Tuesday, October 29, 2013

केसर पुष्प - इस्पात नगरी से [66]

खबर आई कि केसर (Saffron, ज़ाफ़रान) की खेती की पहचान बनाने के उद्देश्य से आज 29 अक्तूबर 2013 मंगलवार को विस्सु, जम्मू-कश्मीर में राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित केसर मेला धूमधाम से शुरू हुआ है। केसर उगाने वाले किसान और बड़ी संख्या में पर्यटक भी उपस्थित थे। 

डेढ़ सौ से अधिक सुगन्धित रसायनों से भरा केसर संसार के सबसे महंगे मसालों में से एक है। इसका स्वाद मुझे कोई ख़ास पसंद नहीं लेकिन कुछ साल पहले यूँ ही मन में आया कि पिट्सबर्ग की जलवायु इसे उगाने के अनुकूल होने का लाभ उठाया जाए। बोने के लिए खोज शुरू की गयी और फिर एक ऑनलाइन स्टोर से केसर की गांठें (bulbs) मंगाई गईं।


अगस्त के महीने में थैले में बंधी हुई गाँठें आ गईं। बाहर बाग में लग भी गईं। कुछ ही दिन में उनमें घास जैसे पत्ते भी आ गए। लेकिन उस साल बहुत बर्फ  पड़ने के कारण पौधे बर्फ से ढँके रहे। चूंकि गाँठें हर वर्ष नई हो जाती हैं इसलिए केसर के फूलों की आशा को अगले वर्ष पर टाल दिया गया। लेकिन उस साल जब कुछ नहीं उगा तो अगले साल नई गाँठें लाकर उन्हें घर के अंदर गमलों में उगाया। कुछ फूल आए तो साहस बढ़ा।

 





तरह तरह के गमले, तरह तरह के फूल

सीजन पूरा होने पर मैंने गमले खाली करके गाँठों को ज़मीन में प्रतिरोपित कर दिया और भूल गया। पिछले हफ्ते यूँ ही घास के बीच नीले फूल पर नज़र गई। अरे वाह, यह तो केसर ही लग रहा है।  

एक-एक करके कुछ फूल आ गए हैं। तीन तो खिल भी चुके हैं। एक दो दिन खिलकर मुरझा जाएंगे। तब तक केसर की खुशबू और सौन्दर्य का आनंद ले रहा हूँ।


नीली पंखुड़ियों के अंदर लंबे वाले गहरे लाल तन्तु ही केसर हैं, संसार का सबसे महंगा मसाला।

    
यह प्रयोग सफल होने के बाद मैंने अधिक मात्रा में केसर कंद मंगाए और खुद लगाने के अलावा 50 से अधिक कंद व गमले में लगे पौधे अपने मित्रों, पड़ोसियों, व सहकर्मियों में बाँटे जिनमें से चार-पाँच ने उनके पुष्पित होने की सूचना भी दी। 

[आलेख व चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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* कश्मीर का केसर

Saturday, October 5, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 4]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अड़चन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने अपनी नौकरी छूटने और बीमारी के बारे में बताते हुए कहा कि उसके घर हमारे आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी। बहकी बहकी बातों के बीच वह कहती रही कि भगवान् ने उसे बताया है यहाँ गैरकानूनी ढंग से रहने पर भी उसे कोई हानि नहीं होनी है जबकि भारत के समय-क्षेत्र में प्रवेश करते ही वह मर जायेगी। उसके हित के लिए हमने भी एक खेल खेलने की सोची।
भाग १ , भाग २ , भाग ३ ; अब आगे की कथा:
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"भगवान् मेरे सामने आकर बताते हैं सारी बात?" वह आत्मविश्वास से बोली, "ठीक वैसे ही जैसे आप खड़े हैं यहाँ।"

"अच्छा! लेकिन हमें तो आज उन्होंने यह बताया कि आप उनकी बात ठीक से समझ नहीं पा रही हैं। जैसा कि आपको पता है, उन्होंने ही हमें यहाँ आकर आपकी सहायता करने को कहा है।"

"मुझे तो ऐसा कुछ बोले नहीं।"

"बोले तो थे मगर आप समझीं ही नहीं। उन्होंने आपको कई बार बताने की कोशिश की कि वीसा के लिए पुलिस द्वारा न पकड़ा जाना एक सामान्य बात है, लेकिन घर आखिर घर ही होता है। ऐसा न होता तो अपार्टमेंट मैनेजमेंट आपको निकालने का नोटिस ही क्यों भेजता? भगवान् आपको बेघर थोड़ी करना चाहेंगे।"

"आपकी बात गलत है। भगवान् ने ही इन्हें नोटिस भेजने को कहा। ये अपना अपार्टमेंट खाली करायेंगे तभी तो भगवान् मझे खुद आकर लेके जायेंगे।"

उसके आत्मविश्वास को देख मेरा माथा ठनका। खासकर खुद ले जाने की बात सुनकर। मैं जानना चाहता था कि कहीं वह कोई आत्मघाती गलती तो नहीं करने वाली। अगर उसे त्वरित मानसिक सहायता की ज़रुरत है तो उसमें देर नहीं होनी चाहिए थी।"

कैसे ले जायेंगे वे आपको?

"यहाँ से" उसने खिड़की की और इशारा करते हुए कहा।

"क्या?" मैं अवाक था, अगर यह खिड़की से कूदी तो कुछ भी नहीं बचने वाला।

"हाँ ..." मुझे खिड़की के पास ले जाकर उसने बड़े से पार्किंग लॉट के दूर के एक खंड को इंगित करके बताया कि भगवान् का विमान उसे लेने आने पर वहीं रुकेगा।

" ... यहाँ से उनका विमान आयेगा और मुझे अपने साथ ले जाएगा" वह तुनकी, "आपको विश्वास नहीं आया? आप तो कह रहे थे कि भगवान् आपसे भी बात करते हैं।"

"हाँ, बात भी करते हैं और आपको ले जाने की बात भी बताई थी। साथ ही यह भी बोले कि आपके बारे में उनके मन में एक दूसरा प्लान भी है।" मैंने भी एक पत्ता फेंका, "पूरी बात वे अगले सप्ताह तक ही बताएँगे।"

"मुझे भी उनकी बात ठीक से समझ नहीं आई थी ..." वह रुकी, फिर झिझकते हुए बोली, "मैं एमबीबीएस पीएचडी ज़रूर हूँ, लेकिन स्मार्ट बिलकुल नहीं हूँ। सीधी बात भी बड़ी देर से समझ आती है मुझे।"

"अच्छा!" मैंने  अचम्भे का अभिनय क्या, "पढाई कहाँ से की थी आपने?"

कुछ देर वहां रुककर मैंने बातों बातों में उससे उसके बारे में सारी ज़रूरी जानकारी हासिल कर ली। रूबी ने पीएचडी तो फ्रांस में की थी लेकिन भारत में उसका मेडिकल कॉलेज संयोग से वही निकला जो रोनित का था। घर आकर मैंने सबसे पहले रोनित को फोन किया। मैं रूबी को जानता हूँ और वह मेरी पड़ोसन है, यह सुनकर रोनित को आश्चर्य हुआ। उसके हिसाब से तो रूबी का केस एकदम होपलेस था। वह रोनित से सीनियर थी इसलिए उन दोनों का व्यक्तिगत परिचय तो नहीं था लेकिन रूबी की मानसिक अस्थिरता सारे कॉलेज में मशहूर थी। रोनित के अनुसार रूबी से बुरी तरह पक गए प्रबंधन और फैकल्टी का सारा जोर उसे जल्दी से जल्दी डिग्री थमाकर बाहर का रास्ता दिखाने में था। स्थिति की गंभीरता को समझकर उसने अपने कोलेज के सभी पुराने संबंधों को खड़काकर रूबी के परिवार से सम्बंधित जानकारी जल्दी ही निकालकर मुझे देने का वायदा किया। फोन रखते ही मैंने इंटरनेट खंगालना शुरू कर दिया।

उसकी नौकरी में सहायता के उद्देश्य से देर रात जब तक मैंने इंटरनेट की सहायता से उसकी प्रोफेशनल प्रोफाइल और रिज्यूमे तैयार की, रोनित का फोन आया। उसने बताया कि उसे रूबी के परिवार की पूरी जानकारी मिल गयी थी। उसके माँ-बाप इस दुनिया में नहीं थे और इकलौती बहन तो फोन पर उसका नाम सुनते ही रोनित पर चढ़ बैठी. उसने तो फोन पर रूबी को अपनी बहन मानने से भी इनकार कर दिया और रोनित को चेतावनी दी कि दोबारा फोन आने पर पुलिस में जायेगी।

बस एक व्यक्ति है। नंबर मिल गया है लेकिन तुमसे बात किये बिना उसे फोन करना मैंने ठीक नहीं समझा। तुम चाहो तो अभी बात कर सकते हैं।

इसका कौन है वह?

"उसका पति है ... उनके संबंधों की ज़्यादा जानकारी नहीं मिली है, लेकिन यह पक्का है कि वे हैं पति-पत्नी" फिर कुछ रूककर बोला, " ... वैसे जब उसकी सगी बहन उसका नाम सुनते ही इतना भड़क गयी तो पति का भी क्या भरोसा।

"वह खुद भारत जाने का मतलब अपनी मौत बताती है। भारत में भरोसे का कोई संबंधी नज़र नहीं आता। यहाँ अगर नौकरी फिर से बन जाए तो सारा झंझट ही ख़त्म।" मैंने सुझाव दिया।

"हाँ, यही करके देखते हैं। वैसे तो बड़ी विशेषज्ञ है वह। दुनिया के सबसे बड़े जर्नल्स में छप चुकी है। भगवान् जाने, काम पर क्या तमाशा किया होगा।"

कथा का अगला भाग

Friday, October 4, 2013

पितृ पक्ष - महालय

साल के ये दो सप्ताह - इस पखवाड़े में हज़ारों की संख्या में वानप्रस्थी मिशनरी पितर वापस आते थे अपने अपने बच्चों से मिलने, उनको खुश देखकर खुशी बाँटने, आशीष देने. साथ ही अपने वानप्रस्थ और संन्यास के अनुभवों से सिंचित करने। दूर-देश की अनूठी संस्कृतियों की रहस्यमयी कथाएँ सुनाने। रास्ते के हर ग्राम में सम्मानित होते थे। जो पितर ग्राम से गुज़रते वे भी और जो संसार से गुज़र चुके होते वे भी, क्योंकि मिलन की आशा तो सबको रहती थी। कितने ही पूर्वज जीवित होते हुए भी अन्यान्य कारणों से न आ पाते होंगे, कुछ जोड़ सूनी आँखें उन्हें ढूँढती रहती होंगी शायद।

साल भर चलने वाले अन्य उत्सवों में ग्रामवासी गृहस्थ और बच्चे ही उपस्थित होते थे क्योंकि 50+ वाले तो संन्यासी और वानप्रस्थी थे। सो उल्लास ही छलका पड़ता था, जबकि इस उत्सव में गाम्भीर्य का मिश्रण भी उल्लास जितना ही रहता था। समाज से वानप्रस्थ गया, संन्यास और सेवा की भावना गयी, तो पितृपक्ष का मूल तत्व - सेवा, आदर, आद्रता और उल्लास भी चला गया।

भारतीय संस्कृति में ग्रामवासियों के लिए उत्सवों की कमी नहीं थी। लेकिन वानप्रस्थों के लिए तो यही एक उत्सव था, सबसे बड़ा, पितरों का मेला। ज़ाहिर है ग्रामवासी जहाँ पितृपूजन करते थे वहीं पितृ और संतति दोनों मिलकर देवपूजन भी करते थे। विशेषकर उस देव का पूजन जो पितरों को अगले वर्ष के उत्सव में सशरीर आने से रोक सकता था। यम के विभिन्न रूपों को याद करना, जीवन की नश्वरता पर विचार करते हुए समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाना इस पक्ष की विशेषता है। अपने पूर्वजों के साथ अन्य राष्ट्रनायकों को याद करना पितृ पक्ष का अभिन्न अंग है। मृत्यु की स्वीकृति, और उसका आदर -
मालिन आवत देखि करि, कलियाँ करीं पुकार। फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।। ~ कबीर

केवल अपनी वंशरेखा के पितर ही नहीं, बल्कि परिवार में निःसंतान मरे लोगों के साथ-साथ गुरु. मित्र, सास, ससुर आदि के श्राद्ध की परम्परा याद दिलाती है कि कृतज्ञता भारतीय सभ्यता के केंद्र में है। अविवाहित और निःसंतान रहे भीष्म पितामह का श्राद्ध सभी वर्णों द्वारा किया जाना भी अपने रक्त सम्बंध और जाति-वर्ण आदि से मुक्त होकर हुतात्माओं को याद करने की रीति से जोड़ता है। मैं और मेरे के भौतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर, आज और अभी के लाभ को भूलकर, हमारे और सबके, बीते हुए कल के सत्कृत्यों और उपकार को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का प्रतीक है श्राद्ध।

आज पितृविसर्जनी अमावस्या को अपने पूर्वजों को विदा करते समय उनके सत्कर्मों को याद करने का, उनके अधूरे छूटे सत्संकल्पों को पूरा करने का निर्णय लेने का दिन है।

क्षमा प्रार्थना
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योऽहं तव दर्शनात्।

पिण्ड विसर्जन मन्त्र
ॐ देवा गातुविदोगातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः॥

पितर विसर्जन मन्त्र - तिलाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः ।। सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां ।। सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः ।। वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ॥

देव विसजर्न मन्त्र - पुष्पाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थ, पुनरागमनाय च॥

सभी को नवरात्रि पर्व पर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएँ!

Tuesday, September 24, 2013

शव पुष्प - इस्पात नगरी से [65]

क्या आप बता सकते हैं कि भारत का सबसे बड़ा पुष्प कौन सा होता है और कहाँ पाया जाता है?
जब तक आप उत्तर ढूंढें, संसार के सबसे बड़े पुष्प से पिट्सबर्ग में हुई मेरी संक्षिप्त मुलाक़ात से प्राप्त जानकारी यहाँ देख और पढ़ सकते हैं. आकार के मामले में संसार का सबसे बड़ा सुमन भारत के पूर्व में सुमात्रा द्वीप में प्राकृतिक रूप से बड़ी मात्रा में उगता है. प्याज लहसुन की तरह ही यह पौधा गाँठ/बल्ब से उगता है. स्वरुप भी लगभग वैसा ही है. फूल के पल्लवित होने पर उसमें से तीव्र दुर्गन्ध भी आती है ताकि मक्खी, भुनगे आदि आकर उसके परागण में सहायता करें. गाँठ वाले अधिकाँश पौधों की तरह ही अपना पल्लवन-चक्र पूरा होने के बाद यह पौधा सतह के ऊपर से फिर गायब हो जाता है, अगले चक्र के इंतज़ार में. इस दुस्सह दुर्गन्ध के कारण ही इस फूल को शव पुष्प (corpse flower) कहा जाता है.

परिपक्व पौधे में बस एक ही पत्ती होती है

पौधे में पहला फूल आने में 8-10 साल लग जाते हैं

पित्त्स्बर्ग में खिलते पुष्प के मार्ग में मजाकिया सन्देश लगाने का प्रयास

शव पुष्प की ऊंचाई 8 से 20 फीट तक हो सकती है

सुमात्रा के बाहर पहली बार यह पुष्प लन्दन में 1889 में खिला और 1937 में पहली बार अमेरिका में.

कहीं सुना था, "जिन लाहौर नहीं वेख्या ..." लेकिन प्रकृति के चमत्कार देखकर लगता है कि अपने संसार को लाहौर तक सीमित रखना शायद ठीक नहीं है. फ़िप्स कंजर्वेटरी, पिट्सबर्ग में इस साल "रोमेरो" नामक एक फूल के विकास के क्रम को एक स्टिल कैमरा द्वारा नियमित अंतराल पर लिए गए चित्रों से एक विडिओ क्लिप में गतिमान किया गया है जो कि यूट्यूब पर उपलब्ध है और मैंने भी यहाँ एम्बेड की है ताकि आप उसका आनंद ले सकें.




[आलेख व चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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Saturday, September 21, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 3]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अडचन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने कहा कि हमारे उसके घर आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी।
भाग १
भाग २
अब आगे की कथा:
"और क्या क्या बताया था आपके शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने?" मैंने पूछा

"अपने को हुशियार समझते, आयेंगे समझाने लोग ..." उसने तुनककर कहा

"आप स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही हैं। यदि व्यवस्था को पता लगा कि आपका कार्य-वीसा वैलिड नहीं रहा है, तो आपको वापस भेज देंगे।"

"मेरे साथ यह नहीं होने वाला. कार्य दूर, मेरा तो वीसा ही छः महीने पहले ख़त्म हो गया था। होना होता तो अब तक जेल भी हो सकती थी।"

"हाँ, यह तो गनीमत है आप अमेरिका में हैं। और कोई देश होता तो वीसा के बिना अब तक न जाने क्या दुर्दशा हुई होती। लेकिन गैरकानूनी होना तो कहीं भी सही नहीं है। आपके लिए भारत वापस जाना ही सही है। आप परेशान न हों, हम आपके टिकट की व्यवस्था कर देंगे।"

"मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? आप मुझसे परेशान हैं? मुझे मारना चाहते हैं?

"नहीं, आपके पास वापसी का टिकट नहीं है, हम घर वापस जाने में आपकी मदद करना चाहते हैं। बस इतनी सी बात है।" समझाने की कमान इस बार श्रीमती जी ने संभाली।

"टिकट दिलाने में मरने-मारने की बात कहाँ से आ गयी?" पूछे बिना रहा नहीं गया मुझसे।

उसने मेरी और ऐसे देखा जैसे संसार में मुझसे बड़ा नादान कोई और न हो। फिर कुछ सोचकर मेरे पास आई और बोली, "इतना समझ लो कि मैं बस उतने दिन ही ज़िंदा हूँ, जितने दिन यहाँ हूँ। आइएसटी (IST भारतीय समय) मेरा काल है और ईएसटी (EST पूर्वोत्तर अमेरिका का स्थानीय समय) मेरा जीवनकाल. मुझे भारत भेजने की बात करने वाला मेरा हत्यारा ही होगा।"

"मुझे कुछ समझ नहीं आया, ठीक से समझायेंगी?"

"जिम में तो आप देखते थे न मुझे? स्विमिंग पूल में भी देखती थी मैं आपको ..."

मुझे याद आया कि अकस्मात नज़र मिलने पर मुस्कान का जवाब तो दूर, मुँह चिढाकर नज़र फेर लेती थी वह।

" ... मेरी नौकरी ऐसे ही नहीं ख़त्म हुई है, वह सब एक षड्यंत्र था मेरे खिलाफ। दुर्घटना हुई थी, फिजियोथेरेपी भी कराती थी मैं और स्विमिंग, योगा, सब तरह के व्यायाम भी करती थी।"

"तो?"

"तो, यह दर्द ठीक होने वाला नहीं। अब मैं नौकरी नहीं कर सकती। भगवान् ने बताया कि इंडिया जाते ही मर जाऊंगी।"

"अच्छा, कैसे बताया भगवान् ने?" मुझे रास्ता सूझने लगा था। अब आगे की योजना ज़्यादा कठिन नहीं लगी, "... भगवान् कान में बोले थे कि चिट्ठी भेजी थी?"

[क्रमशः]
 

Wednesday, September 11, 2013

त्सुकूबा पर्वत - एक तीर्थयात्रा जापान में

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)

कुछ समय पहले की एक पोस्ट "अई अई आ त्सुकू-त्सुकू" में हम मिले थे त्सुकूबा नगर के कुछ विशिष्ट पक्षियों से। आइये आज चलते हैं त्सुकूबा पर्वत की एक तीर्थ यात्रा पर।  

रास्ते से त्सुकूबा पर्वत का दृश्य
जापानी दंतकथाओं के अनुसार, हज़ारों वर्ष पहले एक देवी ने जापान के दो प्रमुख पर्वतों से धरा पर अवतरित होने की अपनी इच्छा प्रकट की । सर्वोच्च शिखर वाले फूजी पर्वत ने देवी के आशीर्वाद की कोई ज़रूरत न समझते हुए अहंकार पूर्वक न कर दी जबकि स्कूबा पर्वत ने विनम्रता से देवी का स्वागत भोजन व जल के साथ किया। समय बीतने पर माऊंट फूजी अपने गर्व और ठंडे स्वभाव के कारण बर्फीला और बंजर हो गया जबकि स्कूबा पर्वत हरियाली और रंगों की बहार से आच्छादित बना रहा ।

जापानी ग्रंथों के अनुसार उनके प्रथम पूर्वज दंपत्ति श्रीमती इजानामी और श्री इजानागी नो मिकोतो इसी पर्वत के नन्ताई और न्योताई शिखरों पर रहते थे। मिथकों के अनुसार जापान राष्ट्र इन्हीं दोनों की संतति है। दोनों चोटियों पर इनके भव्य स्वर्णजटित काष्ठ मंदिर आज भी हैं।

त्सुकूबा सान पर्वत परिसर का तोरणद्वार
अपनी संक्षिप्त जापान यात्रा में स्कूबा पर्वत का दर्शन मेरी एक ऐसी उपलब्धि रही जिसे आपके साथ बाँटना चाहूँगा। इसके शिखर-युग्म नन्ताई सान तथा न्योताई सान क्रमशः 871 व 877 मीटर ऊँचे हैं। स्कूबा पर्वत को जापानी भाषा में त्सुकुबासान (Tsukubasan) कहते हैं। स्कूबा पर्वत की बहुत सी विशेषताएँ हैं। उदाहरण के लिए जापान के अधिकांश पर्वतों के विपरीत यह ज्वालामुखी नहीं है। मुख्यतः गैब्रो और ग्रेनाईट से बना हुआ यह हरा-भरा पर्वत जापान के मुख्य पर्वतों में से एक है। दूर से नीलगिरी जैसे दिखने वाले इस पर्वत को स्थानीय भाषा में "बैंगनी" पर्वत भी कहते हैं।

सुबह अपने कमरे से निकलकर होटल की लॉबी में पहुँचा तो वहाँ उत्सव का सा माहौल था। एक किनारे पर साज सज्जा के साथ एक विकराल सी मूर्ति भी लगी थी। पूछने पर पता लगा कि जापानी योद्धा (समुराई) की यह मूर्ति बालक दिवस के प्रतीक के रूप में लगाई गयी है।

त्सुकूबा के टोड देवता
बाहर आकर टैक्सी ली। स्कूबा सान कहते ही ड्राइवर ने जोर से "हई" कहा और चल पडा। पथ भारत के किसी उपनगर जैसा ही था मगर बहुत साफ़ और स्पष्ट। भीड़-भाड़ और शोर भी नहीं था। नगर से बाहर का परिदृश्य भारत के किसी ग्रामीण इलाक़े जैसा ही था। दूर-दूर तक फैले खेतों के बीच में खपरैल पड़े एक या दोमंजिला घरों के समूह। कई घरों के आगे भारत की तरह ही स्कूटर या छोटी-बड़ी कारें दिख रही थीं मगर कुत्ता, बिल्ली, गाय, घोड़ा आदि नज़र नहीं आया। अब समझ में आया कि जापानी ऑटोमोबाइल उद्योग को इतनी तरक्की क्यों करनी पडी? थोड़ी देर बाद टैक्सी पहाड़ पर चढ़ने लगी। सड़क सँकरी हो गयी और नैनीताल के रास्तों की याद दिलाने लगी। लगभग एक घंटे में हम त्सुकुबायामा पहुँचे जहाँ इजानामी देवी के मठ पर एक विशालकाय टोड की मूर्ति ने हमारा स्वागत किया। आठ हज़ार येन लेकर ड्राइवर ने जोर से "हई" कहा और चलता बना।

यहाँ से ऊपर जाने के लिए मैंने रोपवे लिया। बादलों से घिरे रोपवे से जिधर भी देखो अलौकिक दृश्य था। रोपवे से उतरने पर देखा कि पहाडी पर हर तरफ बर्फ छिटकी हुई थी। रोपवे से न्योताई सान मठ तक जाने के लिए पत्थरों को काटकर बनाई गयी सीढ़ियों की कठिन खड़ी चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचा तो देखा कि छोटे बड़े लोगों के अनेक समूह वहाँ पहले से उपस्थित थे और पर्वत शिखर पर खड़े प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे।

त्सुकूबा पर्वत पर स्थित एक मठ का दृश्य
लकड़ी के बने हुए छोटे से मठ पर सुनहरी धातु (शायद सोना) का काम था। मठ के अधिष्ठाता देव इजानागी नो मिकोतो शायद अपने काष्ठ-कोष्ठक में विश्राम कर रहे थे इसलिए उनके दर्शन नहीं हुए। शिखर से घाटी का दृश्य मनोरम था परन्तु वहाँ ग्रेनाईट के चिकने प्रस्तरों से बने शिखर पर खड़े होने से सैकड़ों फीट गहरी सीधी ढलान में गिरने का भय सताने लगा सो हमने नन्ताई सान के केबिल कार स्टेशन तक पद-यात्रा का मन बनाया और बर्फ से ढँकी सँकरी पथरीली ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर चल पड़े। रास्ते में आते-जाते समूहों ने जब सर झुकाकर “कुन्निचिवा” कहा तो हमने भी मुस्कराकर उन्हें "नमस्ते" कह कर अचम्भे में ड़ाल दिया। रास्ते में एक छोटी सी मठिया ऐसी भी मिली जो मृत-जन्मा (stillborn) बच्चों को समर्पित थी। नन्ताई सान पहुँचकर हमने स्कूबा सान के मुख्य मठ तक जाने के लिए केबिल कार (incline) ली। चीड, ओक, चैरी, आलूबुखारे और अन्य हरे-भरे वृक्षों के बीच से गुज़रते हुए हम एक सुरंग से भी निकले और तेंतीस अंश के झुकाव पर लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी छः-सात मिनट में पूर्ण कर मुख्य मठ तक पहुँच गए।

स्कूबा सान का मुख्य मठ काफ़ी नीचाई पर ज़्यादा समतल जगह पर बना हुआ है और शिखरों पर बने मठों के मुकाबले काफ़ी बड़ा और भव्य है। इसके काष्ठ भवनों में जोड़ने के लिए धातु की कीलों के स्थान पर लकड़ी और रस्सी का ही प्रयोग हुआ है। मठ के आसपास की पगडंडियों के इर्द-गिर्द छोटे फेरी वाले खिलौने, कागज़ और लकड़ी की सज्जा वस्तुएँ बाँसुरी, घुँघरू, छड़ियाँ, के साथ-साथ मेंढक, उल्लू आदि की मूर्तियाँ भी बेच रहे थे। त्वचा को आकर्षक बनाने के लिए टोड का तेल भी मिल रहा था अलबत्ता ख़रीदते हुए कोई नहीं दिखा। पूछने पर पता लगा कि यह तेल टोड की त्वचा से निकलता है और इसकी प्राप्ति के लिए उसे मारा नहीं जाता है।

मुख्य मंदिर का परिसर द्वार
कुछ जोड़े पारंपरिक वेशभूषा में देवी का आशीर्वाद लेने आये हुए थे। दिखने में सब कुछ किसी पुराने भारतीय मंदिर जैसा लग रहा था मगर उस तरह की भीड़भाड़, शोरगुल और रौनक का सर्वदा अभाव था। मंदिर के बाहर ही प्रसाद में चढ़ाए जाने वाली मदिरा के काष्ठ-गंगालों के ढेर लगे हुए थे। एक बूढ़ी माँ अपनी पोती को मंदिर के आसपास की हर छोटी-बड़ी चीज़ से परिचित करा रही थीं।

मंदिर के जापानी देवदार से बने भव्य द्वार के दोनों और अस्त्र-शस्त्र लिए दो रक्षक खड़े थे। द्वार के ऊपर लकड़ी के और अन्दर पत्थर के हिम तेंदुए या शार्दूल जैसे कुछ प्राणी बने हुए थे। मंदिरों के इस प्रकार के पारंपरिक द्वार को जापानी भाषा में तोरी कहते हैं जोकि तोरण का अपभ्रंश हो सकता है। ज़िक्र आया है तो बता दूं कि भगवान् बुद्ध को जापानी में बुत्सु (या बडको) कहते हैं। कमाकुरा के अमिताभ बुद्ध (दाई-बुतसू = विशाल बुद्ध) तथा जापान की अन्य झलकियाँ भी आप बर्गवार्ता पर अन्यत्र देख सकते हैं।

यद्यपि मूल मंदिर काफ़ी प्राचीन बताया जाता है परन्तु मंदिर का वर्तमान भवन 1633 में तोकुगावा शोगुनाते साम्राज्य के काल में बनवाया गया था। इस मंदिर का काष्ठ शिल्प जापान के मंदिर स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना है। मुख्य भवन के द्वार पर रस्सी के बंदनवार के बीच में जापानी शैली का घंटा टँगा हुआ था। मूलतः शिन्तो मंदिर होने के बावजूद पिछले पाँच सौ वर्षों से यह स्थल बौद्धों और सामान्य पर्यटकों का भी प्रिय है।
मेरे शब्दों में इस मंदिर की तारीफ़ शायद गूँगे के गुड जैसी हो इसलिए चित्र देखिये और स्कूबा पर्वत की वसंत-काल यात्रा का आनंद उठाइये। इस जापान यात्रा में काष्ठ-स्थापत्य और प्राकृतिक सौंदर्य के अतिरिक्त जिस एक बात ने मुझे मोहित किया वह है जापानियों की अद्वितीय विनम्रता।

(यह यात्रावृत्तान्त सृजनगाथा पर जनवरी 5, 2010 को प्रकाशित हो चुका है।)
अब देखें स्कूबासान की तीर्थयात्रा के कुछ नए चित्र

रोपवे स्टेशन

रोपवे स्टेशन कुछ और दूर जाने पर

एक और मठ

केबल कार

मार्ग की एक सुरंग

मुख्य मंदिर का काष्ठद्वार

एक छोटा मठ

एक काष्ठद्वार

काष्ठद्वार की सज्जा की एक झलक

जापानी अखबार में भारतीय मॉडल

Monday, September 2, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 2]

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

कहानी भविष्यवाणी की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अडचन से कैसे निकाला जाय। अब आगे की कथा:


हम लोगों ने कुछ देर तक विमर्श किया। कई बातें मन में आईं। अपार्टमेंट प्रबंधन से बात तो करनी ही थी। यदि वे कुछ दिनों की मोहलत दें तो मैं स्थानीय परिचितों से मिलकर उसकी नई नौकरी ढूँढने में सहायता कर सकूँगा। लेकिन मेरा मन यह भी चाहता था कि रूबी को भारत वापस लौटाने का कोई साधन बने। टिकट खरीदकर देने में मुझे ज़्यादा तकलीफ नहीं थी। अगर कोई कानूनी अडचन होती तो किसी स्थानीय वकील से बात करने में भी मुझे कोई समस्या नहीं थी। श्रीमती जी उसके खाने पीने और अन्य आवश्यकताओं का ख्याल रखने को तैयार थीं।

शाम सात बजे के करीब हम दोनों उसके अपार्टमेंट के बाहर खड़े थे। मैंने दरवाजा खटखटाया। जब काफी देर तक कोई जवाब नहीं आया तो एक बार फिर कोशिश की। फिर कुछ देर रूककर इंतज़ार किया और वापस मुड़ ही रहे थे कि दरवाजा खुला। तेज़ गंध का एक तूफान सा उठा। सातवीं मंज़िल पर स्थित दरवाजे के ठीक सामने बिना पर्दे की बड़ी सी खिड़की से डूबता सूरज बिखरे बाल और अस्तव्यस्त कपड़ों में खड़ी रूबी के पीछे छिपकर भी अपनी उपस्थिति का बोध करा रहा था। उसने हमें अंदर आने को नहीं कहा। दरवाजे से हटी भी नहीं। बल्कि जब उसने हम दोनों पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली तो मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या कहूँ। मुझे याद ही न रहा कि मैं वहाँ गया किसलिए था। श्रीमती जी ने बात संभाली और कहा, "कैसी हो? हम आपसे बात करने आए हैं।"

कुछ अनमनी सी रूबी ज़रा हिली तो श्रीमती जी घर के अंदर पहुँच गईं और उनके पीछे-पीछे मैं भी अंदर जाकर खड़ा हो गया। इधर उधर देखा तो पाया कि छोटा सा स्टुडियो अपार्टमेंट बिलकुल खाली था। पूरे घर में फर्नीचर के नाम पर मात्र एक स्लीपिंग बैग एक कोने में पड़ा था। दूसरे कोने में किताबों और कागज-पत्र का ढेर था। कपड़े घर भर में बिखरे थे। एक लैंडलाइन फोन अभी भी हुक्ड रहते हुए हमें मुँह सा चिढ़ा रहा था। घर में भरी ऑमलेट की गंध इतनी तेज़ थी कि यदि मैं सामने दिख रही बड़ी सी खिड़की खोलकर अपना सिर बाहर न निकालता तो शायद चक्कर खाकर गिर पड़ता।

एक गहरी सांस लेकर मैंने कमरे में अपनी उपस्थिति को टटोला। मैं कुछ कहता, इससे पहले ही एक कोने की धूल मिट्टी खा रहे रंगीन आटे से बने कुछ अजीब से टूटे-फूटे नन्हे गुड्डे गुड़िया पड़े दिखाई दिये। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि वे क्या हैं, कि श्रीमती जी ने सन्नाटा तोड़ा,

"हम चाहते थे कि आज आप डिनर हमारे साथ ही करें।"

"आज तक तो कभी डिनर पर बुलाया नहीं, आज क्या मेरी शादी है?"

मुझे उसका बदतमीज़ अकखड़पन बिलकुल पसंद नहीं आया, "रहने दो!" मैंने श्रीमती जी से कहा।

"आपके पड़ोसी और भारतीय होने के नाते हमारा फर्ज़ बनाता है कि हम ज़रूरत के वक़्त एक दूसरे के काम आयें", मैं रूबी से मुखातिब हुआ। उसकी भावशून्य नज़रें मुझ पर गढ़ी थीं।"

"आप घबराइए नहीं, सब कुछ ठीक हो जाएगा।" श्रीमती जी का धैर्य बरकरार था।

"सब ठीक ही है। मुझे पता है!" एक लापरवाह सा जवाब आया।

"क्या पता है?" लगता है मैं बहस में पड़ने वाला था।

"कि आप आने वाले हैं मुझे समझाने ..."

"अच्छा! कैसे?"

"अभी मैं भगवान से बातें कर रही थी ..."

"भगवान से ?"

"हाँ! वे ठीक यहीं खड़े थे, इसी जगह ... शंख चक्र गदा पद्म लिए हुए। उन्होने ही बताया।"

उसका कटाक्ष मुझे इस बार भी पसंद नहीं आया। बल्कि एक बार तो मन में यही आया कि उसकी करनी उसे भुगतनी ही है तो हम लोग बीच में क्यों पड़ रहे हैं।


[क्रमशः]

Friday, August 30, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 1]

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

रोज़ की तरह सुबह तैयार होकर काम पर जाने के लिए निकला। अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही एक मानवमूर्ति से टकराया। एक पल को तो घबरा ही गया था मैं। अरे यह तो ... मेरे दरवाजे पर क्यों खड़ी थी? कितनी देर से? क्या कर रही थी? कई सवाल मन में आए। अपनी झुंझलाहट को छिपाते हुए एक प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली तो वह सकुचाते हुए बोली, "आपकी वाइफ घर पर हैं? उनसे कुछ काम था, आप जाइए।"

मुझे अहसास हुआ कि मैंने अभी तक दरवाजा हाथ से छोड़ा नहीं था, वापस खोलकर बोला, "हाँ, वह घर पर हैं, जाइए!"

दफ्तर पहुँचकर काम में ऐसा व्यस्त हुआ कि सुबह की बात एक बार भी मन में नहीं आई। शाम को घर पहुँचा तो श्रीमती जी एकदम रूआँसी बैठी थीं।

प्रवासी मरीचिका
"क्या हुआ?"

"सुबह रूबी आई थी ..."

"हाँ, पता है, सुबह मैं निकला तो दरवाजे पर ही खड़ी थी। वैसे तो कभी हाय हॅलो का जवाब भी नहीं देती। तुम्हारे पास क्यों आई थी वह?"

"बहुत परेशानी में है।"

"क्या हुआ है?"

"उसको निकाल रहे हैं अपार्टमेंट से ... कहाँ जाएगी वह?"

"क्यों?"

बात निकली तो पत्थर के नीचे एक कीड़ा नहीं बल्कि साँपों का विशाल बिल ही निकल आया। श्रीमती जी की पूरी बात सुनने पर जो समझ आया उसका सार यह था कि रूबी यानी डॉ रूपम गुप्ता पिछले एक वर्ष से बेरोजगार हैं। एक स्थानीय संस्थान की स्टेम सेल शोधकर्ता की नौकरी से बंधा होने के कारण उनका वीसा स्वतः ही निरस्त है इसलिए उनका यहाँ निवास भी गैरकानूनी है। खैर वह बात शायद उतनी खतरनाक नहीं है क्योंकि अमेरिका इस मामले में उतना गंभीर नहीं दिखता जितना उसे होना चाहिए। डॉ साहिबा के मामले में खराब बात यह थी कि उन्होने छः महीने से घर का किराया नहीं दिया और अब अपार्टमेंट प्रबंधन ने उन्हें अंतिम प्रणाम कह दिया है।

"कल उसे अपार्टमेंट खाली करना है। यहाँ से जाने के लिए टैक्सी बुक करनी थी। बिल की वजह से उसका फोन भी कट गया है, इसीलिए हमारे घर आई थी, फोन करने।"

"फोन नहीं घर नहीं, नौकरी नहीं, तो टैक्सी कैसे बुक की? और कहाँ के लिए? इस अनजान शहर, पराये देश में कहाँ जाएगी वह? कुछ बताया क्या?"

"क्या बताती? दूसरी ही दुनिया में खोई हुई थी। मैंने उसे कह दिया है कि हम लोग मिलकर कोई राह ढूँढेंगे।"

"कल सुबह आप बात करना मैनेजमेंट से, आपकी तो बात मानते हैं वे लोग। आज मैंने रूबी को रोक दिया टैक्सी बुलाने से। हमारे होते एक हिन्दुस्तानी को बेघर नहीं होने देंगे परदेस में।"

"कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन नौकरी छूटते ही, कम से कम वीसा खत्म होने पर भारत वापस चले जाना चाहिए था न। इतने दिन तक यहाँ रहने का क्या मतलब है?"

"वह सब सोचना अब बेकार है। हम करेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।"

वैसे तो कभी सीधे मुँह बात नहीं करती। न जाने किस अकड़ में रहती है। फिर भी यह समय ऐसी बातें सोचने का नहीं था। मैंने सहज होते हुए कहा, "ठीक है। कल मैं बात करता हूँ। बल्कि कुछ सोचकर कानूनी तरीके से ही कुछ करता हूँ। अकेली लड़की दूर देश में किसी कानूनी पचड़े में न फँस जाये।"

[क्रमशः]

Thursday, August 8, 2013

मन गवाक्ष चित्रावली - इस्पात नगरी से [64]

कैनेडा, संयुक्त राज्य, जापान और भारत के कुछ अलग से द्वारों की पुरानी पोस्ट "मेरे मन के द्वार - चित्रावली" की अगली कड़ी प्रस्तुत है। प्रस्तुत सभी चित्र अमेरिका महाद्वीप में लिए गए हैं।
मन गवाक्ष फिर फिर खुल जाये, शीतल मंद समीर बहाये
(इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)
पंथी पथ के बदल रहे पर पथ बेचारे वहीं रहे
(इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)

मन की बात सुना भी डालो, यह दर आज खुला ही छोड़ो
(पैलेस ऑफ गोल्ड, इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)

द्वार भव्य है भवन अनूठा, पर मेरा तो मन है झूठा
(पैलेस ऑफ गोल्ड, इस्कॉन मंदिर माउण्ड्सविल, वेस्ट वर्जीनिया)

प्यार का इज़हार करेंगे, रोज़ तेरे द्वार करेंगे
(मांटेगो बे, जमयिका) 

द्वार बंद कोई आ न पाता, मन मानस सूना रह जाता
(ओचो रिओस, जमयिका)

स्वागत है ओ मीत हमारे, चरण पड़े जो इधर तुम्हारे
(ओचो रिओस, जमयिका) 

सपने में हर रोज़ जगाते, खुली आँख वह द्वार न पाते
(परदेस के एक भारतीय ढाबे में भित्तिचित्र)  

दिल खुला दर भी खुला था, मीत फिर भी न मिला था
(नॉर्थ पार्क, पिट्सबर्ग)

वसुंधरा का प्यार है, खुला-खुला ये द्वार है
(नॉर्थ पार्क, पिट्सबर्ग) 

दस द्वारे को पिंजरा, तामे पंछी कौन, रहे को अचरज रहे, गए अचम्भा कौन। ~ (संत कबीर?)
(नॉर्थ पार्क, पिट्सबर्ग)

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]

* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* मेरे मन के द्वार - चित्रावली

Friday, August 2, 2013

कैन्टन एवेन्यू, बीचव्यू - इस्पात नगरी से [63]

बरेली में थे तो सब कुछ समतल था। बिहारीपुर का ढलान, या कुल्हाड़ापीर की चढ़ाई से आगे यदि कोई सोचता तो शायद छावनी की हिलट्रेक रोड ही थी। हाँ, नैनीताल बहुत दूर नहीं था। सैर के लिए लोग गर्मियों में अक्सर वहाँ जाते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए पूर्णागिरी देवी का दर्शन पर्वत यात्रा का कारक बनाता था। इस शृंखला की पिछली कड़ी में हमने पिट्सबर्ग के हिमाच्छादित कुटिल पथों के नैसर्गिक सौन्दर्य को देखा था। आज फिर से हम पिट्सबर्ग की सैर पर निकले हैं। ऊंची, नीची, टेढ़ी मेढ़ी सड़कें। सावन के महीने में बर्फ तो नहीं है लेकिन टेढ़ापन मौसम से कहाँ बदलता है?


आपके साथ आज हम चलते हैं कैन्टन एवेन्यू (Canton Avenue) देखने जिसका ढलान (grade) 37% है। यह मामूली सी दिखने वाली संख्या किसी सड़क की चढ़ाई के लिए काफी बड़ी है, इतनी बड़ी कि सामान्यतः नज़रअंदाज़ रहने वाली मामूली सी सड़क कैन्टन एवेन्यू को आधिकारिक रूप से अमेरिका की सबसे ढलवां सड़क होने का गौरव प्राप्त है।

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स के अनुसार न्यूज़ीलैंड की बाल्डविन स्ट्रीट संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई है। लेकिन जब उसके ढलान की बात आती है तब स्पष्ट होता है कि वास्तव में कैन्टन एवेन्यू ही संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई वाली सड़क है। शुक्र है कि अमेरिका में वोट पाने के लिए इन मुद्दों की आक्रामक दूकानदारी का रिवाज नहीं है वरना ...  

कैन्टन एवेन्यू की कुल लंबाई 192 मीटर या 630 फुट है। इस पर तीन मीटर की क्षैतिज दूरी तय करने पर आप स्वतः ही 1.1 मीटर चढ़ लेते हैं। पिट्सबर्ग के लोगों को यह सड़क देखने पर कोई आश्चर्य नहीं होता क्योंकि बहुत से घरों के घास के मैदान भी इससे अधिक ढलवां होते हैं। लेकिन (ड्राइवेबल) सड़क की बात और है। सड़क के किनारे का फुटपाथ दरअसल सीढ़ियाँ हैं।

पिट्सबर्ग की "डर्टी दजन" साइकल रेस 12 चढ़ाइयों से गुजरती है जिनमें कैन्टन एवेन्यू सबसे महत्वपूर्ण है। इसी साइकिल दौड़ के कैन्टन एवेन्यू खंड की एक वीडियो क्लिप यूट्यूब के सौजन्य से प्रस्तुत है।


सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* डर्टी दजन साइकल रेस
* कैन्टन एवेन्यू - विकीपीडिया
 

Monday, July 1, 2013

मार्जार मिथक गाथा

(अनुराग शर्मा)

बिल्लियाँ जब भी फुर्सत में बैठती हैं, इन्सानों की ही बातें करती हैं। यदि आप कभी सुन पाएँ तो जानेंगे कि उनके अधिकांश लतीफे मनुष्यों के बेढंगेपन पर ही होते हैं। कहा जाता है कि बहुत पहले बिल्लियों के चुटकुले भी बहुरंगी होते थे। फिर धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित इंसान प्रकृति के साथ-साथ बिल्लियों के हास्य-व्यंग्य पर भी कब्जा करता गया और अब तो कोई पढ़ी-लिखी बिल्ली इंसान की कल्पना किए बिना ढंग से हँस भी नहीं सकती है। बिल्लियों के विपरीत इन्सानों के चुट्कुले अपने और दूसरे के बीच के अंतर से उत्पन्न होते हैं। उनमें अक्सर दूसरे देश, धर्म, प्रांत या मज़हब के इन्सानों का ज़िक्र होता है। कभी-कभी उनमें गधे या कुत्ते जैसे सरल प्राणी शामिल होते हैं लेकिन अक्सर तो इंसानी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उनके लतीफों का दायरा भी सीमित ही रह गया है। लेकिन कुछ इंसान दूसरों से अलग हैं। वे इंसानी नस्ल के आगे भी सोचते हैं। मनुष्यमात्र की बात करना उनके लिए स्वार्थ का प्रतिमान है।

ऐसे टुन्नात्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार बिल्ली-कुत्तों के दुख-दर्द, उनके राजनीतिक अधिकार, सरकार द्वारा मछलियों की अभिव्यक्ति के दमन और घोड़े-गदहे-जिराफ़ और गेहूँ-कमल-गुलाब की समानता के अधिकार के बारे में सोचता है। वे दुबले हुए जाते हैं इसीलिए आप सड़क पर खुजलाते आवारा कुत्तों को देख पाते हैं, वरना ज़ालिम नगर पालिका वाले उन्हें कब का पकड़ ले जाते। ये महात्मा लोग जीवित हैं इसीलिए गायें पोलीथीन की थैलियाँ खा सकती हैं, वरना तो भक्तजन गायों को भी पूजनीय देवी बनाकर मंदिरों और गौशालाओं में बांधकर रख देते। इन्हीं की दया से कर्तव्यनिष्ठ कसाई भेड़-बकरियों को मनुष्य की कैद से आज़ादी दिला पाते हैं। ये लोग आमतौर पर हम-आप जैसे अल्पज्ञ और नश्वर प्राणियों को घास नहीं डालते हैं। लेकिन थोड़ी पीने के बाद वे रहमदिल हो जाते हैं। ऊपर से अगर मुफ्त की मिल जाये फिर तो ये निस्वार्थ मनुष्य और भी दरियादिल दिखने लगते हैं।

ऐसी ही एक मुफ्तखोर पार्टी में जब दारूचन्द जी ने मेरे सलाम को इगनोर नहीं किया तो मेरा साहस बढ़ गया। मैं अपने कोला के गिलास को उनकी दारू के पास रखकर एक कुर्सी खींचकर उनके निकट बैठकर उनकी और उनकी मित्र मंडली की बातें ऐसे सुनता गया जैसे फेसबुक की मित्र-सूची से निकाला गया व्यक्ति अपने पुराने गैंग की वाल को पढ़ता है।

"मुहल्ले में चोरियाँ होने लगीं तो सबने कहा कि एक कुत्ता पाल लो।" ये सुरासिंह थे।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"चोर तो चोर, कुत्ते भी जब मेरे गली से गुज़रते थे, तो अपनी दुम दबाकर दूसरी ओर की दीवार से चिपककर चलते थे, ऐसे गरजता था मेरा टॉम।"
"गोल्डेन रिट्रीवर था कि जर्मन शेपर्ड?"
"बुलडॉग या लेब्रडोर होगा ... "
"अजी बिलकुल नहीं, मेरा टॉम तो शेर का मौसा है, एक खतरनाक बिलौटा।"
"आँय!" कुत्तापछाड़ बिलाव की बात सुनकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया लेकिन बाकी मंडली को कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह किस्सा सुनकर पियक्कड़ कुमार "पीके" को अपनी बिल्ली याद आ गई।

पीके की बिल्ली का पिंजरा
"मेरी बिल्ली तो बहुत मक्कार है। रात में अपना पिंजरा छोडकर मेरे बिस्तर में घुस जाती थी" पीके ने कहा।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"फिर क्या? मैंने कुछ दिन बर्दाश्त क्या किया उसकी तो हिम्मत बढ़ती ही गई। अब तो वह मुझे धकिया कर पूरे बिस्तर पर ही कब्जा करने लगी।"
"ऐसे ही होता है। लोग आते हैं आव्रजक बनकर, फिर देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाते हैं।
"आप चुप रहिये! हर बात में राजनीति ले आते हैं ...", लोगों ने सुरासिंह को झिड़का, "फिर? आगे क्या हुआ"
"अब तो मैं सोते समय 10-12 तकिये लेकर सोता हूँ। बिल्ली के पास आते ही एंटी-एयरक्रेफ्ट मिसाइल की तरह एक-एक करके उस पर फेंकना शुरू कर देता हूँ। अकल ठिकाने आ जाती है।

सब सुना रहे थे तो भला अंगूरी प्यारी कैसे चुप रहतीं? अपनी ज़ुल्फें झटककर बोलीं, "मेरी दुलारी तो बस गायब ही हो गई थी!"
"आपसे डरकर?"
"शटअप!"
"अरे इसे छोड़िए, नादान है। आप अपना किस्सा सुनाये" दारूचन्द ने बात सम्भाली।
"कई दिन से लापता थी। पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। जब कुछ नहीं हुआ तो एक प्राइवेट डिटेक्टिव रखा। उसकी कई हफ्तों की खोज के बाद पड़ोसी नगर के रेसकोर्स में मिली। पड़ोसियों के कुत्ते को भगाकर ले गई थी।
"अरेSSS गज़्ज़ब!" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप तो काफी पिछड़े हुए लगते हैं। आपके पास तो बिल्ली नहीं होगी विलायत खाँ जी।"
"पिछड़े होंगे आप। हमारा तो पूरा खानदान ही बिल्लीपालक है। पुरखे शेर-चीते पालते थे। आज के जमाने में उन्हें खिलाने को गरीब लोग कहाँ ढूंढें, सो बिल्ली पालकर शौक पूरा कर रहे हैं।
"तो बिल्ली को खिलाने के लिए चूहे कहाँ ढूंढते हैं?"
"इत्ता टाइम कहाँ है अपने पास। पहले दूध पिलाते थे। अब तो हम कभी चाय पिला देते हैं कभी कॉफी। घटिया नस्ल की बिल्लियाँ कोक-पेप्सी भी पी लेती हैं लेकिन आला दर्जे की बिल्लियाँ रोज़ एक-दो पैग वोदका न पियें तो उन्हें नींद ही नहीं आती है।
"अच्छा! ये बात!" बाकियों ने समवेत स्वर में कहा।
"कभी ज़्यादा तंग करें तो मैं अपनी नशे की गोली भी खिला देता हूँ सुसरियों को।"
"क्या ज़माना आ गया है, आदमी तो आदमी, बिल्लियाँ भी नशा करती हैं।" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप बड़े चुप-चुप हैं, आपके घर में बिल्ली नहीं है क्या?"
"जी नहीं! गुज़र गई!"
"कैसे?" सभी ने आश्चर्य से एकसाथ पूछा।
"बड़ी महत्वाकांक्षी थी"
"अच्छा! कैसे गुज़री?" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"खबर फैली हुई थी कि चुनाव आ रहे हैं। सो अपने बच्चों को मुँह में दाबकर ..."
"इलेक्शन में खड़ी हो रही है?"
"चुनाव प्रचार को निकली?"
"ट्रक से कुचल गई?"
अरे नहीं, पूरी बात कहने तो दीजिये।"
"जी!"
"बाल बच्चों समेत गुजरात के लिए गुज़री है। सुना है कि मोदी पीएम बनेंगे तब सीएम की सीट खाली होगी न। हमारी बिल्ली की नज़र उसी पर है।"

[समाप्त]

Saturday, June 22, 2013

चाफ़ेकर बंधु - पहले क्रांतिकारी

1857 के स्वाधीनता संग्राम को कुचले हुए अर्ध-शताब्दी नहीं गुज़री थी। कुछ लोग अंग्रेजों की उपस्थिति से संतुष्ट थे, कुछ का गुज़ारा ही भ्रष्ट साम्राज्यवाद से चल रहा था लेकिन कुछ दिलों में क्रान्ति की ज्वाला अभी भी सुलग रही थी।

दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर
अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की नीतियों में लूटपाट के अलावा जबरिया विश्व व्यापार के जरिये अकूत धनोत्पादन भी शामिल था। इसके लिए अनेक अवांछित करों के अलावा भारत की परंपरागत कृषि के बजाय नकदी फसलों का उत्पादन कराया जा रहा था। भोले-भाले किसानों को विदेश में गन्ने की खेती शुरू करने के उद्देश्य से बंधुआ मजदूर बनाकर जलपोतों की तलहटी में ठूँसकर निर्यात किया जा रहा था। देश में अफीम, तंबाकू, नील आदि की खेती के कारण दुर्भिक्ष और भुखमरी सामान्य हो गए थे। क्रूर जमींदारों और सामंतों को सरकारी संरक्षण था लेकिन सामान्यजन का बुरा हाल था। फैक्टरी निर्मित कपड़े को दिये जा रहे सरकारी उकसावे के कारण बुनकरों की हालत खराब थी। कमोबेश यही हाल अन्य शिल्पकारों का भी था।

सन 1897: भारत का बड़ा भाग प्लेग की चपेट में था। अंग्रेज़ शासक अपने शाही ठाठ में डूबे हुए थे। समाचार थे कि बीमारों के इलाज के बजाय, सरकारी महकमा बीमारी सीमित करने के नाम पर पीड़ित क्षेत्रों की बलपूर्वक घेराबंदी (quarantine/isolation) में जूटा था। अनेक नगरों में बीमारों के दमन के लिए सेना बुला ली गई थी। पुणे में असिस्टेंट कलेक्टर चार्ल्स वाल्टर रैंड (Charles Walter Rand, ICS) द्वारा संचालित "स्पेशल प्लेग कमिटी" के अधिकारी डरहम लाइट इनफेंटरी के गोरे सैनिकों के साथ घर-घर में घुसकर सतही लक्षणों के आधार पर परिवार की संपत्ति का नाश करके परिजनों, महिलाओं, बच्चों को पकड़कर ले जाने लगे। सामान जलाए गए, मूर्तियाँ तोड़ी गईं। पवित्र स्थल जूतों और संगीनों से अपवित्र किए गए। शवयात्रा और बिना आज्ञा दाह संस्कार अपराध घोषित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के लिए प्रसिद्ध भारतीय यह सब नहीं सह सके। स्पेशल प्लेग कमिटी, सैनिक दमन, सड़ती लाशों और प्लेग से आसन्न मृत्यु की आशंका के बीच पुणे की जनता तड़प रही थी। गोपाल कृष्ण गोखले ने गोरे सिपाहियों द्वारा किए गए दो बलात्कारों का ज़िक्र भी किया है जिनमें से एक की परिणति आत्महत्या में हुई।

इस दुष्काल मे भी जब अंग्रेजों ने मानव जीवन के प्रति पूरी निष्ठुरता दिखाकर रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के हीरक जयंती समारोह मनाने शुरू कर दिये तो जनता का खून खौलने लगा। चिंचवाड़ निवासी श्रीमती द्वारका और श्री हरि विनायक चाफेकर के पुत्रों ने ऐसा कुछ करने की ठानी जो दशकों में नहीं हुआ था। 22 जून 1897 को मुख्य सरकारी समारोह की शाम को दो भाई, दामोदर हरि चाफेकर और बालकृष्ण हरि चाफेकर समारोह स्थल के निकट गणेशखिंड रोड (वर्तमान: सेनापति बापट मार्ग) पर एक-एक तलवार और पिस्तौल के साथ खड़े होकर रैंड के आने का इंतज़ार करने लगे।

गाड़ी पहचानने के बाद वे भीड़ के कारण अपनी तलवारें पीछे छोडकर समारोह स्थल की भीड़, बैंड और आतिशबाज़ी के बीच होते हुए भवन के निकट रैंड की गाड़ी के वापस आने के इंतज़ार मे खड़े हुए। गाड़ी आने पर दामोदर ने संकेत दिया, "गोंड्या आला रे!" बालकृष्ण ने गोलियां चलाईं तो गाड़ी पलट गई। भाइयों को पता लगा कि गोली रैंड को नहीं बल्कि उसके अंगरक्षक लेफ्टिनेंट चार्ल्स एगर्टन अरस्ट (Lt. Charles Egerton Ayerst) को लगी थी। इस बार बालकृष्ण की गोली चली और रैंड को लगी जो कि बाद में (3 जुलाई 1897 को) ससून अस्पताल में मर गया।

दामोदर हरि चाफेकर को 18 अप्रैल 1898 को तथा अन्य बंधुओं और साथी महादेव रानाडे को बाद में फांसी दे दी गई। एक बालक विष्णु साठे को दस वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। लेकिन इस कृत्य ने विदेशी साम्राज्यवाद के सशस्त्र विद्रोह की बुझती चिंगारी को पुनरुज्ज्वलित कर दिया जो अंततः स्वतंत्र भारत के रूप में चमकी।

हुतात्माओं की जय! अमर हो स्वतन्त्रता!

संबन्धित कड़ियाँ
रामवाड़ी राम मंदिर - क्रांतिवीर चाफ़ेकर बंधु राष्ट्रीय स्मारक
* क्रांतिवीर चापेकरांचे समूहशिल्प पूर्ण होणार तरी कधी?

Monday, June 17, 2013

खूब लड़ी मर्दानी...

रानी लक्ष्मीबाई "मनु" (१९ नवम्बर १८३५ - १७ जून १८५८)
मणिकर्णिका दामोदर ताम्बे
(रानी लक्ष्मी गंगाधर राव*)
आज से डेढ़ सौ साल पहले उस वीरांगना ने अपना पार्थिव शरीर छोडा था। जिनसे देशहित में सहायता की उम्मीद थी उनमें से बहुतों ने साथ में या पहले ही जान दे दी। जब नाना साहेब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई, और खान बहादुर आदि खुले मैदान में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे तब तात्या टोपे ने इस बात को समझा कि युद्ध में सफल होने के लिए उन्हें ग्वालियर जैसे सुरक्षित किले की ज़रूरत है। अंग्रेजों के वफादार सिंधिया ने अपनी तोपों का मुँह रानी की सेना की ओर मोड़ दिया परन्तु अंततः आज़ादशाही सेना ने किले पर कब्ज़ा कर लिया। सिंधिया ने भागकर आगरा में अंग्रेजों की छावनी में शरण ली। युद्ध चलता रहा। बाद में १७ जून १८५८ को रानी वीरगति को प्राप्त हुईं। ध्यान देने की बात है कि मृत्यु के समय इस वीर रानी की आयु सिर्फ़ २३ वर्ष की थी।

रानी की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने तात्या टोपे को पकड़ लिया। विद्रोह को कुचल दिया गया और तात्या को बार फाँसी चढाया गया। यद्यपि तात्या टोपे पर उनके वंशजों द्वारा किये शोध के अनुसार अंग्रेजों द्वारा पकड़े गए तात्या असली नहीं थे और असली तात्या टोपे की मृत्य एक छापामार युद्ध में गोली लगने से हुई थी। स्वतन्त्रता सेनानियों के परिवारजन दशकों तक अँगरेज़ और सिंधिया के सिपाहियों से छिपकर दर-बदर भटकते रहे। रानी के बारे में सुभद्रा कुमारी चौहान के गीत "बुंदेले हरबोलों के मुँह..." से बेहतर श्रद्धांजलि तो क्या हो सकती है? अपनी वीरता से रानी लक्ष्मीबाई ने फिर से यह सिद्ध किया कि अन्याय से लड़ने के लिए महिला होना या अल्पायु होना कोई बाधा नहीं है।

ज्ञातव्य हो कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज में पहली महिला रेजिमेंट का नामकरण रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में किया था।

(~ अनुराग शर्मा)
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* 1857 की मनु - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
* झांसी की रानी रेजिमेंट
* सुभद्रा कुमारी चौहान
* यह सूरज अस्त नहीं होगा
* खुदीराम बासु
* रानी लक्ष्मी बाई की जीवनी
* The Rani of Jhansi - Time Specials

[मूल आलेख की तिथि: 18 जून 2009; Thursday, June 18, 2009; *चित्र ब्रिटिश लायब्रेरी से]