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Sunday, June 12, 2011

मेरे मन के द्वार - चित्रावली


दीनदयाल के द्वार न जात सो और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
श्री जदुनाथ से जाके हितू सो तिपन क्यों कन माँगत डोलै॥
~ भक्त नरोत्तमदास (1493-1545)

भारत, जापान, कैनैडा व अमेरिका से कुछ चुने हुए द्वार

पेंसिलवेनिया राज्य में व्रज मन्दिर का द्वार 

वृन्दावन धाम के एक मन्दिर का द्वार

वृन्दावन धाम

वृन्दावन धाम

उत्तरी अमेरिका से एक द्वार

हिम-धूसरित केम्ब्रिज में एक द्वार 

जापान में एक तोरी (तोरण द्वार) 

जापान के एक मन्दिर का द्वार

कमाकुरा के विशाल बुद्ध मन्दिर का सिंहद्वार

तोक्यो नगर में एक मन्दिर का द्वार 

बोस्टन का एक द्वार

स्वर्णिम द्वार

द्वार-युग्म

कब्रिस्तान - काल का द्वार

एक अनाथ द्वार

मोंट्रीयल का एक ऐतिहासिक द्वार

Dataganj-Budaun-India
मेरे गाँव का एक द्वार

India Gate -  इंडिया गेट
मेरे देश का एक गौरवमय द्वार

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

Wednesday, May 25, 2011

मोड़ी (मुड़िया लिपि) - एक मृतप्राय लिपि?

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फरवरी 2011 में रतलाम के माणक चौक विद्यालय की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 1847 से 1947 तक के 101 वर्ष की पुस्तक प्रदर्शनी एवम् अन्य समारोह किये गये। उसी दौरान विद्यालय के पुस्तकालय में जब विष्णु बैरागी जी को देवनागरी और गुजराती से मिलती-जुलती लिपि में लिखी एक दुर्लभ सी पुस्तक दिखाई दी तो उन्होंने नगर के वृद्धजनों की सहायता मांगी। गुजरातियों ने उस भाषा/लिपि के गुजराती होने से इनकार कर दिया और मराठी भाषा के जानकारों ने उसके मराठी होने को नकार दिया। तब विष्णु जी ने उस पुस्तक के दो पृष्ठ स्थानीय अखबार में छपवाने के साथ-साथ अपने ब्लॉग पर भी रख दिये। "यह कौन सी भाषा है" नामक प्रविष्टि में उन्होंने हिन्दी ब्लॉगजगत से इस बारे में जानकारी मांगी।

एक नज़र देखने पर मुझे इतना अन्दाज़ तो हो गया कि यह देवनागरी की ही कोई भगिनी है। बल्कि लिपि देवनागरी से इतना मिल रही थी कि थोडा सा ध्यान देते ही कुछ शब्द यथा "वचनसार" और "भाग तीसरा" पढने में भी आ गये। एक स्थान पर मुम्बई समझ में आया तो इतना तय सा लगने लगा कि भाषा तो हिन्दी या मराठी ही है। इतने शब्द समझ आने पर आगे का काम कुछ और आसान हुआ। कुछ और स्वतंत्र शब्दों पर दृष्टिपात करने पर एक शब्द और समझ आया "कींमत" म से पहले की बिन्दी ने यह विश्वास दिला दिया कि भाषा मराठी ही थी। अभी तक मैं नागरी के दो सीमित रूपांतरों के बीच में अटका हुआ था - कायथी और मोड़ी। एक राजकीय कामकाज की लिपि थी जोकि मुख्यतः कायस्थ जाति में प्रचलन में रही थी और दूसरी मोड़ी या मुड़िया जिसे हम अज्ञानवश वणिक वर्ग की लिपि समझते रहे थे। मैंने अपने परनानाजी द्वारा बम्बैया फॉंट की देवनागरी में लिखी हिन्दी तो देखी थी परंतु मोड़ी या कायथी का कोई उदाहरण मेरी आँख से नहीं गुज़रा था।

मोड़ी और कायथी की खोज के लिये जब इंटरनैट खोजना चालू किया तो यह तय हो गया कि है तो यह मोड़ी ही। इस जानकारी के बाद काम और आसान हो गया। इंटरनैट पर मोड़ी के अंक, स्वर और व्यंजन तो मिले परंतु मात्रायें नहीं थीं। ऊपर से मराठी मेरी मातृभाषा नहीं है। और फिर वह पुस्तक भी सवा सौ वर्ष से अधिक पुरानी थी। तब भाषा का स्वरूप भी भिन्न हो सकता है। इस समय तक मेरे पास इतनी जानकारी इकट्ठी हो चुकी थी कि मैं अपने सहृदय मराठीभाषी मित्र श्री हर्षद भट्टे को तकलीफ दे सकता था। रात के 11 बजे थे। पिट्सबर्ग के निवासी हम दोनों ही पिट्सबर्ग से बाहर सुदूर विभिन्न राज्यों में थे। मैंने सारे लिंक उन्हें भेजे और हम दोनों अपने अपने फोन, कम्प्यूटर, कागज़, कलम आदि लेकर काम पर जुट गये।

आरम्भ किया लेखक के नाम से तो सामान्य बुद्धि, क्रमसंचय और संयोग के सूत्र जोडकर शब्द मिलाते-मिलाते एक ब्रिटिश पुस्तकालय की सूची से इतना पता लगा कि मोड़ी लिपि सिखाने के लिये मोड़ी वचनसार नाम की पुस्तक शृंखला लिखी गयी थी। लेखक का कुलनाम "पोद्दार" हमें पता लग चुका था परंतु उनके जिस दत्तनाम को हम लोग वयतिदेव समझ रहे थे वह वसुदेव निकला। इसके बाद तो पुस्तक के उन पृष्ठों में जितने वाक्य पूरे दिखे, हमने सारे पढ़ डाले और रात के एक बजे एक दूसरे को शुभरात्रि कहकर फोन रखा। जानकारी विष्णु जी तक पहुँचा दी।

मोड़ी क्या है और अब कहाँ है?

भारतीय ज्ञान और साहित्य की परम्परा मुख्यतः श्रौत रही है फिर भी ज्ञान को लिखे जाने के विवरण हैं। खरोष्ठी, ब्राह्मी आदि से आधुनिक भारतीय लिपियों तक की यात्रा सचमुच बहुत रोचक और उतार-चढ़ाव भरी रही है। लिपियों को उन्नत करने का काम दो स्तरों पर चलता रहा। मुख्य स्तर तो लिपि को विस्तृत करके उसे भाषा के यथासम्भव निकट लाने का श्रमसाध्य काम रहा। अधिकांश भारतीय लिपियों के आपसी अंतर और अब अप्रचलित अधिकांश लिपियों की सीमायें इस वृहत कार्य के साक्षी हैं। दूसरा स्तर लेखन के माध्यम पर निर्भर रहा। यहाँ नयी लिपियाँ शायद कम जन्मीं, परंतु स्थापित लिपियों में प्रयोगानुकूल परिवर्तन हुए। उदाहरण के लिए कील से बन्धे ताड़पत्रों पर लिखी जाने वाली ग्रंथ, मलयालम या उडिया लिपि में अक्षरों की गोलाई इसका एक उदाहरण है। इसके विपरीत शिलालेख और सिक्कों की लिपियाँ अक्सर सीधी रेखाओं और स्वतंत्र अक्षरों का प्रदर्शन करती हैं। तिब्बती लिपि और उड़िया लिपि के अक्षरों के अंतर इन लिपियों के माध्यमों के अंतर को भी उजागर करते हैं।

प्राचीन काल में जब लिपियों का प्रयोग मुख्यतः धार्मिक और शासकीय कार्यों के लिये हुआ तब पत्थरों पर राजाज्ञायें लिखते समय की लिपियाँ उस कार्य के उपयुक्त रही हैं। सिक्के, ताम्रपत्र या अन्य धातुओं जैसे कड़े माध्यमों की लिपियाँ उस प्रकार की रहीं। लेकिन कागज़-कलम का प्रयोग आरम्भ होने के बाद लेखन कभी भी कहीं भी तेज़ गति से किया जा सकता था। दुनिया भर में कातिब/पत्र लेखक जैसे नये व्यवसाय सामने आये। तब लिपियों के कुछ ऐसे रूपांतर हुए जिनमें गतिमान लेखन किया जा सके। इन प्रकारों को एक प्रकार से शॉर्टहैंड का पूर्ववर्ती भी कहा जा सकता है। लेखन के घसीट (कर्सिव) तरीके से एक लेखक अपनी कलम कागज़ से हटाये बिना तेज़ काम कर सकता था। नस्तालिक़/खते शिकस्ता, काइथी/कैथी और मोड़ी/मुड़िया लिपि इसी प्रकार की लिपियाँ थीं।

मोड़ी में देवनागरी से विशेष अंतर तो नहीं है। लगभग वही अक्षर और लगभग सभी स्वर। कुछ मात्राओं में लघु व दीर्घ का अंतर नहीं है। मात्राओं के रूप में यह परिवर्तन भी केवल इस कारण है कि कलम उठाये बिना वाक्य पूर्ण हो सके। कोई नुक़्ता नहीं, कोई खुली हुई मात्रा या अर्धाक्षर नहीं। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके लेखक और पाठक को देवनागरी का ज्ञान होना अपेक्षित था क्योंकि मोड़ी की सीमाओं में जो कुछ लिखना सम्भव नहीं था उसके लिये देवनागरी का प्रयोग खुलकर होता था जैसा कि मोड़ी वचन सार के मुखपृष्ठ से ही ज़ाहिर है। माना जाता है कि सन् 1600 से 1950 तक मोड़ी ही मराठी की प्रचलित लिपि रही। टाइपराइटर, शॉर्टहैंड, छापेखाने आदि साधनों के आगमन से ही कर्सिव लिपियों के पतन का काल आरम्भ हो गया था और अब कम्प्यूटर के युग में शायद इन लिपियों का भविष्य संग्रहालयों और लिपि/भाषा-विशेषज्ञों के हाथों में सुरक्षित है।

स्पष्टीकरण
टिप्पणियाँ पढने के बाद इस लिपि के बारे में कुछ और स्पष्टीकरण देना ज़रूरी हो गया है अन्यथा कुछ भ्रम बने रह जायेंगे।
1. मात्रायें मोड़ी लिपि का अभिन्न अंग हैं।
2. मोड़ी और महाजनी दो अलग लिपियाँ हैं। महाजनी राजस्थान से पंजाब तक प्रचलित थी जबकि मोड़ी लिपि राजस्थान से महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि तक।
3. मोड़ी लिपि केवल व्यापार या मुनीमी तक सीमित नहीं थी। मध्य-पश्चिम भारत में राजस्थान से महाराष्ट्र तक इसका प्रयोग हर क्षेत्र में होता था। मराठा साम्राज्य का बहुत सा पत्र-व्यवहार इस लिपि में है। सन 1950 तक मराठी की अधिकांश पुस्तकें मोड़ी में लिखी गयी थीं।
4. यह कूटलिपि नहीं है। इसका उद्देश्य गुप्त हिसाब-किताब या कूट संदेश नहीं था।
5. यह ऐसी संक्षिप्त लिपि भी नहीं है जैसी कि इंटरनैट चैट में प्रयुक्त होती है। हर शब्द देवनागरी जैसे ही लिखा जाता है।
6. मानक देवनागरी की तुलना में मोड़ी लिपि में लेखन अपेक्षाकृत गतिमान है परंतु लिपि की सीमायें हैं।
7. भारत के विभिन्न पुस्तकालयों और धार्मिक केन्द्रों जैसे श्रवणवेळगोला में मोड़ी लिपि के उदाहरण उपलब्ध हैं।
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* श्री मोडी वैभव
* मोड़ी - विकिपीडिया
* यह कौन सी भाषा है (विष्णु बैरागी)
* मोड़ी लिपि का इतिहास (मराठी में)
* मोड़ी = जल्दी में लिखी हुई अस्पष्ट लिपि
* श्री केशवदास अभिलेखागार
* Modi script - Wikipedia
* Modi alphabet - Omniglot
* माणकचौक विद्यालय की पुस्तक प्रदर्शनी में मोड़ी पुस्तकें
* राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ (प्रेम कुमार)

Saturday, May 7, 2011

पुष्पाहार - बुरांश का शर्बत कैसे बनता है?

नेपाल के राष्ट्रीय चिह्न में बुरांश 
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फलाहार का नाम तो हम सब ने सुना होगा। भारतीय उपवास पद्धति में सात्विक भोजन और उस पर भी फलाहार का विशेष महत्व है। फलाहार से एक कदम आगे पुष्पाहार भारत की पुरानी पाककला का एक भूला-बिसरा सा भाग है। गोभी के फूल तो शायद हम सभी ने खाये होंगे मगर बचपन में बरेली, बदायूँ, रामपुर में मैंने सेमल (सेमरगुल्ले) और करौन्दे के फूल भी बहुत खाये हैं। रुहेलखंड में तोरई, कद्दू, लौकी आदि के फूलों की सब्ज़ी भी बनती है। पश्चिम में भी विशेषकर इटैलियन खाने में पुष्पाहार अभी भी शामिल है जबकि भारत में पुष्पाहार के नाम पर शायद गुलकन्द या केतकी का रस (केवडा) जैसे खाद्य पदार्थ ही बचे होंगे।

निवास के बाहर लाल अज़लीया
आजकल भले ही गुड, घी और आंवला के मिश्रण को चयवनप्राश बताकर बेचा जा रहा हो, प्राचीन ग्रंथों में च्यवन ऋषि की प्रेरणा से किये जाने वाले कायाकल्प-व्रत (पुष्प-द्वितीया व्रत) में एक वर्ष तक केवल पुष्पाहार करने का विधान है। भारतीय परम्परा की बात हो और नियम-विनियम बीच में न आयें, यह कैसे हो सकता है? विभिन्न देवताओं को कौन से पुष्प चढाये जा सकते हैं और कौन से निषिद्ध हैं इसका ही पूरा विधान है तो फिर खाद्य-अखाद्य पुष्पों का विधान तो होना ही है। अभिप्राय यह कि खाद्य-कुसुम का भी एक विभाग है।

नीला बुरांश
1400 मीटर से अधिक ऊंचे स्थानों में पाये जाने वाले सुन्दर पुष्पों में से बुरुंश या बुरांश भी एक है जिसे नेपाली में गुरांस, अंग्रेज़ी में रोडोडेंड्रोन (Rhododendron) और एज़लीया (azalea) भी कहते हैं। सन 2006 में बनाये गये नेपाल के नये राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न में लाली गुरांस को स्थान मिला है। बुरंश 3300 मीटर की ऊंचाई तक आराम से पाया जाता है। रोडोडैंड्रोन की इस "लाली गुरांस" प्रजाति का बॉटैनिकल नाम रोडोडैंड्रोन आर्बोरियम (Rhododendron arboreum) है।

इस ब्लॉग पर पहले आयी टिप्पणियों और अन्य ब्लॉग पर हिमालयी क्षेत्रों के लोगों द्वारा बुरांश के शर्बत का सन्दर्भ बार-बार आया है। मैंने काफी प्रयास किया कि किसी को सताये बिना ही अंतर्जाल पर बुरांश के शर्बत की प्रमाणिक विधि ढूंढी जा सके मगर असफल रहा।

हाँ, अंतर्जाल पर ही बुरांश की चाय की विधि मिली है - शायद यही बुरांश का शर्बत हो। जो है आपके सामने है:

बुरांश के फूल (30 ग्राम) को चीनी (50 ग्राम) में मिलाकर एक दिन के लिये रख दीजिये। फिर रोज़ उसमें से लगभग 10 ग्राम का मिश्रण लेकर खौलते पानी में करीब 15 मिनट तक पकाइये। चाय की तरह पीजिये और चुक जाने पर नया मिश्रण तैयार कर लीजिये। (स्रोत: lonlu.com)

रोडोडैंड्रोन सदर्न इंडिका और मैं
मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अंतर्जाल पर बागवानी के विभिन्न अंग्रेज़ी सन्दर्भों में बुरांश की झाडी के प्रत्येक भाग को विषैला बताया गया है। वैसे विषैला तो केसर भी होता है परंतु भोजन में उसकी मात्रा इतनी कम होती है कि विष का असर शायद अनुभव योग्य नहीं होता। रोज़मर्रा प्रयोग होने वाले सेब के बीज भी विषैले होते हैं मगर वे खाये नहीं जाते हैं। परंतु बुरांश के विषैले होने की जानकारी ने मुझे थोडा सा विचलित किया है। सोच रहा हूँ कि बुरांश को विषैला समझना क्या पश्चिमी जगत का अज्ञान है या कहीं ऐसा तो नहीं कि फूलों को छोडकर बाकी झाडी विषैली हो। या फिर यह उत्साहवर्धक पेय सचमुच हल्की मात्रा में नशीला हो। वैसे भारत में ऐसे लोग अभी भी काफी हैं जो चाय कॉफी आदि को भी व्यसन मानते हैं। क्या बुरांश का शर्बत भी ऐसे व्यसन या फिर ठंडाई की श्रेणी में आता है? या फिर केवल हिमालय की लाल फूलों वाली प्रजाति (Rhododendron arboreum) ही विषहीन है? कई सवाल हैं परंतु मुझे आशा है कि आप में से कई लोगों के पास इन प्रश्नों के सम्पूर्ण या आंशिक उत्तर अवश्य होंगे। तो आइये और मेरा ज्ञानवर्धन कीजिये। अग्रिम धन्यवाद!

और हाँ, मदर्स डे की बधाई!
[जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी]
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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुरुंश के फूल
* बोनसाई बनाएं - क्विक ट्यूटोरियल
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उपसंहार
खोजते-खोजते इतना पता चल पाया है कि यह सारी जानकारी अभी भी विरोधाभासी है। एक तरफ इंटरनैट पर रोडोडेंड्रॉन शहद खुलेआम बिक रहा है दूसरी ओर उपलब्ध जानकारी के अनुसार रोडोडेंड्रॉन की समस्त प्रजातियाँ ज़हरीली होती हैं और उसके पुष्प से बना शहद भी।

* रोडोडैंड्रॉन शहद यहाँ बिक रहा है

* इनके अनुसार रोडोडैंड्रॉन का शहद ऐंटिऑक्सिडैंट होता है

* रोडोडेंड्रॉन की समस्त प्रजातियाँ ज़हरीली हैं। इसकी पत्तियों का ज़हरीला रस खटमल मारने के लिये प्रयुक्त होता है। इनके पुष्प भी अधिक मात्रा में लेने पर नशा या विष का प्रभाव उत्पन्न करते हैं। (स्रोत: प्लांट्स फॉर अ फ्यूचर) शायद शर्बत/चाय में कम मात्रा में लेने से उतना असर नहीं होता होगा।

* रोडोडेंड्रोन के पुष्परस से बने शहद में ग्रेयानोटोक्सिन (Grayanotoxin) नामक विष होने की सम्भावना रहती है जिसके सेवन से होने वाली बीमारी को "मैड" हनी डिज़ीज़ कहा गया है। तुर्की और ऑस्ट्रिया में 1980 के दशक में यह बीमारी देखी गयी थी और इसके सम्भावित प्रभावित क्षेत्रों की सूची में नेपाल का नाम भी दिया है। (स्रोत: "मैड" हनी डिज़ीज़)

* संक्रमक आतंकवाद - ऐटलांटिक मंथली, मई 1991 का एक अंग्रेज़ी आलेख

* ६ अप्रैल वर्ष 2010 के इस समाचार के अनुसार भारत तिब्बत सीमा सीमा पुलिस बटालियन ४ के जन कार्यवाही योजना की पहल एवं सहयोग एवं अन्य निजी व सरकारी संस्थाओं के सहयोग से अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के सक्प्रेट ग्राम में बुरांश पुष्प के रस, जम आदि का सहकारी कारखाना स्थापित किया गया है।


... और अंततः
निम्न लिंक स्पष्ट रूप से कहा रहा है कि जहां विश्व के अधिकाँश रोडोडेंड्रॉन विषैले होते हैं वहीँ हिमालय के लाल पुष्प वाली प्रजाति (बुरुंश, बुरांश, लाली गुरांस, रोडोडैंड्रोन आर्बोरियम, या Rhododendron arboreum) भोज्य होती है। मुझे लगता है कि इस कड़ी के साथ इस खोज को संपन्न समझा जाए।

* Keys to India - Rhododendron Yum

इसी बीच नेपाल से श्री प्रेम बल्लभ पांडे जी ने लाली गुराँस के फूलों के चित्र ईमेल से भेजने की कृपा की। मैं उनका आभारी हूँ। आप सभी के सहयोग और जानकारी के लिए धन्यवाद।

Monday, April 4, 2011

नव सम्वत्सर शुभ हो!

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कमाल का राष्ट्र है अपना भारत। ब्राह्मी से नागरी तक की यात्रा में पैशाची आदि न जाने कितनी ही लिपियाँ लुप्त हो गयीं। आश्चर्य नहीं कि आज भारतभूमि तो क्या विश्व भर में कोई विद्वान सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की मुहरों को निर्कूट नहीं कर सके हैं। हड़प्पा की लिपि तो बहुत दूर (कुछ सहस्र वर्ष) की बात है, एक महीना पहले जब विष्णु बैरागी जी ने "यह कौन सी भाषा है" पूछा था तो ब्लॉग-जगत की विद्वत्परिषद बगलें झाँक रही थी। जबकि वह भाषा मराठी आज भी प्रचलित है और वह लिपि मोड़ी भी 40 वर्ष पहले तक प्रचलित थी।

आज भले ही हम गले तक आलस्य, लोभ और भ्रष्टाचार में डूबे पड़े हों, एक समय ऐसा था कि हमारे विचारक मानव-मात्र के जीवन को बेहतर बनाने में जुटे हुए थे। लम्बे अध्ययन और प्रयोगों के बाद भारतीय विद्वानों ने ऐसी दशाधारित अंक (0-9) पद्धति की खोज की जो आज तक सारे विश्व में चल रही है। भले ही अरबी-फारसी दायें से बायें लिखी जाती हों, परंतु अंक वहाँ भी हमारे ही हैं, हमारे ही तरीके से लिखे जाते हैं, और हिंदसे कहलाते हैं।

जब धरा के दूसरे भागों में लोग नाक पोंछना भी नहीं जानते थे भारत में नई-नई लिपियाँ जन्म ले रही थीं, और कमी पाने पर सुधारी भी जा रही थीं। निश्चित है कि उनमें से अनेक अल्पकालीन/अस्थाई थीं और शीघ्र ही काल के गाल में समाने वाली थीं। आश्चर्य की बात यह है कि नई और बेहतर लिपियाँ आने के बाद भी अनेकों पुरानी लिपियाँ आज भी चल रही हैं, भले ही उनके क्षेत्र सीमित हो गये हों।

भारत की यह विविधता केवल लेखन-क्रांति में ही दृष्टिगोचर होती हो, ऐसा नहीं है, कालगणना के क्षेत्र में भी हम लाजवाब हैं। लिपियों की तरह ही कालचक्र पर भी प्राचीन भारत में बहुत काम हुआ है। जितने पंचांग, पंजिका, कलैंडर, नववर्ष आपको अकेले भारत में मिल जायेंगे, उतने शायद बाकी विश्व को मिलाकर भी न हों। भाई साहब ने भारतीय/हिन्दू नववर्ष की शुभकामना दी तो मुझे याद आया कि अभी दीवाली पर ही तो उन्होंने ग्रिगेरियन कलैंडर को धकिया कर हमें "साल मुबारक" कहा था।

आज आरम्भ होने वाला विक्रमी सम्वत नेपाल का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे ही जैसे "शक शालिवाहन" भारत का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे तमिलनाडु के हिन्दू अपना नया साल सौर पंचांग के हिसाब से तमिल पुत्तण्डु, विशु पुण्यकालम के रूप में या थईपुसम के दिन मनाते हैं। इसी प्रकार जैन सम्वत्सर दीपावली को आरम्भ होती है। सिख समुदाय परम्परागत रूप से विक्रम सम्वत को मानते थे परंतु अब वे सम्मिलित पर्वों के अतिरिक्त अन्य सभी दैनन्दिन प्रयोग के लिये कैनैडा में निर्मित नानकशाही कलैंडर को मानने लगे हैं। युगादि का महत्व अन्य सभी नववर्षों से अधिक इसलिये माना जाता है क्योंकि आज ही के दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि-सृजन किया था, ऐसी मान्यता है।

आज का दिन देश के विभिन्न भागों में गुड़ी पडवो, युगादि, उगादि, चेइराओबा (चाही होउबा), चैत्रादि, चेती-चाँद, बोहाग बिहू, नव संवत्सर आदि के नाम से जाना जाता है। यद्यपि उत्सव का दिन प्रचलित सम्वत और उसके आधार (सूर्य/शक/मेष संक्रांति या चन्द्रमा/सम्वत/चैत्र शुक्ल प्रतिपदा या दोनों) पर इधर-उधर हो जाता है। भारत और नेपाल में शक और विक्रमी सम्वत के अतिरिक्त भी कई पंचांग प्रचलित हैं। आज के दिन पंचांग और वर्षफल सुनने का परम्परागत महत्व रहा है। मुझे तो आज सुबह अमृतवेला में काम पर निकलना था वर्ना हमारे घर में आज के दिन विभिन्न रसों को मिलाकर बनाई गई "युगादि पच्चड़ी" खाने की परम्परा है।
हर भारतीय संवत्सर का एक नाम होता है और उस कालक्षेत्र का एक-एक राजा और मंत्री भी। संवत्सर के पहले दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र संवत्सर का राजा होता है और वैसाखी के दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र मंत्री होता है।
यही नव वर्ष गुजरात के अधिकांश क्षेत्रों में दीपावली के अगले दिन बलि प्रतिपदा (कार्तिकादि) के दिन आरम्भ होगा। जबकि काठियावाड़ के कुछ क्षेत्रों में आषाढ़ादि नववर्ष भी होगा। सौर वर्ष का नव वर्ष वैशाख संक्रांति (बैसाखी) के अनुसार मनाया जाता है और यह 14 अप्रैल 2011 को होगा। नव वर्ष का यह वैसाख संक्रांति उत्सव उत्तराखंड में बिखोती, बंगाल में पोइला बैसाख, पंजाब में बैसाखी, उडीसा में विशुवा संक्रांति, केरल में विशु, असम में बिहु और तमिलनाडु में थइ पुसम के नाम से मनाया जाता है। श्रीलंका, जावा, सुमात्रा तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कम्बोडिआ, लाओस, थाईलैंड में भी संक्रांति को नववर्ष का उल्लास रहता है। वहाँ यह पारम्परिक नव वर्ष सोंग्रन या सोंक्रान के नाम से आरम्भ होगा।        

भारतीय सम्वत्सर साठ वर्ष के चक्र में बन्धे हैं और इस तरह विक्रम सम्वत के हर नये वर्ष का अपना एक ऐसा नाम होता है जो कि साठ वर्ष बाद ही दोहराया जाता है। साठ वर्ष का चक्र ब्रह्मा,विष्णु और महेश देवताओं के नाम से तीन बीस-वर्षीय विभागों में बँटा है। दक्षिण भारत (तेलुगु/कन्नड/तमिल) वर्ष के हिसाब से इस संवत का नाम खर है। जबकि आज आरम्भ होने वाला विक्रम सम्वत्सर उत्तर भारत में क्रोधी नाम है। (उत्तर भारत के विक्रम संवतसर के नाम के लिये अमित शर्मा जी का धन्यवाद)

अनंतकाल से अब तक बने पंचांगों के विकास में विश्व के श्रेष्ठतम मनीषियों की बुद्धि लगी है। युगादि उत्सव अवश्य मनाइये परंतु साथ ही यदि अन्य भारतीय (सम्भव हो तो विदेशी भी) मनीषियों द्वारा मानवता के उत्थान में लगाये गये श्रम को पूर्ण आदर दे सकें तो हम सच्चे भारतीय बन सकेंगे। अपना वर्ष हर्षोल्लास से मनाइये परंतु कृपया दूसरे उत्सवों की हेठी न कीजिये।

आप सभी को सप्तर्षि 5087, कलयुग 5113, शक शालिवाहन 1933, विक्रमी 2068 क्रोधी/खरनामसंवत्सर की मंगलकामनायें!

साठ संवत्सर नाम

१. प्रभव
२. विभव
३. शुक्ल
४. प्रमुदित
५. प्रजापति
६. अग्निरस
७. श्रीमुख
८. भव
९. युवा
१०. धाता
११. ईश्वर
१२. बहुधान्य
१३. प्रमादी
१४. विक्रम
१५. विशु
१६. चित्रभानु
१७. स्वभानु
१८. तारण
१९. पार्थिव
२०. व्यय

२१. सर्वजित
२२. सर्वधर
२३. विरोधी
२४. विकृत
२५. खर
२६. नंदन
२७. विजय
२८. जय
२९. मन्मत्थ
३०. दुर्मुख
३१. हेवलम्बी
३२. विलम्ब
३३. विकारी
३४. सर्वरी
३५. प्लव
३६. शुभकृत
३७. शोभन
३८. क्रोधी
३९. विश्ववसु
४०. प्रभव

४१. प्लवंग
४२. कीलक
४३. सौम्य
४४. साधारण
४५. विरोधिकृत
४६. परिद्व
४७. प्रमादिच
४८. आनंद
४९. राक्षस
५०. अनल
५१. पिंगल
५२. कलायुक्त
५३. सिद्धार्थी
५४. रौद्र
५५. दुर्मथ
५६. दुन्दुभी
५७.रुधिरोदगारी
५८.रक्ताक्षी
५९. क्रोधन
६०. अक्षय
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* भारतीय काल गणना
* वर्ष और संवत्सर
* खरनाम सम्वत्सर पंचांग ऑनलाइन
* राष्ट्रीय नववर्ष - श्री शालिवाहन शक सम्वत 1933

Saturday, March 26, 2011

शिक्षा और ईमानदारी

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पहले सोचा था कि आज लखनऊ विकास प्राधिकरण में ईमानदारी के साथ मेरे प्रयोग के बारे में लिखूंगा परंतु फिर पांडेय जी की पोस्ट
डिसऑनेस्टतम समय – क्या कर सकते हैं हम? पर भारतीय नागरिक की टिप्पणी पर ध्यान चला गया। इसमें और बातों के साथ एक विचारणीय मुद्दा शिक्षा का भी था:

"हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं."

हम सभी अमूमन यह मानते हैं कि स्कूली शिक्षा हमें बुराइयों से बाहर निकालेगी। भारतीय नागरिक का अनुभव ऐसा नहीं लगता। मेरा अनुभव तो निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। देश के प्रशासन में बेईमानी इस तरह रमी हुई है कि इससे गुज़रे बिना एक आम भारतीय का जीना असम्भव सा ही लगता है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी पढे लिखे लोगों पर ही है। अगर शिक्षा ईमानदार बनाती तो यह शिक्षित वर्ग रोज़ ईमानदारी के नये उदाहरण सामने रख रहा होता और बेईमानी हमारे लिये विचार-विमर्श का विषय नहीं होती। कई लोग कहते हैं कि देश की जडें काटने का काम पढे लिखे लोगों ने सबसे अधिक किया है। अपने निहित स्वार्थ और सत्ता, पद और धन की लोलुपता के लिये देश का बंटवारा करके अलग पाकिस्तान बनाने की हिमायत करने वाले अनपढ लोग नहीं बल्कि बडे-बडे बैरिस्टर, शिक्षाविद, और साहित्यकार आदि थे। बस मैं गवर्नर-जनरल बन जाऊँ, चाहे इसके लिये मुझे "सारे जहाँ से अच्छा" वतन काटना पडे और इस विभाजन में चाहे दसियों लाख लोगों को अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पडे। केवल स्कूली शिक्षा इस आसुरी विचार को काबू नहीं कर सकती है।

कुछ स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा भले ही जोड दी गयी हो मगर "जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है..." का शायराना विचार वास्तविक जीवन में चलता नहीं है। बच्चे बडों को देखकर सीखते हैं। जब तक हम बडे मनसः वाचः कर्मणः ईमानदार होने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम यह मूल्य अपने बच्चों तक नहीं पहुँचा सकते हैं। "कैसे कैसे शिक्षक" में मैने "तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना" वाले शिक्षक का उदाहरण दिया था। उन्हीं के एक सहकर्मी थे एमकेऐस। भावुकहृदय कवि, चित्रकार, अभिनेता और अध्यापक। मैने इन कलाकार को अपने एक मित्र से कहते सुना, "एक नागरिक के रूप में मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरा बेटा ईमानदार बने परंतु एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ कि दुनिया उसे ईमानदारी से जीने नहीं देगी इसलिये मैं उसे दुनियादारी (बेईमानी?) सिखाता हूँ। एक और अध्यापक जी अपने वेतन के बारे में शिकायत करते हुए कह रहे थे, "उन्होने हमें पैसे नहीं दिये, हमने उन्हें संस्कार नहीं दिये।" ये शिक्षक अपने छात्रों (और बच्चों) को डंके की चोट पर बेईमानी सिखा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में से ऐसे लोगों की छँटाई की गहन आवश्यकता है।

अक्टूबर 2010 में टाटा समूह ने अमेरिका के प्रतिष्ठित हारवर्ड बिज़नैस स्कूल को पाँच करोड डॉलर (225 करोड रुपये) दान किये। ज़रा सोचिये कि इतने पैसे से गरीबी रेखा के नीचे रह रहे कितने भारतीयों की किस्मत बदली जा सकती थी। उनसे पहले इसी संस्था को महिन्द्रा समूह भी एक बडा दान दे चुका था। हारवर्ड की तरह ही एक और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, येल। 1861 में अमेरिका की पहली पीऐचडी सनद येल विश्वविद्यालय ने ही दी थी। 1718 में येल कॉलेज का नामकरण हुआ था इसके सबसे बडे दानदाता (500 पौंड) ईलाइहू येल के नाम पर। ईलाइहू येल भारत (मद्रास) में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर था। अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों की तरह येल भी सिर से पैर तक भ्रष्ट था। उसके समय में मद्रास में बच्चों की चोरी और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने की समस्या अचानक से बढ गयी थी। वैसे तो ईस्ट इंडिया कम्पनी में भ्रष्टाचार को पूरी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी लेकिन येल इतना भ्रष्ट थी कि भ्रष्ट कम्पनी ने भी उसे भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से निकाल दिया।

जिन्होने श्रीसूक्त पढा होगा वे लक्ष्मी और अलक्ष्मी शब्दों से परिचित होंगे। धन अच्छा या बुरा होता है। मगर शिक्षा? ईशोपनिषद का वाक्य है:

अन्धंतमः प्रविशंति येविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः

अविद्या के उपासक तो घोर अन्धकार में जाते ही हैं, विद्या के उपासक उससे भी गहरे अन्धकार में जाते हैं।

ईमानदारी किसी स्कूल में पढाई नहीं जाती, हालांकि पढाई जानी चाहिये। गुरुर्देवो भव: से पहले यह मातृदेव और पितृदेव की भी ज़िम्मेदारी है। ईमानदारी सृजन की, उत्पादन की, सक्षमता की बात है न कि कामचोरी, सीनाज़ोरी, पराक्रमण, कब्ज़ेदारी, या गुंडागर्दी की। हम जो काम करें उसमें अपना सर्वस्व लगायें, बिना यह गिने कि बदले में क्या मिला। जितना पाया, उससे अधिक देने की इच्छा ईमानदारी है न कि "जितना पैसा उतना (या कम) काम" की बात। भारतीय नागरिक की बात पर वापस आयें तो दैनन्दिन जीवन में लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठे बिना ईमानदार होना असम्भव नहीं तो कठिन सा तो है ही। दुर्भाग्य से आज शिक्षा भी एक व्यवसाय बन गयी है जिसमें अंततः लाभ की बात आ ही जाती है। जहाँ लाभ सामने है वहाँ लोभ भी पीछे नहीं रहता। फिर शिक्षा ईमानदारी कैसे बरते और कैसे सिखाये? धन के बिना संस्थान चल नहीं सकता और धन का प्रश्न हटाये बिना ईमानदारी कैसे आयेगी? यही मुख्य प्रश्न है। हम सब को इसके बारे में सोचना है कि ईमानदारी एक आर्थिक मुद्दा है या व्यवहारिक? मेरी नज़र में ऐसी समस्यायें अति-आदर्शवाद से पैदा होती हैं जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं। जनजीवन में ईमानदारी लानी है तो इस अव्यवहारिकता से निपटना होगा। मुद्दा काफी स्थान मांगता है इसलिये अभी इतना ही कहकर आगे कहीं विस्तार देने का प्रयास करूंगा। इस विषय पर आपके विचारों का सदा स्वागत है।

अरविन्द मिश्र जी ने मेरी एक पिछली पोस्ट में टिप्पणी करते हुए कहा,

ईमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं! क्या सरकारी सेवा में रहकर ज्ञानदत्त जी खुद की ईमानदारी का स्व-सार्टीफिकेट दे सकते हैं - यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति ..... इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो जैसा कि आपने एक दो उदहारण दिये हैं!

दंड विधान की कठोरता, निजी आचरण और व्यक्ति सापेक्षता की बात एक नज़र में ठीक लगती है। जहाँ तक ईमानदार बने रहने की मुश्किलों की बात है, यह सच है कि ईमानदारी कमज़ोरों का खेल नहीं है, बहुत दम चाहिये। किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना तो शायद अविनय हो मगर मैं इस बात से घोर असहमति रखता हूँ कि सरकारी सेवा में रहना भर ही किसी इंसान को बेईमान करने के लिये काफी है। ऐसा कर्मी यदि प्राइवेट नौकरी में हो और स्वामी लोभी हो तब? ईस्ट इंडिया कम्पनी में ईलाइहू येल? तब तो बेईमानी का बहाना और भी आसान हो जायेगा। अगर कई नौकरपेशाओं के लिये ईमानदारी एक बडी समस्या बन रही है तो इसका हल खोजने में अधिक समय, श्रम और संसाधन लगाये जाने चाहिये। मगर असम्भव कुछ भी नहीं है। इस विषय पर आगे विस्तार से बात होगी। तो भी यहाँ दोहराना चाहूंगा कि ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। ईमानदारी बडे दिल वालों का काम है, भले ही वे सरकारी नौकरी में हों या असरकारी पद पर हों।

[एक ईमानदार भारतीय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण के बेईमानों के गिरोह का सामना कैसे किया, इस बारे में फिर कभी किसी अगली कडी में।]

Sunday, January 23, 2011

यथार्थ में वापसी

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snow clad hill
दिसंबर २०१० में भारत आने से पहले मैंने बहुत कुछ सोचा था - भारत में ये करेंगे, उससे मिलेंगे, वहाँ घूमेंगे आदि. जितना सोचा था उतना सब नहीं हो सका.

पुरानी लालफीताशाही, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से फिर एकबारगी सामना हुआ. मगर भारतीय संस्कृति और संस्कार आज भी वैसे ही जीवंत दिखे. एक सभा में जब देर से पहुँचने की क्षमा मांगनी चाही तो सबने प्यार से कहा कि "बाहर से आने वाले को इंतज़ार करना पड़ता तो हमें बुरा लगता."


बर्फीली सड़कें
व्यस्तता के चलते कुछ बड़े लोगों से मुलाक़ात नहीं हो सकी मगर कुछ लोगों से आश्चर्यजनक रूप से अप्रत्याशित मुलाकातें हो गयीं. कुछ अनजान लोगों से मिलने पर वर्षों पुराने संपर्कों का पता लगा. अपने तीस साल पुराने गुरु और उनकी कैंसर विजेता पत्नी के चरण स्पर्श करने का मौक़ा मिला.
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२ अंश फहरन्हाईट
दिल्ली की गर्मजोशी भरी गुलाबी ठण्ड के बाद पिट्सबर्ग की हाड़ कंपाती सर्दी से सामना हुआ तो लगा जैसे स्वप्नलोक से सीधे यथार्थ में वापसी हो गयी हो. वापस आने के एक सप्ताह बाद आज भी मन वहीं अटका हुआ है. लगता है जैसे अमेरिका मेरे वर्तमान जीवन का यथार्थ है और भारत वह स्वप्न जिसे मैं जीना चाहता हूँ
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बर्फ का आनंद उठाते बच्चे
जिस रात दिल्ली पहुँचा था घने कोहरे के कारण दो फीट आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था और जिस शाम पिट्सबर्ग पहुँचा, हिम-तूफ़ान के कारण हवाई अड्डे से घर तक का आधे घंटे का रास्ता तीन घंटे में पूरा हुआ क्योंकि लोग अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे. मगर स्कूल बंदी होने के कारण बच्चों की मौज थी. उन्हें हिम क्रीड़ा का आनंद उठाने का इससे अच्छा अवसर कब मिलेगा?
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मिट्टी के डाइनासोर
बिटिया ने अपने पापा के स्वागत में मिट्टी के नन्हे डाइनासोर बनाकर रखे थे. बहुत सी किताबें साथ लाया हूँ. कुछ खरीदीं और कुछ उपहार में मिलीं. मित्रों और सहकर्मियों के लिए भारत से छोटे-छोटे उपहार लाया और अपने लिए लाया भारत माता का आशीर्वाद.

Tuesday, November 30, 2010

पर्दे पर भारत

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चैनल फ्लिप करते हुए एक जगह "इंडिया" देखा तो रुक गया। माथे पर लाल टीके लगाये और गले में दोशाला डाले हुए दो पुरुष एक दूसरे से पुर्तगाली भाषा में बात कर रहे थे। जब तक कुछ समझ पाता, ब्रेक हो गया और रिओ की प्रसिद्ध "क्राइस्ट द रिडीमर" मूर्ति की पृष्ठभूमि में बीडी गीत "जिगर मा बडी आग है" बजने लगा। ब्राज़ीली सहकर्मी से पूछने पर पता लगा कि भारतीय मार्ग या भारत का पथ (Caminho das Índias) नामक सीरियल ब्राज़ील का हरदिल अजीज़ टीवी सीरियल है। 19 जनवरी 2009 को पहली बार प्रसारित इस नाटक के अभिनेता ब्राज़ीली ही हैं।

भारत का पथ

अमेरिका में आजकल अंग्रेज़ी भाषा में आने वाला एक और सीरियल "आउटसोर्स्ड" भी प्रसिद्धि पा रहा है। "आउटसोर्स्ड" सीरियल से पहले इसी नाम की एक फ़िल्म भी बन चुकी है जो अधिक पहचान नहीं पा सकी थी। द लीग ऑफ एक्स्ट्राऑर्डिनैरी जैंटलमैन, नेमसेक और स्लमडॉग मिलियनेर आदि फिल्मों ने भारतीय कलाकारों के लिये अमरीकी ड्राइंगरूम का मार्ग सरल कर दिया है। किसी ज़माने में अगर किसी अंग्रेज़ी फ़िल्म में शशि कपूर दिख जाते थे तो कमाल ही लगता था।

वैसे अमेरिकी फ़िल्मों और टीवी रूपकों में यदा कदा भारतीय दिख जाते हैं परंतु आजकल एक सीरियल में अनिल कपूर और दूसरे में इरफ़ान खान नियमित दिख रहे हैं। लेकिन हमारे प्रिय भारतीय चरित्र तो फिनीयस और फर्ब वाले "बलजीत" हैं। काफी समय से आपसे उनकी मुलाकात कराने के बारे में सोच रहा था परंतु किसी न किसी कारण से रह जाता था। अगर फ़िनीयस... भारत में आता है तो सदा अपने अंकों की चिंता करने वाले बालक से शायद आप परिचित ही हों। आइये देखते हैं, उनका एक गीत...

हिमालय पर्वत से...

सन्योग से मैंने आज ही इटली के टीवी सीरिअल "सान्दोकान" में मुख्य भूमिका निभाने वाले भारतीय अभिनेता कबीर बेदी को इटली का सर्वोच्च असैनिक सम्मान "Ordine al Merito della Repubblica Italiana" दिये जाने का समाचार पढा था। बधाई!


उदय जी ने बलजीत के गीत का हिन्दी अनुवाद रखने का अनुरोध किया है. सो पहले तो मूल गीत के बोल:
Baljeet: From the mountains of the Himalayas,
To the valleys of Kashmir!
My forefathers and their four fathers
knew one thing very clear!
That to be a great success in life,
you have to make the grade!
But if I cannot build a prototype,
my dreams will be puréed!

Phineas, Ferb, and Baljeet: Puréed! Puréed!

Phineas: I know what we are going to do today!
Ferb and I are on the case!
We'll help you build your prototype,
You won't be a disgrace!

Baljeet: Good! With your mechanical inclinations,
and my scientific expertise,
we are a team that can not be beaten-

Phineas: Wait, something just occurred to me,
Where's Perry? Where's Perry?

और अब हिन्दी अनुवाद:-

बलजीत: हिमालय की चोटियों से, कश्मीर की घाटी तक
मेरे परदादे और उंसे चार पीढी पहले भी
यह बात जानते थे अच्छी तरह
कि जीवन में अति सफल होने के लिये तुम्हें अच्छे अंक लाने हैं!
किंतु यदि मैं (कक्षा में) मॉडल न बना सका
तो मेरे सपनों की चटनी बन जायेगी!

सभी: कचूमर, कचूमर!

फिनीयस: मुझे पता है क्या करना है, फर्ब और मैं काम पर लगते हैं
हम तुम्हारे लिये मॉडल बनायेंगे और तुम बदनामी से बचोगे!

बलजीत: ठीक! तुम्हारा यांत्रिक रुझान
और मेरा वैज्ञानिक कौशल,
हमारा दल अजेय है

फिनीयस: रुको, मुझे अचानक याद आया,
पैरी कहाँ है? पैरी कहाँ है?

[पैरी फिनीयस और फर्ब का पालतू चींटीखोर है जो कि दरअसल एक जासूस है]

सीक्रेट एजेंट पैरी
अरे, पैरी उन्हें कैसे मिलेगा, वह तो मेरी किताबों के बीच छिपा है।

Thursday, September 30, 2010

जय राम जी की!

रामजन्मभूमि 'विवादित स्थल' नहीं वरन रामजन्मभूमि है - न्यायालय।

Thursday, July 22, 2010

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म दिन

कोई दिन रात मरता है, शहादत कोई पाता है....

२३ जुलाई सन १९०६ - बांस की कुटिया में आज ही के दिन श्रीमती जगरानी देवी ने चन्द्र शेखर तिवारी (आज़ाद) को जन्म दिया था.

सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और सरदार भगत सिंह जैसे वीरों के आदर्श चंद्रशेखर तिवारी ने पंद्रह वर्ष की आयु में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लेकर "आज़ाद" नाम पाया था. तानाशाहों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक आज़ाद "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन" के संस्थापक सदस्य थे.


२७ फरवरी १९३१ - इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में मात्र २४ वर्ष के इस वीर ने अपनी ही गोली से प्राणोत्सर्ग करके अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक कर दिया.

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"

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एक असम्बन्धित कड़ी
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* लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान - श्रेष्ठ कवि

Saturday, June 19, 2010

माओवादी इंसान नहीं, जानवर से भी बदतर!

शीर्षक पढ़कर शायद आप कहें कि सिर्फ माओवादी या दुसरे आतंकवादी ही क्यों, इंसान को इंसान न समझने वाले, दूसरों के जीवन को दो कौड़ी से कम आंककर सारी दुनिया को मानव रक्त से लाल करने का सपना देख रहा हर वहशी जानवर से बदतर है। मगर ज़रा ठहरिये, यह शीर्षक मेरा नहीं है, यह लिया गया है "डायरी ऑव एन इंडियन" वाले अनिल रघुराज की एक ताज़ा पोस्ट से।

मैं अनिल रघुराज को जानता नहीं मगर हाल ही में मैंने उनका ब्लॉग अर्थकाम देखा था। पूंजीवाद और अर्थतंत्र में मुझे ख़ास रूचि नहीं है तो भी भूतपूर्व बैंकर होने के नाते इन चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है। मैं पूंजी निवेश पर आधारित उस ब्लॉग की शैली से प्रभावित हुए बिना न रह सका। इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसे "ज़रा हट के" वाली ब्लॉगलिस्ट में जोड़ा। पहले कभी उनकी एक कहानी भी पढी थी मगर वह सोवियत रूसी प्रचार पत्रिकाओं की उपदेशात्मक, सारहीन, बनावटी और इश्तिहारी कहानियों की याद दिलाती थी इसलिए उस पर उतना ध्यान नहीं गया।

उस पोस्ट पर एक दुखद चित्र लगाया गया है जिसमें सैनिक वर्दी में दो पुरुष निर्विकार भाव से एक महिला की लाश को लेकर जा रहे हैं। उस चित्र को देखना भी दुखद है। अगर यह चित्र चीन, उत्तर कोरिया आदि का होता तो शायद किसी को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि तानाशाहों के यहाँ तो जनता हमेशा ही सूली पर टंगी होती है परन्तु भारत के बारे में ऐसा कुछ सुनना, देखना दर्दनाक होने के साथ शर्मनाक भी है। ब्लॉग के अनुसार यह चित्र पश्चिम बंगाल का है। पश्चिम बंगाल जहाँ अत्याधुनिक चीनी हथियार और मिलिशिया से सशस्त्र एक कम्युनिस्ट दल, दशकों से सत्तारूढ़ सरकारी साधन-संपन्न दूसरे कम्युनिस्ट दल के साथ सशस्त्र संघर्ष में लिप्त है। इन दोनों कम्युनिस्ट दलों के बीच पिसते निर्दोष मासूम गरीब रोज़ अकारण ही मारे जा रहे हैं। मगर हिंसक कम्युनिस्ट संघर्षों का झंडा तो सारी दुनिया में निर्दोषों के खून से ही लाल किया गया है तो यहाँ कोई अपवाद क्यों हो?

शहरों में अपने परिवारों के साथ आराम की ज़िंदगी बिताने वाले लोग शायद उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर ही सिहर जाएँ जो माओवाद, नक्सलवाद - जहां यह चित्र खींचा गया था - और आतंकवाद के अन्य प्रकारों से प्रभावित क्षेत्रों में दिन रात घट रहे है। मुझे चित्र की घटना, स्थल, समय, परिस्थिति या स्रोत के बारे में कुछ भी निश्चित पता नहीं है इसलिए उस पर कुछ नहीं कह सकता हूँ। आपत्ति तो मुझे इस बात पर है कि जन-भावना भड़काने के उद्देश्य से उस चित्र के साथ जानबूझकर सूअर का शिकार करके डंडे पर बांधकर लाते एक सुविधा-संपन्न पश्चिमी पर्यटक स्त्री-पुरुष का पूर्णतया असम्बद्ध चित्र वहां लगाकर इन दोनों चित्रों की तुलना की गयी है।

सुदूर बीहड़ वनों में माओवादियों द्वारा ज़हरीले कर दिए गए जलस्रोतों के बीच, १२३ अंश फेहरनहाईट के तापमान में तपती टीन और पुराने तम्बुओं के नीचे कई हफ़्तों से पसीने से लिजलिजा रही वर्दी में नहाना तो दूर, दांत मांजने की विलासिता की बात सोचे बिना कई-कई रातों तक बिना सोये, अपनी छः महीने की होंठकटी बिटिया को एक बार भी देखे बिना और इस अभियान पर आने से पहले अपनी अंधी और विधवा माँ के पाँव छूए बिना चल पड़ने की बेबसी लिए जो जवान देश के किसानों और आदिवासियों की जीवनरक्षा के साथ उनकी नदियों, पुलों, सडकों, रेल पटरियों, स्कूलों और गाँवों को आधुनिक विदेशी हथियारों से लैस निर्दय तस्करों, खनिज और वन संपदा के लुटेरों, माओवादियों और दुसरे आतंकवादियों से बचाने के लिए दीवार बन कर खड़े हुए हैं उन्हें अपने कर्म का औचित्य ढूँढने के लिए किसी झूठे, किताबी, स्वार्थी, हत्यारे सत्तालोलुप या धनलोलुप, वाद की ज़रुरत नहीं है।

माओवादियों की बंदूकों से निकलती आसुरी मौत के शिकार बने लोगों के साथ पूरी सहानुभूति और दया होने के बावजूद उनके शवों को ले जाने के लिए दुर्दम्य परिस्थितियों में काम करते वे सिपाही संदर्भित ब्लॉग के लेखकों की तरह मुम्बई के किसी एसी कमरे में बैठकर महंगी विदेशी परफ्यूम से सुवासित रुमाल से अपनी नाक ढंककर स्ट्रेचर मंगवाने का इंतज़ार नहीं कर सकते हैं। उन्हें वहीं जंगल से लकडियाँ तोड़कर या जैसे भी संसाधन हों उन्हें इकट्ठा करके अपना काम करना पडेगा। जिस किसी ने भी वह चित्र लिया है और जिस ने भी अपनी-अपनी पोस्ट पर लगाया है उनसे मेरा अनुरोध है कि अपना मानवीय पक्ष दिखाएँ और लाशों की राजनीति करके शिकायत करने के बजाय एसी कमरे से बाहर निकलें और निष्ठा से अपने काम में लगे उन निर्भीक सिपाहियों के काम में हाथ बंटाएं। नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनकी कार्य-परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील हों और प्रयास करें कि ऐसी परिस्थितियां बनने ही न पायें कि मानवता को रोज़ शर्मिन्दा होना पड़े। हमें गर्व है कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और माओवादियों के कारनामों के साथ-साथ पुलिस की कमियाँ भी उजागर कर सकते हैं। भगवान् न करे माओवाद या तालेबान जैसी कोई आसुरी शक्ति अगर किसी इलाके में सफल हो गयी तो चीन, अफगानिस्तान, चेचन्या, म्यांमार और उत्तर कोरिया की तरह यहाँ भी आप न अपने ब्लॉग पर और न अपनी जुबां से इस देशसेवा का दंभ दिखा पायेंगे।

पुलिस और उस पर सत्ता रखने वाली सरकारें सही हों, यह ज़रूरी नहीं है। सत्ता का दुरुपयोग करने वालों की कमी नहीं है, खासकर तानाशाही "-वादों" वाली दम्भी सरकारों में। मगर उसका बहाना लेकर जान जोखिम में डालते सैनिकों पर बेल्ट के नीचे प्रहार करने के बहाने ढूंढना शर्मनाक है। जिन वीरों ने देशवासियों की सुरक्षा के लिए वर्दी पहनकर कफ़न बांधा है उनके भी मानवाधिकार है, यह बात अगर हम ही नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा?

संदर्भित पोस्ट पर एक मृत मानव की एक शिकार किये गए सूअर से की गयी इस असंवेदनशील तुलना से मैं उतना ही व्यथित हूँ जितना माओवाद-प्रभावित क्षेत्रों में चल रही निष्ठुर कुत्ता-घसीटी से। विडम्बना है कि हमारा लोकतंत्र अपना विचार और भावनाएं व्यक्त करने का अधिकार देता है भले ही उससे एक मृतक का और मानव जीवन का घोर अपमान हो रहा हो। चित्र में दिखाई गयी स्त्री से मुझे सहानुभूति है। ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दें। राज्य एवं केंद्र सरकार उन क्षेत्रों से अराजकता मिटाकर व्यवस्था लाये। हम लोग इंसान बनें और अपनी ब्लॉग पोस्टों या अखबारों में उसकी मृतदेह का भद्दा मज़ाक उड़ाने से बचें।

चलते चलते "दिनकर" की "परशुराम की प्रतीक्षा" से दो पंक्तियाँ

गर्दन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?

Saturday, January 2, 2010

नव वर्ष

नव वर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं!

मङ्गलम
सत्य का प्रकाश
उदारता आकर्ष

हिंसा विलुप्त
सहिष्णुता प्रकर्ष

प्रेम की विजय
लुप्तप्राय अमर्ष

बहुजन हिताय
जीवन उत्कर्ष

शोषण का नाश
इस पर विमर्श

विकसित शिक्षित
सबके हिय हर्ष

क्षुधा पिपासा शांत
संपन्न भारतवर्ष

निर्विघ्न सत्कार्य
एवमस्तु नववर्ष

(अनुराग शर्मा)

Monday, August 10, 2009

श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले

हुतात्मा खुदीराम बसु
(3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) 
कल की बात भी आज याद रह जाए, वही बड़ी बात है। फ़िर एक सौ एक साल पहले की घटना भला किसे याद रहेगी। मात्र 18 वर्ष का एक किशोर आज से ठीक 101 साल पहले अपने ही देश में अपनों की आज़ादी के लिए हँसते हुए फांसी चढ़ गया था।

आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।

तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।

मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।

पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी

सम्बंधित कड़ी: नायकत्व क्या है?

Tuesday, August 19, 2008

हमारे भारत में

कई बरस पहले की बात है, दफ्तर में इंजिनियर की एक खाली जगह के लिए इन्टरव्यू चल रहे थे। एक भारतीय नौजवान भी आया। नाम से ही पता लग गया कि उत्तर भारतीय है। उत्तर भारत में स्थित एक सर्वोच्च श्रेणी के प्रतिष्ठान् से पढा हुआ था। सो ज़हीन ही होगा।

उस दिन शहर में बारिश हो रही थी। कहते हैं कि पिट्सबर्ग में सूरज पूरे साल में सिर्फ़ १०० दिन ही निकलता है। शायद उन रोशन दिनों में से अधिकाँश में हम छुट्टी बिताने भारत में होते हैं। हमने तो यही देखा कि जब बादल नहीं होते हैं तो बर्फ गिर रही होती है। श्रीमती जी खांसने लगी हैं, लगता है थोड़ी ज्यादा ही फैंक दी हमने। लेकिन इतना तो सच है कि यहाँ बंगलोर जितनी बारिश तो हो ही जाती है।

अपना परिचय देते हुए अपने देश के उज्जवल भविष्य से हाथ मिलाने में हमें गर्व का अनुभव हुआ। हालांकि, भविष्य की बेरुखी से यह साफ़ ज़ाहिर था कि गोरों के बीच में एक भारतीय को पाकर उन्हें कुछ निराशा ही हुई थी। उन्होंने मुझे अपना नाम बताया, "ऐन-किट ***।" मुझे समझ नहीं आया कि मुझ जैसे ठेठ देसी के सामने अंकित कहने में क्या बुराई थी।

इस संक्षिप्त परिचय के बाद अपना गीला सूट झाड़ते हुए वह टीम के गोरे सदस्यों की तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में बोले, "क्या पिट्सबर्ग में कभी भी बरसात हो जाती है? हमारे इंडिया में तो बरसात का एक मौसम होता है, ये नहीं कि जब चाहा बरस गए।"

मैं चुपचाप खड़ा हुआ सोच रहा था कि पिट्सबर्ग में कितनी भी बरसात हो जाए वह सर्वाधिक वर्षा का विश्व रिकार्ड बनाने वाले भारतीय स्थान "चेरापूंजी" का मुकाबला नहीं कर सकता है। क्या हमारे पढ़े लिखे नौजवानों के "इंडिया" को कानपुर या दिल्ली तक सीमित रहना चाहिए?

Saturday, August 16, 2008

भाई बहन का त्यौहार?

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात।
आज रक्षाबंधन जैसा महत्वपूर्ण त्यौहार भाई बहन के रिश्ते तक सिमटकर रह गया है। सच ही है, वर्षों की गुलामी ने हमें दूसरों के मामलों से कन्नी काटना सिखाया है। अनेक आक्रमणों के बाद जब हमारी व्यवस्था का पतन हो गया तो देश-धर्म और संस्कृति की रक्षा जैसी चीज़ें प्रचलन से बाहर (आउट ऑफ फैशन) हो गयीं। तथाकथित वीरों की जिम्मेदारियाँ भी सिकुड़कर बहुत से बहुत अपनी बहन की रक्षा तक ही सीमित रह गयीं। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत से अंचलों में वीर शब्द का अर्थ भी सिमटकर भाई तक ही सीमित रह गया। इन बोलियों में वीरा या वीर जी आज भाई का ही पर्याय है।

संध्यावंदन (1931) से साभार  
प्राचीन काल में श्रावण पूर्णिमा के दिन यज्ञोपवीत बदलने की परम्परा थी। विशेषकर दक्षिण भारत में, आज भी बहुत से मंदिरों में सामूहिक रूप से इस परम्परा का पालन होता है। इसी दिन ब्राह्मण अपने धर्म-परायण राजा को रक्षा बांधकर विजयी होने का आशीर्वाद देते थे और राजा ब्राह्मणों को धर्म की रक्षा का वचन देता था।

बचपन में मैंने देखा था कि हमारे समुदाय में शासक के नाम की राखी कृष्ण भगवान् को बांधी जाती थी। राम जाने किस राजा के समय से यह परम्परा शुरू हुई परन्तु कभी तो ऐसा हुआ जब यथार्थ शासक को धार्मिक रूप से अमान्य कर के सिर्फ़ श्री कृष्ण को ही धर्म पालक राजा के रूप में स्वीकार किया गया। शायद किसी आतताई मुग़ल शासक के समय में या ब्रिटिश शासन में ऐसा हुआ होगा।

भविष्य पुराण के अनुसार पहली बार इन्द्र की पत्नी शची ने देवासुर संग्राम में विजय के उद्देश्य से अपने पति को रक्षा बंधन बांधा था जिसके कारण देव अजेय बने रहे थे। एक वर्ष बाद उसकी काट के लिए असुरों के विद्वान् गुरु शुक्राचार्य ने भक्त प्रहलाद के पौत्र असुरराज बलि को दाहिने हाथ में रक्षा बांधी थी। पुरोहित आज भी रक्षा या कलावा/मौली आदि बांधते समय इसी घटना को याद करते हुए निम्न मन्त्र पढ़ते है:

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल

बाकी बातें बाद में क्योंकि कुछ ही देर में मुझे एक स्थानीय रक्षा बंधन समारोह में राखी बंधाने के लिए निकलना है।

Thursday, August 14, 2008

आजादी की बधाई (मुक्त या मुफ्त)

आज का दिन हम सब के लिए गौरव का दिन है। आज के दिन ही शहीदों का खून रंग लाया था और हमारा देश वर्षों की परतंत्रता से मुक्त हुआ था। इस शुभ दिन पर आप सब को बधाई।

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि देश की आजादी के बाद जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने पहली बार स्वतंत्र भारत की सेना को संबोधित किया तब उन्होंने एक बड़ी सभा के सामने पहली बार हिन्दी में बोला।

आज़ादी के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण में हमारे स्वतंत्र देश की सेना की नयी भूमिका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने यह संदेश देना चाहा कि अब हम स्वतंत्र हैं। कहा जाता है कि अपने पहले हिन्दी भाषण में उन्होंने कहा, "आज हम सब मुफ्त हो गए हैं, मैं भी मुफ्त हूँ और आप भी मुफ्त हैं।"

स्पष्ट है कि उन्होंने अनजाने में ही अंग्रेजी के फ्री (free) का अर्थ मुक्त, आज़ाद या स्वतंत्र करने के बजाय मुफ्त कर दिया था।