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Thursday, February 2, 2012

गन्धहीन - कहानी

शरद ऋतु की अपनी ही सुन्दरता है। इस दुनिया की सारी रंगीनी श्वेत-श्याम हो जाती है। हिम की चान्दनी दिन रात बिखरी रहती है। लेकिन जब बर्फ़ पिघलती है तब तो जैसे जीवन भरक उठता है। ठूंठ से खड़े पेड़ नवपल्लवों द्वारा अपनी जीवंतता का अहसास दिलाते हैं। और साथ ही खिल उठते हैं, किस्म-किस्म के फूल। रातोंरात चहुँ ओर बिखरकर प्रकृति के रंग एक कलाकृति सी बना लेते हैं। और दृष्टिगत सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें होती हैं विभिन्न प्रकार की गन्ध। गन्ध के सभी नैसर्गिक रूप; फिर भी कभी वह एकदम जंगली लगती हैं और कभी परिष्कृत। मानव मन के साथ भी तो शायद ऐसा ही होता है। सुन्दर कपड़े, शानदार हेयरकट और विभिन्न प्रकार के शृंगार के नीचे कितना आदिम और क्रूर मन छिपा है, एक नज़र देखने पर पता ही नहीं लगता।

रेस्त्राँ में ठीक सामने बैठी रूपसी ने कितने दिल तोड़े हों, किसे पता। नित्य प्रातः नहा धोकर मन्दिर जाने वाला अपने दफ़्तर में कितनी रिश्वत लेता हो और कितने ग़बन कर चुका हो, किसे मालूम है। मौका मिलते ही दहेज़ मांगने, बहुएं जलाने, लूट, बलात्कार, और ऑनर किलिंग करने वाले लोग क्या आसमान से टपकते हैं? क्या पाँच वक़्त की नमाज़ पढने वाले ग़ाज़ी बाबा ने दंगे के समय धर्मान्ध होकर किसी की जान ली होगी और फिर शव को रातों-रात नदी में बहा दिया होगा? मुझे नहीं पता। मैं तो इतना जानता हूँ कि इंसान, हैवान, शैतान, देवासुर सभी वेश बदलकर हमारे बीच घूमते रहते हैं। हम और आप देख ही नहीं पाते। देख भी लें तो पहचानेंगे कैसे? कभी उस दृष्टि से देखने की ज़रूरत ही नहीं समझते हम।
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो उसकी वहाँ नहीं मिलता।
~ नक़्श लायलपुरी
कथा व चित्र: अनुराग शर्मा 
खैर, हम बात कर रहे थे बहार की, फूलों की, और सुगन्ध की। संत तुलसीदास ने कहा है "सकल पदारथ हैं जग माहीं कर्महीन नर पावत नाहीं। जीवन में सुगन्ध की केवल उपस्थिति काफी नहीं है। उसे अनुभव करने का भाग्य भी होना चाहिये। फूलों की नगरी में रहते हुए लोगों को फूलों के परागकणों या सुगन्धि से परहेज़ हो सकता है। मगर देबू को तो इन दोनों ही से गम्भीर एलर्जी थी। घर खरीदने के बाद पहला काम उसने यही किया कि लॉन के सारे पौधे उखडवा डाले। पत्नी रीटा और बेटे विनय, दोनों ही फूलों और वनस्पतियों के शौकीन हैं, लेकिन अपने प्रियजन की तकलीफ़ किसे देखी जाती है। सो तय हुआ कि ऐसे पौधे लगाये जायें जो रंगीन हों, सुन्दर भी हों, परंतु हों गन्धहीन। सूरजमुखी, गुड़हल, डेहलिया, ऐज़लीया, ट्यूलिप जैसे कितने ही पौधे। इन पौधों में भी लम्बी डंडियों वाले खूबसूरत आइरिस देबू की पहली पसन्द बने।

देबू आज सुबह काफ़ी जल्दी उठ गया था। दिन ही ऐसा खुशी का था। आज की प्रतीक्षा तो उसे कब से थी। रात में कई बार आँख खुल जा रही थी। समय देखता और फिर सोने की कोशिश करता मगर आँखों में नींद ही कहाँ थी। नहा धोकर अविलम्ब तैयार हुआ और बाहर आकर अपनी रंग-बिरंगी बगिया पर एक भरपूर नज़र डाली। कुछ देर तक मन ही मन कुछ हिसाब सा लगाया और फिर आइरिस के एक दर्ज़न सबसे सुन्दर फूल अपनी लम्बी डंडियों के साथ बड़ी सफ़ाई से काट लिये। भीतर आकर बड़े मनोयोग से उनको जोड़कर एक सुन्दर सा गुलदस्ता बनाया। कार में साथ की सीट पर रखकर गुनगुनाते हुए उसने अपनी गाड़ी बाहर निकाली। गराज का स्वचालित दरवाज़ा बन्द हुआ और कार फ़र्राटे से स्कूल की ओर भागने लगी। कार के स्वर-तंत्र से संत कबीर के धीर-गम्भीर शब्द बहने लगे, "दास कबीर जतन ते ओढी, ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।"
[क्रमशः]


Tuesday, January 17, 2012

कितने सवाल हैं लाजवाब?

हर सवाल लाजवाब
भारत एक महान राष्ट्र है। यहाँ का हर व्यक्ति महान है। हर कोई देश-सेवा, भाषा-सेवा, जाति-सेवा, धर्म-सेवा, ये सेवा, वो सेवा आदि के बोझ से कुचला जा रहा है। लेकिन देश है कि फिर भी समस्याओं से घिरा है। दहेज और रिश्वत जैसी परम्परायें हर ओर कुंडली मारे बैठी हैं मगर हमने कसम खा ली है कि भ्रष्टाचार को मिटाकर ही मानेंगे। कोई भ्रष्टाचार मिटाने के लिये सारे टैक्स हटाने की सलाह दे रहा है और कोई सारे राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगाकर दो दलीय परम्परा आरम्भ करने के पक्ष में है। जन्मतिथि ग़लत लिखाने वाला भी भ्रष्टाचार मिटा रहा है और कैपिटेशन फ़ी देकर शिक्षा पाने वाला भी, आरक्षण से प्रमोशन पाने वाला भी और आरक्षण के लिए थोक में रेलें रोकने वाला भी। मज़ेदार वाकया तब देखने को मिला जब बलात्कार के आरोपी को मौत की सज़ा दिलाने की वकालत करने वाले व्यक्ति का अनशन तुड़ाने आये लोगों में वे भी दिखे जिन पर देश-विदेश में कम से कम तीन बलात्कार के आरोप लगे हैं।

जिनकी सात पीढियों में एक व्यक्ति भी सेना में नहीं गया वे धर्म, देश, जनसेवा के लिये दनादन ये सेना, वो सेना बनाये जा रहे हैं मगर किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन की बात में साथ न आ पाने के लिये उनके पास ठोस कारण हैं।  एक मित्र की दीवार पर बड़ा रोचक सन्देश देखने को मिला

अन्ना जी मै देश हित के लिए आपका साथ भी दे देता. पर क्या करूँ हमारे सिलसिले भगत और सुभाष से मिलते है. हम हमारी मांगो के लिए अनशन नहीं करते ... 

न चाहते हुए भी याद दिलाना पड़ा कि आपके सिलसिले जिन हुतात्माओं से मिलते हैं उनके बारे में पढेंगे तो पता चलेगा कि वे दोनों आपके जन्म से पहले ही अनशन पर बैठ चुके हैं। भगत सिंह ने मियाँवाली जेल में 1929 में अनशन किया था और सुभाषचन्द्र बोस ने 1939-40 में नज़रबन्दी से पहले अनशन किया था। भगत सिंह ने तो साथियों के साथ 116 दिन के अनशन का रिकार्ड स्थापित किया था। "बाघा जतिन" जतिन दास की मृत्यु इसी अनशन में हुई थी। मगर किया क्या जाये? संतोषः परमो धर्मः के देश में असंतोष तो बढ ही रहा है, भोली-भाली जनता के असंतोष को भड़काकर उसका राजनीतिक लाभ लेने वाले ठग भी बढते जा रहे हैं। और हम भी एक ऑटो में पढी अनाम कवि की सामयिक शायरी की निम्न पंक्तियों को कृतार्थ करने में लगे हैं:

कितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं 
थोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं

कुछ जगह यह चिंता भी प्रकट की जा रही है कि सिगरेट जैसे आविष्कारों से भारतीय युवा पीढी पश्चिमी बुराइयों की ओर धकेली जा रही है। मासूम चिंतक जी को नहीं पता कि हुक्का भारत में आविष्कृत हुआ था। उन्हें यह जानकारी भी नहीं है कि चिलम-गांजे-भांग की भारतीय परम्परा इतनी देसी है कि साधुजनों के पास भी मिल जायेगी।

फरवरी का महीना आ रहा है। अंग्रेज़ी पतलून वाले नौजवानों के बिना जनेऊ-चोटी वाले झुंड के झुंड भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ अबलाओं को लतिया कर वैलेंटाइंस डे की अपसंस्कृति के विरोध में कानून हाथ में लेने के लिये उस रास्ते पर निकलने वाले हैं जो तालेबान-टाइप अराजक तत्वों ने बुर्क़ा न पहनने वाली लड़कियों के मुख पर तेज़ाब फ़ेंककर दिखाया है।

किसी को विश्व बंधुत्व, सहिष्णुता और धर्म-निरपेक्षता खतरे में दिख रही है और किसी को गाय, धर्म, भाषा, और संस्कृति। हर बन्दा भयभीत है। और भयातुर आदमी जो भी करे जायज़ होता है। वह दूसरे लोगों की, या राज्य की सम्पत्ति जला सकता है, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत सकता है, तोड़फ़ोड, हत्या आदि कुछ भी कर सकता है। समाजहित में सब जायज़ है।

इधर धुर वामपंथी विचारधारा के कुछ मित्र लम्बे समय से डफली पीटकर भगत सिंह को कम्युनिस्ट और अन्य क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक साबित करने में लगे हुए हैं वहीं उनके मुकाबले में स्वाभिमानवादी भी अपना शंख बजा रहे हैं। हाल में एक विडियो-महानायक को कहते सुना कि इस्कॉन (ISKCON) नामक अमेरिकी संस्था भारत में मन्दिर बनाकर हर साल भारी मुनाफ़ा विदेश ले जा रही है। ज्ञातव्य है कि इस्क़ॉन का मुख्यालय चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली मायापुर, भारत में है। प्रवचनकर्ता ने भावुक होकर यह भी बताया कि उसने तात्या टोपे के वंशजों को कानपुर में चाय बेचते देखा था। न किसी ने यह पूछा न किसी ने बताया कि यदि टोपे परिवार का वर्तमान व्यवसाय बुरा है तो उनके उत्थान के लिये वे भाषणवीर क्या करने वाले हैं। इससे पहले कई मित्र दुर्गा भाभी की तथाकथित "दुर्दशा" के बारे में यही लगभग यही (और पूर्णतः असत्य) कहानी सुना चुके हैं। तात्या टोपे के वंशजों की जानकारी उनकी वेबसाइट पर उपलब्ध है।

विकास की बात चलने पर चीनी तानाशाही के साथ हिटलर महान के गुणगान भी अक्सर कान में पड़ जाते हैं। साथ ही सारी दुनिया, विशेषकर जर्मनी पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है। परिचितों की एक बैठक में एक आगंतुक जर्मन वायुसेवा के नाम "लुफ़्तहंसा" के आधार पर यह सिद्ध कर रहे थे कि जर्मनी पर भारत का कितना प्रभाव था। बताने लगे कि जहाज़ किसी हंस की तरह आकाश में जाकर लुप्त सा हो जाता था इसलिये लुफ़्तहंसा (= लुप्त + हंस) कहलाया गया। वास्तविक हंसा की जानकारी अंग्रेज़ी में यहाँ है

बची-खुची कसर चेन-ईमेलों द्वारा निकाली जा रही है। कहीं हिटलर को शाकाहारी बताया जा रहा है और कहीं चालीस साल की उम्र में बाज़ों का पुनर्जन्म हो रहा है। एक और दोस्त हैं, जिन्हें वैज्ञानिक धमाचौकड़ी मचाने का बड़ा शौक है। बताने लगे ऐतिहासिक मस्जिद के उस जादुई कुएँ के बारे में जिस पर मांगी गयी हर मन्नत पूरी होती है। एक शरारती बच्चे ने पूछ लिया, "अगर मैं मन्नत मांगूँ कि अब तक की सारी मन्नतें झूठी साबित हो जायें तो क्या होगा?" यह सवाल भी रह गया लाजवाब!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* विश्वसनीयता का संकट
* दूर के इतिहासकार
* मैजस्टिक मूंछें
नायक किस मिट्टी से बनते हैं?
क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है
* तात्या टोपे के वंशज

Monday, December 26, 2011

नाम का चमत्कार - कहानी

अब तक: नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं। हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है पर परिभाषा के अनुसार आत्मा तो घायल नहीं हो सकती। न जल सकती है न आद्र होती है। बारिश की बून्द को छूती तो है पर फिर भी सूखी रह जाती है।
नाम का चमत्कार कहानी की भूमिका पढना चाहें तो यहाँ क्लिक कीजिये
यह वह मेट्रो तो नहीं!
दिल्ली मेट्रो में घुसते ही सुवाक की नज़र सामने ही पहले से बैठी तारा पर पड़ी। लगभग उसी समय तारा ने उसे देखा। इस प्रकार अचानक एक दूसरे को सामने देखकर दोनों ही चमत्कृत थे।

"तुम यहाँ कैसे? बताया भी नहीं?" वह जगह बनाते हुए थोड़ी खिसकी।

"बता देता तो यह चमत्कारिक मिलन कैसे होता? चिंता नहीं, आराम से बैठो, मैं ऐसे ही ठीक हूँ।"

"दिल्ली कब आये?"

"कज़न की शादी थी। परसों वापसी है। आज सोचा कि मेट्रो का ट्रायल लिया जाये। तुम कहीं जा रही हो ... या कहीं से आ रही हो?"

"बेटे की दवा लेकर आ रही थी।" वह रुकी, सुवाक को एक बार ऊपर से नीचे तक देखा और बोली, "तुम बिल्कुल भी नहीं बदले। मेट्रो देखने के लिये तो सूट और टाई ज़रूरी नहीं था।"

"सर्दी थी सो सूट पहन लिया। नैचुरल है टाई भी लगा ली।"

वह मुस्कराई, "कफ़लिंक्स पर अभी भी इनिशियल्स होते हैं क्या?"

"इनिशियल्स? पूरा नाम होता है अब" वह हँसा, "सब कुछ पर्सनलाइज़्ड है, पेन से लेकर घड़ी तक। तुम भी तो नहीं बदलीं। मिलते ही मज़ाक उड़ाने लगीं।" वाक्य पूरा करके सुवाक ने अपनी माँ से चिपककर बैठे बेटे को ध्यान से देखा। उनकी बातों से बेखबर वह अपने डीएस पर कुछ खेलने में मग्न था।

"बच्चे की तबियत कैसी है अब?"

"ठीक है! चिंता की कोई बात नहीं है ..." तारा ने आसपास कुछ तलाशते हुए पूछा, "तुम अभी भी अकेले हो?"

"नहीं, पत्नी भी आयी है। पर सर्दी में उसे घर में रहना ही पसन्द है।"

" ... और बच्चे?"

"बस, हम दो।" सुवाक सकुचाया और मन में मनाया कि तारा बात आगे न बढाये।

"लेकिन तुम तो कहते थे ...." वाक्य पूरा करने से पहले ही तारा को उसकी अप्रासंगिकता का आभास हो चला था। परंतु तीर चल चुका था।

"मैं तो और भी बहुत कुछ कहता था। कहा हुआ सब होने लगे तो दुनिया स्वर्ग ही न हो जाये।"

"सॉरी!"

"सॉरी की कोई बात नहीं है, सुधा को बच्चों से नफ़रत तो नहीं पर ... और मुझे प्रकृति ने वह क्षमता नहीं दी कि मैं उन्हें नौ महीने अपने अन्दर पाल सकूँ।" बात पूरी करते-करते सुवाक को भी अहसास हुआ कि यह बात कहे बिना भी वार्तालाप सम्पूर्ण ही था।

"अच्छा? अगर विज्ञान कर सकता तो क्या तुम रखते?"

"इतना आश्चर्य क्यों? तुम मुझे जानती नहीं क्या? हाँSSS, जानती होतीं तो आज यह सर्प्राइज़ मीटिंग कैसे होती?"

"न, मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। कोई और बात याद आ गयी थी। तुम कहाँ तक जाओगे?"

"डरो मत, तुम्हारे घर नहीं आ रहा। स्टेशन से ही वापस हो लूंगा।" सुवाक शरारत से मुस्कराया।

"डर!" तारा ने गहरी सांस ली, "डर क्या होता है, तुम क्या जानो! सच, तुम कुछ भी नहीं जानते। तुम नहीं समझोगे, उस दुनिया को जिसमें मैं रहती हूँ। तुम्हें नहीं पता कि आज तुम्हें सामने देखकर मैं कितनी खुश हूँ ... आज हम मिल सके ..." बात पूरी करते-करते तारा की आँखें नम हो आयीं।

"कैसा है पहलवान?" सुवाक ने बात बदलने का भरपूर प्रयास किया।

"वे" तारा एक पल को सकुचाई फिर बोली, " ... वे तो शादी के साल भर बाद ही ..."

"क्या हुआ? कैसे?"

"ज़मीन का झगड़ा, सगे चाचा ने ... छोड़ो न वह सब। तुम कैसे हो?"

"हे राम!"

भगवान भी क्या-क्या खेल रचता है। उन आँखों की तरलता ने सुवाक को झकझोर दिया। उसका मन करुणा से भर आया। दिल किया कि अभी उठाकर उसे अंक में भर ले। मगर यह समय और था। अब उन दोनों की निष्ठायें अलग थीं। वैसे भी यह भारत था। आसपास के मर्द-औरत, बूढ़े-जवान पहले से ही अपनी नज़रें उन पर ही लगाये हुए थे।

"तुमने यह शादी क्यों की?" सुवाक पूछना चाहता था लेकिन वार्ता के इस मोड़ पर वह कुछ बोल न सका। परंतु इसकी ज़रूरत भी नहीं पड़ी। तारा खुद ही कुछ बताना चाह्ती थी।

"मुझे ग़लत मत समझना। मैंने यह शादी सिर्फ़ इसलिये की ताकि मेरे भाई तुम्हें ..." वह फफक पड़ी, "तुम कुशल रहो, लम्बी उम्र हो।"

"माफ करना तारा, मैंने अनजाने ही ... तुम्हारे ज़ख्म हरे कर दिये। मुझे लगता था कि तुमने मुझे नहीं पहचाना। लेकिन आज समझा कि तुमसे बड़ा नासमझ तो मैं ही था ... मैंने तो, कोशिश भी नहीं की।"

माँ के स्वर का परिवर्तन भाँपकर बच्चे ने खेल से ध्यान हटाकर माँ की ओर देखा और अपने नन्हे हाथों से उसे प्यार से घेर लिया। सुवाक का हृदय स्नेह से भर उठा, "तुम्हारा क्या नाम है बेटा?"

बच्चा अपनी मीठी तोतली आवाज़ में बोला तो सुवाक के मन में घंटियाँ सी बज उठीं। तारा भी मुस्कराई। दोनों की आँखें मिलीं और तारा ने एकबारगी उसे देखकर अपनी नज़रें झुका लीं। सुवाक ने मुस्कराकर अपनी जेब से एक बेशकीमती पेन निकालकर बच्चे को दिया, "ये तुम्हारा गिफ़्ट मेरे पास पड़ा था। सम्भालकर रखना।"

पेन हाथ में लेकर बच्चा बोला, "कौन सा पेन है यह? सोने का है?"

तारा ने उठने का उपक्रम करते हुए अपने बेटे से कहा, "अभी ये पैन और गेम मैं रख लेती हूँ, घर चलकर ले लेना" फिर सुवाक से बोली, "मेरा स्टेशन आ रहा है। हम शायद फिर न मिलें, तुम अपना ध्यान रखना और हाँ, जैसे हो हमेशा वैसे ही बने रहना।"

"वैसा ही? मतलब डरावना?"

"मतलब तुम्हें पता है!"

दोनों हँसे। पेन को अभी तक हाथों से पकड़े हुए बच्चा एकाएक खुशी से उछल पड़ा, "अंकल तो जादूगर हैं, पेन पर मेरा नाम लिखा है। उन्हें पहले से कैसे पता चला?"

बेटे का हाथ थामे तारा ने ट्रेन से उतरने से पहले मुड़कर सुवाक को ऐसे देखा मानो आँखों में भर रही हो, फिर मुस्कराई और चल दी।

[समाप्त]

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* कोई चेहरा भूला सा.... कहानी
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Thursday, December 22, 2011

नाम का चमत्कार - भूमिका

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो. न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
जादूगर के मंच पर बड़े कमाल होते हैं। इसी तरह हिन्दी फ़िल्मों में भी संयोग पर संयोग होते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे, जादू, कमाल और संयोग केवल किताबी बातें हैं। उनकी निजी ज़िन्दगी में शायद ऐसा कोई कमाल कभी हुआ ही नहीं। मैं यह नहीं मानता। मुझे तो लगता है कि वे अपने जीवन में नित्यप्रति घट रहे चमत्कार को देख पाने की शक्ति खो चुके हैं। लेकिन श्रीमान सुवाक त्रिगुणायत ऐसे लोगों में से नहीं है। शायद यही एक कारण है कि उनके इतने कठिन नाम, अति-सुरुचिपूर्ण जीवनशैली और विराट भौगोलिक दूरी के बावजूद वे अब तक मेरे मित्र हैं।

ये सुवाक की मैत्री का ही चमत्कार है कि मैंने भी आज उस्तादी उस्ताद से करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत है, एक छोटी कहानी जो मेरे एक पसन्दीदा ब्लॉग पर प्रकाशित एक कहानी से प्रभावित तो है मगर है अपने अलग अन्दाज़ में - विडियो किल्ड द रेडियो स्टार बनाम अउआ, अउआ? नहीं! ट्वेल्व ऐंग्री मैन बनाम एक रुका हुआ फैसला? कतई नहीं!

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही
अब तो उसका वापस घर आना इतने-इतने दिन बाद होता है कि हर बार भारत नया लगता है। पिछली बार देखे हुए भारत से एकदम भिन्न। सुवाक की यह विशेषता है कि परिवर्तन अच्छा है या बुरा, इसके बारे में कोई भी उसे कुछ कहने को बाध्य नहीं कर सकता। उसके जीवन में श्वेत-श्याम कुछ भी नहीं है। दुश्मनों से दुआ-सलाम की बात हो या दोस्तों की खिंचाई, जो सुवाक को जानता नहीं, उसके लिये आदमी अजीब है मगर जो उसे जानते भी हैं उनमें भी कई उससे बचते हैं। कुछ-एक लोग उसके तौर-तरीके से सहमे रहते हैं और साज-सलीके से कुछ झिझके से रहते हैं। जो बचे वे उसकी बेबाकी से बचना चाहते हैं। एक सहकर्मिणी ने एक बार उसकी अनुपस्थिति में कहा था कि वह सुवाक से बहुत डरती थी। मेरी हँसी रोके न रुकी। कोई सुवाक से भी डरा हो, इससे बड़ा मज़ाक क्या होगा। लेकिन जीवन में जिस प्रकार चमत्कार होते हैं, उसी प्रकार मज़ाक भी बखूबी होते हैं। बल्कि कई बार तो ज़िन्दगी ऐसा मज़ाक कर जाती है कि हम हँस भी नहीं पाते। तारा और सुवाक का ब्रेकअप भी ऐसा ही एक मज़ाक था।  तारा के अनुसार उसने अपने परिवार का सम्मान बचा लिया और सुवाक? उसने तो शायद कभी कुछ खोया ही नहीं। पहले नौकरी छोड़ी, फिर शहर और फिर देश।

नाते टूटते हैं पर जुड़े रह जाते हैं। या शायद वे कभी टूटते ही नहीं, केवल रूपांतरित हो जाते हैं। हम समझते हैं कि आत्मा मुक्त हो गयी जबकि वह नये वस्त्र पहने अपनी बारी का इंतज़ार कर रही होती है। न जाने कब यह नवीन वस्त्र किसी पुराने कांटे में अटक जाता है, खबर ही नहीं होती। तार-तार हो जाता है पर परिभाषा के अनुसार आत्मा तो घायल नहीं हो सकती। न जल सकती है न आद्र होती है। बारिश की बूंद को छूती तो है पर फिर भी सूखी रह जाती है।
[नाम का चमत्कार - कहानी]

"रेडियो प्लेबैक इंडिया" पर गिरिजेश राव की कहानी "राजू के नाम एक पत्र" का ऑडियो सुनने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये

Wednesday, December 7, 2011

क़ौमी एकता - लघुकथा

"अस्सलाम अलैकुम पण्डित जी!  कहाँ चल दिये?

"अरे मियाँ आप? सलाम! मैं ज़रा दुकान बढ़ा रहा था। मुहर्रम है न आज!"

"तो? इतनी जल्दी क्यों? आप तो रात-रात भर यहाँ बैठते हैं। आज दिन में ही?"

"क्या करें मियाँ, बड़ा खराब समय आ गया है। आपको पता नहीं पिछली बार कितना फ़जीता हुआ था? और फिर आज तो तारीख भी ऐसी है।"

"अरे पुरानी बातें छोड़ो पण्डित जी। आज तो आप बिल्कुल बेखौफ़ हो के बैठो। आज मैं यहीं हूँ।"

"मियाँ, पिछली बार आपके मुहल्ले का ही जुलूस था जिसने आग लगाई थी।"

"मुआफ़ी चाहता हूँ पण्डित जी, तब मैं यहाँ था नहीं, इसीलिये ऐसा हो सका। अब मैं वापस आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।"

"अजी आपके होने से क्या फ़र्क पड़ेगा? कहीं आपकी भी इज़्ज़त न उतार दें मेरे साथ।"

"उतारने दीजिये न, वो मेरी ज़िम्मेदारी है! लेकिन आप दुकान बन्द नहीं करेंगे आज।"

"शर्मिन्दा न करें, आपकी बात काटना नहीं चाहता हूँ, पर मैं रुक नहीं सकता ... जान-माल का सवाल है।"

"पर-वर कुछ नहीं। आज मैं यहीं बैठकर चाय पियूँगा। जुलूस गुज़र जाने तक यहीं बैठूंगा। देखता हूँ कौन तुर्रम खाँ आगे आता है।"

"क्यों अपने आप को कठिनाई में डाल रहे हो मियाँ? इतने समय के बाद मिले हो। मेरे साथ घर चलो, वहीं बैठकर चाय भी पियेंगे, बातें भी करेंगे। खतरा मोल मत लो। "

"न! खुदा कसम पूरा जुलूस गुज़र जाने तक मैं आज यहाँ से उठने वाला नहीं । होरी से कहकर यहीं दो चाय मंगवाओ।"

"आप समझ नहीं रहे हैं मियाँ, अब पहले वाली बात नहीं रही। आज की पीढ़ी हम बुज़ुर्गों की भावनाएँ नहीं समझती। हम जैसों को ये अपना दुश्मन मानते हैं।"

"आप यक़ीन कीजिये, इन लौंडे-लपाड़ों में किसी की मज़ाल नहीं जो मेरे सामने खड़ा हो जाये। आज जुलूस उठने से पहले सही-ग़लत सब समझा के आया हूँ मैं।"

"जैसी आपकी मर्ज़ी मियाँ! होरी, जा मुल्ला जी के लिये एक स्पेशल चाय बना ला फ़टाफ़ट!"

"एक नहीं, दो!"

"अरे मैं अभी चाय पी नहीं पाऊंगा, मौत के मुँह में बैठा हूँ।"

"वो परवरदिग़ार सबकी हिफ़ाज़त करता है। जब तक मैं यहाँ हूँ, आप बेफ़िक्र होकर बैठिए।"

"बेफ़िकर? ज़रा पलट के देखिये! आ गये हुड़दंगी। शीशे तोड़ रहे हैं। ताजिये दिखने से पहले तो जलाई हुई दुकानों का धुआँ दिखने लगा है।"

"या खुदा! ये कैसे हो गया? चलने से पहले मैने सबको समझाया था, क़ौमी एकता पर एक लम्बी तकरीर दी थी।"

"बस ऐसे ही होता है आजकल। एक कान से सुनकर दूसरे से निकालते हैं। अब मेरी जान और दुकान आपके हवाले है।"

"ज़ाकिर!, हनीफ़! क्या हो रहा है ये सब? क्या बात तय हुई थी जुलूस उठने से पहले?"

"अरे आप यहाँ? सब खैरियत तो है?"

"मुझे क्या हुआ? थोड़ा तेज़ चलकर पण्डितजी से मिलने आ गया था।"

"शहर का माहौल इतना खराब है। आपको ऐसे बिना-बताये ग़ायब नहीं होना चाहिये था।"

"बेटा, ये पण्डित रामगोपाल हैं, मेरे लिये सगे भाई से भी बढ़कर हैं।"

"वो तो ठीक है। लेकिन आपको ग़ायब देखके वहाँ तो ये उड़ गयी कि हिन्दुओं ने आपको अगवा कर लिया है ... हमने बहुत रोका. मगर जवान खून है, बेक़ाबू हो गया। हम भी क्या करते? किस-किस को समझाते?"

Tuesday, November 29, 2011

इमरोज़, मेरा दोस्त - लघुकथा

फ़्लाइट आने में अभी देर थी। कुछ देर हवाई अड्डे पर इधर-उधर घूमकर मैं बैगेज क्लेम क्षेत्र में जाकर बैठ गया। फ़ोन पर अपना ईमेल, ब्लॉग आदि देखता रहा। फिर कुछ देर कुछ गेम खेले, विडियो क्लिप देखे। इसके बाद आते जाते यात्रियों को देखने लगा और जब इस सबसे बोर हो गया तो मित्र सूची को आद्योपांत पढकर एक-एक कर उन मित्रों को फ़ोन करना आरम्भ किया जिनसे लम्बे समय से बात नहीं हुई थी।

जब कनवेयर बेल्ट चलनी शुरू हो गयी और कुछ लोग आकर वहाँ इकट्ठे होने लगे तो अन्दाज़ लगाया कि फ़्लाइट आ गयी है। जहाज़ से उतरते समय कई बार अपरिचितों को लेने आये लोगों को अतिथियों के नाम की पट्टियाँ लेकर खड़े देखा था। आज मैं भी यही करने वाला था। इमरोज़ को कभी देखा तो था नहीं। शार्लट के मेरे पड़ोसी तारिक़ भाई का भतीजा है वह। पहली बार लाहौर से बाहर निकला है। लोगों को आता देखकर मैंने इमरोज़ के नाम की तख़्ती सामने कर दी और एस्केलेटर से बैगेज क्लेम की ओर आते जाते हर व्यक्ति को ध्यान से देखता रहा। एकाध लोग दूर से पाकिस्तानी जैसे लगे भी पर पास आते ही यह भ्रम मिटता गया। सामान आता गया और लोग अपने-अपने सूटकेस लेकर जाने भी लगे। न तो किसी ने मेरे हाथ के नामपट्ट पर ध्यान दिया और न ही एक भी यात्री पाकिस्तान से आया हुआ लगा। धीरे-धीरे सभी यात्री अपना-अपना सामान लेकर चले गए। बैगेज क्लेम क्षेत्र में अकेले खड़े हुए मेरे दिमाग़ में आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरोज़ के पास चेक इन करने को कोई सामान रहा ही न हो और वह यहाँ आने के बजाय सीधा एयरपोर्ट के बाहर निकल गया हो।

मैं एकदम बाहर की ओर दौड़ा। दरवाज़े पर ही घबराया सा एक आदमी खड़ा था। देखने में उपमहाद्वीप से आया हुआ लग रहा था। इस कदर पाकिस्तानी, या भारतीय कि अगर कोई भी हम दोनों को साथ देखता तो भाई ही समझता। मैंने पूछा, "इमरोज़?"

"अनवार भाई?" उसने मुस्कुराकर कहा।

"आप अनवार ही कह लें, वैसे मेरा नाम ..." जब तक मैं अपना नाम बताता, इमरोज़ ने आगे बढकर मुझे गले लगा लिया। हम दोनों पार्किंग की ओर बढे। उसका पूरा कार्यक्रम तारिक़ भाई ने पहले ही मुझे ईमेल कर दिया था। कॉलेज ने उसका इंतज़ाम डॉउनटाउन के हॉलिडे इन में किया हुआ था। आधी रात होने को आयी थी। पार्किंग पहुँचकर मैंने गाड़ी निकाली और कुछ ही देर में हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठंड बढने लगी थी। हीटिंग ऑन करते ही गला सूखने का अहसास होने लगा। रास्ते में बातचीत हुई तो पता लगा कि उसने डिनर नहीं किया था। अब तक तो सारे भोजनालय बन्द हो चुके होंगे। अपनी प्यास के साथ मैं इमरोज़ की भूख को भी महसूस कर पा रहा था। डाउनटाउन में तो वैसे भी अन्धेरा घिरने तक वीराना छा जाता है। अगर पहले पता होता कि बाहर निकलने में इतनी देर हो जायेगी तो मैं घर से हम दोनों के लिये कुछ लेकर आ जाता।

जीपीएस में देखने पर पता लगा कि इमरोज़ के होटल के पास ही एक कंवीनियेंस स्टोर 24 घंटे खुला रहता है। होटल में चैकइन कराकर फिर मैं उन्हें लेकर स्टोर में पहुँचा। पता लगा कि वे केवल हलाल खाते हैं, इसलिये केवल शाकाहारी पदार्थ ही लेंगे। मैंने उनके लिये थोड़ा पैक्ड फ़ूड लिया। पूछने पर पता लगा कि फलों के रस उन्हें खास पसन्द नहीं सो उनके लिये कुछ सॉफ़्ट ड्रिंक्स लिये और साथ में अपने सूखते गले के लिये अनार का रस और पानी की एक बोतल।

पैसे चुकाकर मैं स्टोर से बाहर आया तो वे पीछे-पीछे ही चलते रहे। होटल के बाहर सामान की थैली उन्हें पकड़ाते हुए जब तक मैं अपने लिये ली गयी बोतलें निकालने का उपक्रम करता, वे थैली को जकड़कर "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर अन्दर जा चुके थे।

घर पहुँचा तो रात बहुत बीत चुकी थी। गला अभी भी सूख रहा था बल्कि अब तो भूख भी लगने लगी थी। थकान के कारण रसोई में जाकर खाना खोजने का समय नहीं था, बनाने की तो बात ही दूर है। वैसे भी सुबह होने में कुछ ही घंटे बाकी थे। 6 बजे का अलार्म लगाकर सोने चला गया। रात भर सो न सका, पेट में चूहे कूदते रहे। सुबह उठने तक सपने में भाँति-भाँति के उपवास रख चुका था। जल्दी-जल्दी तैयार होकर सेरियल खाया और इमरोज़ को साथ लेने के लिये उनके होटल की ओर चल पड़ा।

इमरोज़ जी होटल की लॉबी में तैयार बैठे थे। मेरी नमस्ते के जवाब में मेरे हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट और रस की बोतल पकड़ाते हुए रूआँसे स्वर में बोले, "आपका जूस तो मेरे पास ही रह गया था। आपको रास्ते में प्यास लगी होगी, यह सोचकर मैं तो रात भर सो ही न सका।"

30 नवम्बर 2011: कोलकाता विश्व विद्यालय में आगंतुक प्रवक्ता और विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन का १७६ वां जन्मदिन
[समाप्त]

Tuesday, November 22, 2011

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र

आभार
यह लघुकथा गर्भनाल के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।
... और अब कहानी

आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
जब लोमडी को आदमी के बच्चों के मांस का चस्का लगा तो उसने बाकी कठिन शिकार छोड़कर भोले और कमज़ोर मनु-पुत्रों को निशाना बनाना शुरू किया। गाँव के बुज़ुर्गों को चिंता हुई तो उन्होंने बच्चों को गुलेल चलाना सिखा दिया। अभ्यास के लिये बच्चों ने जब गुलेल को ऊपर चलाया तो आम, जामुन और न जाने क्या-क्या अमृत वर्षा हुई। अभ्यास के लिये नीचे नहीं भी चलाया बस खुद चले तो भी कीचड़ और अन्य प्रकार की अशुद्धियाँ और मल आदि में सने। बच्चों ने सबक यह सीखा कि सज्जनों से पंगा भी हो जाय तो उसमें भी सब का भला होता है और दुर्जनों से कितनी भी दूरी रखो, बचा नहीं जा सकता।

उधर बच्चों के सशस्त्र होते ही लोमड़ी बेचैन सी इधर-उधर घूमने लगी। जब भी बच्चों की ओर मुँह मारती, पत्थर मुँह पर पड़ते। थक हारकर बिना कुछ सोचे-समझे एक गुफ़ा के सामने खेलते नन्हें शावकों पर झपट पड़ी और शावकों के पिता सिंह जी वनराज का भोजन बनी। शावकों ने सबक यह सीखा कि भूखी और बेचैन होने पर लोमड़ियों को अपनी खाल के अन्दर सुरक्षित रह पाने लायक बुद्धि नहीं बचती।

[समाप्त]

Wednesday, October 19, 2011

अनुरागी मन - कहानी अंतिम कड़ी (भाग 21)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19भाग 20;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया। वापस घर आते समय एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मारी और पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया।
अब आगे भाग 21 ...

दिल्ली मेरी दिल्ली
पुलिस ने फ़ोन से तीनों के घर पर सूचना भिजवा दी। ईर और फ़त्ते को तो प्राथमिक चिकित्सा के बाद छोड़ दिया गया। मगर वीर को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। तब तक सुबह हो चुकी थी। ईर और फ़त्ते उनीन्दे बैठे बाहर इंतज़ार कर रहे थे। बीच में कुछ डॉक्टरों ने इन दोनों को वीर की स्थिति के बारे में ब्रीफ़िंग भी दी। उनके जाने के बाद दोनों विचारमग्न थे कि बाहर का दरवाज़ा खुला और मानो सुबह की रोशनी की किरण जगमगाई हो। सूर्य के प्रकाश के साथ ही एक बदहवास कंचनकाया अन्दर आयी। एक पल ठिठककर झरना ने ईर और फ़त्ते को देखा और फिर घबराकर पूछा, "वीर? ... वीर कहाँ है?"

"ठीक है। अन्दर है।" ईर ने बताया।

"तुम लोग यहाँ हो तो वह अन्दर क्यों है?" झरना की आँखों से स्पष्ट था कि वह रात भर सो नहीं सकी थी।

"उसके कन्धे में लगी है थोड़ी। सीरियस है पर ठीक हो जायेगा।" फ़त्ते ने झरना को दिलासा देते हुए कहा। वह कहना चाहता था कि अगर आज आना ही था तो कल क्यों चली गयी थीं। मगर उसे यह समय ऐसी बात के लिये ठीक नहीं लगा। झरना ने बताया कि वह वीर से अब भी बहुत प्यार करती है और सदा करती रहेगी। दिल्ली आने से पहले वह नई सराय जाकर उसकी दादी और माँ से मिली भी थी और नोएडा का पता भी लेकर आयी थी। लेकिन साथ-साथ वह वीर के पिछले व्यवहार के कारण उससे बहुत गुस्सा भी थी और उसे यह भी समझाना चाहती थी कि बेरुखी कितनी क्रूर होती है। लेकिन परिक्रमा में वीर के प्रति अपने दुर्व्यवहार के बाद वह रात भर सो न सकी। अलस्सुबह फ़त्ते के घर पहुँची और वहाँ से सारी बात पता लगते ही अस्पताल आयी।

झरना ने बताया कि उसके माता-पिता के जाने के बाद बस वीर ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह नितांत अपना मानती है और उस पर अपना अधिकार समझती है। शायद इसी कारण उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ गयी थी। उसे लगा कि जब वह परिक्रमा से बाहर जायेगी तो वीर आगे बढकर उसे रोक लेगा, जाने नहीं देगा। फ़त्ते ने बताया कि वीर तो रोकने जा रहा था पर उसे फ़त्ते ने पकड़कर रोका हुआ था। झरना ने अपने हाथों से उन दोनों का एक-एक हाथ पकड़कर एक घेरा बनाया। फिर आंखें बन्द करके वीर के लिये एकसाथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। तीनों ने मन में भगवान का नाम लिया। तीनों की आँख से मानो अनुराग के झरने बह रहे थे।

आँखें खुलीं तो दो डॉक्टर उनके सामने खड़े थे।

एक ने कहना आरम्भ किया, "हमें अफ़सोस है कि ..."

दूसरे ने वाक्य पूर्ण किया, "ही इज़ नो मोर! वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी! ... ... ..." वे बोलते गए पर शब्द मानो अपना अर्थ खो चुके थे।

अपने साथ आने का इशारा करके डॉक्टर उन्हें वहाँ तक ले गये जहाँ वीर ने अंतिम साँस ली थी। फ़फ़क-फ़फ़क कर रोते हुए फ़त्ते ने अपनी जेब से निकालकर कागज़ का एक छोटा सा टुकड़ा सिसकती हुई झरना को दिया जिसे वीर ने दुर्घटना के तुरन्त बाद फ़त्ते की सहायता से लिखा था।
प्रिय झरना,

बाबा रे, मेरी परी को इतना गुस्सा आता है! सब दिखावा है न? मुझे पता है कि तुम मुझे चाहती हो। मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मेरे मरते दम तक तुम मेरे दिल में रहोगी। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे।

केवल तुम्हारा,
अनुरागी मन
[समाप्त (अंततः)]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं जाना कुँवर जी - पीनाज़ मसानी - अमीर आदमी गरीब आदमी
* अनुरागी मन - लता मंगेशकर - रजनीगन्धा

अनुरागी मन - कहानी (भाग 20)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया।
अब आगे भाग 20 ...
कंसर्ट के समापन तक कार्यक्रम स्थल का माहौल किसी उत्सव जैसा हो गया था। मगर वीर के दिल में मुर्दनी छाई थी। वे मानो नई सराय की उसी रात को उसी नहर के किनारे के श्मशानघाट में खड़े थे जहाँ दादाजी की चिता जल रही थी। लपटें उनके बदन को छू रही थीं, वे झुलस रहे थे। उनको बार-बार अपने जीवन पर धिक्कार हो रहा था। कैसे व्यक्ति हैं वे? अनजाने में ही सही, पर पहले किसी को इतना सताया और अब समय आने पर ढंग से क्षमा तक नहीं मांग पाये।

बाहर आकर कार में बैठने तक दोनों साथी वीर का एक-एक हाथ पकड़े हुए उनके दायें-बायें चलते रहे। ईर ने प्रस्ताव रखा कि आज गाड़ी वह चलायेगा और फ़त्ते वीर के साथ पीछे बैठेगा।

"मैं उससे मिलने जाऊँगा। वासिफ़ के अब्बा से मिलकर उसे खोजूंगा। उनसे ज़रूर मिली होगी वह।"

"मिल तो लिया तू एक बार। अब क्यों जायेगा फिर से?" अरविन्द झ्ंझलाया। वह आज की घटना से बहुत अप्रसन्न था।

"माफ़ी मांगने, और क्यों?" वीर ने स्पष्ट किया।

"आज मांग तो ली तूने माफ़ी" फत्ते ने दृढ स्वर में कहा, "तू नहीं जाता, अब वह आयेगी तुझसे मिलने, माफ़ी मांगने ..." फ़त्ते रुका नहीं "हम कोई गिरे पड़े नहीं है। लाइन लगी है लड़कियों की। वह समझती क्या है अपने आप को। "

"लेकिन ... उसकी ग़लती नहीं है" वीर ने सफ़ाई सी दी।

"बहुत खूबसूरत है वो? हूर की परी? मेरा भाई भी लाखों में एक है। जो लड़की तेरे जैसे को नहीं पहचानी, वो बेकार है, एकदम बेकार! शराफ़त की भी एक हद होती है।"

"और मैंने जो दुःख दिया है उसे, उसका क्या?"

"अरे तू गया तो था माफ़ी मांगने। हम सब सुन रहे थे पीछे खड़े हुए। ओ वीर, दुनिया देखी है मैंने। ये लड़की तेरे लायक नहीं है" फ़त्ते पहले तो गुस्सा हुआ और फिर अपने को शांत करते हुए बोला, "लेकिन सब्र कर, अगर तेरी मर्ज़ी यही है तो वो तुझे मिलेगी ज़रूर, वो खुद आयेगी। लेकिन ये होगा तभी जब तू अपनी तरफ़ से उससे बिल्कुल भी न मिले।"

"कैसे आयेगी अपने आप? क्या पता आज की ही वापसी फ़्लाइट हो उसकी?" वीर सम्भावनायें तलाश रहे थे।

"तो अगली फ़्लाइट में मिलना" गाड़ी चलाता हुआ ईर भी बातचीत में शामिल था।

"ओये तू मुर्गे की तरह गर्दन पाछे क्यों कर रहा है। सामने देख के चला। छोरे को घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अब तेरे ही ऊपर है।

"और तुम्हारा क्या?" ईर हँसा।

"हम तो अब इसके लिये एक स्वर्ग की परी ढूँढकर लायेंगे ... अब हँस भी दे मेरे भाई। कह दिया न वो आयेगी। कैसे आयेगी ये हमारे भरोसे पर छोड़ दे।"

चींSSS ...। जब तक ईर देख पाता चौराहे पर बती लाल हो चुकी थी। उसने एकदम से ब्रेक लगाये। नई गाड़ी, नये टायर होते हुए भी सड़क पर पड़ी नन्ही रोड़ी व धूल के कारण पहियों की पकड़ न बन सकी। गाड़ी एक झटके के साथ रुकी लेकिन जब तक तीनों होश पाते, एक झटका और लगा। ईर तो रुक गया था मगर उनके पीछे तेज़ी से आता हुआ ट्रक रुकने के मूड में नहीं था। जब तक संभलते, लोहे की शीट्स से लदा ट्रक इनकी कार का बायाँ भाग छील चुका था। और कार के साथ ही छिले थे वीर सिंह। झटके तीनों को लगे परंतु वीर सिंह का वामस्कन्ध रगड़ा गया, शायद हड्डी टूटी थी। रक्त भी बहने लगा। वे बहुत पीड़ा में थे और दुर्भाग्य यह कि पूरे होशोहवास में थे।

ईर ने गाड़ी से बाहर निकलकर आते जाते वाहनों को रोकने का असफल प्रयास किया जबकि फ़त्ते ने वीर को सम्भाला।

"अगर मैं जीवित नहीं रहूँ तो परी से मेरी तरफ़ से तुम ही माफ़ी मांग लेना।"

"तुझे तो कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे मत बोल। मरहम पट्टी करके ठीक कर देंगे तुझे।"

"एक काम कर दो मेरा ..." वीर ने हाथ बढ़ाया। फ़त्ते ने वीर को इतना हताश पहले कभी भी नहीं देखा था।

किस्मत अच्छी थी। कुछ ही देर में, दिल्ली पुलिस की एक पीसीआर जिप्सी वहाँ थी, पीछे-पीछे दूसरी। कुछ ही देर में तीनों सफ़दरजंग अस्पताल में थे। वीर पहले उधर से कई बार निकल चुके थे। एमर्जेंसी के बाहर कतार से सीधे खड़े शाल्मली के लाल फूलों से आच्छादित ऊँचे विशाल वृक्ष उन्हें बहुत पसन्द थे मगर आज यहाँ होते हुए भी वे उन्हें देख नहीं सके थे।

[क्रमशः]

Tuesday, October 18, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 19)

नोट: आज यह पोस्ट लिखते समय कठिनाई हुई, फिर ईमेल में सस्पिशस ऐक्टिविटी की चेतावनी मिली। सुरक्षा सम्बन्धी समुचित कदम उठाने के बाद अब पोस्ट लिख पा रहा हूँ। यदि वर्तनी या व्याकरण आदि की कुछ ग़लतियाँ होंगी तो बाद में ठीक कर दूंगा। पहले भी कई बार कुछ पोस्ट्स ब्लैंक हो चुकी हैं परंतु अधिकांश बाद में रिकवर की जा सकी थीं। फ़िकर नास्त, अल्लाह मेहरबान अस्त!

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ किसी को देखा।
अब आगे भाग 19 ...

"बीर को भी पसन्द आ गये शायद। देख, ठंडाई भी न पी इसने तो।" फ़तहसिंह खुश था।

"एक मिनट" वीर जो देखना चाह रहे थे, वह रेस्त्राँ की गोलाई के कारण अब तक पक्का नहीं हो पाया था। उन्हें अनजान लोगों को घूरना पसन्द नहीं था इसलिये उस समय सच उनसे कुछ हद तक ओझल सा था। और तभी उसने मेनू किनारे रखते हुए चेहरा ऊपर उठाया। दोनों की आँखें चार हुईं। फिर उसने सिर झुका लिया। वीर को अपने भाग्य पर विश्वास न हुआ। उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। एक-एक क्षणांश भी मानो कई युगों के बराबर हो गया।

सब कुछ भूलकर वे उठे और सीधे उस मेज़ पर जाकर रुके।

"हाय, कैसी हो?" उनकी प्रसन्नता आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, "यक़ीन नहीं करोगी कि इतने दिन बाद आज तुम्हें अचानक सामने पाकर मैं कितना खुश हूँ।"

अपनी अप्सरा के सामीप्य ने मानो उन्हें ज़मीन से उठाकर आसमान में पहुँचा दिया था।

झरना ने नज़रें उठाकर उन्हें भरपूर देखा, "हू आर यू? व्हाट डू यू वांट?"

उसके साथ बैठे चारों लोगों ने वीर को प्रश्नवाचक नज़र से देखा।

"परी ... अप्सरा ... झरना ..." इस अप्रत्याशित मोड़ को देखकर वीर भौंचक्के से रह गये। मानो किसी ने उनकी गर्दन मरोड़ दी हो। उनका शरीर बेजान सा हो गया, गला सूखने लगा। फिर भी साहस करके बोले, "नई सराय, बरेली, वासिफ़ खाँ, ज़रीना खानम ..."

"कहा न, मैं आपको नहीं जानती" उसने नज़रें नीची कर लीं और साथ रखा हुआ मेनू उठाकर उसे पढने का उपक्रम किया।

"वीर ... याद करो ... वीर हूँ मैं, नाराज़ हो मुझसे?"

"कौन वीर? मैं किसी वीर को नहीं जानती।"

"एए मिस्टर ..." साथ के लड़के ने वीर की कलाई पकड़ी।
ईर और फ़त्ते भी कुछ गड़बड़ी भाँपकर वहाँ आ गये थे। फ़त्ते को देखकर उस लड़के ने वीर का हाथ छोड़ दिया

"मैं वीरसिंह हूँ, तुम्हारा अपना वीर। लिसन झरना, आयम सॉरी ..." वीर रूँआसे हो उठे, "मैं तुम्हारा दोषी हूँ, जो सज़ा चाहे दे दो। उफ़ नहीं करूँगा!"

"लैट्स गो गाईज़" उनकी बात का जवाब दिये बिना वह उठी।

"तुम्हें क्या हो गया है झरना?" कहकर वीर उसके सामने आ गये लेकिन फ़त्ते ने दृढता से उन्हें पकड़कर झरना को जाने का रास्ता दिया। वीर देखते ही रह गये और झरना बाहर निकल गयी। झरना के साथी भी उसके पीछे-पीछे चले गये।

वे देखते रहे, उन कदमों को जो सदा उनकी ओर बढ़ा करते थे, आज कितनी बेदर्दी से उनसे दूर चले गये। सब कुछ जैसे बिखर गया हो। क्या चाहते थे वे? क्षमायाचना? या उससे अलग कुछ और। वे अपने नसीब से लड़ते क्यों रहे। जब झरना पास आना चाहती थी तब वे दूर भागते रहे और आज जब वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं तब यह सब क्या हो रहा है? यदि फ़त्ते उन्हें कसकर पकड़े न होता तो वे किसी की परवाह किये बिना पीछे-पीछे दौड़ गये होते।

"वही है। अच्छी तरह से पहचानती है मुझे। नाराज़ है बस।" अंतिम वाक्य बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से बाहर निकल सका। जिस सपने के लिये वे अब तक ज़िन्दा थे आज मानो टूट सा गया था। पल भर में उनका सब कुछ बिखर चुका था। सम्बन्ध तो शायद बनने से पहले ही टूट चुका था परंतु आज उसे फिर से जोड़ने के प्रयास में वे स्वयं भी टूट चुके थे।

"जानता हूँ भाई, सब जानता हूँ। फिकर मत ना कर। जल्दी ही सब ठीक होगा। तू रुक तो सही, बस दो चार दिन" फ़त्ते ने दिलासा दी, "हम मिलायेंगे तुम दोनों को। वो तेरी है, तेरी ही रहेगी। भरोसा रख इस देहाती पर।"

वेटर ने पास आकर याद दिलाया कि ऑर्डर सर्व हो गया था। पर वहाँ भूख किसको थी। फ़त्ते ने ज़बर्दस्ती सी करके वीर को खिलाया। सदा शांत रहने वाला अरविन्द भी बेचैन सा लग रहा था। जितना सम्भव हुआ उतना खाकर प्लेटें हटवाकर भी वे काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। वीर लगातार झरना के बारे में कोई न कोई बात याद करके बोलते रहे और बाकी दोनों चुपचाप सुनते रहे।

कार्यक्रम का समय होने पर तीनों वहाँ पहुँचे। सबसे आगे तो नहीं, पर उनकी सीट स्टेज के इतना पास थी कि वे जगजीत सिंह के हाव-भाव स्पष्ट देख सकते थे। ईर व फ़तह उनके आजू-बाज़ू बैठे। पहले तो वे अपने ही ख्यालों में खोये अपने को यह विश्वास दिलाते रहे कि कुछ देर पहले जो हुआ वह सपना नहीं सच था। कार्यक्रम आरम्भ हुआ, अब हर ग़ज़ल उन्हें अपनी और झरना की कहानी लग रही थी।

[क्रमशः]

Monday, October 17, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 18)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये।
अब आगे भाग 18 ...

"अबे कब तक सोते रहोगे तुम लोग?" यह लट्ठमार स्वर घर के मालिक फ़तहसिंह का था।

"उठ जा बच्चे, ईर तो तैयार भी हो लिया, तूई बचा रै गया इब तक।"

वीर ने आँखें खोलीं तो फ़त्ते को सजा-धजा, एकदम तैयार अपने कमरे में पाया। सुबह सुबह, छुट्टी के दिन!

"आज इतनी जल्दी कैसे उठ गये?" वीर ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।

"सुबह? 12 बज लिये हैं और तेरे चेहरे पे इबी 12 बज रहे हैं, उठ जा इब वरना ..." फ़त्ते ने शरारत से हाथ के टिकट हवा में हिलाते हुए कहा, " ... वरना जगजीत सिंह को देख नहीं पायेगा।

चादर झटक कर वीर बिस्तर से बाहर कूदे और फ़त्ते के हाथ से छीनकर टिकट देखे। वाकई जगजीत सिंह के कंसर्ट के तीन टिकट थे। यह तो उन्हें पता था कि दिल्ली में कंसर्ट था, उनकी इच्छा भी थी मगर टिकट महंगा होने, स्थल दूर होने और उस पर दोनों साथियों की संगीत में कोई खास रुचि न होने के कारण उन्होंने अधिक प्रयास नहीं किया था। पता लगा कि फ़त्ते ने खास उनके लिये अपने "कनेक्शंस" का प्रयोग करके बिल्कुल आगे के ये वीआइपी टिकट मंगवाये थे।

"हम तुझे खुस देखना चाहते हैं हीरो। इब नहा धो कै राजा बेटा बन जा फ़टाफ़ट, फेर निकलते हैं।"

"लेकिन इतनी जल्दी? क्या वहाँ गेट पर टिकट हमने ही चैक करने हैं?"

"देर मती न कर भाई, खाना दिल्ली में ही खायेंगे।"

कुछ ही देर में तीनों दोस्त फ़त्ते की गाड़ी में दिल्ली के लिये निकल पड़े। पहले तो परिक्रमा पहुँचे। फ़त्ते अपनी पार्टियों के साथ वहाँ आता रहता था परंतु वीर के लिये रिवॉल्विंग रेस्त्राँ में बैठकर घूमती दिल्ली देखने का अनुभव अद्भुत था। दल का अलिखित नियम था कि जब फ़त्ते खुद कहकर अपनी पसन्द की जगह लेकर जाता तो ट्रिप का स्पॉंसर वही होता था। सो आज का बिल भी उसी के नाम था।

ऐपेटाइज़र्स आ गये थे। खाते जा रहे थे, दिल्ली की परिक्रमा भी चल रही थी और मज़ाक भी। झरना का नाम लेकर दोनों वीर की शादी की वेन्यू तय करने के लिये झगड़ रहे थे। एक को फ़ाइव स्टार चाहिये था और दूसरे को फ़ार्म हाउस। वीर भी उनके उल्लास से उत्साहित थे।

तभी फ़त्ते ने ईर को कोहनी मारते हुए कहा, "ठाँ ठाँ, सामने।" और दोनों चुप होकर सामने देखने लगे। वीर उनका इशारा समझकर मन ही मन बोले, "कभी नहीं सुधरेंगे ये" फिर बोलकर फ़त्ते से कहा, "अरविन्द को भी बिगाड़ देना अपने साथ।"

"यो!" फत्ते ने हँसी से लोटपोट सा होते हुए कहा, "उल्टा इस चालू ने मुझे बिगाड़ा है।"

"पलटकर देख तो सही, तू भी बिगड़ जायेगा, झरना, ज़रीना सब भूल के" इस बार चुटकी लेने वाला ईर था।

तब तक जिनकी बात हो रही थी वे लोग अन्दर आकर इन लोगों के विपरीत टेबल पर बैठने लगे थे। वीर ने कनखियों से देखा और देखता ही रह गया।

"काँड़ी आँख से मत देख, घुमा ले गर्दन अपनी, आ सीट बदल ले मेरे से छोरे।" फ़त्ते ने अपने स्थान से उठकर वीर के पास आकर उनको आग्रहपूर्वक उठाकर अपनी सीट पर भेज दिया। यहाँ से सामने का दृश्य एकदम स्पष्ट था। वे पाँच लोग थे, दो लड़के और तीन लडकियाँ। उसे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसे भी होता है क्या? एक हफ्ते मन्नत मांगो और दूसरे हफ्ते सच? वही है? नहीं है? वही है? अभी-अभी क्या चमत्कार हो गया था इसका वीर के साथियों को बिल्कुल भी अन्दाज़ नहीं था।

[क्रमशः]

Sunday, October 16, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 17)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया।
अब आगे भाग 17 ...
अब वीर झरना के अपराधी थे और हरदम प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे। पाप धोने का कोई साधन उनके पास नहीं था। झरना का केन्या का कोई सम्पर्क वासिफ़ के पास नहीं था। उसके माता-पिता के अवसान के कारण यह भी तय नहीं था कि उसकी अगली भारत यात्रा कब होगी, होगी भी या नहीं। मुलाकात का कोई और रास्ता सूझता नहीं था। पिछले झटकों से हाल ही में उबरे वीर के लिये यह चोट काफ़ी गहरी थी। अपने किसी खास का दिल दुखाने का बोझ उनके दिल पर बैठ गया था। पढाई में सदा अव्वल रहने वाले वीर पिछड़ने लगे। सगे सम्बन्धियों ने घोषणा सी कर दी कि अब वे आगे पढ नहीं पायेंगे। आस-पड़ोस की महिलायें भी माँ को उनसे कोई नौकरी करवाने की सलाह देने लगीं। वीर को स्वयं भी यह समझ नहीं आता था कि वे अब तक अपने माता-पिता पर बोझ क्यों बने हुए हैं। क्या से क्या हो गया और वे कुछ कर भी नहीं पाये। काश वे पल भर के लिये अपनी समस्याओं के खोल से बाहर आ पाते और झरना के हृदय के भावों को पहचानने का प्रयास करते!

समय बीतता गया। विद्यालय में उल्टे सीधे अंकों से वीर आगे तो बढे परंतु कक्षा बढने के साथ-साथ उनका वैराग्य भी अधिक बढता गया। अब वे अपने नगर और सभी परिचितों से बुरी तरह उकता चुके थे। उन्होंने कुछ सरकारी नौकरियों की तलाश आरम्भ की। बीए पास होते-होते वे इक्कीस वर्ष के हो गये और जल्दी ही उन्होंने अपने आपको एक प्रतिष्ठित बैंक में काम करते हुए पाया। माँ दादी के पास रहने चली गयीं और वे अरविन्द के साथ फ़त्ते के घर नोइडा में किराये पर रहने लगे।

नई नौकरी और नये मित्रों का साथ मिलने से वीरसिंह का दर्द कम हुआ था। तीनों अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। दिन में डटकर काम करते और शाम को मस्ती। सप्ताहांत में दिल्ली या आसपास के किसी पर्यटन स्थल चले जाते। जंतर मंतर और कुतुब मीनार से आरम्भ हुई साप्ताहिक यात्रायें बडकल और सूरजकुण्ड होते हुए अब मसूरी, हरिद्वार तक पहुँच चुकी थीं। सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी हँसते-खेलते वीर को अचानक अपने घेरे में ले लेने वाली उदासी का कारण जानने के लिये पिछले कई दिनों से अरविन्द और फ़तह उनके पीछे पड़े हुए थे। अब झरना-वीर की कहानी पूरी होते तक सभी होनी के खेल से दुखी थे। ईर व फ़त्ते ने वीर को ढाढस बन्धाया कि झरना उसे जल्दी ही मिलेगी। फत्ते तो अगले रविवार को ही उसे हरयाणा में थानेसर स्थित शेख चिल्ली की मज़ार ले जाने वाला था। उसकी मान्यता है कि वहाँ मन्नत मांगने से बिछड़े हुए प्रेमी अवश्य मिलते हैं। वह ऐसे कई लोगों को जानता भी है जिनका काम वहाँ जाने से हुआ।

वीर तो शेख चिल्ली की बात को मज़ाक ही समझ रहे थे मगर जब ईर ने बताया कि दारा शिकोह के गुरु सूफ़ी संत रज़्ज़ाक अब्दुल रहीम अब्दुल करीम ही चालीस दिन तक थानेसर में ईश्वर की उपासना "चिल्ला" करते रहने के कारण शेख चिल्ली कहलाते थे तो बात वीर की समझ में धंस गयी। अगले रविवार को वे तीनों थानेसर पहुँच गये। लाल पत्थर और संगे-मरमर का बना हुआ शेख चिल्ली का मकबरा एक सुन्दर भवन था। यह भवन दारा शिकोह ने अपने गुरु के लिये बनवाया था और वह महीनों तक यहाँ अपने गुरु के चरणों में अध्ययन-मनन करता था। शेख चिल्ली की मृत्यु के बाद इसी इमारत को उनका मकबरा बना दिया गया। भवन और उसका उद्यान मनभावन थे। पुराना तालाब, सूखी नहर, मुग़ल बाग़ की हरियाली, पत्थर मस्जिद आदि भी वीर को बहुत सुन्दर लगा।

तीनों ने झरना की वापसी की दुआ मांगी
पता नहीं यह साथियों का सहारा था या दिल की गिरह खुल जाने की बात थी या सचमुच शेख चिल्ली की इनायत, थानेसर जाने के बाद से वीर अब प्रसन्न रहने लगे थे। उनके पास अपनी खोयी हुई ज़िन्दगी का सुराग़ लगाने का कोई निश्चित तरीका तो नहीं था पर फिर भी अब उन्हें कहीं न कहीं यह लगने लगा था कि उनका और झरना का मिलन जल्दी ही होने वाला है। क्या पता वह नई सराय आये और फिर माँ और दादी से मिलकर उनका पता मांगकर यहाँ आये। या फिर वहाँ पहुँचकर वासिफ़ द्वारा उन्हें बुलवा भेजे। कौन जाने कैसे हो, मगर यह मिलन जल्दी ही होना है, उनका ऐसा विश्वास बनने लगा था। क्या आशा की यह किरण सच्ची थी?


[क्रमशः]

Saturday, October 8, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 16)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14; भाग 15;
पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया।
अब आगे भाग 16 ...
ज़रीना की शादी के बाद दो दिन तक वीर अपने घर से बाहर नहीं निकले। तीसरे दिन वासिफ़ उनसे मिलने आया। बहुत दिन बाद दो जिगरी दोस्त एक साथ शाम की सैर पर गये। झरना के बारे में बहुत बात हुई। कहानी काफ़ी लम्बी थी। वह सब ईर और फ़त्ते को सुनाकर वीर उन्हें बोर नहीं करना चाहते थे। लेकिन उन्होंने इतना बताया कि झरना का वासिफ़ से कोई रक्त-सम्बन्ध नहीं था। वासिफ़ के दादा झरना फर्शस्ती के पारसी दादा की नई सराय स्थित सम्पत्ति के प्रबन्धक थे। अंग्रेज़ों के समय से ही कई नगरों में उसके परिवार की स्थाई सम्पत्ति थी। नई सराय का पहला पेट्रोल पम्प, बरेली की पहली कत्था फ़ैक्ट्री और अमरोहा के कुछ बाग़ान के अलावा दिल्ली और कानपुर में भी उनका व्यवसाय था। झरना का जन्म केन्या में हुआ था। काफ़ी पहले एक सड़क दुर्घटना में उसके पिता गुज़र चुके थे। अपने पुराने कारकुनों के विश्वास पर व्यवसाय का सारा काम माँ-बेटी ही देखती थीं। झरना और उसकी माँ उसी सिलसिले में हर साल गर्मियों में भारत आते थे। माँ की तबियत बिगड़ने के कारण इस बार वह अकेले ही आयी थी और इसी बीच उनकी मृत्यु के कारण उसे अचानक वापस जाना पड़ा था।

जब वीर घर वापस आये तो माँ पिता के लिये पत्र लिख रही थीं। वीर ने भी महीनों बाद अपने पिता के लिये एक अच्छा सा पत्र लिखकर उसे माँ के पत्र के साथ ही लिफ़ाफे में बन्द किया और नुक्कड़ पर लगी डाकपेटी में डालकर आ गये। माँ खाना लगाने लगीं। वीर ने अपनी ममतामयी माँ को बड़े ध्यान से देखा।

कई मायनों में माँ इस परिवार की क्रांतिकारी बहू थीं। उन्होंने कभी घूंघट नहीं किया न ही पति का नाम लेने में झिझकीं। माँ ने कभी करवाचौथ का व्रत भी नहीं रखा था। वे उसे ज़रूरी नहीं मानती थीं परंतु उन्हें यह अहसास था कि हर साल निर्जला उपवास रखने वाली दादी इस बार अपने उपवास के देवता के बिना अकेली थीं। इसलिये करवाचौथ पर माँ वीर को साथ लेकर दादी से मिलने नई सराय आयीं। शाम का खाना खाकर सास बहू बातें करने लगीं। दादी थोड़ी भाव-विह्वल हो गयीं कि सदा उपवास करने के बाद भी वे विधवा हो गयीं। भरे गले से उन्होंने माँ के विवेक और उनके अन्धविश्वास से बचे रहने की प्रशंसा की।

माँ और दादी अभी भी बातें कर रहे थे परंतु बातों का रुख आस-पड़ोस के ताज़ा समाचार की ओर मुड़ चुका था। वीर उठकर छत पर आये और फिर छज्जे पर खड़े होकर बाहर का नज़ारा करने लगे। लजाती-शर्माती नववधू से लेकर वयोवृद्ध महिलायें तक आज नखशिख तक गहनों में सजी दिख रही थीं। प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के विपरीत नई सराय और आसपास के क्षेत्रों में अविवाहितायें भी करवा चौथ का व्रत रखती थीं। मान्यता यह थी कि उनका पति तो उनसे पहले ही कहीं जन्म ले चुका है सो उपवास होना ही चाहिये। वीर को ख्याल आया कि उनकी बहन यदि जीवित होती तो माँ की तरह वह भी शायद ऐसा उपवास नहीं करती। अनदेखी बहन की याद आने पर भी आज वे उदास नहीं थे, अपने अन्दर आये इस परिवर्तन का श्रेय वे अपने डायरी लेखन को दे सकते थे।

ये तूने क्या किया वीर?
आजकल वे उदास कम ही होते थे लेकिन झरना के प्रति अपने दुर्व्यवहार के कारण एक ग्लानि सी उन्हें घेरे रहती थी। बिना माँ-बाप की एक निश्छल बेटी। न जाने कब मिलेगी और कब वे अपने कृत्यों की क्षमा मांग सकेंगे। सोचते-सोचते कब अन्धेरा घिर आया, और कब चांद खिला, उन्हें पता ही न लगा। वे हटकर अन्दर जाने को हुए ही थे कि देखा सामने मैदान में एकत्रित महिलाओं से अलग हटकर खड़ी एक लड़की चन्द्रमा को अर्ध्य देने के बाद उनकी ओर मुड़कर उन्हें झुककर प्रणाम कर रही थी।

ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह पड़ोस की शरारती निक्की ही थी। वीर जी शर्मा गये और झटके से मुड़कर अन्दर आ गये। तीनों जन ने साथ बैठकर खाना खाया। माँ और दादी को रसोई में छोड़कर वीरसिंह सोने चले। सोने से पहले उन्होंने डायरी में आज की घटनाओं को विस्तार से लिखा। वे समझ नहीं पाये कि निक्की को उनके बारे में भ्रम कैसे पैदा हुआ। उन्होंने तो सदा उसे अपनी बहन जैसा ही माना था और वैसा ही व्यवहार किया था।

सुबह जब किसी ने माथे पर हाथ रखा तो उनकी आँख खुली। चाय लेकर अपने सिरहाने खड़ी निक्की को देखकर उनके माथे पर बल पड़ गये। अपने शब्दों को संवारते हुए उन्होंने धीरे से कहा, "तुम्हें तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी? माँ और दादी कहाँ हैं?"

"क्यों? यह भी तो मेरा ही घर है? अपने घर के काम में तकलीफ़ कैसी? वैसे काम में लगी हैं दोनों? पूरे घर की धुलाई हो रही है।"

प्याला हाथ में थमाकर निक्की सामने ही कुर्सी पर बैठ गयी।

"कल रात क्या कर रही थी?" वीर ने अपनी आवाज़ को यथासंभव संयत रखते हुए पूछा।

"आपने देख लिया था?" निक्की ने लजाते हुए पूछा।

"हम नई सराय के कुँवर जी हैं, यहाँ हमसे कुछ भी छिप नहीं सकता है।"

"तब तो आपको पता होना चाहिये कि हमने अपना वर चुन लिया है" निक्की ने अपने बिन्दास अन्दाज़ में कहा।

"ज़रा सी तो हो, अभी पढने-लिखने की उम्र है तुम्हारी।"

"आपसे बस छह मास छोटी हूँ, 17 की हो चुकी हूँ मैं, कोई बच्ची नहीं हूँ।"

"अच्छा!" वीर का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया, न जाने क्यों वे निक्की को 10-12 साल का ही समझते थे।

" तो सुना दो अपने वरदान का राज़ ..." वीर आगत का सामना करने की तैयारी कर रहे थे।

"मेरा चन्द्रमा तो कल चन्द्रमा निकलने के साथ ही आपके दरवाज़े के साथ आकर खड़ा हो गया था।"

"अरे वाह! कौन है वह?" वीर की वाणी का उल्लास छिपाये न छिपा।

"मंगल ... मिश्र अंकल का बेटा। बहुत अच्छा लड़का है। पढाकू है। और आपकी तो बहुत इज़्ज़त करता है। ... मतलब, आपकी इज़्ज़त तो सभी करते हैं, ... मैं भी करती हूँ।"

"अच्छा! तो यह बात है।" वीर प्रसन्न थे फिर भी एक उलझन थी, " ... अब यह बताओ कि वह पत्र क्यों लिखा था मुझे?"

"कौन सा?" निक्की सोच में पड़ गयी।

"वही जो पिछली बार मेरे बरेली जाते हुए दिया था तुमने।"

"अच्छा वो! धत्! मैं आपको क्यों लिखने लगी वैसा पत्र?" वह चुन्नी दांत से काटने लगी, "वह तो झरना जी ने आपको दिया था जब वे यहाँ आयी थीं, दादाजी की ग़मी में।"

"उसने दिया था? तुम सच बोल रही हो?" वीर को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।

"हाँ भैया, उन्होंने तो आपको ही दिया था लेकिन तब आप होश में कहाँ थे। नीचे गिरा दिया था। मैंने ही उठाया और अपने पास रख लिया था ताकि किसी के हाथ न पड़े।"

"हे राम!"

"झरना जी बहुत अच्छी हैं भैया, लाखों में एक। आप दोनों की जोड़ी बहुत सुन्दर है। वे आपकी दीवानी हैं, उन्हें निराश मत कीजियेगा।"

वीर का दिल फिर बैठ गया। उनकी आँखों के सामने क्या-क्या होता रहा और वे कुछ भी देख नहीं पाये!

[क्रमशः]

Friday, October 7, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 15)

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6;
भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14;
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पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये
अब आगे भाग 15 ...
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डायरी लिखने की सलाह जम गयी। रज्जू भैया की सलाह द्वारा वीर ने अनजाने ही अपने जीवन का अवलोकन आरम्भ कर दिया था। डायरी के पन्नों में वे अपने जीवन को साक्षीभाव से देखने लगे थे। वीर ने अपने मन के सभी भाव कागज़ पर उकेर दिये। कुछ घाव भरने लगे थे, कुछ बिल्कुल सूख गये थे। दादाजी का जाना, पिताजी का कठिन जीवन, दादी का अकेलापन, बहन की मृत्यु, सारे ग़म मानो डायरी के पन्नों में आते ही सिकुड़ गये। टीसते थे परंतु अब खुले ज़ख्मों से रक्त नहीं बह रहा था सिवाय एक जगह के। झरना की याद, उसका प्रेममय व्यवहार, और उसकी बातें अब भी उनका हृदय छलनी कर जाती थीं। लाख सोचने पर भी वे समझ नहीं पाते थे कि उनके जीवन से इतना बड़ा खिलवाड़ कैसे हो गया। एक वाग्दत्ता उनकी भावनाओं के साथ क्यों खेलती रही? उनकी पीड़ा उनकी कविताओं में निखरकर आ रही थी जो कि अब स्थानीय पत्र में छपने भी लगी थीं। दिल दुखता तो था मगर अब तक वे इतना सम्भल चुके थे कि यदि झरना सामने पड़ जाती तो अपने दिल की हलचल को सबसे छिपाकर ऊपर से सामान्य व्यवहार कर सकते थे।

दुल्हन आ चुकी थी
दो महीने कब बीत गये पता ही न चला। माँ ने वीर को याद दिलाया कि आज ज़रीना की शादी का दिन था। दोनों तैयार होकर वासिफ़ के घर पहुँच गये। सब लोग अच्छी प्रकार से मिले। माँ महिलाओं के बीच ग़ुम हो गयीं जबकि वीर को वासिफ़ अपने साथ ले गया। ऊपर से संयत दिखने का प्रयास करते हुए वीर को यह डर नहीं था कि क्या वे सचमुच अपनी अप्सरा को किसी और का होते हुए देख पायेंगे। उन्हें अपने ऊपर इतना भरोसा तो था ही। लेकिन वे यह अवश्य देखना चाहते थे कि अपने विवाह के समय उन्हें उपस्थित पाकर झरना कितना सामान्य रह पाती है। वीर को अब तक पता नहीं था कि अलग-अलग सम्प्रदायों में विवाह के रिवाज़ कितने अलग होते हैं। घरातियों के साथ मिलकर वीर ने भी गुलाब की पंखुड़ियाँ बिछाकर बारात का स्वागत किया। दूल्हे और बरातियों को हार पहनाये गये और सेहरे पढे गये। कुछ लोगों ने दूल्हे को घेरकर उसके ऊपर चादर से एक छत्र सा बनाया और उसके आसन तक ले आये। दुल्हन भी सामने आ चुकी थी परंतु अभी उसका चेहरा फूलों के सेहरे के पीछे छिपा हुआ था। जल्दी ही सब अतिथियों ने भी अपने आसन ग्रहण कर लिये। निकाह पढा जाने से पहले वासिफ़ की अम्मी ने दुल्हन का सेहरा किनारे करते हुए उसका गाल चूमा तो वीर को मानो झटका सा लगा। वह झरना नहीं थी। उन्हें झरना के साथ पहले दिन हुआ अपना सम्वाद याद आया।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?”

“नहीं”

“तो बड़ी हैं क्या?”

“नहीं”

हे राम! वे इतनी स्पष्ट बात का अर्थ भी नहीं समझ सके थे। इसका मतलब यह कि झरना वासिफ़ की बहन नहीं है। भगवान भी उनके साथ कैसा मज़ाक करता रहा और वे पहचान भी न सके। वीर, यह क्या कर दिया तूने? किसी के अनुरागी मन को अपवित्र समझा और आक्षेप लगाये। झरना और ज़रीना अलग-अलग हैं यह विचार मन में आते ही उन्होंने लड़कियों की दिशा में खोजना शुरू किया मगर झरना यदि वहाँ होती तो उस भीड़ में भी सबसे अलग दमक रही होती। शायद उन्हें देखकर स्वयं ही उनके पास चली आई होती।

विवाह की रस्म चल ही रही थीं कि वासिफ़ उनके पास आकर कान में कुछ फुसफुसाया। उन्होंने उसकी बात को अनसुना करके पूछा, "झरना कहाँ है?"

"झरना? वह तो कब की चली गयी। जाने से पहले तुम्हारे घर गयी तो थी मिलने। बताया नहीं क्या?"

"क्या? वह मेरे घर बताने आयी थी? यह सब क्या हो गया?"

"हाँ, मैं साथ आ रहा था पर वह अकेले ही जाना चाहती थी। चल क्या रहा है तुम लोगों के बीच?"

वे कुछ कह पाते इसके पहले कोई वासिफ़ को पकड़कर उसे अपने साथ ले गया।

ज़रीना का विवाह भली प्रकार सम्पन्न हुआ। उस दिन वासिफ़ से फिर उनकी मुलाक़ात नहीं हो सकी। माँ के साथ वे अपने घर पहुँचे। वीर रात भर अपनी डायरी में बहुत कुछ लिखते रहे। लिखने से कहीं अधिक पढ़ा भी डायरी के पिछले पन्नों से। जितना पढ़ते जाते उनका दिल उतना ही पिघलता जाता। कितना दोष दिया उन्होंने झरना को ... उन अपराधों के लिये जो उसने कभी किये ही नहीं। सच है कि पिछले दिनों वे बहुत कठिनाइयों से गुज़रे थे लेकिन उसमें झरना का कोई दोष नहीं था। झरना पर अविश्वास करके न केवल उन्होंने अपनी कठिनाइयाँ बढाईं बल्कि अपनी अप्सरा का दिल ... अप्सरा का दिल कैसे तोड़ते रहे वे? वीर का हृदय ग्लानि से भर गया। कमरे की हर बत्ती जल रही थी मगर उनके दिल में घना अन्धेरा था। रोशनी कैसे आये? अपनी ग़लतियों का प्रायश्चित कैसे हो? झरना है कहाँ? कब मिलेगी? कैसे मिलेगी?

[क्रमशः]

Sunday, August 21, 2011

कोकिला, काक और वो ... लघुकथा

काक
खुदा जब बरक्कत देता है तो आस-औलाद के रूप में देता है। पिछले बरस काकिनी ने 5 अंडे दिये थे। शाम को जब हम भोज-खोज से वापस आये तो अंडे अपने-आप बढकर दस हो गये। कोई बेचारी शायद फ़ॉस्टर-पेरेंट्स की तलाश में थी। हम दोनों ने सभी को अपने बच्चों जैसे पाला। इस बरस दूसरे पाँच तो उड गये, खुदा उन्हें सलामत रखे। हमारे पाँच सहायता के लिये वापस आ गये हैं, हम तो इसी में खुश हैं।

कोकिला
कैसे मूर्ख होते हैं यह कौवे भी। पिछले बरस भी मैं अपने अंडे छोड आयी थी। बेवक़ूफ अपने समझकर पालते रहे। कितना श्रम व्यर्थ किया होगा, नईं? खैर, अपनी-अपनी किस्मत है। अब इस साल फिर से ... अब अण्डे सेना, बच्चे पालना, कोई बुद्धिमानों के काम तो हैं नहीं। कुछ हफ़्तों में जब पले पलाये उड जायेंगे तब मिल आऊंगी। मुझे तो दूसरे कितने बडे-बडे काम करने हैं इस जीवन में। पंछीपुर के मंत्रिमंडल के लायक भी तो बनाना है अपने बच्चों को। चलो, आज के अण्डे रखकर आती हूँ मूर्खों के घर में।

हंस
पंछीपुर तो बस अन्धेरनगरी में ही बदलता जा रहा है अब धीरे-धीरे। गरुडराज को तो अन्धाधुन्ध शिकार के अलावा किसी काम-धाम से कोई मतलब ही नहीं रहा है अब। मंत्रिमंडल में सारे के सारे मौकापरस्त भर गये हैं। आम जनता भी भ्रष्ट होती जा रही है। कोकिला तक केवल ज़ुबान की मीठी रह गयी है। मुझ जैसे ईमानदार तो किसी को फ़ूटी आँख नहीं सुहाते। सच बोलना तो यहाँ पहले भी कठिन था, लेकिन अब तो खतरनाक भी हो गया है। मैं तो कल की फ़्लाइट से ही चला मानसरोवर की ओर ...

गरुड
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये सबके दाता राम। काम करने के लिये तो चील-कौवे हैं ही। राज-काज का भार कोयल और मोर सम्भाल लेते हैं। अपन तो बस शिकार के लिये नज़रें और पंजे तेज़ करते हैं और जम के खाते हैं। और कभी कभी तो शिकार की ज़रूरत भी नहीं पडती। आज ही किस्मत इतनी अच्छी थी कि घोंसला महल में अपने आप ही पाँच अंडे आ गये। पेट तो तीन में ही भर गया, दो तो सांपों के लिये फेंकने पडे। आडे वक्त में काम तो वही आते हैं न!

[समाप्त]

प्रसन्नमना मोर, नववृन्दावन मन्दिर वैस्ट वर्जीनिया में  

Saturday, July 30, 2011

बी. एल. “नास्तिक”

कहानी: अनुराग शर्मा
चित्र: रवि मिश्र द्वारा
आज बीस साल के बाद दिखा था बौड़मलाल। वह भी वृन्दावन में। बिल्कुल पहले जैसा ही, गोरा, गोल-मटोल। सिर पर घने बालों की जगह चमकते चांद ने ले ली थी, शेष अधिक नहीं बदला था। पहले की तरह ही धूप का चश्मा, लाल टीका। हाँ हाथ में कलावे के साथ सोने की घडी भी विराज रही थी और चेहरे पर कुछ झुर्रियाँ। गले में सोने की मोटी सी लड़ और उंगलियों में आठ अंगूठियाँ।

स्कूल में मेरे साथ ही पढता था बौड़मलाल। उसे देखते ही कोई भी पहचान सकता था कि धर्मकर्म में उनका कितना विश्वास था। माथे पर टीका और अक्षत और कलाई में कलावा उनकी पहचान थी। जब दोस्तों के बीच गाली-गलौच न कर रहा हो तब धर्म-कर्म की कहानियाँ भी सुनाने लगता था। वैसे तो उसकी भक्ति  बारहमासी थी लेकिन परीक्षा से पहले उसमें विशेष बहार आ जाती थी।

पढने लिखने से ज़्यादा ज़ोर मन्दिर जाने पर होता। यह भगवान की कृपा ही थी कि हर साल उसकी वैतरणी पार हो ही जाती थी। उस साल भी परीक्षा हो चुकी थी। परिणाम बस आया ही था। हम लोग पिताजी का तबादला हो जाने के कारण नगर छोडकर जा रहे थे। जाने से पहले मैं सभी साथियों से मिलना चाहता था। बौड़मलाल के घर भी गया। उसे देखकर आश्चर्य हुआ। न भस्म न चन्दन, न गंडा न तावीज़। मेरी “राम-राम” के जवाब में अपनी चिर-परिचित “जय श्रीराम” की जगह जब उसने “@#$% है भगवान” कहा तो मेरा माथा ठनका। दो मिनट में ही बात खुल गयी कि इस नटखट भगवान ने इस बार पहली बार उसके साथ छल कर डाला। पाँच दस मिनट तक उसकी भड़ास सुनने के बाद मैं चल दिया।

नये नगर में मन अच्छी तरह लग गया। पिछ्ले स्कूल के मित्रों से पत्र-व्यवहार चलता रहा। बौड़मलाल की खबर भी मिलती रही। पता लगा कि जब भगवान ने उसे मनमाफ़िक फल नहीं दिया तबसे ही वह ईश्वर के खिलाफ धरने पर बैठा है। परमेश्वर-खुदा-भगवान से खफ़ा होकर वह नास्तिक ही नहीं बल्कि धर्म-द्रोही हो गया है। डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था। लेकिन यह सब घर के अन्दर पर्दे के पीछे की मजबूरी थी। घर के बाहर मज़ाल थी कि कोई उसके सामने भगवान का नाम ले ले। बौड़मलाल हुज्जत कर-कर के उस व्यक्ति की नाक में दम कर देता था।

कॉलेज पहुँचने पर उसकी प्रतिष्ठा एक गुमनाम राष्ट्रीय पार्टी “मुर्दाबाद” तक पहुँची और उसे छात्र संघ के चुनाव का टिकट भी मिल गया। बौड़मलाल का नया नामकरण हुआ बी. एल. “नास्तिक”। वह बड़ा वक्ता बना, हर विषय का विशेषज्ञ। “मुर्दाबाद” पार्टी ने उसकी कई किताबें प्रकाशित कराईं। कालांतर में वह पार्टी के साप्ताहिक पत्र “भाड़ में झोंक दो” का प्रबन्ध सम्पादक भी रहा।

समय के साथ मैं भी नौकरी में लग गया और बाकी मित्र भी। पता लगा कि कई साल कॉलेज में लगाने के बाद भी बौड़मलाल बिना डिग्री के बाहर आ गया। हाँ इतना ज़रूर हुआ कि उसकी पार्टी ने उसे अपनी केन्द्रीय कार्यकारिणी में ले लिया। फिर सब मित्र अपने-अपने परिवार में मगन हो गये और लम्बे समय तक न उनकी कोई खबर मिली न ही बौड़मलाल की।

आज उसे यहाँ देखकर मुझे उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना उसके लाल टीके और कलावे को देखकर। पूछा तो बौड़मलाल एक गहरी सांस लेकर बोला, “अब तुमसे क्या छिपाना ... पहले वाली बात अब कहाँ?”

“क्यों? अब क्या हुआ?” मैने आश्चर्य से पूछा।

“सोवियत संघ टूटा तो पैसा आना बन्द हो गया ...” फिर कुछ देर रुककर अपनी सुनहरी घड़ी को देखता हुआ बोला, “अब चीन पर इतना दवाब है कि हथियार आने भी बन्द हो गये हैं।”

“मगर तुम्हें पैसे से क्या? तुम्हारी पार्टी तो गरीबों, मज़दूर-किसानों की है।”

“अरे वह भी कब तक हमारे लिये जान देते। उन्हें तो अब ज़मीन का एकमुश्त इतना हर्ज़ाना मिल जाता है जितना मेरे स्तर के नेता साल भर में नहीं जमा कर पाते थे। बिक गये &*$# सब के सब।”

“फिर? तुम्हारा क्या होगा?”

“दो-तीन साल से तो मैं मन्दिरवाद पार्टी में हूँ, सेठों का बड़ा पैसा है उनके पास। एक तो धार्मिक, ऊपर से अहिंसक, खून-खराबा तो क्या लाल रंग से भी बचते हैं। मुर्दाबाद पार्टी में तो हर तरफ़ खूनम-खून, लालम-लाल। हमेशा तलवार लटकी रहती थी। इधर कोई आका नाराज़ हुआ, उधर सर क़लम।”

“तो अब यहीं रहने का इरादा है क्या?”

“अरे नहीं, धर्म की दुकान देसी है। बहुत दिन नहीं चलेगी, बाहर से बहुत पैसा आ रहा है ...”

मैंने उस पर एक प्रश्नात्मक दृष्टि डाली तो धूर्तता से मुस्कराते हुए बोला, “खबर है कि सद्दाम और ओसामा एक डॉन के साथ मिलकर बहुत सा पैसा एक नई पार्टी में लगा रहे हैं।”

“तुम्हें क्यों लेंगे वे?” मैंने आश्चर्य से पूछा।

“क्यों नहीं लेंगे?” उसने बेफ़िक्री से एक तरफ़ थूकते हुए एक कागज़ मेरी ओर बढ़ाया, “ये देखो।”

मैंने देखा तो वह एक हलफ़नामा था जिसमें बी. राम “आस्तिक” अपना नाम बदलकर बी. ग़ाज़ी “नियाज़ी” कर रहा था।

“क्या इतना काफ़ी है?” मैंने पूछा।

“मुझे पता है क्या करना काफ़ी है और वो मैंने करा भी लिया है।”

[समाप्त]

Tuesday, June 21, 2011

बेमेल विवाह - एक कहानी

आभार
यह कहानी गर्भनाल के जून 2011 के अंक में प्रकाशित हुई थी। जो मित्र वहां न पढ़ सके हों उनके लिए आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया बताइये कैसा रहा यह प्रयास।

... और अब कहानी

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.-<>-. बेमेल विवाह .-<>-.
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डॉ. अमित
मेरे साथ तो हमेशा से अन्याय हुआ है। ज़िंदगी सदा अधूरी ही रही। बचपन में बेमेल विवाह, मेडिकल कॉलेज में आरक्षण का ताना और अब पिताजी की यह सनक – उनकी सम्पत्ति से बेदखली। अपने ही दुश्मन हो जायें तो जीवन कैसे कटे। मेरा दिल तो घर जाने को करता ही नहीं। सोचता हूँ कि सारी दुनिया बीमार हो जाये और मेरा काम कभी खत्म न हो।

कु. रीना
कितनी खडूस हैं डॉ निर्मला। ऐसी भी क्या अकड़? पिछली बार बीमार पडी थी तब वहाँ गयी थी। छूकर देखा तक नहीं। दूर से ही लक्षण पूछ्कर पर्चा बना दिया था। आज तो मैं डॉ. अमित के पास जाऊंगी। कैसे हँसते रहते हैं हमेशा। आधा रोग तो उन्हें देखकर ही भाग जाये।

डॉ. अमित
क्या-क्या अजीब से सपने आते रहते हैं। वो भी दिन में? लंच के बाद ज़रा सी झपकी क्या ले ली कि एक कमसिन को प्रेमपत्र ही लिख डाला। यह भी नहीं देखा कि हमारी उम्र में कितना अंतर है। क्या यह सब मेरी अतृप्त इच्छाओं का परिणाम है? खैर छोड़ो भी इन बातों को। अब मरीज़ों को भी देखना है।

कु. रीना
कितने सहृदय हैं डॉ. अमित। कितने प्यार से बात कर रहे थे। पर मेरे बारे में इतनी जानकारी किसलिए ले रहे थे? कहाँ रहती हूँ, कहाँ काम करती हूँ, क्या शौक हैं मेरे, आदि। एक मिनट, दवा के पर्चे के साथ यह कागज़ कैसा? अरे ये क्या लिखा है बुड्ढे ने? आज रात का खाना मेरे साथ फाइव स्टार में खाने का इरादा है क्या? मुझे फोन करके बता दीजिये। समझता क्या है अपने आप को? मैं कोई ऐरी-गैरी लड़की नहीं हूँ। अपनी पत्नी से ... नहीं, अपनी माँ से पूछ फाइव स्टार के बारे में। सारा शहर जानता है कि यह मर्द शादीशुदा है। फिर भी इसकी यह मज़ाल। मुझ पर डोरे डाल रहा है। मैं भी बताती हूँ तूने किससे पंगा ले लिया? यह चिट्ठी अभी तेरे घर में तेरी पत्नी को देकर आती हूँ मैं।

श्रीमती अमिता
जाने कौन लडकी थी? न कुछ बोली न अन्दर ही आयी। बस एक कागज़ पकड़ाकर चली गयी तमकती हुई।

डॉ. अमित
अपने ऊपर शर्म आ रही है। मेरे जैसा पढा लिखा अधेड़ कैसे ऐसी बेवक़ूफी कर बैठा? पहले तो ऐसा बेतुका सपना देखा। ऊपर से ... जान न पहचान डिनर का बुलावा दे दिया मैंने … और लड़की भी इतनी तेज़ कि सीधे घर पहुँचकर चिट्ठी अमिता को दे आयी। ज़रा भी नहीं सोचा कि एक भूल के लिये कितना बड़ा नुकसान हो जाता। मेरा तो घर ही उजड जाता अगर अमिता अनपढ न होती।

[समाप्त]

Friday, June 10, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 14

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13;
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पिछले अंक में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते।
अब आगे भाग 14 ...
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उस रात वीर ने पहली बार अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरा। अपने अन्दर छिपे बैठे कवि से यह उनका प्रथम परिचय था।
आंसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता
कोई आता


उनके अंतर के वैराग्य की अग्नि जितनी तेज़ी से प्रज्ज्वलित हो रही थी, वे उतनी ही बेचैनी से उसे संसार से, विशेषकर माँ से छिपाये रखना चाहते थे। इस प्रक्रिया में वे एक विरोधाभास को जन्म दे रहे थे। उन जैसा अंतर्मुखी व्यक्तित्व एक सामाजिक प्राणी में बदलता जा रहा था। उनकी मित्र मण्डली बढ़ती जा रही थी और पढ़ाई में रुचि कम होती जा रही थी। संगीत, फिल्म, साहित्य आदि में अचानक रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। गुरुदत्त की फ़िल्में हों या ग़ुलाम अली की गायी ग़ज़लें, इब्ने इंशा की कवितायें हों चाहे मन्नू भंडारी और उपेन्द्रनाथ अश्क़ की कहानियाँ, सबको समय दिया जा रहा था।

अब वे अपने अन्दर एक गुण और महसूसने लगे थे। रहा शायद पहले भी हो पर उसका बोध उन्हें इसी काल में हुआ। वह था अपने से निर्लिप्त होकर अपने को देख पाना। उन दिनों अगर उन्हें अपने खिलाफ किसी मुकदमे का निर्णय देना होता तो वे पूरी निर्ममता को सहजता से निभा जाते।

शायद वे बिल्कुल यही कर भी रहे थे। नई सराय प्रवास में दादाजी की मृत्यु एक दुखद घटना थी। परंतु उस एक घटना के अतिरिक्त तब उनकी हर इच्छा जादुई तरीके से पूरी हो रही थी। बरेली वापस आने पर भी हो बिल्कुल यही रहा था, अंतर केवल इतना था कि अब कोई इच्छा नहीं रही थी, केवल एक शून्य था। उन्हें लगता था कि वे अवसादग्रस्त थे, शायद सही भी हो। पर साथ ही उन्हें यह भी लगता था कि यदि जीवन का अर्थहीन और क्षणभंगुर होना उन्हें नापसन्द है तो भी इससे जीवन अपना तरीका तो नहीं बदलेगा। नतीज़ा फिर वही निकलता, जीवन में रस ढूंढने का प्रयास। मतलब और कविता, कहानी, गीत, फ़िल्म।

एक दिन उन्होंने सब्ज़ी वाले खालिद को माँ से कहते सुना, "आवारा लड़कों से दोस्ताना चल्लिया है आजकल। अभी समझा दीजिये वन्ना एक दिन हाथ से निकल्लेंगे।"

वीर ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन उस दिन उनका ध्यान अटका जब वे रोज़ की तरह रोज़ी को भौतिकी की ट्यूशन पढाने गये और उसकी माँ ने बिना कारण बताये उन्हें आइन्दा घर आने से मना कर दिया। उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा। बस उनकी इंसान पहचानने की क्षमता के अभाव पर दु:ख हुआ।

"माईं, पालागन!" एक दिन अचानक से बड़ी बुआ के बेटे रज्जू भैया आ गये। वीर पर उनका विशेष स्नेह था। जब वीर सामने पड़े तो हमेशा की तरह गले लगने के बजाय उन्होंने वीर की बाँह पकड ली और माँ से पूछने लगे, "माईं, क्या खाना नहीं देतीं अपने सपूत को?"

बाद में जब उन्हें सिगरेट की तलब लगी तो शाम की सैर के बहाने वीर को लेकर घर से बाहर आ गये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद एक कश लगाया और पूछने लगे, "कुछ परेशानी है?"

"नहीं तो!"

"कोई लौंडिया का चक्कर है क्या? न माने तौ हमैं बताओ, घर सै उठवा लें।"

"नहीं भैया, ऐसी बात होती भी तो भी मैं ऐसा काम नहीं होने देता।"

"सिगरेट पीते हौ? अब तो बड़े हो गए हो। ल्यो, पीओ।" रज्जू भैय्या ने सिगरेट वीर की तरफ बढाई।

"जी नहीं, मैं नहीं पीता" वीर ने विनम्रता से कहा।

"लौंडिया नहीं, नशा नहीं, फिर कोई भूत साध रहे हौ का जो ऐसा हाल बनाया है?" रज्जू भैय्या वाकई वीर के लिये चिंतित थे।

पहले खालिद, फिर रोज़ी की माँ, और अब रज्जू भैय्या, वीर को समझ आ गया कि अपनी बाहरी दिखावट पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनकी सुरुचिसम्पन्न माँ ने उन्हें इस बात के लिये एक बार भी नहीं टोका था।

"परेशान न हों भैय्या, सब ठीक है, सिचुएशन अंडर कंट्रोल।"

"अपना हाथ दिखइओ ज़रा" भैय्या ने हाथ ऐसे देखा मानो वे पहुँचे हुए ज्योतिषी हों। हाथ देखते ही वे चौंके और दूसरा हाथ पकडा और क्षण भर को दसों उंगलियाँ एक साथ देखकर बुदबुदाये, "दसों शंख जोगी ..." फिर एक गहरी साँस ली और बोले, "मेरी किसी बात का बुरा मत मानना ... वो ... घर से उठाना, सिग्रेट, भूत ... वगैरा।"

घर लौटते हुए रज्जू भैय्या ने बताया कि ऊपर से शांत और सहज दिखने वाली माँ वीर के बदलाव से बेखबर नहीं है। वह बहुत व्यथित है। उसी ने रज्जू भैय्या को बुलाया था ताकि वीर की परेशानी को समझकर हल किया जा सके। पर अब रज्जू भैय्या को लगता है कि परेशानी बस यही है कि पिताजी साथ में नहीं हैं। उन्हें घर बुलाकर बिठाया तो जा नहीं सकता इसलिये विकल्प है आत्मानुशासन का और आवारागर्दों से बचने का। उन्होंने वीर को डायरी लिखने की सलाह दी। इससे सातत्य भी आयेगा, आत्मावलोकन भी होगा और साथ के लिये मित्रों पर निर्भरता भी कम होगी। वीर सहमत थे। घर आकर दोनों ने ऐसे व्यवहार किया जैसे वीर के विषय में कोई बात ही न हुई हो।

[क्रमशः]

Thursday, June 9, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 13

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12;
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर की नज़रें झरना से मिलीं। उन्होंने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।
अब आगे भाग 13 ...
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अंग्रेज़ों के ज़माने में सैनिक वाहन चालकों को नैनीताल आदि के पहाड़ी मार्गों पर चलने के लिये तैयार करने के लिये छावनी में ऊँचे-नीचे हिलट्रैक मार्ग का निर्माण किया गया था। आज वीर ने उस हिलट्रैक लूप के न जाने कितने चक्कर लगाये थे। रात में जब घर पहुँचे तो काफी थक चुके थे। माँ कमला चाची के साथ बाहर खड़ी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थीं। पसीने की गन्ध से माँ को दूर से ही उबकाई आती है इसलिये अन्दर पहुँचते ही वीर नहाने चले गये। बाहर आने तक माँ ने खाना लगा दिया था। दोनों खाना खाने बैठे तो माँ ने बताया, “वासिफ़ के घर से ... झरना आई थी आज ... बहुत प्यारी बच्ची है।”

वीर ने अनमनी सी “हाँ” में सर हिलाया। इसका मतलब है कि झरना ने उनके भागने के बारे में माँ से कुछ नहीं कहा था।

“बता रही थी कि वासिफ़ को मलेरिया हुआ था। तबियत काफी खराब थी। स्कूल भी नहीं गया। उसकी अम्मी तुमसे मिली थीं। बताना चाहती थीं, मगर तुम जल्दी में थे।”

“हाँ, उस दिन मिल गई थीं, कम्पनी बाग के पास। वासिफ़ कैसा है अब?”

“कमज़ोरी बनी हुई है। उसे किताबों की लिस्ट और अब तक के होमवर्क की कॉपियाँ चाहिये। यही बताने यहाँ आयी थी वह।”

“नवीन से कहके भिजा दूंगा, उधर ही रहता है वह।”

“कल हो आते हैं, मैं भी मिल लूंगी उन लोगों से” माँ कुछ उतावली सी दिखीं।

अगले दिन स्कूल में वीर ने किताबों की लिस्ट और तब तक का सारा गृहकार्य वासिफ़ के घर पहुँचाने की हिदायत देकर नवीन को दे दिया। उन्हें अच्छी प्रकार पता था कि इतने भर से उन्हें छुटकारा नहीं मिलने वाला है। अगर माँ का मन है तो वासिफ़ का काम हो जाने के बाद भी वह उन्हें लेकर वहाँ जायेगी ही। घर आते समय वे वासिफ के घर न जाने के सर्वश्रेष्ठ बहाने खोज रहे थे। हाथ मुँह धोकर डरते-डरते माँ के साथ चाय पीने बैठे तो माँ ने बताया कि वे दिन में वासिफ़ के घर हो आयी थीं।

“तुम्हें पूछ रहा था। बहुत कमज़ोर हो गया है।”

“मैंने कॉपियाँ और लिस्ट भिजा दी है।”

“ठीक किया। तुम्हें पता है कि उसकी बहन की शादी है दो महीने में?”

“अच्छा! मुझे नहीं पता” वीर ने अचरज में आँखें फैलाकर कहा। मुहब्बत का इज़हार किसी से और इकरार किसी से। वीर का मन कड़वा सा हो गया।

“बहुत प्यारी बच्ची है। तुम्हारी बहन आज होती तो शायद वैसी ही होती ...” वाक्य पूरा करते-करते माँ का गला भर आया। अब वीर को सचमुच आश्चर्य हुआ।

“मेरी बहन?”

“हाँ बेटा, तुम अकेले नहीं थे। तुम्हारी एक जुड़वाँ बहन भी थी ... तुमसे बड़ी। एक दिन भी जीवित नहीं रही।”

वीर को समझ नहीं आया कि जिस बहन के बारे में वे अब तक अन्धेरे में थे, उसके अवसान पर क्या कहें। हाँ, यह गुत्थी ज़रूर सुलझ गयी कि उनके जन्मदिन पर माँ उदास क्यों होती है। भगवान पर उनका क्रोध और बढ़ गया। उनकी बहन को जन्मते ही क्यों छीन लिया? माँ-पापा ने कैसे सहा होगा उसका जाना?

“क्या हुआ था उसे? इलाज नहीं हो सकता था? इसके बाद भी आप भगवान को कैसे पूज लेती हैं? गुस्सा नहीं आता क्या?”

“जन्म के समय तुम दोनों ही मृतप्राय थे। तब ज़माना काफ़ी पिछड़ा हुआ था। डॉक्टरों को तो पहले से यह भी पता नहीं था कि मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं ...” माँ ने आँख पोंछते हुए कहा, “और भगवान से गुस्सा तो हो ही नहीं सकती थी। वह चाहता तो मेरे दोनों बच्चे छीन सकता था मगर उसने इतना प्यारा बेटा मेरी गोद में जीवित छोड़ दिया न।”

वीर को अचानक माँ पर असीमित दया और प्यार दोनों ही आ गये। परंतु भगवान के प्रति उनका क्रोध कम नहीं हुआ।

[क्रमशः]