने बाद आज भी पेंडिंग हैं लेकिन अधिकांश की सूची में जुडने पर मुझे गर्व है। जो महान साहित्यकार मेरे निवेदन के बाद कट-पेस्ट कवियित्रियों से लेकर निश्चित-फेक सुकन्याओं के निवेदन लगातार स्वीकारते हुए भी मेरा निवेदन लंबित रखे रहे उन्हें कष्ट से बचाने के लिए मैं ही पीछे लौट आया। मैं अपनी सूची में अपने जैसे विश्वसनीय लोगों को ही रखना चाहता हूँ। और फेक-प्रोफाइल की खूबसूरती देखते ही निवेदन स्वीकार करना मेरी नज़र में उन साहित्यकारों की विश्वसनीयता भी कम करता है।

मैंने अभी भी मित्र निवेदन भेजना रोका नहीं है, और साथ ही आए हुए निवेदन स्वीकार कर रहा हूँ। दुविधा तब आती है जब निवेदक के प्रोफाइल पर चित्र, नाम, पता या कोई भी जानकारी सामने नहीं होती है। कई रिक्वेस्ट शायद ऐसी भी हैं जहाँ यूजर ने बिना देखे ही फेसबुक को अपनी कांटेक्ट लिस्ट में उपस्थित हर व्यक्ति को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने का विकल्प चुना होता है। ब्लॉगिंग के ऐसे साथी जो फेसबुक पर मेरे मित्र नहीं बने, कभी मेरे ब्लॉग पर नहीं आए, जब लिंक्डइन नेटवर्क पर मैत्री-निवेदन भेजते हैं तो अचंभा होता है।

खैर, ये थी मेरी सोशल मीडिया दास्ताँ। नए जमाने की नई दोस्ती के ये दौर चलते रहेंगे। मेरी दास्ताँ मेरे सोचने के तरीके से प्रभावित है। आपकी दास्ताँ आपके व्यक्तित्व की एक खिड़की खोलती है। मेरा अनुरोध यही है कि जब किसी व्यक्ति को मैत्री अनुरोध भेजें तो अपना संक्षिप्त परिचय भी भेज दें ताकि उन्हें स्वीकारने/अस्वीकारने में आसानी हो जाये। और जो लोग केवल अपना आभामंडल बढ़ाने के लिए निवेदन भेजते/स्वीकारते हैं, उन्हें याद रहे कि सूर्य को भी ग्रहण लगता है, वे तो अभी ठीक से चाँद-मियाँ भी नहीं हो पाये हैं। कभी-कभी अपने भक्तों की वाल पर भी झांक लें तो उनकी चाँदनी कम नहीं हो जाएगी।