Friday, April 25, 2014

पंप हाउस - इस्पात नगरी से 68

सभी श्रमजीवियों को श्रमदिवस पर शुभकामनायें।
यह पम्पहाउस आज श्रमिकों का श्रद्धांजलिस्थल  है।
इस्पात नगरी पिट्सबर्ग की नदियों के किनारे आज भी स्टील मिलों के अवशेष बिखरे हुए हैं। मोनोङ्गहेला (Monongahela) नदी के किनारे बसा होमस्टेड तो पिट्सबर्ग के इस्पात निर्माण की कहानी का एक ऐतिहासिक अध्याय रहा है। विश्व प्रसिद्ध उद्योगपति एण्ड्र्यू कार्नेगी की कार्नेगी स्टील कंपनी का होमस्टेड कारख़ाना अन्य कारखानों से बेहतर था। इसके श्रमिक भी अधिक कुशल थे और यहाँ नई तकनीक के प्रयोग पर खासा ज़ोर था।

यह भवन हर रविवार को टूअर के लिए खुलता है।

प्रबंधन और कर्मियों की तनातनी लगातार बनी हुई थी जिसके कारण हड़ताल और तालाबंदी भी आम थे। 1889 की हड़ताल के बाद हुए तीन-साला समझौते के फलस्वरूप श्रमिकों के संघ अमलगमेटेड असोसियेशन ऑफ आइरन एंड स्टील वर्कर्स (Amalgamated Association of Iron and Steel Workers) को प्रबंधन द्वारा मान्यता मिली। इसके साथ ही होमस्टेड मिल के कर्मियों का वेतन भी देश के अन्य इस्पात श्रमिकों से बहुत अधिक बढ़ गया। तीन साल बाद करार पूरा होने पर खर्च बचाने को तत्पर मिलमालिक एंड्रयू कार्नेगी, कंपनी के अध्यक्ष हेनरी क्ले फ्रिक के सहयोग से संघ को तोड़ने के प्रयास में जुट गया।

घटना की विवरणपट्टी के पीछे मोनोङ्गहेला नदी पर बना इस्पात का पुरातन रेलपुल

मजदूरों ने तालाबंदी कर दी तो कार्नेगी ने पिंकरटन नेशनल डिटेक्टिव एजेंसी (Pinkerton National Detective Agency) को अपनी मिल का कब्जा लेने के लिए नियुक्त किया। 6 जुलाई 1892 को जब पिंकरटन रक्षकों का पोत मिल के साथ नदी के किनारे लगा तो श्रमिकों ने कड़ा विरोध किया। संघर्ष में सात श्रमिक और तीन रक्षकों की मृत्यु हुई और दर्जनों लोग घायल हुए। दो अन्य श्रमिकों की मृत्यु बाद में हुई। इस घटना के कारण स्थिति पर काबू पाने के लिए किए गए फ्रिक के अनुरोध पर आठ हज़ार से अधिक नेशनल गार्ड घटनास्थल पर पहुँच गए और मिल के साथ पूरी बस्ती को कब्जे में ले लिया। स्थिति नियंत्रण में आ गई।


एक बड़ी सी केतली, नहीं तब की अत्याधुनिक भट्टी


23 जुलाई 1892 को अराजकतावादी (anarchist) अलेक्ज़ेंडर बर्कमेन ने श्रमिकों के खून का बदला लेने के लिए फ्रिक के दफ्तर में घुसकर उसकी गर्दन पर दो गोलियां मारीं और बाद में चाकू से भी कई वार किए। फ्रिक को बचा लिया गया। वह एक हफ्ते में ही अस्पताल से छूटकर काम पर आ गया। बर्कमेन के हमले की वजह से मजदूरों का पक्ष काफी कमजोर पड़ा। उसे 22 वर्ष का कारावास हुआ और नवंबर 1892 तक सभी मजदूरों ने हड़ताल खत्म कर दी। श्रमिक संघ ऐसे समाप्त हुआ कि उसके बाद 1930 में ही वापस अस्तित्व में आ सका।

अपने कलाप्रेम के लिए देश भर में विख्यात फ्रिक को इस घटना के कारण अमेरिका के सबसे घृणित व्यक्ति और सबसे खराब सीईओ (Worst American CEOs of All Time) जैसे नाम दिये गए।

फ्रिक ने अपनी वसीयत में 150 एकड़ ज़मीन और बीस करोड़ (200,000,000) डॉलर का न्यास पिट्सबर्ग पालिका को दान किया। उसकी पत्नी एडिलेड की मृत्यु के बाद उनका कला संग्रहालय भी जनता के लिए खोल दिया गया। 1990 में उनकी पुत्री हेलेन ने उनकी अन्य संपत्ति दान करके पिट्सबर्ग के फ्रिक कला और इतिहास केंद्र (Frick Art and Historical Center) की स्थापना की।   

1892 की हड़ताल और तालाबंदी के स्थल पर आज "मनहाल का पंपहाउस" इस्पात श्रमिकों का स्मारक बनकर खड़ा है। घटनास्थल के कुछ अन्य चित्र यहाँ हैं। प्रत्येक चित्र को क्लिक करके बड़ा किया जा सकता है।


प्रकृति, जल, इस्पात, श्रम, निवेश, तकनीक और इतिहास

इस्पात के पुर्जे आज भी बिखरे हैं

एक पुरानी मिल के अवशेष

आलेख व सभी चित्र: अनुराग शर्मा द्वारा :: Pictures and article: Anurag Sharma

Monday, March 31, 2014

अच्छे ब्लॉग - ज़रूरतों से आगे का जहाँ

नवसंवत्सर प्लवंग/जय, विक्रमी 2071, नवरात्रि, युगादि, गुड़ी पड़वा, ध्वज प्रतिपदा की हार्दिक मंगलकामनाएँ!

अच्छे ब्लॉग के लक्षणों और आवश्यकताओं पर गुणीजन पहले ही बहुत कुछ लिख चुके हैं। इस दिशा में इतना काम हो चुका है कि एक नज़र देखने पर शायद एक और ब्लॉग प्रविष्टि की आवश्यकता ही समझ न आये। लेकिन फिर भी मैं लिखने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि कुछ बातें छूट गयी दिखती हैं। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह बिन्दु किसी ब्लॉग की अनिवार्यता नहीं हैं। मतलब यह कि इनके न होने से आपके ब्लॉग की पहचान में कमी नहीं आयेगी। हाँ यदि आप पहचान और ज़रूरत से आगे की बात सोचने में विश्वास रखते हैं तो आगे अवश्य पढिये। अवलोकन करके अपनी बहुमूल्य टिप्पणी भी दीजिये ताकि इस आलेख को और उपयोगी बनाया जा सके।

प्रकृति के रंग
कृतित्व/क़ॉपीराइट का आदर
हमसे पहले अनेक लोग अनेक काम कर चुके हैं। विश्व में अब तक इतना कुछ लिखा जा चुका है कि हमारी कही या लिखी बात का पूर्णतः मौलिक और स्वतंत्र होना लगभग असम्भव सा ही है। तो भी हर ब्लॉग लेखक को पहले से किये गये काम का आदर करना ही चाहिये। अमूमन हिन्दी ब्लॉग में चित्र आदि लगाते समय यह बात गांठ बान्ध लेनी चाहिये कि हर रचना, चित्र, काव्य, संगीत, फिल्म आदि अपने रचयिताओं एवम अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों या संस्थाओं की सम्पत्ति है। अगर आप तुर्रमखाँ समाजवादी हैं भी तो अपना समाजवाद दूसरों पर थोपने के बजाय खुद अपनाने का प्रयास कीजिये, अपने लेखन को कॉपीराइट से मुक्त कीजिये। लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग में इसका उल्टा ही देखने को मिलता है। आश्चर्य की बात है कि अपने ब्लॉग पर कॉपीराइट के बड़े-बड़े नोटिस लगनेवाले अक्सर दूसरों की कृतियाँ बिना आज्ञा बल्कि कई बार बिना क्रेडिट दिये लगाना सामान्य समझते हैं।

विधान/संविधान का आदर
मैं तानाशाही का मुखर विरोधी हूँ, लेकिन अराजकता और हिंसक लूटपाट का भी प्रखर विरोधी हूँ। आप जिस समाज में रहते हैं उसके नियमों का आदर करना सीखिये। मानचित्र लगते समय यह ध्यान रहे कि आप अपने देश की सीमाओं को संविधान सम्मत नक्शे से देखकर ही लगाएँ। हिमालय को खा बैठने को तैयार कम्युनिस्ट चीन के प्रोपेगेंडापरस्त नक्शों के प्रचारक तो कतई न बनें। देश की संस्कृति, परम्पराओं, पर्वों, भाषाओं को सम्मान देना भी हमें आना चाहिए। हिन्दी के नाम पर तमिल, उर्दू या भोजपुरी के नाम पर खड़ी बोली का अपमान करने का अधिकार किसी को नहीं है, यह ध्यान रहे। अपनी नैतिक, सामाजिक, विधिक जिम्मेदारियों का ध्यान रखिए और किसी के उकसावे का यंत्र बनने से बचिए।

सौन्दर्य शिल्प
अ थिंग ऑफ ब्यूटी इज़ अ जॉय फोरेवर। कुछ ब्लॉगों को सुंदर बनाने का प्रयास किया गया है, अच्छी बात है। लेकिन कुछ स्थानों पर सौन्दर्य नैसर्गिक रूपसे मौजूद है। जीवन शैली या विचारधारा के अंतर अपनी जगह हो सकते हैं लेकिन अविनाश चंद्र, संजय व्यास, गौतम राजऋषि, किशोर चौधरी, नीरज बसलियाल, सतीश सक्सेना आदि की लेखनी में मुझे जादू नज़र आता है। एक अलग तरह का जादू सफ़ेद घर, स्वप्न मेरे, और बेचैन आत्मा के शब्द-चित्रों में भी पाता हूँ।

सत्यनिष्ठा
कई बार लोग ईमानदारी की शुद्ध हिन्दी पूछते नज़र आते हैं। उन्हें बता दीजिये कि धर्म-ईमान समानार्थी तो नहीं परंतु समांतर अवश्य हैं। आमतौर पर सत्यनिष्ठा के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होने वाला शब्द ईमानदारी का शाब्दिक अर्थ सत्यनिष्ठा, कपटहीनता आदि न होकर अल्लाह में विश्वास और अन्य सभी में अनास्था है। मजहब, भाषा, क्षेत्र, राजनीति, जान-पहचान, रिश्ते-नाते, कर-चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार, गलत-बयानी आदि के कुओं से बाहर निकले बिना सत्यनिष्ठा को समझ पाना थोड़ा कठिन है। मैं सत्यनिष्ठा  को एक अच्छे ब्लॉग का अनिवार्य गुण समझता हूँ। बिना लाग-लपेट के सत्य को स्पष्ट शब्दों में कहने का प्रयास स्वयं भी करता हूँ, और ऐसे अन्य ब्लॉगों को नियमित पढ़ता भी हूँ जहाँ सत्यनिष्ठा की खुशबू आती है। ऐसे लेखकों से विभिन्न विषयों पर मेरे हज़ार मतभेद हों लेकिन उनके प्रति आदर और सम्मान रहता ही है। घूघूती बासूती, ज्ञानवाणी, लावण्यम-अन्तर्मन, सुज्ञ, मैं और मेरा परिवेश, मयखाना, सच्चा शरणम्, बालाजी, सुरभित सुमन, शब्दों के पंख आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी सत्यनिष्ठा के बारे में मैं निश्शङ्क हूँ। (मयखाना ब्लॉग के उल्लेख को मयकशी आदि वृत्तियों का समर्थन न समझा जाये।)

क्षणिक प्रचार महंगा पड़ेगा
हर रोज़ अपने साथी ब्लॉगरों को, भारतीय संस्कृति, पर्वों, शंकराचार्य या मंदिरों को, देश के लोगों या/और संविधान को गालियाँ देना आपको चर्चा में तो ला सकता है लेकिन वह लाईमलाइट क्षणिक ही होगी। तीन अंकों की टिप्पणियाँ पाने वाले कई ब्लॉगर क्षणिक प्रचार के इस फॉर्मूले को अपनाने के बाद से आज तक 2-4 असली और 10-12 स्पैम टिप्पणियों तक सिमट चुके हैं। ठीक है कि कुछ लोग टिप्पणी-आदान-प्रदान की मर्यादा का पालन करते हुए आपके सही-गलत को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे लेकिन जैसी कहावत है कि सौ सुनार की और एक लुहार की।

विश्वसनीयता बनी रहे
फेसबुक से कोई सच्चा-झूठा स्टेटस उठाकर उसे अपने ब्लॉग पर जस का तस चेप देना आसान काम है। चेन ईमेल से ब्लॉग पोस्ट बनाना भी हर्र लगे न फिटकरी वाला सौदा है। इससे रोज़ एक नई पोस्ट का इंतजाम तो हो जाएगा। लेकिन सुनी-सुनाई अफवाहों पर हाँजी-हूँजी करने के आगे भी एक बड़ी दुनिया है जहां विश्वसनीयता की कीमत आज भी है और आगे भी रहेगी। झूठ की कलई आज नहीं तो कल तो खुलती ही है। एक बात यह भी है कि जो चेन ईमेल आपके पास आज पहुँची है उसकी काट कई बार पिछले 70 साल से ब्रह्मांड के चक्कर काट रही होती है। बेहतरी इसी में है कि बेसिरपर की अफवाह को ब्लॉग पर पोस्ट करने से पहले उसकी एक्सपायरी डेट देख ली जाय।

विषय-वस्तु अधिकारक्षेत्र
हृदयाघात से मर चुके व्यक्ति के ब्लॉग पर अगर हृदयरोगों को जड़ से समाप्त करने की बूटी बांटने का दावा लिखा मिले तो आप क्या कहेंगे? कुरान या कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के अनुयायी वेदमंत्रों का अनाम स्रोतों द्वारा किया गया अनर्थकारी अनुवाद छापकर अपने को धर्म-विशेषज्ञ बताने लगें तो कैसे चलेगा? कितने ही लोग नैसर्गिक रूप से बहुआयामी व्यक्तित्व वाले होते हैं। ऐसे लोगों का विषयक्षेत्र विस्तृत होता है। लेकिन हम सब तो ऐसे नहीं हो सकते। अगर हम अपनी विशेषज्ञता और अधिकारक्षेत्र के भीतर ही लिखते हैं तो बात सच्ची और अच्छी होने की संभावना बनी रहती है। अक्सर ही ऐसी बात जनोपयोगी भी होती है।

विषय आधारित लेखन
ब्लॉग लिखने के लिए आपका शायर होना ज़रूरी तो नहीं। अपनी शिक्षा, पृष्ठभूमि, संस्था या व्यवसाय किसी को भी आधार बनाकर ब्लॉग चलाया जा सकता है। हिन्दी में पाककला पर कई ब्लॉग हैं। भ्रमण और यात्रा पर आधारित ब्लॉगों की भी कमी नहीं है। जनोपयोगी विषयों को लेकर भी ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। चित्रकारिता, फोटोग्राफी, नृत्य, संगीत, समर-कला, व्याकरण, जो भी आपका विषय है, उसी पर लिखना शुरू कीजिये। कॉमिक्स हों या कार्टून, विश्वास कीजिये, आपके लेखन-विषय के लिए कहीं न कहीं कोई पाठक व्यग्र है। लोग हर विषय पर लिखित सामग्री खोज रहे हैं।

नित-नूतन वैविध्य
कोई कवि है, कोई कहानीकार, कोई लेखक, कोई संवाददाता तो कोई प्रचारक। यदि आप किसी एक विधा में प्रवीण हैं तो उस विधा के मुरीद आपको पढ़ेंगे। लेकिन अगर आपके लेखन में वैविध्य है तो आपके पाठकवृन्द भी विविधता लिए हुए होंगे। विभिन्न प्रकार के पुरस्कारदाता आपको किसी एक श्रेणी में बांधना चाहते हैं। विशेषज्ञता महत्वपूर्ण है लेकिन उसके साथ-साथ भी लेखन में विविधता लाई जा सकती है। और यदि आप किसी एक विधा या विषय से बंधे हुए नहीं हैं, तब तो आपकी चांदी ही चांदी है। रचनाकार पर रोज़ नए लोगों का कृतित्व देखने को मिलता है। आलसी के चिट्ठे में रहस्य-रोमांच से लेकर संस्कृति के गहन रहस्यों की पड़ताल तक सभी कुछ शामिल है। मेरे मन कीकाव्य मंजूषा ब्लॉगों पर कविता, कहानी,आलेख के साथ साथ पॉडकास्ट भी सुनने को मिलते हैं। आप भी देखिये आप नया क्या कर सकते हैं।

सातत्य
यदि आप नियमित लिखते हैं तो पाठक भी नियमित आते हैं। टिप्पणी करें न करें लेकिन नियमित ब्लॉग पढे अवश्य जाते हैं। सातत्य खत्म तो ब्लॉग उजड़ा समझिए। आज जब अधिकांश हिन्दी ब्लॉगर फेसबुक आदि सोशल मीडिया की ओर प्रवृत्त होकर ब्लॉग्स पर अनियमित होने लगे हैं, सातत्य अपनाने वाले ब्लॉग्स चुपचाप अपनी रैंकिंग बढ़ाते जा रहे हैं। उल्लूक टाइम्स, एक जीवन एक कहानी जैसे ब्लॉग निरंतर चलते जा रहे हैं।

कुछ अलग सा
अपना लेखन अक्सर अद्वितीय लगता है। अच्छा लेखन वह है जो पाठकों को भी अद्वितीय लगे। उसमें आपकी जानकारी के साथ-साथ शिल्प, लगन और नेकनीयती भी जुड़नी चाहिए। असामान्य लेखन के लिए लेखन, वर्तनी और व्याकरण के सामान्य नियम जानना और अपनाना भी ज़रूरी है। किसी को खुश (या नाराज़) करने के उद्देश्य से लिखी गई पोस्ट अपनी आभा अपने आप ही खो देती है। इसी प्रकार किसी कहानी में पात्रों के साथ जब लेखक का अहं उतराने लगे तो अच्छी कथा की पकड़ भी कमजोर होने लगती है। किसी गजल या छंद को मात्रा के नियमों की दृष्टि से सुधारना अलग बात है लेकिन आपका लेखन आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। उसके नकलीपन को सब न सही, कुछेक पारखी नज़रें तो पकड़ ही लेंगी। कुछ अलग से लेखन के उदाहरण के लिए मो सम कौन, चला बिहारी, शब्दों का डीएनए, उन्मुक्त, और मल्हार को पढ़ा जा सकता है। अलग सा लेखन वही है जिसे अलग सा बनाने का प्रयास न करना पड़े।

निजता का आदर
आपका ब्लॉग आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। लोगों की निजता का आदर कीजिये। हो सकता है आप ही सबसे अच्छे हों। सारी कमियाँ आपके साथी लेखकों में ही रही हों। लेकिन अगर आपकी साहित्यिक पत्रिका के हर अंक में आपके एक ऐसे साथी की कमियाँ नाम ले-लेकर उजागर की जाती हैं जो या तो ऑनलाइन नहीं है, या फिर इस संसार में ही नहीं है तो इससे आपके साथियों के बारे में कम, आपके बारे में अधिक पता लगता है। इसी प्रकार जिस अनदेखे मित्र को आप सालगिरह मुबारक करने वाले हैं, हो सकता है वह आज भी उस आदमी को ढूंढ रहा हो, जिसने उसकी सालगिरह की तिथि सार्वजनिक की थी। लोगों की निजता का आदर कीजिये।

ट्रेंडसेटर ब्लॉग्स
अगर हर कोई कविता लिखने लगे, तो ज़ाहिर है कि पाठकों की कमी हो जाएगी। लेकिन अगर हर कोई पत्रिकाओं में छपना चाहे तो अधकचरे संपादकों के भी वारे-न्यारे हो जाएँगे। इसी तरह यदि हर ब्लॉगर किताब लिखना चाहेगा तो प्रकाशकों के ब्लॉग्स के ढूँढे पड़ेंगे। यदि आपका ब्लॉग भीड़ से अलग हटकर है, बल्कि उससे भी आगे यदि वह है जिसकी तलाश भीड़ को है तो समझ लीजिये कि आपने किला फतह कर लिया। इस श्रेणी का एक अनूठा उदाहरण है हमारे ताऊ रामपुरिया का ब्लॉग। मज़ाक-मज़ाक में सामाजिक विसंगतियों पर चोट कर पाना तो उनकी विशेषता है। लेकिन सबसे अलग बात है अपने पाठकों को ब्लॉग में शामिल कर पाना। ब्लॉग की सफलतम पहेली की बात हो, ब्लॉग्स को सम्मानित करने की, या ब्लॉगर्स के साक्षात्कार करने की, ताऊ रामपुरिया का ब्लॉग एक ट्रेंडसेटर रहा है।

बहुरूपियों के पिट्ठू मत बनिए
आपके आसपास बिखरी विसंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर आपकी भावनाओं का पोषण करने वाले मौकापरस्त सौदागरों के शोषण से बचने के लिए लगातार चौकन्ने रहना ज़रूरी है। लिखते समय भी यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कहीं आपकी भावनाओं का दोहन किसी निहित स्वार्थ के लिए तो नहीं हो रहा है। कितनी ही बहुरूपिया, मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं के एजेंट अपनी असलियत छिपाकर अपने को एक सामान्य गृहिणी, जनसेवक, पत्रकार, शिक्षक, डॉक्टर या वकील जैसे दिखाकर अपनी-अपनी दुकान का बासी माल ठेलने में लगे हुए हैं। ज़रा जांच-पड़ताल कीजिये। विरोध न सही, उनकी धार में बह जाने से तो बच ही सकते हैं। जो व्यक्ति अपनी राजनीतिक या मजहबी प्रतिबद्धता को साप्रयास छिपा रहे हैं, उन्हें खुद अपनी विचारधारा की नैतिकता पर शक है। बल्कि कइयों को तो अपनी विचारधारा की अनैतिकता अच्छी तरह पता है। वे तो भोले ग्राहक को ठगकर अपने घटिया माल को भी महंगे दाम पर बेच लेना चाहते हैं। ऐसे मक्कारों का साथ, मैं तो कभी न दूँ। आप भी खुद बचें, दूसरों को बचाएं। ध्यान रहे कि इस देश में सैकड़ों क्रांतियाँ हो चुकी हैं। बड़े-बड़े कवि, लेखक, साहित्यकार भी मोहभंग के बाद कोने में पड़े टेसुए बहाते देखे गए हैं। उनकी दुर्गति से सबक लीजिये।

मौलिकता - कंटेन्ट इज़ किंग
अनुवादमूलक ब्लॉगस को छोड़ दें तो सार यह है कि आपका मौलिक लेखन ही आपकी विशेषता है। बल्कि, अच्छे अनुवाद में भी मौलिकता महत्वपूर्ण है। हिन्दी के दो बहु-प्रशंसित ब्लॉगों में हिंदीजेन और केरल पुराण शामिल हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की मानसिक हलचल से अभिषेक ओझा के ओझा-उवाच तक, मौलिकता एक सरस सूत्र है। दूसरों के लेख, कविता, नाम पते, बीमारी या अन्य व्यक्तिगत जानकारी छापकर आप केवल अस्थाई प्रशंसा पा सकते हैं। कुछ वही गति राजनीतिक प्रश्रय, श्रेय पाने, या डाइरेक्टरी बेचकर पैसा कमाने के लिए बांटी गई रेवड़ियों की होती है। चार दिन की चाँदनी, फिर अंधेरी रात। अच्छा लिखिए, सच्चा लिखिए और मौलिक लिखिए, आपका लेखन अवश्य पहचाना जाएगा।

संबन्धित कड़ियाँ
* विश्वसनीयता का संकट
* लेखक बेचारा क्या करे?
* आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

Sunday, March 23, 2014

शहीदत्रयी को श्रद्धांजलि

(अनुराग शर्मा)


1933 में छपा शहीदत्रयी पोस्टर
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और उनके कई साथियों की फाँसी के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने जब हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के पुनर्गठन का बीडा उठाया तब नई संस्था हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (HSRA = हि.सो.रि.ए.) को पंजाब की ओर से भी सक्रिय योगदान मिला। उस समय लाहौर में लाला लाजपत राय के 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में सरदार भगतसिंह, यशपाल, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव थापर, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारी एकजुट हो रहे थे। सुखदेव थापर ने पंजाब नेशनल कॉलेज में भारत के स्वाधीनता संग्राम के दिशा-निर्देशन के लिए एक अध्ययन मण्डल की स्थापना की थी। भगवतीचरण वोहरा और भगत सिंह नौजवान भारत सभा के सह-संस्थापक थे। भगवतीचरण वोहरा "नौजवान भारत सभा" के प्रथम महासचिव भी थे। हिसोरिए में पंजाब से आने वाले क्रांतिकारियों में उपरोक्त नाम प्रमुख थे।

आज 23 मार्च का दिन शहीदत्रयी यानि सुखदेव, भगतसिंह और राजगुरु के नाम समर्पित रहा है। 1931 में इसी दिन शहीदत्रयी ने फाँसी को गले लगाया था। आइये एक बार फिर उन वीरों के दर्शन करें जिन्होने हमारी व्यक्तिगत, राजनीतिक, धार्मिक स्वतन्त्रता और उज्ज्वल भविष्य की कमाना में अल्पायु में ही अपना सर्वस्व त्याग दिया।

लाला लाजपत राय
8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह के साथ असेंबली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को पहले ही आजीवन कारावास घोषित हुआ था। फिर लाहौर षडयंत्र काण्ड में अदालत की बदनीयती के चलते जब यह आशंका हुई कि अंग्रेज़ सरकार शहीदत्रयी को मृत्युदंड देने का मन बना चुकी है तब भाई भगवती चरण वोहरा और भैया चंद्रशेखर आजाद ने मिलकर बलप्रयोग द्वारा उन्हें जेल से छुड़ाने की योजना बनाई। आज़ाद द्वारा भेजे गये दो क्रांतिकारियों और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर इसी उद्देश्य से बनाए जा रहे शक्तिशाली बमों के परीक्षण के समय 28 मई 1930 को रावी नदी के किनारे हुए एक विस्फोट ने वोहरा जी को हमसे सदा के लिये छीन लिया। भाई भगवतीचरण वोहरा के असामयिक निधन के साथ शहीदत्रयी को जेल से छुड़ने के शक्ति-प्रयास भी मृतप्राय से हो गए।

वोहरा जी की हृदयविदारक मृत्यु के दारुण दुख के बावजूद चन्द्रशेखर आज़ाद ने आशा का दामन नहीं छोड़ा और गिरफ्तार क्रांतिकारियों को छुड़ाने के लिए राजनीतिक प्रयास आरंभ किए। इसी सिलसिले में कॉङ्ग्रेस के नेताओं से मुलाकातें कीं। ऐसी ही एक मुलाक़ात में पंडित नेहरू से तथाकथित बहसा-बहसी के बाद इलाहाबाद के एलफ्रेड पार्क में पुलिस मुठभेड़ का कड़ा मुक़ाबला करने के बाद उन्होने अपनी कनपटी पर गोली मारकर अपने नाम "आज़ाद" को सार्थक किया।
  
राजगुरु
क्रांतिकारियों के बीच राजगुरु नाम से जाने गए इस यशस्वी नायक का पूरा नाम हरि शिवराम राजगुरु है। उनका जन्म 1908 में हुआ था। उस काल के अनेक प्रसिद्ध शहीदों की तरह वे भी चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य थे। उन्होने साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शनों में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के साथ भाग लिया था। पंजाब केसरी की हत्या का बदला लेने की गतिविधियों में उनकी उल्लेखनीय प्रस्तुति रही थी। लेकिन उनकी मशहूरी दिल्ली असेंबली बम कांड की शहीदत्रयी में शामिल होने के कारण अधिक हुई क्योंकि इसी घटना के कारण मात्र 23 वर्ष की उम्र में उन्होने हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया।

सुखदेव थापर
15 मई 1907 को जन्मे सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के वरिष्ठ और सक्रिय सदस्य थे। वे पंजाब केसरी की हत्या का बदला लेने की गतिविधियों और 1928 के हत्याकांड में भगत सिंह और राजगुरु के सहभागी थे। 1929 में जेल में हुई भूख हड़ताल में भी शामिल थे। सुखदेव ने गांधी जी को एक खुला पत्र भी लिखा था जिसे उनके भाई मथुरादास ने महादेव देसाई को पहुँचाया। था। गांधी जी ने सुखदेव की इच्छा के अनुसार उस पत्र का उत्तर एक जनसभा में दिया था। इन्हीं मथुरादास थापर का विश्वास था कि क्रांतिकारियों का साथी और हिन्दी लेखक यशपाल एक पुलिस मुखबिर था।

सरदार भगतसिंह
पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल की बदनीयती पर ध्यान आकर्षित करने के लिये क्रांतिकारियों के बनाये कार्यक्रम के अनुसार बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह द्वारा सेंट्रल एसेंबली में कच्चा बम फेंकने के बाद भगतसिंह ने घटनास्थल पर ही गिरफ़्तारी दी और इस सिलसिले में बाद में कई अन्य क्रांतिकारियों की गिरफ़्तारी हुई। शहीदत्रयी (राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह) द्वारा न्यायालय में पढ़े जाने वाले बयान "भाई" भगवतीचरण वोहरा द्वारा पहले से तैयार किये गये थे। 23 मार्च 1931 को हँसते-हँसते फांसी चढ़कर भगतसिंह ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अपना नाम अमर कर दिया।
 
80 दशक के प्रारम्भिक वर्षो से भगतसिंह पर रिसर्च कर रहे उनके सगे भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह के अनुसार भगतसिंह पिस्तौल की अपेक्षा पुस्तक के अधिक करीब थे। उनके अनुसार भगतसिंह ने अपने जीवन में केवल एक बार गोली चलाई थी, जिससे सांडर्स की मौत हुई। उनके अनुसार भगतसिंह के आगरा स्थित ठिकाने पर कम से कम 175 पुस्तकों का संग्रह था। चार वर्षो के दौरान उन्होंने इन सारी किताबों का अध्ययन किया था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की तरह उन्हें भी पढ़ने की इतनी आदत थी कि जेल में रहते हुए भी वे अपना समय पठन-पाठन में ही लगाते थे।

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में भगत सिंह का कूटनाम "रणजीत" था। कानपुर के "प्रताप" में वे "बलवंत सिंह" के नाम से तथा दिल्ली के "अर्जुन" में "अर्जुन सिंह" के नाम से लिखते थे।

चंद्रशेखर आज़ाद
चन्द्रशेखर आज़ाद असेम्बली में बम फ़ेंकने के पक्ष में नहीं थे परंतु हिसोरिए के प्रमुख सेनापति होने के बावजूद उन्होंने अपने साथियों की इच्छा को माना। तब भी वे बम फेंककर गिरफ़्तार हो जाने के विरोधी रहे और असेम्बली के बाहर कार लेकर क्रांतिकारियों का इंतज़ार भी करते रहे थे। काश उनके साथी उनकी बात मान लेते!


अमर हो स्वतन्त्रता
 

Sunday, March 16, 2014

कालचक्र - कविता

(अनुराग शर्मा)

बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई

बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए

कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं

छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है

मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई

कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया

Sunday, March 9, 2014

शब्दों के टुकड़े - भाग 5

(आलेख: अनुराग शर्मा)
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।

1. जित्ता बड़ा दिल, उत्ता बड़ा बिल
2. किसी फिक्र का ज़िक्र करने वालों को अक्सर उस ज़िक्र की फिक्र करनी पड़ती है।
3. दोस्ती दो दिलों की सहमति से ही हो सकती है, असहयोग के लिए एक ही काफी है।
4. उदारता की एक किरण उदासी की कालिमा हर लेती है।
5. हर किसी का पक्षधर अक्सर किसी का भी पक्षधर नहीं होता, खासकर तब जब वह खुद भी दौड़ में शामिल हो।
6. अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
7. सूमो विरोधी का बलपूर्वक सामना करता है लेकिन जूडोका विरोधी की शक्ति से ही काम चलाता है।
8. जो कुछ नहीं करते, वे गज़ब करते हैं।
9. बहरूपिये के मुखौटे के पीछे छिपे चेहरे को न पहचानकर उसे समर्थन देने वाले एक दिन खुद अपनी नज़रों में तो गिरते ही हैं, लेकिन तब तक समाज के बड़े अहित के साझीदार बन चुके होते हैं।
10. दुनिया का आधा कबाड़ा इंसानी गलतियों से हुआ। गलतियाँ सुधारने के अधकचरे, कमअक्ल और स्वार्थी प्रयासों ने बची-खुची उम्मीद का बेड़ा गर्क किया है।
11. तानाशाहों की वैचारिकी उनके हथियारबंद गिरोहों द्वारा मनवा ली जाती है, विचारकों की तानाशाही को तो उनकी अपनी संतति भी घास नहीं डालती।

आज आपके लिये कुछ कथन जिसका अनुवाद मुझसे नहीं हो सका। कृपया अच्छे से हिन्दी अनुवाद सुझायें:
  • You are not frugal until you use coupons at a dollar store
  • Don't act, just act!
  • visibility enables trust, familiarity means comfort
मुकेश निर्मित और अभिनीत "अनुराग"


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सम्बंधित कड़ियाँ
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* शब्दों के टुकड़े - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6
मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* सत्य के टुकड़े - कविता
* खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २) - अभिषेक ओझा
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Monday, February 3, 2014

हिमपातकाले [इस्पात नगरी से 67]

कहाँ से आए बदरा

वीरों के पदचिन्ह
एक अकेला इस शहर में
बादल पे चलके आ
सूरज रे, जलते रहना
आसमां गा रहा है 
सूरज की गर्मी से पिघलकर फिर जमी बर्फ पानी का धोखा देकर वाहनों के लिए घातक सिद्ध होती है   
चम्बे दा गाँव, गाँव में दो प्रेमी रहते हैं 
ये कौन चित्रकार है 
रुक जाना नहीं तू कहीं हार के 
आज रपट जाएँ तो हमें न उठइयो 
ये वादियाँ, ये फिज़ाएँ बुला रही हैं मुझे 
सीधे सीधे रास्तों को हल्का सा मोड दे दो   
तुम निडर हटो नहीं, तुम निडर डटो वहीं 
वादियाँ मेरा दामन
ये कहाँ आ गए हम 
पत्ता पत्ता बूटा बूटा 
गोरी चलो न हंस की चाल ज़माना दुश्मन है 
नीले गगन के तले
हर तरफ अब यही अफसाने हैं ... 


[सभी चित्र: अनुराग शर्मा :: Photos by Anurag Sharma]

Sunday, January 19, 2014

भविष्यवाणी - कहानी भाग 5 [अंतिम कड़ी]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अड़चन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने अपनी नौकरी छूटने और बीमारी के बारे में बताते हुए कहा कि उसके घर हमारे आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी। बहकी बहकी बातों के बीच वह कहती रही कि भगवान् ने उसे बताया है यहाँ गैरकानूनी ढंग से रहने पर भी उसे कोई हानि नहीं होनी है जबकि भारत के समय-क्षेत्र में प्रवेश करते ही वह मर जायेगी। उसके हित के लिए हम भी उसकी तरह भगवान से वार्तालाप करने लगे। उसके लिए नौकरी ढूँढने के साथ-साथ उसके संबंधियों की जानकारी भी इकट्ठी करनी शुरू कर दी।
भाग १ , भाग २ , भाग ३ , भाग ४ ; अब आगे की कथा:

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

रूबी के पति से बात करना तो हमारी आशंका से कहीं अधिक कठिन साबित हुआ, "उस पगलैट से मेरा कोई लेना देना नहीं है। तंग आ चुका हूँ मुसीबत झेलते-झेलते …"

"कैसी बात कर रहे हैं आप? अपने काम से संसार भर में भारत का नाम रोशन करने वाली इतनी योग्य महिला को ऐसे कहते हुए शर्म नहीं आती?" मुझसे रहा न गया।

"मुझे पाठ मत पढाओ लडके! लेख उसने कोई नहीं लिखे, मैंने लिखे थे। उसे या तो नकल करना आता है या क्रेडिट लेना। जितना नसीब में था, मैंने झेल लिया, अब वो अपने रास्ते है, मैं अपने। तुम भी उस नामुराद औरत से दूर ही रहो वरना जल्दी ही किसी मुसीबत में फंसोगे।"

"कुछ भी हो, अपनी पत्नी के बुरे वक़्त में उसकी सहायता करना आपका कर्त्तव्य है … आखिर आपकी जीवन-संगिनी है वह ..."

"जब पत्नी थी तब बहुत कर ली सहायता, अब मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं उस कमबख्त से" मेरी बात बीच में काटकर उस व्यक्ति ने अपनी बात कही और फोन काट दिया. बात वहीं की वहीं रह गई।

मार्ग कठिन था लेकिन उसकी सहायता कैसे की जाय यह सोचना छोड़ा नहीं था, न मैंने, न रोनित ने। नौकरी करना, घर संभालना, और फिर कुछ समय मिले तो रूबी के रिज्यूमे पर काम करना। पता ही न लगा कितना समय बीत गया। उसे सात्विक और पौष्टिक भोजन नियमित मिले, यह ज़िम्मेदारी श्रीमतीजी ने ले ली थी। वह खाने नहीं आती थी तो वे ही खाना लेकर सुबह शाम उसके पास चली जाती थी।

उस दिन काम करते-करते तबीयत कुछ खराब सी लगने लगी। इसी बीच श्रीमतीजी का फोन आया, "आप जल्दी से आ जाइए, रूबी को ले जाने आए हैं।"

"ले जाने आए हैं? कौन?"

उन्होने बताया कि प्रशासन की ओर से कुछ लोग आकर रूबी से बात कर रहे हैं। कौन लोग हैं, यह तो उन्हें भी ठीक से नहीं पता। मुझसे दफ्तर में रुका न गया और मैं तभी घर चला आया। अपार्टमेंट परिसर के द्वार तक पहुँचा तो रूबी को अफ्रीकी मूल के एक लंबे-तगड़े पुलिस अधिकारी के साथ बाहर आते देखा। मैंने उन्हें रोककर रूबी से सारा किस्सा जानना चाहा। उसके कुछ कहने से पहले ही उस पुलिस अधिकारी ने हमें आश्वस्त कराते हुए विनम्रता से बताया कि वह उसे नगर के महिला सुरक्षा संस्थान में ले जाने के लिए आया है। वहाँ उसके रहने-खाने, मनोरंजन व स्वास्थ्य सेवा का प्रबंध तो है ही, प्रशिक्षित जन उसे वीसा प्रक्रिया सुचारु करने और नई नौकरी ढूँढने में सहायता करेंगे। वह जब तक चाहे, महिला सुरक्षा संस्थान में निशुल्क रह सकती है। नई नौकरी मिलने तक वे लोग ही उसके बेरोज़गारी भत्ते के कागज भी तैयार कराएंगे। इन दोनों के पीछे-पीछे महिला सुरक्षा संस्थान की जैकेट पहने दो श्वेत महिलाओं के साथ ही श्रीमतीजी बाहर आईं। रूबी हमसे विदा लेकर उन महिलाओं के साथ, संस्थान की वैन में बैठकर चली गई और फिर उस पुलिस अधिकारी ने जाने से पहले हमें बेफिक्र रहने की सलाह देते हुए अपना हैट उतारकर विदा ली। उसके इमली के कोयले जैसे स्निग्ध चेहरे पर हैट हटाने से अनावृत्त हुए घने कुंचित केश देखकर न जाने क्यों मुझे नानी के घर बड़े से फ्रेम में लगे जर्मनी में छपे कृष्ण जी की पुरानी तस्वीर की याद आ गई।

सबके जाने के बाद अकेले बचे हम दोनों वहीं खड़े हुए बात करने लगे। संस्थान की महिलाओं ने श्रीमतीजी को बताया था कि रूबी नौकरी छूटने के दिन से ही बेरोजगारी भत्ते की अधिकारी थी और वे उसकी बकाया रकम भी उसे दिला देंगे। अपार्टमेंट वालों ने उसकी स्थिति को देखते हुए उस पर बकाया किराया, बिजली आदि का खर्च पहले ही क्षमा कर दिया था।

"चलो सब ठीक ही हुआ। हमारी उम्मीद से कहीं बेहतर" मैंने आश्वस्ति की साँस लेते हुए कहा।

"अरेSSS"  श्रीमतीजी ऐसे चौंकीं जैसे कोई बड़ा रहस्य हाथ लगा हो, " ... आपने देखा हम कहाँ खड़े हैं?" 

"पार्किंग लॉट में, और कहाँ?"

"ध्यान से देखिये, यह बिल्कुल वही जगह है जहाँ इंगित करते हुए रूबी ने भगवान का जहाज़ उतरने की भविष्यवाणी की थी।"

मैं भ्रमित था, क्या ये सारा घटनाक्रम, वाहन लैंडिंग स्थल, और उस पुलिस अधिकारी का चेहरा-मोहरा संयोगमात्र था?

[समाप्त]
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Tuesday, January 14, 2014

एक उदास नज़्म

(अनुराग शर्मा)

यह नज़्म या कविता जो भी कहें, लंबे समय से ड्राफ्ट मोड में रखी थी, इस उम्मीद में कि कभी पूरी होगी, अधूरी ही सही, अंधेर से देर भली ... 



एक देश वो जिसमें रहता है
एक देश जो उसमें रहता है

एक देश उसे अपनाता है
एक देश वो छोड़ के आता है

इस देश में अबला नारी है
नारी ही क्यों दुखियारी है

ये देश भरा दुखियारों से
बेघर और बंजारों से

ये इक सोने का बकरा है
ये नामा, गल्ला, वक्रा है

इस देश की बात पुरानी है
नानी की लम्बी कहानी है

उस किस्से में न राजा है
न ही सुन्दर इक रानी है

हाँ देओ-दानव मिलते हैं
दिन में सडकों पर फिरते हैं

रिश्वत का राज चलाते हैं
वे जनता को धमकाते हैं

दिन रात वे ढंग बदलते हैं
गिरगिट से रंग बदलते हैं

कभी धर्म का राग सुनाते हैं
नफरत की बीन बजाते हैं

वे मुल्ला हैं हर मस्जिद में
वे काबिज़ हैं हर मजलिस में

बंदूक है उनके हाथों में
है खून लगा उन दांतों में

उन दाँतो से बचना होगा
इक रक्षक को रचना होगा
   उस देश में एक निठारी है
जहां रक्खी एक कटारी है

जहां खून सनी दीवारें हैं
मासूमों की चीत्कारें हैं

कितने बच्चों को मारा था
मानव दानव से हारा था

कोई उन बच्चों को खाता था
शैतान भी तब शरमाता था

न उनका कोई ईश्वर है
न उनका कोई अल्ला था

न उनका एक पुरोहित है
न उनका कोई मुल्ला था

न उनका कोई वक़्फ़ा था
न उनकी कोई छुट्टी थी

जिस मिट्टी से वे उपजे थे
उन हाथों में बस मिट्टी थी

वे बच्चे थे मजदूरों के
बेबस और मजबूरों के

जो रोज़ के रोज़ कमाते थे
तब जाके रोटी खाते थे

संसार का भार बंधे सर में
तब चूल्हा जलता है घर मेंं

वे बच्चों को तो बचा न सके
दुनियादारी सिखला न सके

हमें उनके घाव नहीं दिखते
हम कैंडल मार्च नहीं करते

हम सब्र उन्हें सिखलाते हैं
और प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं

Monday, December 30, 2013

प्रेमिल मन - एक कविता

चावल, चीनी और चाय से बनी स्वर्णकण आच्छादित जापानी मिठाई मोची (餅)
(अनुराग शर्मा)

दुश्मनों का प्यार पाना चाहता है
हाथ पे सरसों उगाना चाहता है

इंतिहा मासूमियत की हो गयी है
प्यार में दिल मार खाना चाहता है

इक नदी के दो किनारे लोग नाखुश
हर कोई "उस" पार जाना चाहता है

धूप और बादल में समझौता हुआ है
खेत बस अब लहलहाना चाहता है

जिस जहाँ में साथ तेरा मिल न पाये
दिल वहाँ से छूट जाना चाहता है

बचपने में जो खिलौना तोड़ डाला
मन उसी को आज पाना चाहता है

रात दिन भटका सारे जगत में वो
मन तुम्हारे द्वार आना चाहता है

कौन जाने फिर मनाने आ ही जाओ
दिल हमारा रूठ जाना चाहता है

एक बाज़ी ये लगा लें आखिरी बस
दिल तुम्ही से हार जाना चाहता है

दुश्मनों का साथ देने चल दिया वह
कौन आखिर मात खाना चाहता है

बहर से करते सरीकत क्या कहेंगे
केतली में ज्वार आना चाहता है
सपरिवार आपको, आपके मित्रों, परिजनों और शुभचिंतकों को नव वर्ष 2014 के आगमन पर हार्दिक मंगलकामनाएँ

Tuesday, December 24, 2013

संगीता रिचर्ड बनाम देवयानी खोबरागड़े बनाम भावुक भारतीय

शहीद सूबेदार कुंवर पाल
दिसंबर 2013: मेरठ के सूबेदार कुँवर पाल गुरुवार को भारतीय शांति सैनिकों के शिविर पर हुए हमले में मारे गए। दक्षिणी सूडान से उनके शव को लाने में हो रही देरी पर उनके परिवार और गाँव में बहुत रोष है। उनकी पत्नी के भाई कहते हैं, "कोई नेता होता तो दो घंटे में इंतज़ाम हो जाता. यहाँ सेना के जवान के लिए कोई सुविधा नहीं है?"

दिसंबर 2013: न्यूयॉर्क में अपनी नौकरानी के शोषण और प्रताड़ना तथा अमेरिकी वीसा प्रक्रिया के साथ धोखाधड़ी के आरोप में न्यूयॉर्क में पकड़ी गई देवयानी खोबरागड़े को सस्पेंड करने के बजाय भारत सरकार अमेरिका के खिलाफ हर तरह के विरोध दर्ज़ करने के बाद देवयानी को राजनीतिक प्रतिरक्षा का लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से उसे संयुक्त राष्ट्र के स्थाई प्रतिनिधि के रूप में प्रोन्नत करती है। खबरें देखने पर पता लगता है कि देवयानी खोबरागड़े ने वीसा प्रक्रिया में तो धोखाधड़ी की ही थी, साथ ही नौकरानी द्वारा कानूनी सहायता लेने पर उसके परिवार के खिलाफ भारत में धोखाधड़ी का मुकदमा दर्ज़ कराकर उसके पति को भी गिरफ्तार कराया था। बात यहीं नहीं रुकी, देवयानी ने नौकरानी का पासपोर्ट रद्द कराया और फिर पासपोर्टविहीन होने के कारण उसे अवैध आप्रवासी बताकर अमेरिकी सरकार पर दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास द्वारा उसकी गिरफ्तारी के लिए दवाब डाला। एक ओर एक निम्न-मध्यवर्गीय घरेलू नौकरानी और दूसरी ओर एक शक्तिशाली नौकरशाह परिवार। दवाब बढ़ता गया और अंततः बात यहाँ तक पहुँची कि अमेरिकी सरकार को संगीता के परिवार को दमन से बचाने के लिए अमेरिका लाना पड़ा।

दोनों परिस्थितियों की तुलना करने पर न केवल शहीद सूबेदार के परिजनों के शब्द सही साबित होते हैं बल्कि हमारे महान राष्ट्र के आदर्श वाक्य "सत्यमेव जयते" को भी गहरी चोट पहुँचती है और मेरे जैसा सामान्य बुद्धि वाला एक भारतीय यह सोचने को बाध्य होता है कि देश की वर्तमान व्यवस्था किस किस्म के लोगों को लाभ पहुँचाने में लगी है और एक गरीब भारतीय नागरिक के दमन के लिए उसके लिए हमारी मशीनरी कितना दूर तक जा सकती है।

एक ओर निहित स्वार्थ के लिए कानून को नचाने वाले नेता और नौकरशाह हैं और दूसरी ओर वे सैनिक हैं जिनके सिर आतंकवादी काट लेते हैं, जिनके शरीर को पड़ोसी देश की सेना अपमानजनक रूप से क्षत-विक्षत करती है। जिनकी विधवाओं को देने के नाम पर बने "आदर्श" के फ्लैट कुछ भ्रष्ट नेता और नौकरशाह मिलकर बाँट लेते हैं।

एक ओर पूरा भारतीय नौकरशाही तंत्र है और दूसरी ओर एक घरेलू सहायिका संगीता रिचर्ड है जो अपने घर-परिवार से दूर एक समृद्ध राजनयिक के परिवार की सेवा में लगी है और जब अपने पैसे या समय के बारे में कानूनन जायज़ शिकायत करती है तो उसकी मालकिन अपने प्रभाव का प्रयोग करके एक ऐसे इकरारनामे के आधार उसके पति को भारत में चार सौ बीसी के आरोप में गिरफ्तार करवाती है,जो आगे चलकर मालकिन देवयानी के खुद के अपराध का प्रमाण बनता है। देवयानी को इतने पर भी तसल्ली नहीं होती तो अपने रसूख का प्रयोग कर अमेरिकी प्रशासन और दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास पर दवाब डलवाती है कि पासपोर्ट रद्द होने के बावजूद भी अमेरिका में रुकी हुई सहायिका को गिरफ्तार करके सज़ा काटने के लिए भारत क्यों नहीं भेजा जा रहा है। जबकि वह पासपोर्ट तो संगीता की मर्ज़ी और जानकारी के बिना (संभवतः देवयानी की पहल पर) रद्द किया गया था। इस जोश में वह अमेरिकी दूतावास को गलती से यह भी बता बैठती है कि भारत में संगीता और उसके पति के खिलाफ कोर्ट और पुलिस के जोश का आधार देवयानी का तैयार किया गया एक ऐसा दूसरा इकरारनामा (25,000 रुपये मासिक का) है जो उसने संगीता को नौकरी देते समय लिखवाया था और घरेलू नौकरानी का वीसा दाखिल कराते समय, अमेरिकी कानून की प्रतिबद्धता (न्यूयॉर्क में 9.75 डॉलर प्रति घंटा या अधिक) की बात पर हस्ताक्षर करते समय उनके शोषण-विरोधी श्रम क़ानूनों की काट के लिए उन्हीं के विरुद्ध बनाए गए इस इकरारनामे की बात छिपा ली गई थी। वीसा अर्ज़ी में घोषित और अमेरिका में रहते हुए न्यूनतम वेतन या उससे अधिक वेतन देने के वादे वाले इकरारामे से इतर (कम पैसे वाला) कोई भी इकरारनामा अमेरिका में कार्य के नियमों का खुला उल्लंघन है, और 25,000 रुपये मासिक के ऐसे छिपे हुए और समांतर समझौते का उद्देश्य सिर्फ इतना ही हो सकता है कि संगीता को नियम से कम वेतन दिया जाय और यदि कभी वह अपने अधिकारों के बारे में जान जाये और उनकी मांग करे तो उसे भारत में कानूनी कार्यवाही के नाम से धमकाया जा सके। क्या ऐसा इकरारनामा भारतीय संविधान के तहत कानूनी माना जाएगा? मुझे इसमें शक है लेकिन कानूनी विशेषज्ञों की राय जानना चाहूँगा।

देवयानी सरकारी सुविधाओं का पूर्ण लाभ उठा रही थीं। खबरें हैं कि वे अमेरिका के सबसे महंगे इलाकों में से एक मैनहेटन में चार बेडरूम के निवास में रह रही थीं जहां पति और दो बच्चों के परिवार और नौकरानी के साथ एक राजनयिक के रहने योग्य घर का किराया मात्र ही एक भारतीय राजनयिक के तथाकथित "मामूली" वेतन से कहीं अधिक होगा। उनकी न्यूयोर्क पोस्टिंग का एक आधार उसी नगर में जन्मे उनके अमेरिकी पति आकाश सिंह राठोर का निवास भी था। इससे पहले 1999 में जब आकाश सिंह राठोर बर्लिन में थे तब देवयानी को बर्लिन पोस्टिंग दिलाने के लिए उनसे दो रैंक ऊपर रहे महावीर सिंघवी की उपस्थिति को नकार कर नियमों में बदलाव किया गया था, यह बात महावीर सिंघवी द्वारा भारत सरकार के विरुद्ध दायर मुकदमे का निर्णय सिंघवी के पक्ष में करते समय भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी मानी थी। सिंघवी को नौकरी से सस्पेंड किया गया था। खबर है कि उन्हें बहाल कराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया। आप समझ ही गए होंगे कि यह खबर कहीं नहीं है कि जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होगी या नहीं।

शहीदों की विधवाओं के पुनर्वास के नाम पर मुंबई में हुए आदर्श सोसाइटी फ्लैट घोटाले की जांच करने वाले न्यायिक जांच आयोग ने देवयानी खोबरागड़े को उन 25 आवंटियों की सूची में रखा है जिन्होने आवंटन के अयोग्य होते हुए भी सोसाइटी में फ्लैट प्राप्त किया था। हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जे ए पाटिल की अगुवाई वाले दो सदस्यीय आयोग की रपट में देवयानी के सेवानिवृत्त आईएएस पिता और बेस्ट (BEST) के तत्कालीन महाप्रबंधक उत्तम खोबरागड़े पर आरोप है कि उन्होंने आदर्श सोसाइटी का फ्लोर एरिया बढ़ाने के लिए बेस्ट का नजदीकी प्लॉट हस्तांतरित कर दिया था। इस काण्ड में भी जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होने की खबर नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र विधानसभा ने तो रिपोर्ट में राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों विलाराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और अशोक चव्हाण का नाम होने के कारण रिपोर्ट को ही अमान्य कर दिया है। अमेरिका में काम कर रही नौकरानी को अमेरिका में निर्धारित न्यूनतम वेतन देने की बात पर राजनयिकों के कम वेतन का रोना रोने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि देवयानी द्वारा इस फ्लैट के लिए दिये गए एक करोड़ दस लाख रुपये के लिए किसी बैंक लोन का कोई रिकार्ड जांच समिति को नहीं मिला है।

देवयानी से संबन्धित पिछली तीन घटनाएँ तो सत्तासीन हठधर्मी के बाइप्रोडक्ट के रूप में प्रकाश में आ गईं। लेकिन हमारे आसपास हर रोज़ न जाने ऐसी कितनी घटनाएँ हो रही हैं जहाँ भ्रष्ट नेता-नौकरशाह-अपराधी गठबंधन आम भारतीय नागरिकों के अधिकारों का हनन करता रहता है और उन्हीं को नेतृत्व प्रदान करने का ढोंग भी रचता है। दुख की बात यह है कि इस मामले के सामने आने तक देवयानी ने महिला अधिकारों की रक्षक की छवि बनाकर रखी थी। भारत में रहते हुए अपने सम्बन्धों, बाहुबल और सत्ता के मद में चूर लोग कई बार यह बात भूल जाते हैं कि (भारत के बाहर) अधिकांश विकसित देशों के विकास के मूल में एक सुदृढ़ कानूनी व्यवस्था है। वे देश तरक्की इसलिए कर सके क्योंकि वहाँ सामंतों द्वारा अधीनस्थों के खिलाफ कानून-पुलिस-नियम आदि का दुरुपयोग कर पाना आसान नहीं है।

नौकरों के मानवाधिकार का हनन भारत में आम है लेकिन अमेरिका में पहले भी कई भारतीय धनाढ़्यों का नाम इस अपराध में सामने आया है। मई 2007 में न्यूयॉर्क के धनपति व्यापारी महेंद्र मुरलीधर सभनानी और उनकी पत्नी वर्षा सभनानी को अपने लॉन्ग आइलैंड (न्यूयॉर्क) स्थित घर में इंडोनेशियाई मूल की दो महिलाओं को कई सालों से गुलामों की तरह रखने और निरंतर प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था।

सन 2001 में बर्कले कैलिफोर्निया में एक गर्भवती किशोरी की मृत्यु की जांच जब आगे बढ़ी तो भारत में इंजीनियरिंग कॉलेज और धर्मार्थ संस्था चलाने वाले एक परोपकारी भारतीय व्यवसाई का नाम सामने आया जिसने बर्कले से अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर किया था। जांच आगे बढ़ी तो पता लगा कि अमेरिका में नौकरी दिलाने के बहाने भारतीय लड़कियों को अमेरिका लाकर उनके शोषण का बड़ा रैकेट चल रहा था। अंत में वीसा फ्रॉड, करचोरी और मानव तस्करी के आरोप में लकी रेड्डी को 97 महीने कारावास, बीस लाख डॉलर के जुर्माने की सज़ा तो मिली ही, अदालत के आदेश पर उसने पीडिताओं को 89 लाख डॉलर का भुगतान भी किया।

इस साल के आरंभ में न्यूयॉर्क राज्य में ही 30,000 वर्ग फुट के 34 कमरों वाले घर में रहने वाली भारतीय मूल की एनी जॉर्ज को अपनी घरेलू नौकरानी के शोषण के अपराध में सजा हुई थी। इस कांड में नौकरानी भी भारतीय मूल की (केरल से लाई गई) थी। सुबह साढ़े पाँच से रात के 11 बजे तक बिना छुट्टी लगातार काम करने के बाद एक बड़ी अलमारी में ज़मीन पर सोने वाली परिचारिका अङ्ग्रेज़ी नहीं बोल सकती थी।

देवयानी से पहले के कई मामलों में भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका भी रही है। 2011 में न्यूयॉर्क उपदूतावास के ही कॉन्सुलर प्रभु दयाल पर उनकी भारत से लाई गई घरेलू नौकरानी संतोष भारद्वाज ने मिलते जुलते आरोप लगाए थे। खोबरागड़े की तरह प्रभुदयाल ने भी अमेरिका से मांग की थी कि संतोष को पकड़कर भारत भेज दिया जाये। उस मुकदमे में भी भारत सरकार अपने अधिकारी की ओर से लड़ी और गरीब भारतीय नागरिक के जायज़ अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने का काम अमेरिकी सरकार ने किया। बाद में ऐसी खबरें आईं कि प्रभुदयाल ने अदालती व्यवस्था के बाहर समझौता कर लिया था।

2010 में इसी उपदूतावास की प्रेस सचिव डॉ नीना मल्होत्रा भी अपनी घरेलू नौकरानी शांति गुरुङ्ग के साथ इसी स्थिति का सामना कर चुकी हैं जिन पर फरवरी 2012 में अपनी नौकरानी को देने के लिए 15 लाख डॉलर का हर्जाना लगाया गया था। इस केस में नीना और उनके पति ने दिल्ली हाईकोर्ट से शांति को भारत के बाहर कोई कानूनी कार्यवाही न करने देने का आदेश दिलाया था।

हाँ, यह पहली बार हुआ है जब बात इतनी आगे पहुँच गई कि आरोपी को गिरफ्तार करने की नौबत आ गई। यदि खोबरागड़े की पहल पर भारतीय व्यवस्था द्वारा संगीता के परिवार को भारत में प्रताड़ित करने और अमेरिका पर उसकी गिरफ्तारी और वापसी का ऐसा गहरा दवाब नहीं बनाया जाता तो शायद मामला ऐसे टकराव तक नहीं पहुँचता।

दुख की बात है कि जैसे ही ऐसी कोई भी खबर आती है हमारे राष्ट्रीय प्रेम की केतली में ज्वार आ जाता है और हम सही-गलत सब भूलकर अमेरिका को लतियाने बैठ जाते हैं। इतना भी याद नहीं रहता कि दूसरा पक्ष अमेरिका नहीं है, एक अन्य भारतीय नागरिक है जो भारतीय न्याय व्यवस्था में केवल जेल जाने के लिए अभिशप्त है। भारतीय कानून के कागज के सहारे जब शक्तिशाली नेता या राजनयिक एक घरेलू नौकर को "मेरी मानो या जेल जाओ" की धमकी देते हैं तो यह भी उसी राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार का ही एक भयानक चेहरा है जिसे हम नकार नहीं सकते। अपने शोषण का विरोध करने वाली घरेलू नौकरानियों को अमेरिकी वीसा उल्लंघन के लिए भारत में गिरफ्तार करवाने की मांग करने वाले भारतीय राजनयिकों को अपनी कानूनी ज़िम्मेदारी याद रहे तो देश की छवि चकनाचूर होते रहने से बचेगी।
कुछ लोग अपने अपराध का नहीं, अपने प्रति हुई कानूनी कार्यवाही का प्रायश्चित करते हैं
अब बातें उन भावनात्मक सवालों की जिन्हें सोशल मीडिया में भोले-भारतीयों द्वारा बारंबार उठाया जा रहा है। इनमें से अधिकांश का स्रोत देवयानी, उसके परिवारजनों और कुछ नेताओं से जुड़ा है।

1. अमेरिका जिस तरह संगीता को बचा रहा है उसके जासूस होने की संभावना है।
- संगीता को बचाने का प्रयास अमेरिकी मानवाधिकार प्रतिबद्धता के एकदम अनुकूल है। यदि भारत में ऐसी प्रतिबद्धता दिख जाये तो हमारी वंचित और दरिद्र जनता के न जाने कितने सपने साकार हो जाएँ। देवयानी का तो पति ही अमेरिकी नागरिक है, क्या इतने भर से आप देवयानी और उसके पति पर भी जासूस होने का आरोप लगाने का साहस करेंगे? कमजोर को लतियाने और दबंग से डर जाने की आदतें छोड़िए और कभी कभी दिमाग पर ज़ोर डालने की कोशिश भी कीजिये। अमेरिकी कानून में यह प्रयास है कि अवैध आप्रवासियो को भी अपने या परिवार के इलाज या शिक्षा आदि में कोई बाधा न पहुँचे और उनके मानवाधिकारों की रक्षा हो। अपनी शरणागत-वत्सल परंपरा तेज़ी से भूलने वाले देश को आज के अमेरिका से काफी कुछ सीखने की ज़रूरत है

2. देवयानी दलित है, यह केस उच्चजातियों की साजिश है।
- देवयानी का परिवार भारत के बड़े धनिक और राजनीतिक शक्ति-सम्पन्न परिवारों में से एक है। उसे मेडिकल कॉलेज और नौकरी में कानून के तहत आरक्षण भले ही मिला हो लेकिन इस मामले में दलित कार्ड का प्रयोग करना भी वंचितों और दलितों का मखौल उड़ाने जैसा है। इस केस में यदि कोई दलित है तो वह संगीता है।

3. यह अमेरिका की हिन्दू विरोधी साजिश है
- संगीता के नाम में रिचर्ड देखते ही आपको हिन्दू याद आ गए? इससे पहले शांति गुरुङ्ग और संतोष भारद्वाज को बचाने में तो अमेरिका हिन्दू विरोधी नहीं था। वैसे, मीडिया में जितनी सामग्री उपलब्ध है उसके अनुसार देवयानी का परिवार हिन्दू नहीं नव-बौद्ध (माइनस हिन्दू) लगता है। सच यह है कि अमेरिका एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और ऐसे कयास बड़े बचकाने हैं।

4. भारत में अमेरिकी राजनयिकों को गिरफ्तार किया जाये क्योंकि उनमें से कोई भी अमेरिका के हिसाब से न्यूनतम वेतन नहीं देता होगा।
- कुतर्क का यह एक उत्तम उदाहरण है। हमें तो यह भी नहीं पता कि उनमें से कितनों के घर में नौकर हैं। और फिर आप भारत में भारत के कानून के पक्षधर हैं कि अमेरिका के? यह सच है कि भारत में भी न्यूनतम वेतन आदि के क़ानूनों के निर्माण और अनुपालन की ज़रूरत है और इस दिशा में प्रयास होना चाहिए। अमेरिका में हर कार्यालय में न्यूनतम वेतन के सरकारी निर्देश बुलेटिन बोर्ड पर किसी दर्शनीय स्थल पर लगाए जाने का प्रावधान भी है। हम भी कानून बनाने और उसे लागू करने के बाद इस प्रकार की छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दे सकते हैं।
जिस तेज़ी से न्यूयॉर्क में भारतीय राजनयिक नौकरों के दमन और शोषण के मामलों में फंस रहे हैं भारतीय उप-दूतावास को अपने ही परिसर में उच्च-स्तरीय स्कैन सुविधाओं से लेस एक भारतीय-कामगार-शोषण-जेल-सेल खोलने के मामले पर विचार करना चाहिए ताकि अधिकारियों को शारीरिक जांच से न गुज़रना पड़े।
5. अमेरिकी दूतावास के समलैंगिक कर्मचारियों को भारतीय कानून के तहत गिरफ्तार किया जाये
- पुनः, क्या आपको पता है कि देश भर के सारे समलैंगिक अमेरिकी दूतावास में ही रहते हैं? आज़ादी के छः दशक बाद भी जिस देश की राजधानी तक को विकास छू भी नहीं गया है, वहाँ अमेरिकी समलैंगिकों को पकड़ने को प्राथमिकता बनाना, साफ दिखा रहा है कि हमारे नेता देश की जनता की जरूरतों के बारे में कितने जागरूक हैं।    

6. पासपोर्ट रद्द होने के बाद संगीता रिचर्ड फ्यूजिटिव (भगोड़ी अपराधी) है, उसके अमेरिका रुकने का कोई कानूनी आधार नहीं है, उसे गिरफ्तार करके भारत भेजा जाये
- संगीता को भारत से राजनयिक पासपोर्ट बनवाने के बाद उसके वीसा के कागजों पर झूठ लिखकर अमेरिका लाकर कानून से अधिक काम और कम वेतन देने के बाद उसका पासपोर्ट रद्द कराकर उसे अवैध बनाने वाली जब देवयानी है तो फिर संगीता गिरफ्तार क्यों हो? बल्कि भारतीय कानून उसे किस आधार पर फ्यूजिटिव कह सकता है? और अगर वह फ्यूजिटिव है तो उसे विदेश ले जाकर फ्यूजिटिव बनाने वाले के प्रति भारतीय कानून के तहत क्या कार्यवाही की जा रही है? संगीता कानूनी तरीके से वैध वीसा और पासपोर्ट पर अमेरिका आई है और यहाँ रहते हुए किसी गैरकानूनी गतिविधि में लिप्त नहीं है। उसके खिलाफ कोई पुराना आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। पासपोर्ट न होना कोई अपराध नहीं है। वह इस कांड की मूल पीड़िता है, उसके खिलाफ कोई भी कानूनी आधार नहीं बनता, न यहाँ, न भारत में।

7. भारतीय राजनयिकों का वेतन इतना कम है कि वे अमेरिका के न्यूनतम वेतन के नियमों का पालन नहीं कर सकते
- इससे लचर तर्क कोई हो सकता है क्या? आप सिविल सरवेंट हैं, भारत से नौकरानी लाना आपकी कानूनी बाध्यता नहीं है। पैर उतने ही पसारिए जितनी चादर है। वैसे वेतन कम होने की बात पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि अधिकारियों को मूल वेतन के अलावा अनेक मोटे भत्ते भी मिलते हैं। शशि थरूर ने तो एक टीवी कार्यक्रम में यह भी कहा है कि राजनयिकों को नौकरानी के वेतन का भी आंशिक भुगतान मिलता है। वैसे, भारत में करोड़ों की संपत्ति की स्वामिनी, मैनहेटन में रहने वाली देवयानी के केस में तो वेतन कोई मायने ही नहीं रखता। फिर भी अगर सरकार को इस मुद्दे पर अपने अधिकारियों से इतनी ही सहानुभूति है और वह नौकरानी रखने की परंपरा का पोषण करना चाहती है तो अमेरिका स्थित राजनयिकों के घरेलू सहायकों के लिए कानून-सम्मत वेतन और सभी ज़रूरी सुख-सुविधाओं की पक्की व्यवस्था करे और उल्लंघन करने वाले राजनयिकों को कड़ी सज़ा का प्रावधान करे।

8. देवयानी को बेटी के सामने हथकड़ी लगाई गई
- जहां इतने झूठ वहाँ एक और सही। भारत से इतर अमेरिका के कानून में पकड़े जाने पर हथकड़ी लगाना सामान्य कानूनी प्रक्रिया है। फिर भी देवयानी के केस में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है। न उसे बेटी के सामने पकड़ा गया और न ही हथकड़ी लगाई गई।

9. देवयानी को नशेड़ियों, यौनकर्मियों और अपराधियों के साथ रखा गया
- यह बचकाना आरोप पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कि देवयानी का साथ देने के लिए अमेरिकी सरकार ने नशेड़ियों, यौनकर्मियों और अपराधियों की विशेष व्यवस्था की थी। अव्वल तो देवयानी के पास यह जानने का कोई आधार नहीं है कि वहाँ उपस्थित अन्य लोग कौन थे। दूसरे, वे भी आरोपी ही रहे होंगे। अपने आपको निरपराध घोषित करने वाले व्यक्ति दूसरों को एक जनरल स्टेटमेंट देकर नशेड़ी, यौनकर्मी और अपराधी कैसे कह देते हैं यह बात समझ आ जाये तो इस केस की अन्य बातें समझना भी आसान हो जाएगा। लगता है कि कुछ लोग सोचते हैं कि जैसे वे अपने घरेलू नौकर भी अपने साथ विदेश ले जाते हैं वैसे ही अदालत/थाने में अपनी विशेष सेल भी साथ लेकर चलेंगे।

10. देवयानी को राजनयिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी
- जहां तक मैं समझता हूँ, राजनयिक कारण से ही पकड़े जाने में देर हुई। देवयानी को आधिकारिक मामलों में सीमित राजनयिक सुरक्षा उपलब्ध है जो व्यक्तिगत नौकर के लिए किए गए वीसा फ्रॉड या वेतन अपराध पर लागू नहीं होती है। अगर वे संगीता के खिलाफ बदले की कार्यवाही को अति की हद तक नहीं बढ़ातीं तो अमेरिकी सरकार को न तो झूठे इकरारनामे का पता लगता और न ही संगीता के परिवार की सुरक्षा की चिंता करनी होती। देवयानी, उसके पिता और भारत-सरकार के सहयोग से संगीता पर हो रहे सरकारी दमन ने यह सिद्ध कर दिया कि शोषण की बात न केवल सच्ची है बल्कि यदि समय पर एक्शन न लिया गया तो संगीता और उसका परिवार सुरक्षित नहीं है। यदि यह अति न की जाती तो यह मामला केवल न्यूनतम वेतन न देने का ही रहता और शायद प्रभुदयाल मामले की तरह ही समुचित हरजाना देने पर निबट भी जाता।

11. देवयानी की जांच का उद्देश्य उसे अपमानित करना था
- कानूनरहित वातावरण में रहने का एक बड़ा खामियाजा यह है कि लोग टिकट खिड़की पर पंक्ति भी तब तक नहीं लगा सकते जब तक कि लाठीचार्ज न हो जाये। जिस देश में रेल में काली और बाहर खाकी वर्दी पहनकर कोई भी उगाही कर सकता हो वहाँ व्यवस्था के मुद्दों को समझ पाना थोड़ा कठिन तो हो ही जाता है। भारत में पिछले दिनों निर्भया कांड के मुख्य आरोपी ने कड़ी सुरक्षा वाली सेल में आत्महत्या कर ली तो मीडिया पर काफी हल्ला हुआ। इसके पहले उत्तर प्रदेश के मुख्य सर्जन के हत्याकांड केस में अभियुक्त पुलिस कस्टडी में संदिग्ध परिस्थितियों में मर गए। एक प्रमुख आतंकवादी कस्टडी से भाग गया। हर साल न जाने कितने आरोपी पुलिस कस्टडी में मारे जाते हैं जिनकी ज़िम्मेदारी किसी पर नहीं आती क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में यह तय ही नहीं हो पाता है कि मृत्यु का कारक क्या था, शस्त्र कैसे अंदर पहुँचा आदि। कितने मामलों में तो यह भी सिद्ध नहीं हो पाता कि पुलिस ने मृतक को पकड़ा भी था कि नहीं क्योंकि देश में कोई सिद्ध प्रणाली ही नहीं है। हर ज़िम्मेदारी को "सब कुछ चलता है" और "जुगाड़" के नियमान्तर्गत निबटाया जा रहा है। भारत के भाग्य-विधाता तो भ्रष्टाचार और लोकपाल पर चर्चा में व्यस्त हैं लेकिन विकसित देशों में सरकारी न्याय-कारागार-पुलिस व्यवस्था के अंदर लाये गए सभी व्यक्तियों के बारे में व्यवस्थित कार्यक्रम है जिसे उन्नत बनाने के प्रयास चलते रहते हैं। इस प्रणाली के तहत न केवल हर आने जाने वाले की पुख्ता जानकारी हर समय मौजूद रहती है बल्कि इस बात का भी अतिसंभव प्रयत्न रहता है कि किसी प्रकार के गैरकानूनी पदार्थ की आवाजाही न हो सके। इन्हीं नियमों के अंतर्गत कुछ स्थानों में शारीरिक जांच का प्रबंध भी है। ऐसी जगह पर एक विदेशी नागरिक ही नहीं, उस व्यवस्था का निर्माता भी आरोपी के तौर पर जाएगा तो उसकी भी वैसी ही जांच होगी।
अमेरिकी प्रशासन की यह व्यवस्था आज देवयानी के लिए नहीं बनी, बल्कि लंबे समय से स्थापित है और इसका उद्देश्य बिना किसी भेदभाव के पुलिस, न्याय, गवाह, आरोपी, मुजरिम, मुलजिम आदि सबकी सुरक्षा निश्चित करना है। शारीरिक जांच में लगाए गए सुरक्षाकर्मी (महिलाओं के केस में महिला, पुरुषों के केस में पुरुष) को जांच से गुज़र रहे व्यक्ति का स्पर्श करने की मनाही है।

सीधी-सच्ची बात यह है कि इतने सारे आपराधिक मामलों के सामने आने के बावज़ूद भी भारत सरकार घरेलू नौकरानी साथ ले जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा ही क्यों देती है? क्या अमेरिका में रहने वाले सभी आप्रवासी अपनी-अपनी नौकरानियाँ लेकर आते हैं? बेहतर हो कि इस बार कुछ सबक लिया जाय और राजनयिकों को भी श्रम, मानवाधिकार और कानून का सम्मान करने की शिक्षा दी जाये। वीसा अर्जियों पर झूठ लिखने के प्रति उन्हें सख्त चेतावनी दी जाये और सरकार का स्टैंड ऐसे किसी भी झूठ के साथ खड़े न होने का रहे। उन्हें यह भी याद दिलाया जाये कि वे जनसेवक (सिविल सेरवेंट्स) हैं दासस्वामी (स्लेव मास्टर्स/मालिक) नहीं। उन्हें कड़े शब्दों में बताया जाये कि व्यक्तिगत खुंदक के चलते वे दूसरों के पासपोर्ट रद्द करने/कराने से बचें। साथ ही घरेलू नौकरानियों सहित सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का वचन दिया जाये और उनके खिलाफ बदले की कार्यवाही करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही का विधान हो। सरकारी दमन का शिकार बने ऐसे नागरिकों के विरुद्ध लगाए गए सभी आरोपों की जांच हो और झूठे मुक़द्दमे वापस लिए जाएँ।

इस मुद्दे को अमेरिका की "चौधराहट" या "दादागिरी" समझने वाले मित्रों से मेरा यही अनुरोध है कि अगर अपनी धरती पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध खड़े होना चौधराहट है तो भारत के लिए भी चौधरी बनाने का एक ज़बरदस्त मौका है। और वह है एक आम भारतीय नागरिक संगीता रिचर्ड और उस जैसी अनेक शोषित और पीड़ित भारतीय महिलाओं के शोषण के खिलाफ प्रतिबद्धता दिखाना। शर्म की बात है कि विदेश हमारे नागरिक के अधिकार के लिए खड़ा है और हम उनसे कुछ सीखने के बजाय अपने ही नागरिक के असंवैधानिक दमन में पार्टी बने हुए हैं।

यद्यपि इस मामले में आर्थिक भ्रष्टाचार भी सामने आया है लेकिन भ्रष्टाचार केवल पैसे के लेनदेन तक सीमित नहीं होता है। सत्ता के दुरुपयोग के उपरोक्त सारे कृत्य भी मेरी नज़र में भ्रष्टाचार के ही उदाहरण हैं। विदेशों में पोस्टेड राजनयिक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उन पर महती ज़िम्मेदारी है। ऐसे पदों के लिए ऐसे लोग चुने जाने चाहिए जिनकी न्याय-निष्ठा, निष्पक्षता और ईमानदारी अटूट और विश्वसनीय हो। बस एक बात मेरी समझ में नहीं आती है कि "सत्यमेव जयते" के देश में भ्रष्टाचार का झण्डा ऐसी बुलंदी के साथ कैसे रह रहा है? और फिर जब अमेरिका ने अपनी धरती पर "एक भारतीय के विरुद्ध" हुए मानवाधिकार उल्लंघन के एक अपराध को रोकने की कोशिश की तो हमने इसका इतना कडा विरोध क्यों किया? हमारे नेताओं और नौकरशाहों को तय करना चाहिए कि वे भारत के "सत्यमेव जयते" के आग्रह के रक्षक हैं कि भक्षक। और साथ ही हमारी जनता को हर बार एक नई तरह से भावनात्मक मूर्ख बनते रहने का भोलापन छोड़ने का प्रयास करना चाहिए।
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देवयानी खोबरगड़े कांड फेसबुक पृष्ठ
Multi-Millionaire Devyani – Slave Wage Payer?
The Other Side of the Story
अहिसा परमो धर्मः
नकद धर्म - स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में
[नोट: मैं कोई सरकारी अधिकारी नहीं हूँ, न ही इस केस से संबन्धित कागजातों की मूलप्रतियाँ मुझे दिखाई गई हैं। पूरा आलेख विश्वसनीय और सार्वजनिक सूत्रों में प्रकाशित समाचारों, अपनी सहज बुद्धि और भारत व अमेरिका में नौकरशाहों के साथ हुए अनुभवों के साथ-साथ भारत भर में आसानी से देखे जा सकने वाले घरेलू नौकरों तथा दबंग नौकरशाहों के व्यवहार और प्रवृत्तियों पर आधारित है।]

Saturday, December 14, 2013

"क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल" - राजनीतिक परियोजना प्रबंधन

बहुसंख्य भारतीय जनता इतनी निराशा और अज्ञान में जीती है कि कब्रों पे चादर चढ़ाती है, आसाराम और रामपाल से मन्नतें मांग लेती है, ज़ाकिर नायक जैसों को धर्म का विशेषज्ञ समझती है और कई बार तो जेहादी-माओवादी आतंकियों और लेनिन-स्टालिन-सद्दाम-हिटलर जैसे दरिंदों तक को जस्टिफ़ाई करने लगती है। जनता के एक बड़े समूह की ऐसी दबी-कुचली पददलित भावनाओं को भुनाना बहुत सस्ता काम है ...
राजनीतिक सफलता के कुछ सूत्र

1) परेटो सिद्धांत (Pareto principle) - 80% प्रभाव वाले 20% काम करो, बस्स! - कम लागत में बड़ी इमारत बनाओ। शिवाजी ने छोटे किलों से आरंभ किया। मिज़ोरम (राज्य) का खबरों में आना कठिन है, गंगाराम (अस्पताल) ज़रूर आसान है। चूंकि दिल्ली सत्ता और मीडिया, दोनों के केंद्र में है, मीडिया को मणिपुर, अरुणाचल या कश्मीर तक जाने का कष्ट नहीं करना पड़ता। जब एक दिल्ली शहर को कब्ज़ाकर देशभर को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है तो येन-केन-प्रकारेण वही करना ठीक है, मीडिया को भी फायदा है, घर बैठे खबर "बन" जाती है, और बाहर निकलने की जहमत बच जाती है।

2) जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को सपने दिखाकर साथ लाओ - अन्ना हज़ारे से बाबा रामदेव तक, किरण बेदी से अग्निवेश तक, कलबे जवाद से तौकीर रज़ा तक ... कोई अनशन करे, कोई लाठी खाये, किसी का तम्बू उजड़े, सबका सीधा लाभ आप तक ही पहुँचे।

3) उन जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के तेज को हरकर अपने में समाहित करो - किरण बेदी, अग्निवेश आदि का अनैतिक आचरण उजागर हुआ या कराया गया; बेचारे बाबा रामदेव की छवि तो ऐसी डूबी या डुबाई गई कि फिर कभी राजनीति में न घुस सकेंगे, अन्ना हज़ारे के प्रभाव का भरपूर उपयोग कर बाद में उन्हें दूध की मक्खी जैसे छिटक दिया गया। और यह क्रम आगे भी चलता रहेगा। काम में आने के बाद लोग लात मारकर निकाले जाते रहेंगे - कुल मिलाकर सभी प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रभाव का लाभ केवल केजरीवाल को मिलना चाहिए।

4) शत्रु-मित्र-तटस्थ सभी को शुभ संकेत दो - कॉङ्ग्रेस खुश थी क्योंकि बीजेपी के वोट कट रहे थे, बीजेपी खुश थी क्योंकि कॉङ्ग्रेस के खिलाफ माहौल बन रहा था, सपा और बसपा खुश क्योंकि वे सोच रहे थे कि बिल्लियों की लड़ाई में वे चांदी काट लेंगे। दुनिया भर में पिटने के बाद भारत और नेपाल में भी अपनी साख गँवाकर हाशिये पर पड़े कम्युनिस्टों की खाली केतली में भी उम्मीदों का ज्वार चढ़ने लगा। हालांकि ऐसे संकेत हैं कि बीजेपी ने अपनी हानि को चुनाव से कुछ समय पहले भाँप तो लिया था लेकिन वे उसकी प्रभावी काट नहीं सोच सके।

5) बीच-बीच में अपना मखौल उड़वाओ - अलग दिखने के लिए अजीब सी वेषभूषा अपनाओ। कम खतरनाक दिखने के लिए अजीब-अजीब से बयान देते रहो। खिल्ली ज़्यादा उड़े या विरोध कड़ा हो जाये तो पलटी खा लो। लेकिन प्रतिद्वंदियों को मस्त रहने दो, कभी चौकन्ने न होने पाएँ।

6) रोनी सूरत बनाए रखो - हार गए तो भाव कम नहीं होगा। जीतने के बाद तो पाँचों उंगलियाँ घी में होनी हैं।

7) करो वही जो सब करते हैं और खुद तुम जिसका विरोध करते दिखते हो, लेकिन कम मात्रा में धीरे-धीरे करो और इतनी होशियारी (या मक्कारी) से करो कि अगर स्टिंग ऑपरेशन भी हो जाये तो बेशर्मी से उसका विरोध कर सको।

8) संदेश प्रभावी रखो - विरोधियों को जेल भिजाने की धमकी दो इससे उन पर समर्थन का दवाब बना रहेगा। अगर कोई समर्थन न करे तो उसे भी शर्तनामा भेज दो, इससे अपने पक्ष में हवा बनती है।

9) सम्मोहन करो - झाड़ू-पंजे का स्पष्ट संबंध भी ऐसा धुंधला कर दो कि चमकता सूरज भी न दिखे, जब समर्थन देने-लेने के निकट सहयोग का संबंध स्पष्ट हो तब भी यह सहयोग न दिख पाये।

10) अपनी मंशा कभी ज़ाहिर न होने दो - चुनाव से काफी पहले से तैयारी चुनाव की करते रहो लेकिन बात भ्रष्टाचार, समाजवाद, महंगाई आदि की करो।

11) ऊँचे सपने दिखाओ - नालों, मलबे, कूड़े, रिश्वत, बदबू, और अव्यवस्था में गले तक डूबी राजधानी में व्यवस्था की नहीं, हेल्पलाइन की बात करो, लोकपाल की बात करो, मुफ्त पानी-बिजली की बात करो, जिन नेताओं से जनता त्रस्त है, उन्हें जेल भिजाने की बात करो। धरती पर स्वर्ग लाने के सपने दिखाओ  ... एक शहर भले न संभाले, पूरा देश बदलने की बात करो।

12) युवा शक्ति का भरपूर प्रयोग करो - कैच देम यंग - सच यह है कि युवा कुछ करना चाहता है, परिवर्तन का कारक बनने को व्यग्र है। देश-विदेश में जो कोई भी देश की दुर्दशा से चिंतित है उसे अपने लाभ के लिए हाँको। कम्युनिस्ट समूह इस शक्ति का शोषण अरसे से करते रहे हैं, तुम बेहतर दोहन करो।

13) आधुनिक बनो - यंत्रणा नहीं, यंत्र का प्रयोग करो - आधुनिक तकनीक, इन्टरनेट, सोशल मीडिया, डिजिटल इंगेजमेंट, एनजीओ, स्वयंसेवा, धरना, प्रदर्शन आदि के प्रभाव को पहचानो। असंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताओ। विपक्षियों पर इतनी बार आरोप लगाओ कि वह खुद ही सफाई देते फिरें ...

14) पुरानी अस्तियों को नई पैकिंग दो - अन्ना को "गांधी" का नाम दो, "गांधी टोपी" को "आम आदमी" तक पहुँचाओ, "मैं अन्ना हूँ" की जगह "मैं आम आदमी हूँ" लिखो। तानाशाही को स्व-राज का नाम दो।

अंतिम पर अनंतिम सूत्र 

15) बेशर्म बने रहो - सबको पता है बिजली मुफ्त नहीं हो सकती, पानी भी सबको नहीं मिलेगा, भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह जेल नहीं जाएंगे - अव्वल तो ज़िम्मेदारी लेने से बचो। गले पड़ ही जाये तो पोल खुलने पर अपनी असफलता का ठीकरा एक काल्पनिक शत्रु, जैसे "सब मिले हुए हैं जी", "पूंजीवाद", "सड़ेला सिस्टम", "अल्पमत" या "कानूनी अड़चनें" पर फोड़ दो और सत्ता पर डटे रहो ... फिर भी बात न बने और असलियत खुलने को हो तो इस्तीफा देकर शहीद बन जाओ ... और फिर ...

... और फिर यदि न घर के रहो न घाट के तो केजरीवाल-टर्न लेकर जनता से फिर अपना पद मांगने लगो ... इस देश की जनता बड़ी भावुक है, छः महीने में किसी के भी कुकर्म भुला देती है।

अब कुछ सामयिक पंक्तियाँ / एक कविता
हर चुनाव के लिए मुकर्रर हो
 एक सपना
 हर बार नया
 जो दिखाये
 शिखर की ऊँचाइयाँ
 साथ ही रक्खे
 जमीनी सच्चाईयों से
 बेखबर ....
 
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दलाल और "आप" की टोपी
केजरीवाल कम्युनिस्ट हैं - प्रकाश करात
अग्निवेश का असली चेहरा
किरण ने जो किया वह न तो चोरी है न भ्रष्टाचार - केजरीवाल