Tuesday, March 27, 2012

क्या तिब्बत की आग चीनी तानाशाही को भस्म करेगी?

स्वतंत्रत तिब्बत = हिमालय की शांति

सारे तिब्बत में आग लगी हुई है। शांतिप्रिय तिब्बतियों को चीनी सैनिक अपने जूतों-तले रौंद रहे है। मठों पर सेना का कब्ज़ा है। भिक्षुकों को बाहरी समाज से काट दिया गया है। तोड़्फ़ोड के आरोप में पिछले दिनों एक दर्जन प्रदर्शनकारियों को चीन की एक अदालत ने 13-13 वर्ष की सजा सुनाई है। अनेक भिक्षुकों की गोलियों से छलनी लाशें मिल चुकी हैं और भी न जाने कितने भिक्षुक लापता हैं। चीन की दानवी सरकार की दमनकारी नीतियों से परेशान तिब्बती जन सेना की लाठी और गोली खाकर भी भूख हड़ताल, जन आंदोलन, और आत्मदाह कर रहे हैं। 2012 के आरम्भ से अब तक तिब्बत की स्वतंत्रता व दलाई लामा की वापसी की मांग को लेकर सिचुआन तथा अन्य क्षेत्रों में रह रहे 30 आत्मदाह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं। न जाने कितने मामले कठोर चीनी सेंसर नीति के तहत दबे पड़े होंगे।

चीनी दमन के विरुद्ध विश्व भर में आवाज़ उठा रहे तिब्बतियों को भारी समर्थन मिल रहा है। न्यूयॉर्क में तीन तिब्बती युवाओं का 30 दिन पुराना अन्शन समाप्त कराते समय संयुक्त राष्ट्र ने भी चीन के साथ तिब्बत विषयक वार्ता का आश्वासन दिया है। मगर भारत के हालात उलट हैं। "शरणागत रक्षा" का दम भरने वाली धरती पर चीनी हू जिंताओ के आगमन से पहले तिब्बतियों की बस्तियों पर भारतीय प्रशासन ने दमन की कार्यवाहियाँ आरम्भ कर दी हैं। और यह हू जिंताओ है कौन? एक तानाशाह ही न! फिर उसके आगमन से पहले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत को छावनी क्यों बनाया जा रहा है? चीनी शासक यह जानें या न जानें, भारतीय सदा से जानते हैं कि स्वतंत्रता मानवमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। तिब्बती जन भी स्वतंत्र वायु में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा अधिकार है। आज जब चीनी दवाब में आकर नेपाल और भारत की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी तिब्बतियों की अहिंसक और शांतिमय अभिव्यक्ति को कुचलने में जुट गयी हैं तब तिब्बती सीने में सुलग़ती आग भारत की धरती तक भी आ पहुँची है। क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 26 वर्षीय तिब्बती युवक पावो जम्फ़ेल यशी ला ने चीन के अत्याचारों के खिलाफ दिल्ली में जंतर मंतर पर आत्मदाह का प्रयास किया है। यह पोस्ट लिखे जाने तक वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे थे।
आज बुधवार मार्च 28, 2012 की सुबह पावो जम्फ़ेल यशी ला (26) का निधन हो गया! वे 2006 में तिब्बत से भागकर भारत आये थे और तब से धर्मशाला में रह रहे थे। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि! 

धन्यवाद भारत!
 भारत सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार को तिब्बतियों के इस कठिन समय में भारतीय राष्ट्रीय नारे "सत्यमेव जयते" को सिद्ध करना चाहिये। तिब्बती समुदाय पर हिंसक कार्यवाही करने के बजाय उन्हें चीनी नेताओं की आँखों में आँखें डालकर तिब्बत मुद्दे पर स्पष्ट बात करनी चाहिये। वहीं भारतीय जनता को भी इस विषय पर तिब्बत की स्वतंत्रता के समर्थन में खुलकर सामने आना चाहिये बल्कि चीन से भारतीय भूमि वापसी की मांग के लिये भी सरकार पर दवाब डालना चाहिये। कितने आश्चर्य की बात है कि देशभक्ति का दावा करने वाली किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने आज तक भारतीय भूमि की वापसी को अपनी नीति में शामिल करने का साहस नहीं दिखाया। कैसा राष्ट्रप्रेम है यह?

कोई भी चीनी नेता भारत का रुख करता है और तिब्बतियों की धर-पकड़ शुरू हो जाती है। वही तिब्बती जो अब तक भारत में आये शरणार्थियों में से सर्वाधिक शांतिप्रिय रहे हैं, पुलिस के डंडे खाते हैं, दुत्कारे जाते हैं, जेल जाते हैं - किसलिये? हमारी चुनी हुई सरकार में उनके संघर्ष में उनके साथ खड़े होने लायक रीढ नहीं है, यह बात समझ में आती है मगर तानाशाहों की लाठी बनकर निर्दोष शरणार्थियों के ऊपर बरसना? क्या यही है "अतिथि देवो भवः" की संस्कृति? कहाँ हैं संस्कृति के ठेकेदार और कहाँ हैं राष्ट्रगौरव वाले? कहाँ है वह प्रबुद्ध वर्ग जिन्हें फ़िलिस्तीन या क्यूबा में हवा चलने पर भारत बैठे-बैठे ज़ुकाम हो जाता है?
 
अमेरिका में  स्वतंत्र तिब्बत (अंतर्जाल  चित्र )
1952 के चीनी आक्रमण से पहले तक तिब्बत कम से कम 1300 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में था। चीनदेश का जो भी हाल रहा हो त्रिविष्टप भूमि के आर्यावर्त से नियमित सम्बन्ध थे। दलाई लामा को अपना स्वामी मानने वाले तिब्बत की अपनी मुद्रा और डाक टिकट चीनी हमले तक चलते थे। सच तो यह है कि तिब्बत की अपनी सेना भी थी जिसने 1952 के प्रतिरोध के अतिरिक्त छठी शताब्दी में दो सौ वर्षों तक चीन से युद्ध किया था। डोगरा जनरल जोरावर सिंह के तिब्बत अभियान में सोने की गोली से मारे जाने की बात राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखी है। चीन के दुष्प्रचार मे भले ही अरुणाचल, सिक्किम और भूटान की तरह तिब्बत भी चीन के अंग बताये जाते हों परंतु सत्य यही है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद तिब्बत का जैसा नाता भारत और नेपाल के साथ रहा है वैसा चीन के साथ कभी नहीं रहा। तिब्बत की भाषा और लिपि सम्पूर्ण चीन में एक भाषा का दावा करने वाले चीन से एकदम अलग है। तिब्बती लिपि तो भारतीय लिपि परिवार की ही सदस्य है। भाषा और संस्कृति भी चीन के बजाय हिमालयी राज्यों से मिलती है।

स्वतंत्र तिब्बत का ध्वज
पंचशील की सन्धि करने के बाद भारत पर अचानक हमला करने वाले विस्तारवादी और उद्दण्ड चीन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। अक्साई-चिन पर कब्ज़ा किये रहने के बावजूद चीन का जब मन करता है वह कभी कश्मीर और कभी अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के वीसा के बहाने भारत की प्रभुसत्ता का मज़ाक उड़ाने लगता है। बढती शक्ति से बौराये चीनी तिब्बत से निकलने वाली हमारी नदियों के रुख मोड़ रहे हैं। अपने सैनिकों के लिये दुर्गम स्थलों तक आधुनिक ट्रेनें चलाने वाला चीनी प्रशासन कैलाश और मानसरोवर जैसे प्राचीन तीर्थों की यात्राओं पर जाने वाले हमारे यात्रियों से भारी वीसा शुल्क लेने के बाद भी उन्हें मौलिक सुविधायें तक मुहैया नहीं कराता। चीनी अधिकारियों के हाथों भारतीय व्यापारियों के साथ हालिया बदसलूकी और वियेतनाम के साथ खनन परियोजनाओं सम्बन्धी समझौतों के समय खनन स्थल पर अपने नौसैनिक बेड़े की गश्तें कराना चीन द्वारा भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का स्पष्ट उदाहरण है।

सत्य का साथ दें - तिब्बत के मित्र बनें
तिब्बत पर चीन के दमन का विरोध न केवल एक मानवता के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि भारत के स्थाई शत्रु तानाशाह चीन की गुंडागर्दी को काबू में रखने के लिये आवश्यक भी है। नेपाल और पाकिस्तान भले ही मुँह सिये बैठे रहें, कम से कम भारत को यह चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता की आवाज विश्व मंच पर उठाए।  एक स्वतंत्र तिब्बत के अस्तित्व के साथ ही भारत-चीन सीमा विवाद का अंत तो होगा ही, भारत के साथ-साथ नेपाल और भूटान को भी एक दानवी पड़ोसी से छुटकारा मिलेगा। हमारी नदियाँ स्वतंत्र होंगी और पिछले वर्षों में सतलज में आयी कृत्रिम बाढ जैसी विभीषिकाओं से छुटकारा मिलेगा। अक्साई चिन व पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ाये कश्मीर के उत्तरी भाग से लिये गये भूभाग की वापसी का मार्ग भी साफ़ होगा और चीन द्वारा तिब्बत को पर्माण्वीय कचरे का ढेर बनाये जाने की आशंकाओं के भय से मुक्ति भी मिलेगी। तिब्बत जैसे मित्रवत पड़ोसी की उपस्थिति से उत्तरी सीमा पर हथियारों व वन्यपशुओं की तस्करी से बचाव जैसे लाभ भी स्वतः ही मिलेंगे।

यह पोस्ट लिखते समय जब कुछ जानी-मानी तिब्बती वेबसाइटों पर जाने का प्रयास किया तो पाया कि वे डाउन हैं। अलग-अलग जगह से चल रही कई साइट्स का एक साथ डाउन होना तो यही दर्शा रहा है कि चीनी दमन लाठी, गोली, टैंक, जेल से आगे बढकर साइबर-टैरर तक पहुँच चुका है। ज़हरीला ड्रैगन इस वक़्त स्वतंत्र अभिव्यक्ति से डरा हुआ है।
कहावत है कि पाप का घड़ा फूटने से पहले छलकता ज़रूर है। क्या कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद के आखिरी कॉमरेड की बत्ती बुझने के दिन आ गये? चीन पर काफ़ी अंतर्राष्ट्रीय दवाब है, मगर जब तक भारत की ओर से दवाब नहीं बनता, वह निश्चिंत है। यदि एक बेहतर और शांतिमय संसार चाहिये तो चीन की तिब्बत से वापसी एक आवश्यक शर्त है। इस शर्त की पूर्ति के लिये तिब्बतियों को भारत सरकार का समर्थन आवश्यक है और भारत सरकार को ऐसा करने के लिये बाध्य करने के लिये भारतीय जनता का उठ खड़े होना ज़रूरी है। सम्पादक के नाम पत्र, फ़ेसबुक शेयर, गूगल प्लस, अपने जनप्रतिनिधि के नाम पत्र, या स्थानीय स्तर पर गोष्ठी और प्रेस सम्मेलन, नारेबाज़ी; आप जो भी कर सकते हैं कीजिये ताकि चीन के अगले हमले के समय 1962 वाले बहाने, "हिन्दी चीनी भाई-भाई" की आड़ न लेनी पड़े।

जय तिब्बत! जय भारत!  अमर हो स्वतंत्रता!

सम्बन्धित कड़ियाँ
Protests, Self-Immolation Signs Of A Desperate Tibet
* Friends of Tibet
* चीनी दमन और तिब्बती अहिंसा
* बार-बार दिन यह आए
* भारत पर चीन का दूसरा हमला?
* ४ जून - सर्वहारा और हत्यारे तानाशाह
* कम्युनिस्ट सुधर रहे हैं?
* तिब्बत - चीखते अक्षर (आचार्य गिरिजेश राव)
* अरुणाचल पर चीन ने फिर चली चाल

Saturday, March 24, 2012

अफ़वाहों का गणित

पुरानी घटना है। आस पड़ोस के सब लोग गणेश जी को दूध पिलाने के लिये दौड़ रहे थे। हमारी पड़ोसन भी आयीं ताकि वे माँ के साथ निकट के मन्दिर में जा सकें। माँ ने पहले तो समझाने का प्रयास किया फिर अचानक ही साथ चलने को तैयार हो गयीं। दूध के लोटे-गिलास के बजाय एक खाली चम्मच लिया और वहाँ जाकर संगेमरमर की मूर्ति की गर्दन से लगा दिया। पल भर में ही चम्मच दूध से भर गया। पड़ोसन को भी दिख गया कि मूर्ति दूध पी नहीं रही थी बल्कि दुग्ध-स्नान कर रही थी।

आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...

क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।

सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।

मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।

लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।

अब्राहम लिंकन 
अफ़वाहों के कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं। पहले सीधी-सच्ची जैसी लगने वाली अफवाहें फैलाकर जनता का रुख और उनकी परिपक्वता का स्तर पहचाना जाता है। समय के साथ अफ़वाहों को बदला या हटाया जाता है। कई बार ये अफ़वाहें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि कई बार परोक्ष भी होती हैं। शीतल पेयों में पशु-उत्पाद होना, नेहरू जी का मुसलमान होना, जिन्ना का सैकुलर होना जैसी सामान्य प्रचलित अफ़वाहों का परिणाम समझ आ जाये तो उनका उद्देश्य और उद्गम पहचानना आसान हो जायेगा। साथ ही यदि हम अफ़वाह पर एक सरसरी नज़र डालें तो उसका झूठ एकदम सामने आ जायेगा।

आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या  परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।

1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।

आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:

1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।

2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।

3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।

4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।

5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।

6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।

7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?

8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।

9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।

क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?

Wednesday, March 14, 2012

हिन्दी-बंगाली भाई-भाई

कार्यक्रम का आरम्भ "वन्दे मातरम" के उद्घोष से हुआ। बच्चों के गीत और नृत्यों के अतिरिक्त देशप्रेम के बारे में कई भाषणों के बाद समारोह के समापन से पहले राष्ट्रीय गान गाया गया। उसके बाद भोजन काल आरम्भ हुआ और भोजन के साथ ही लोग छोटे-छोटे दलों में बँट गये। पोड़्मो बाबू से मेरी मुलाकात ऐसे ही एक दल में हुई। भारतीयों की हर सभा में भारत देश की दशा पर तो बात होती ही है। फिर आज तो दिन भी गणतंत्र दिवस का था। पता लगा कि वे चिकित्सक हैं और दो वर्ष पहले ही कलकत्ता से यहाँ आये हैं।

अंग्रेज़ी में चल रही बात बातों-बातों में भारत की समस्याओं पर पहुँची। पोड़्मो बाबू इस बात पर काफ़ी नाराज़ दिखे कि "हम" हिन्दी वाले उन पर हिन्दी थोप रहे हैं। मैंने विनम्रता से कहा कि मैं कुछ हिन्दी अतिवादियों को जानता ज़रूर हूँ परंतु भारत में हिन्दी थोपे जाने जैसी बात होती तो हिन्दी की गति आज कुछ और ही होती। मेरी बात सुने बिना जब उन्होंने दोहराया कि हिन्दी वाले बंगाल पर हिन्दी थोप रहे हैं तो मैंने बात को मज़ाक में लेते हुए कहा कि उन थोपने वालों में मैं कहीं नहीं हूँ, बल्कि मेरे तो खुद के ऊपर हिन्दी थोपने वाले बंगाली हैं। बचपन से अब तक जुथिका रॉय, पंकज मल्लिक, हेमंत कुमार, मन्ना दे, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, किशोर कुमार, भप्पी लाहिड़ी, अभिजीत, शान आदि ने हिन्दी गाने सुना-सुनाकर मुझे हिन्दी में डुबो डाला।

पोड़्मो बाबू को मेरी बात अच्छी नहीं लगी तो मैंने कहना चाहा कि भाषाई विविधता के देश में सम्पर्क भाषायें बिना थोपे स्वतः भी विकसित हो सकती हैं। उन्हें मेरा यह प्रयास भी पसन्द नहीं आया। समारोह में मौजूद एक बांग्लादेशी अतिथि भी हमारा वार्तालाप सुनकर पास आ गयीं। उनका कहना था कि पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश पर अपनी भाषा थोपी थी। मैंने कहा कि भारत और पाकिस्तान की परिस्थितियों की कोई तुलना नहीं है। पाकिस्तान ने तो चुनाव में हार के बावजूद बांगलादेश पर पहले अपना नेता थोपा था और फिर सैनिक दमन भी। लेकिन वे बोलती रहीं कि उनकी बंगाली भाषा पर दूसरी भाषा का थोपा जाना बर्दाश्त नहीं होगा, वह चाहे हिन्दी हो या उर्दू।

मैंने बताया कि हिन्दी वाले खुद अपने क्षेत्रों में हिन्दी नहीं थोप सके तो किसी और पर थोपने कैसे जायेंगे। आधे हिन्दी भाषियों को तो यह भी नहीं पता होगा कि देवनागरी में कितने स्वर व कितने व्यंजन हैं। जिन्हें ग़लती से इतना पता हो उन्हें यह नहीं पता होगा कि हिन्दी में 79 और 89 को क्या-क्या कहते हैं। बात चलती रही। हिन्दी वाले अपनी भाषा के प्रति कोई खास गम्भीर नहीं हैं यह बताने के लिये मैंने उन्हें देश के विभिन्न नगरों के नये (या पुराने?) नामकरण के उदाहरण देते हुए कहा कि कलकत्ता तो हिन्दी अंग्रेज़ी में भी कोलकाता हो गया मगर बनारस तो आधिकारिक हिन्दी में भी काशी नहीं हुआ और न ही लखनऊ किसी भी हिन्दी में लक्ष्मणपुर बना।

गोरा साहब हिन्दी क्षेत्र में (चित्र: हाइंज़ संग्रहालय पिट्सबर्ग से)
कुरेदने पर पता लगा कि डॉक्टर साहब की पूरी शिक्षा अंग्रेज़ी में हुई थी। मैंने नोटिस किया कि उनका लम्बा मूल कुलनाम भी अंग्रेज़ी ने ही काटकर आधा किया था। मैंने अंग्रेज़ी के इस थोपीकरण का उल्लेख बड़ी विनम्रता से किया मगर उन्होंने मुझ हिन्दीभाषी पर लगाये हुए आरोप पर कोई रियायत नहीं दी। ऐसे में मैंने तिनके का सहारा ढूंढने के लिये इधर-उधर मुंडी घुमाई तो मुझे आशा की एक किरण नज़र आयी। राजभाषा हिन्दी वाले स्वाधीन भारत में 25 साल बिताने के बावज़ूद हिन्दी का एक शब्द भी न जानने वाली तिरुमदि कन्नन पास ही खड़ी थीं। मैंने सोचा कि उन्हें बुलाकर पोड़्मो बाबू के सामने हिन्दी के न थोपे जाने का सबूत पेश कर दूँ।

मैंने तिरुमदि कन्नन को पोड़्मो बाबू का आरोप सुना दिया और उनके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा। रसम का कटोरा गटककर उन्होंने पास की मेज़ पर रखा और तमिळ अन्दाज़ की अंग्रेज़ी में कहने लगीं, "हाँ, हिन्दी तो पूरे राष्ट्र पर थोप दी गयी है।" मैं भौंचक्का था मगर वे जारी रहीं, "हमारा राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत, टैगोर, बंकिम, सब हिन्दी वाले हैं, तिरुवल्लुवर, दीक्षितर, और भरतियार में से किसी का कुछ भी नहीं लिया गया ..."

"टैगोर और बंकिम चन्द्र, दोनों ही हिन्दी नहीं हैं, उनकी भाषा बंगला है।" मैंने सुधार का प्रयास किया।

"हिन्दी, नेपाली, बंगाली, गुजराती, संस्कृत, सब एक ही बात है - नॉर्थ नॉर्थ है, साउथ साउथ है।"

मुझे उत्तर नहीं सूझा। मगर वे जारी रहीं, " ... बंगाली, हिन्दी भाई-भाई है तभी तो हिन्दी/बंगाली बांगलादेश बनाने के लिये केन्द्र सरकार खासे बड़े पाकिस्तान से लड़ गई जबकि मासूम तमिलों पर इतने अत्याचार होने के बावज़ूद छोटे से श्रीलंका का विरोध करने के बजाये शांतिसेना के नाम पर उनकी सहायता की।"

पोड़्मो बाबू रसगुल्ला खाने के बहाने निकल लिये और मैं आ बैल मुझे मार वाले अन्दाज़ में अपनी थाली में पोंगल और मिष्टि दोई लिये तिरुमदि कन्नन का क्रोध झेल रहा था, "आप उत्तर वाले हम पर हिन्दी बंगाली कल्चर थोप रहे हैं।"

Saturday, March 3, 2012

मैं भी एक कवि बन पाता - कविता

[अनुराग शर्मा]

चित्र व कविता: अनुराग शर्मा
आग तुम्हारे अन्तर की मैं
अपने दिल में जला पाता
दर्द पिरो सकता सीने में
मैं भी एक कवि बन पाता

अन्धियारी यह रात अमावस
बन खद्योत चमका जाता
नहीं समझता अलग किसी को
मैं भी एक कवि बन पाता

एक जंगली फूल किसी
वनवासी के केश लगाता
पीर समझता बिना बिवाई
मैं भी एक कवि बन पाता

मुझे मिला सब बिना शर्त
वह प्यार अगर लौटा पाता
तू-तू मैं-मैं से ऊपर उठ
मैं भी एक कवि बन पाता

सत्य ढंका क्यों स्वर्णपात्र से
खोल सकें तो ज्ञान सत्य है
ग्रहण हटा, कर ज्योति ग्रहण
मैं भी एक कवि बन पाता

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं। तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
[~ईशोपनिषद - 15]

Friday, March 2, 2012

एक शाम भारत के नाम - इस्पात नगरी से 56

एक भारतीय भारत के बाहर बस सकता है परंतु उस भारतीय के हृदय में एक भारत सदा बसता है। जब पिट्सबर्ग में एक भारतीय प्रदर्शनी लगे तो फिर सामान्य सी बात है कि पिट्सबर्ग के एक भारतीय का दिल फिर ज़ोर-ज़ोर से धड़केगा ही।
नगर के एक मार्ग पर प्रदर्शनी का विज्ञापन

कुछ जानकारी (क्या है, आप जानें, अंग्रेज़ी में है सो हमने पढी नहीं)

अंत:पुर

भारत हो तो सुघड़ भारतीय हाथी तो होगा ही

यह बाग ही मुख्य प्रदर्शनी स्थल है

भारतीय मसाले दुनिया भर में भोजन महकाते हैं 

एक भारतीय कुटिया

तुलसी - पौधे और जानकारी

भारतीय वनों से कई वृक्षों के जीवित नमूने वहाँ थे

भारतीय शास्त्रीय नृत्य का क्या मुकाबला है?

अच्छा, व्याघ्र अभी बाकी हैं!

हर मर्ज़ की दवा, अमलतास की फली, न नीम का पेड़

औषधि कुटीर उद्योग

भारत की एक ग्रामीण पगडंडी

बोधिवृक्ष की जानकारी

भारत है रंगोली है, उत्सव है तो होली है

प्रदर्शनी स्थल के बाहर एक बैनर


कमल तो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है


स्वागतम शुभ स्वागतम्

मसाले की दुकान

एक बाग का छोटा मॉडल

कैक्टस भी हैं
शीशे की कलाकृतियाँ

कुछ और कलाकृतियाँ

रेलवे व्यवस्था का एक छोटा सा मॉडल 
आपका दिन शुभ हो, फिर मिलेंगे, जय भारत!

[प्रदर्शनी के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: India Beckons Exhibition pictures captured by Anurag Sharma]

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Tuesday, February 28, 2012

भोला - कहानी

पहली बार एक स्थानीय मन्दिर में देखा था उन्हें। बातचीत हुई, परिचय हो गया। पता लगा कि जल्दबाज़ी में अमेरिका आये थे, हालांकि अब तो उस बात को काफ़ी समय हो गया। यहाँ बसने का कोई इरादा नहीं है, अभी कार नहीं है उनके पास, रहते भी पास ही में हैं। उसके बाद से मैं अक्सर उनसे पूछ लेता था यदि उन्हें खरीदारी या मन्दिर आदि के लिये कहीं जाना हो तो बन्दा गाड़ी लेकर हाज़िर है। शुरू-शुरू में तो उन्होंने थोड़ा तकल्लुफ़ किया, "आप बड़े भले हो, इसका मतलब ये थोड़े हुआ कि हम उसका फ़ायदा उठाने लगें।" फिर बाद में शायद उनकी समझ में आ गया कि भला-वला कुछ नहीं, यह व्यक्ति बस ऐसा ही है।

धीरे-धीरे उनके बारे में जानकारी बढ़ने लगी। पति-पत्नी, दोनों ही सरकारी उच्चाधिकारी थे, और अब रिटायरमैंट के आसपास की वय के थे। इस लोक में सफल कहलाने के लिये जो कुछ चाहिये - रिश्ते, याड़ी, आमदनी, बाड़ी, इज़्ज़त, गाड़ी - सभी कुछ था। और उस दुनिया का बेड़ा पार कराने के लिये - उनके पास एक बेटा भी था।

मगर जिस पर बेड़ा पार कराने की ज़िम्मेदारी हो, जब वही बेड़ा ग़र्क कराने पर आ जाये तो क्या किया जाये? महंगे अंग्रेज़ी स्कूलों में बेटे की विद्वता का झंडा गाढ़ने के बाद माँ-बाप ने बड़े अरमान से उसे आगे पढ़ने के लिये अमेरिका भेजा। मगर बेटे ने पढ़ाई करने के बजाये एक गोरी से इश्क़ लड़ाना शुरू कर दिया। खानदानी माता पिता भला यह कैसे बर्दाश्त कर लेते कि बहू तो आये पर दहेज़ रह जाये? सीधे टिकट कटाकर बेटे के एक कमरे के अपार्टमेंट में जम गये।

बेटा भी समझदार था, जल्दी ही मान गया। लड़की का क्या हुआ यह उन्होंने बताया नहीं, और मैंने बीच में टोकना ठीक नहीं समझा। लेकिन उस घटना के बाद से वे बेटे पर दोबारा यक़ीन नहीं कर सके। माताजी की बीमारी का कारण बताकर लम्बी छुट्टी ली और यहीं रुक गये। बॉस ने फटाफट छुट्टी स्वीकार की, सहकर्मी भी प्रसन्न हुए, ऊपरी आमदनी में एक हिस्सा कम हुआ।

इस इतवार को जब शॉपिंग कराकर उन्हें घर छोड़ने गया तो पता लगा कि बेटा घर में ताला लगाकर बाहर चला गया था। इत्तेफ़ाक़ से उस दिन आंटी जी अपनी चाभी घर के अन्दर ही छोड़ आई थीं। कई बार कोशिश करने पर भी बेटे का फ़ोन नहीं लगा। अगर उन्हें वहाँ छोड़ देता तो उन दोनों को सर्दी में न जाने कितनी देर तक बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वैसे भी लंच का समय हो चला था। मैंने अनुरोध किया कि वे लोग मेरे घर चलें। उन दोनों को घर अच्छी तरह से दिखाकर श्रीमती जी चाय रखकर खाने की तैयारी में लग गयीं। आंटीजी टीवी देखने लगीं और मैं अंकल जी से बातचीत करने लगा। इधर-उधर की बातें करने के बाद बात भारत में मेरी पिछली नौकरी पर आ गयी। वे सुनहरे दिन, वे खट्टी-मीठी यादें!

वह मेरी पहली नौकरी थी। घर के सुरक्षित वातावरण के बाहर के किस्म-किस्म के लोगों से पहली मुठभेड़! बैंक की नौकरी, पब्लिक डीलिंग का काम। सौ का ढेर, निन्यानवे का फेर। तरह-तरह के ग्राहक और वैसे ही तरह-तरह के सहकर्मी। एक थे जोशीजी, जिन्होंने हर महीने डिक्लेरेशन देने भर से मिलने वाले पर्क्स भी कभी नहीं लिये। एक बार एक नई टीशर्ट पहनकर आये। मैंने कुछ अधिक ही तारीफ़ कर दी तो अगले दिन ही बिल्कुल वैसी एक टीशर्ट मेरे लिये भी ले आये। बनशंकरी जी थीं जो रोज़ सुबह सबसे छिपाकर मेरे लिये कभी वड़े, कभी कुड़ुम, दोसा और कभी उत्पम लेकर आती थीं। अगर मैं उन्हें भूलकर काम में लग जाता तो याद दिलातीं कि ठन्डे होने पर उनका स्वाद कम हो जायेगा।

घर आये लुटेरों का मुकाबला करने के लिये पिस्तौल चलाने के किस्से से मशहूर हुई मिसेज़ पाहवा शाखा में आने वाली हर सुन्दर लड़की के साथ मेरा नाम जोड़कर मुझे छेड़ती रहती थीं। तनेजा भी था जो कैश में बैठने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता था। और था भोपाल, जिसकी नज़र काम में कम, आने वाली महिलाओं के आंकलन में अधिक रहती थी। बहुत बड़ी शाखा थी। काम तो था ही। फिर भी कुछ लोग बैंकिंग संस्थान की परीक्षाओं की तैयारी करते रहते थे, और कुछ लोग प्रोन्नति परीक्षा की। कुछ लंच में और उसके बाद भी लम्बे समय तक टेबल टेनिस आदि खेलते थे। एक दल के बारे में अफ़वाह थी कि वे बैंक में जमा के लिये आये रोकड़े में से कुछ को प्रतिदिन ब्याज़ पर चलाते थे और शाम को सूद अपनी जेब में डालकर बैंक का भाग ईमानदारी से जमा करा देते थे।

चित्र व कहानी: अनुराग शर्मा
अनिता मैडम इतनी कड़क थीं कि उनसे बात करने में भी लोग डरते थे। रेखा मैडम व्यवहार में बहुत अच्छी थीं, और ग़ज़ब की सुन्दर भी। शादी को कुछ ही साल हुए थे। पति नेवी में थे और इस समय दूर किसी शिप पर थे। वे सामान्यतः अपने काम से काम रखती थीं। कभी-कभी वे भी घर से मेरे लिये खाने को कुछ ले आती थीं।

बैंक और शाखा का नाम सुनकर अंकल जी का चेहरा चमका, "कमाल है, इनका भतीजा चंकी भी वहीं काम करता है। बड़ा नेक बन्दा है। इंडिया में हमारे घर की देखभाल भी उसी के ज़िम्मे है, वर्ना वहाँ तो आप जानते ही हो, दो दिन घर खाली रहे तो किसी न किसी का कब्ज़ा हो जाना है।"

बैंक की यादें थीं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। एक कर्मचारी और ग्राहक की लड़ाई में दोनों के सर फट गये थे। रावत ने मेरे नये होने का लाभ उठाकर कुछ हज़ार रुपये की हेरफ़ेर कर ली थी जो बाद में मेरे सिर पड़ी। तनेजा अपने सस्पेंशन ऑर्डर पब्लिक होने से पहले लगभग हर कर्मचारी से 5-6 सौ रुपये उधार ले चुका था। पीके की शायरी और वीपी की डायरी के भी मज़ेदार किस्से थे।

"चंकी इनको कहाँ पता होगा ..." आंटी जी ने कहा, फिर मुझसे मुखातिब हुईं, "बड़ा ही नेक बच्चा है।"

उधार लेने से पहले तनेजा ने सबसे यही कहा था कि वह बस एक उसी व्यक्ति से उधार ले रहा है। उसने किसी को यह भी नहीं बताया कि विभागीय जाँच के चलते उसका ट्रांसफ़र ऑर्डर आ चुका है और उसी दिन इंस्टैंट रिलीविंग है। जैन का बहुत सा पैसा स्टॉक मार्केट में डूबा था। मेरे खाते में जितना था वह तनेजा मार्केट में डूबा। बनशंकरी जी उस दिन मेरे लिये मुर्कु और उपमा लाई थीं, जिसका स्वाद अभी तक मेरी ज़ुबान पर है।

"चंकी का असली नाम है नटवर, किस्मत वालों के घर में होते हैं ऐसे नेक बच्चे" आंटी जी ने कहा।

एक दिन रेखा मैडम के हाथ पाँव काँप रहे थे, मुँह से बोल नहीं निकला। मामूली बात नहीं थी। पिंकी ने देखा तो दौड़कर पहुँची। फिर सभी महिलाएँ इकट्ठी हुईं। उस दिन रेखा मैडम सारा दिन रोती रही थीं और सारा लेडीज़ स्टाफ़ उन्हें दिलासा देता रहा था। मगर बात महिलामंडल के अन्दर ही रही।

एक बार जब माँ बैंक में आईं तो डिसूज़ा उनसे मेरी शिकायत लगाते हुए बोला, "इनकी शादी करा दीजिये, घर से भूखे आते हैं और सारा दिन हम लोगों को डाँटते रहते हैं।" मेरी रिलीविंग के दिन लगभग सभी महिलाएँ रो रही थीं। मिसेज़ पाहवा ने उस दिन मुझसे बहुत सी बातें की थीं। उन्होंने ही बताया था कि नटवर ने काउंटर पर चाभी फेंकी थी।

"बड़ा अच्छा है मेरा भांजा! " आंटी जी खूब खुश थीं।"

सोखी की मुस्कान, खाँ साहब की मीठी ज़ुबान और रावल साहब की विनम्रता सब वैसी ही रही। मिसेज़ पाहवा बोलीं कि वे होतीं तो गोली मार देतीं।

मेरे पास आकर आंटी ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "... मेरा बच्चा एकदम भोला है।"

मुझे रेखा मैडम का पत्ते की तरह काँपना याद आया और साथ ही याद आये मिसेज़ पाहवा द्वारा बताये हुए नटवर के शब्द, "मेरे अंकल बहुत बड़े अफ़सर हैं, आजकल बेटे के पास अमेरिका में हैं। उनका बहुत बड़ा फ़्लैट है। फ़ुल-फ़र्निश्ड, एसी-वीसी, टिप-टॉप, जनकपुरी में ... एकदम खाली ... ये पकड़ चाभी, ... आज शाम ... जितना भी मांगेगी ... "

गर्व से उछल रही आंटी की बात जारी थी, "एकदम भोला है मेरा चंकी ...बिल्कुल आपके जैसा!"

[समाप्त]

Monday, February 20, 2012

पिट्सबर्ग के खूबसूरत ऑर्किड्स - इस्पात नगरी से [55]


फूलों की सुन्दरता किसी पत्थर हृदय को भी द्रवित करने के लिये काफ़ी होती है। फूलों की असंख्य प्रजातियों में भी अपनी विविधता के कारण अनेक वर्ग-प्रवर्ग हैं। ऐसा ही एक प्रवर्ग है ऑर्किड (ओर्किड, Orchidaceae, Orchid)।




फूलो के पौधों का सबसे बड़ा परिवार ऑर्किड समुदाय ही है। ऑर्किड कई वर्षों तक जीवित रहते हैं और भूमि के साथ-साथ पेड़ों पर भी उगते हैं। कई ऑर्किड कुकुरमुत्तों की तरह मृतजीवी भी होते हैं और वृक्षों की टूटी टहनियों आदि पर पनपते हैं। ऐसे और्किडों में पर्णहरिम (क्लोरोफ़िल) नही होता।



वृक्षों पर पनपने वाले ऑर्किड अपनी जड़ों की बाहरी तह के जलशोषक तंतुओं द्वारा नमी ग्रहण करते हैं। शुष्क मरुस्थलों के सिवाय आर्किड सारी दुनिया में पाये जाते हैं - विशेषकर समोष्ण वनों में। और्किडों की लगभग 450 प्रजातियाँ (जॉनर) और 15,000 जातियाँ (स्पीशीज़) हैं तथा ये सब एक ही कुल (फ़ैमिली) के अंतर्गत हैं।



और्किडों के फूल चिरजीवी होने के लिए प्रसिद्ध हैं। यदि परागण न हो तो ये महीने डेढ़ महीने अथवा इससे भी अधिक दिनों तक पौधे पर सुरक्षित रहते हैं। परागण के पश्चात् फूल मुर्झा जाते हैं और इनसे अत्यंत नन्हे बीज बनते हैं। अधिकांश और्किडों की जड़ों में कवक (फ़ंगस) पाये जाये है जोकि इनके बीजों के अंकुरण में सहायता करते हैं।




छोटे भाई अमित शर्मा ने कुछ महत्वपूर्ण भारतीय ऑर्किडों के विषय में एक पोस्ट "ऋषभक का परिचय" के नाम से सामूहिक ब्लॉग निरामिष पर लिखी है, मेरा सुझाव - अवश्य पढिये!

साथ ही पिछले दिनों प्रसिद्ध साहित्यकार पंकज सुबीर जी की कहानी एक रात को स्वर देने का अवसर मिला जिसके ऑडियो को रेडियो प्लेबैक इंडिया के साथी सजीव सारथी ने साउंड एफ़ैक्ट्स द्वारा निखार दिया है। आप चाहें तो हमारे इस प्रयास का आनन्द भी अवश्य उठाइये।

महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर आप सभी को पिट्सबर्ग से हार्दिक शुभकामनायें!

[ओर्किडों के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Orchids captured by Anurag Sharma at Phipps Conservatory]

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Tuesday, February 14, 2012

... और वे पत्थर हो गए - इस्पात नगरी से [54]

पिछले सप्ताह पार्क में कुछ ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जो या तो सर्दी या किसी सदमे के कारण पत्थर के हो गये थे। सोचा आपकी भी मुलाकात करा दूँ।

पति और पत्नी

कुछ देर आराम हो जाये?

जब हम होंगे साठ साल के ...

और हम खड़े-खड़े ...

दिल के टुकड़े टुकड़े कर के ...


और अब दो पंक्तियाँ अपनी भी -
चलना अभी बहुत है गिर कर मैं सो न जाऊँ 
चोटें लगी हैं इतनी पत्थर सा हो न जाऊँ ॥
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Saturday, February 11, 2012

कच्ची दीवार - कविता

(अनुराग शर्मा)
होनी थी वह हो के रही, अनहोनी का होना क्या?

 उनके धक्के से गिरा ऐसा नहीं है यारों
कच्ची दीवार को इक रोज़ तो गिरना ही था

 दिल मुझपे लुटाया है तो कुछ खास नहीं
आज या कल में तो उनको भी समझना ही था

 कितनी मुद्दत से जलाता रहा दिल को अपने
ऐसे गुलज़ार को दिलदार तो बनना ही था

 लाख समझाया मगर इश्क़ से मैं बच न सका
मैं भी फ़ानी हूँ क़यामत पे तो मरना ही था

 हाथ रंगे वो मेरी लाश के सर बैठे हैं
उनके हाथों मेरी क़िस्मत को संवरना ही था।

Wednesday, February 8, 2012

गन्धहीन - कहानी [समापन]

पिछली कड़ी में आपने पढा:
सुन्दर सा गुलदस्ता बनाकर देबू अपनी कार में स्कूल की ओर चल पड़ा जहाँ चल रहे नाटक के एक कलाकार से उसकी एक चौकन्नी मुलाकात और जल्दी-जल्दी कुछ बातें हुईं।
अब आगे की कहानी:

घर आते समय गाड़ी चालू करते ही सीडी बजने लगी। देबू ने फूलों का गुलदस्ता डैशबोर्ड पर रख लिया। उसकी भावनाओं को आसानी से कह पाना कठिन है। वह एक साथ खुश भी था और सामान्य भी। उसके दिमाग़ में बहुत सी बातें चल रही थीं। वह सोच नहीं रहा था बल्कि विचारों से जूझ रहा था। घर पहुँचने तक उसके जीवन के अनेक वर्ष किसी सोप ऑपरा की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़र गये। कार में चल रहा कबीर का गीत "माया महाठगिनी हम जानी ..." उन उलझे हुए विचारों के लिये सटीक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहा था।

घर आ गया। गराज खुली, कार रुकी, गराज का दरवाज़ा बन्द हुआ। गायक व गीतकार वही थे, गीत बदल गया था।

जब लग मनहि विकारा, तब लग नहिं छूटे संसारा।
जब मन निर्मल करि जाना, तब निर्मल माहि समाना।।

"पापा ... कहाँ हैं आप?" बन्द कार में चलते संगीत में विनय की आवाज़ बहुत मद्धम सी लगी। घर में किसी को होना नहीं चाहिये, शायद आवाज़ का भ्रम हुआ था।

"जो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीन्ही चदरिया, झीनी रे झीनी ..." संतों की वाणी में कितना सार है! देशकाल के पार। बिना देखे भी सब देख सकते हैं। जो हो चुका है, और जो होना है, सब कुछ देख चुके हैं, कह चुके हैं। हर कविता पढी जा चुकी है और हर कहानी लिखी जा चुकी है।

"कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू ..." संत बनने की ज़रूरत नहीं है, जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। देबू तो खुद कवि है। क्या उसका मन वहाँ तक पहुँचता है जहाँ साधारण मानव का मन नहीं पहुँच सकता? क्या मन की गति सबसे तेज़ है? नहीं, सच्चाई यह है कि यक्षप्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मन सबसे गतिमान नहीं हो सकता। मन का विस्थापन शून्य है, इसलिये उसकी गति भी शून्य ही है।

"आता और न जाता है मन, यहीं पड़ा इतराता है मन" वाह! देबू ने अपनी ताजातरीन काव्य पंक्ति को स्वगत ही उच्चारा और मन ही मन प्रसन्न हुआ।

"कहाँ खड़े रह गये? हम इतनी देर से इंतज़ार कर रहे हैं, अब आयेंगे, अब आयेंगे!" इस बार रीटा की आवाज़ थी।

"जो आयेगी सो रोयेगी, ऐसे पूर्णतावादी के पल्ले बन्ध के" माँ कहती थीं तो नन्हा देबू हँसता था, "आप तो इतनी खुश हैं बाबूजी के साथ!"

"किस्मत वाले हो जो रीटा जैसी पत्नी मिली है" जो देखता, अपने-अपने तरीके से यही कहता था। वह मुस्करा देता। लोग तो कुछ भी कह देते हैं, लेकिन देबू आज तक तय नहीं कर सका है कि वह पूर्णतावादी है या किस्मत वाला। हाँ वह यथास्थितिवादी अवश्य हो गया है, गीत भी अभी बदल गया है, "उज्जवल वरण दिये बगुलन को, कोयल कर दीन्ही कारी, संतों! करम की गति न्यारी ..."

पहले तो चला जाता था। तब सब ठीक हो जाता था। लेकिन इस बार ... प्रारब्ध से कब तक लड़ेगा इंसान? वैसे भी ज़िन्दगी इतनी बड़ी नहीं कि इन सब संघर्षों में गँवाने के लिये छोड़ दी जाये। इस बार तो आने को भी नहीं कहा था।

"आप चुपके से आ जाना। स्कूल में 12 बजे। किसी को पता नहीं लगेगा।"

आज पहली बार उसने जाते-आते दोनों समय गराज के स्वचालित द्वार की आवाज़ को महसूस करने का प्रयास किया था।

"रोज़ शाम को ... गराज खुलने की आवाज़ से ही दिल दहल जाता है, ... आज न जाने कौन सी बिजली गिरने वाली है। जब होश ही ठिकाने न हों तो कुछ भी हो सकता है। नॉर्मल नहीं है यह आदमी।"

आना-जाना लगा रहता था। सन्देश मिलते ही वह चला जाता था। लाने के बाद सुनने में आता था, "हज़ार बार नाक रगड़ कर गया है, तब भेजा है हमने।" इस बार का सन्देसा अलग था। इस बार नोटिस अदालत से आया था। वापस बुलाने का नहीं, हर्ज़ा-खर्चा देने का नोटिस, "हम इस आदमी के साथ नहीं रह सकते। जान का खतरा है। इसके पागलपन का इलाज होना चाहिये। मेरा बच्चा उसके साथ एक ही घर में सुरक्षित नहीं है।"

चित्र व कथा: अनुराग शर्मा
देबू कैसे सहता इतना बड़ा आरोप? एकदम झूठ है, वह तो मच्छर भी नहीं मारता। अदालत के आदेश पर वह मनोचिकित्सक के सामने बैठा है। दीवार पर बड़ा सा पोस्टर लगा है, "घरेलू हिंसा से बचें। इस शख्स को देखें। यह मक्खी भी नहीं मार सकता, मगर अपनी पत्नी को रोज़ पीटता है।" उसे लगता है पोस्टर उसके लिये खास ऑर्डर पर बनवाया गया है। उसे पोस्टर देखता देखकर मनोचिकित्सक अपनी डायरी में कुछ नोट करती है।

जब से दोनों गये हैं, देबू अक्सर घर आकर भी अन्दर नहीं आता। गराज में ही कार में सीट बिल्कुल पीछे कर के अधलेटा सा पड़ा रहता है। "बिन घरनी घर भूत का डेरा" जिस तरह दोनों की अनुपस्थिति में भी उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं, उसे लगता है कि वह सचमुच पागल हो गया है। यह नहीं समझ पाता कि अब हुआ है या पहले से ही था। शायद रीटा की बात ही सही हो। शायद माँ की बात भी सही हो। या शायद स्त्रियों का सोचने का तरीका भिन्न होता हो। नहीं, वह खुद ही भिन्न होगा। लेकिन अगर ऐसा होता तो अपने स्कूल के वार्षिक समारोह के लिये विनय चुपके से फ़ोन करके उसे बुलाता नहीं। शायद बच्चा अपने पिता के मोह में कुछ देख नहीं पाता।

"पापा, आप ज़रूर आना, गंगावतरण की नाटिका में मैं भी हूँ। ... आपको देखने का कितना मन करता है मेरा, लेकिन माँ और नानाजी लेकर ही नहीं आते।"

किसी चलचित्र के मानिन्द तेज़ी से दौड़ते जीवन के बीते पल दृष्टिपटल पर थमने से लगे हैं। "मामा, नानी आदि आपके बारे में कुछ भी कहते रहते हैं तो भी माँ टोकती नहीं। मेरा मन करता है कि वहाँ से उसी वक्त भाग आऊँ।"

"पापा, आप आ गये?" विनय कार का दरवाज़ा बाहर से खोलता है। निष्चेष्ट पड़ा देबू उठकर बेटे का माथा चूमता है। विनय उसकी बाहों में होते हुए भी वहाँ नहीं है। आइरिस के फूल सामने हैं मगर उनमें गन्ध नहीं है। देबू विनय से कहता है, "मैं तुम्हारा अहित सोच भी नहीं सकता। तुम्हारी माँ को कोई भारी ग़लतफ़हमी हुई है।"

"आप यहाँ क्यों सो रहे हैं? अन्दर आ जाइये" रीटा तो कभी ऐसे मनुहार नहीं करती।

"बहुत थक गया हूँ ... अभी उठ नहीं सकता" शब्द शायद मन में ही रह गये।

बन्द गराज में कार के रंगहीन धुएँ के साथ भरती हुई कार्बन मोनोऑक्साइड पूर्णतया गन्धहीन है, बिल्कुल आइरिस के फूलों की तरह ही। बस, आइरिस के फूल जानलेवा नहीं होते। देबू सो रहा है, कार का इंजन अभी चालू है पर गीत बदल गया है।

जल में घट औ घट में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा घट जल जलहि समाना, यह तथ कह्यौ ज्ञानी।।

[समाप्त]

Author's note: Unintentional Carbon Monoxide (CO) exposure accounts for an estimated 15,000 emergency department visits and 500 unintentional deaths in the United States each year.