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Thursday, December 31, 2015

2016 की शुभकामनायें! कविता

चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा

बीतते हुए वर्ष की
अंतिम रात्रि
यूँ लगती है
जैसे अंतिम क्षण
किसी जाते हुए  
अपने के
साथ तो हैं पर
साथ की खुशी नहीं
जाने का गम है
सच पूछो तो
यही क्या कम है!
नववर्ष 2016 आप सबके जीवन में सफलता, समृद्धि और खुशियाँ बढ़ाये  

Thursday, November 26, 2015

कबाड़ - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
यादों का कबाड़

कचरा ढोते रहे
दुखित रोते रहे

ढेर में कबाड़ के
खुदको खोते रहे

तेल जलता रहा
लौ पर न जली

था अंधेरा घना
जुगनू सोते रहे

मूल तेरा भी था
सूद मेरा भी था

कर्ज़ दोनों का
अकेले ढोते रहे

शाम जाती रही
दिन बदलते रहे

बौर की चाह में
खत्म होते रहे।

Saturday, October 10, 2015

तुम और हम - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

तुम खूब रहे हम खूब रहे
तुम पार हुए हम डूब रहे

अपना न मुरीद रहा कोई
पर तुम सबके मतलूब रहे

तुम धूप हिमाल शुमाल की
हम शामे-आबे-जुनूब रहे

दोज़ख की आग तपाती हमें
और तुम फ़िरदौसी खूब रहे

हमसे पहचान हुई न मगर
तुम दुश्मन के महबूब रहे

शब्दार्थ:
मतलूब = वांछनीय, मनवांछित; हिमाल = हिमालय; शुमाल = उत्तर दिशा; आब = जल, सागर;
शाम = संध्या; जुनूब = दक्षिण दिशा; दोज़ख = नर्क; दुश्मन = शत्रु;
महबूब = प्रिय; फ़िरदौसी = फिरदौस (स्वर्ग) का निवासी = स्वर्गलोक का आनंद उठाता हुआ

Thursday, April 16, 2015

अस्फुट मंत्र - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

प्रेम का जादू यही
इक एहसास वही

अमृती धारा  बही
पीर अग्नि में दही

मैं की दीवार ढही
रात यूँ ढलती रही

बंद होठों से सही
बात जो तूने कही 

Saturday, March 21, 2015

सीमित जीवन - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
इस जीवन की आपूर्ति सीमित है, कृपया सदुपयोग करें

अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...

Wednesday, December 10, 2014

हम क्या हैं? - कविता

उनका प्रेम समंदर जैसा
अपना एक बूंद भर पानी

उनकी बातें अमृत जैसी
अपनी हद से हद गुड़धानी

उनका रुतबा दुनिया भर में
हम बस मांग रहे हैं पानी

उनके रूप की चर्चा चहुँदिश
ये सूरत किसने पहचानी

उनके भवन भुवन सब ऊँचे
अपनी दुनिया आनी जानी

वे कहलाते आलिम फाजिल
हमको कौन कहेगा ज्ञानी

इतने पर भी हम न मिटेंगे
आखिर दिल है हिन्दुस्तानी

Saturday, November 29, 2014

तल्खी और तकल्लुफ

जो आज दिखी
असहमति नहीं
अभिव्यक्ति मात्र है
आज तक
सारा नियंत्रण
अभिव्यक्ति पर ही रहा
असहमति
विद्यमान तो थी
सदा-सर्वदा ही
पर
रोकी जाती रही
अभिव्यक्त होने से
सभ्यता के नाते

Wednesday, August 27, 2014

अपना अपना राग - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

हर नगरी का अपना भूप
अपनी छाया अपनी धूप

नक्कारा और तूती बोले
चटके छन्नी फटके सूप

फूट डाल ताकतवर बनते
राजनीति के अद्भुत रूप

कोस कोस पर पानी बदले
हर मेंढक का अपना कूप

ग्राम नगर भटका बंजारा
दिखा नहीं सौन्दर्य अनूप

Thursday, July 3, 2014

आस्तीन का दोस्ताना - कविता


फूल के बदले चली खूब दुनाली यारों, 
बात बढ़ती ही गई जितनी संभाली यारों

दूध नागों को यहाँ मुफ्त मिला करता है, 
पीती है मीरा यहाँ विष की पियाली यारों

बीन हम सब ने वहाँ खूब बजा डाली थी, 
भैंस वो करती रही जम के जुगाली यारों 

दिल शहंशाह था अपना ये भुलावा ही रहा, 
जेब सदियों से रही अपनी तो खाली यारों

ज़िंदगी साँपों की आसान करी है हमने, 
दोस्ती अपनी ही आस्तीन में पाली यारों

Sunday, May 25, 2014

क्यूँ नहीं - कविता

(चित्र व पंक्तियाँ: अनुराग शर्मा)

इंद्र्धनुष
है नाम लबों पर तो सदा क्यूँ नहीं देते,
जब दर्द दिया है तो दवा क्यूँ नहीं देते

ज़िंदा हूँ इस बात का एहसास हो सके
मुर्दे को मेरे फिर से हिला क्यूँ नहीं देते

है गुज़री कयामत मैं फिर भी न गुज़रा
ये सांस जो अटकी है हटा क्यूँ नहीं देते

सांस ये चलती नहीं है दिल नहीं धड़के,
जाँ से मिरी मुझको मिला क्यूँ नहीं देते

सपनों में सही तुमसे मुलाकात हो सके,
हर रात रतजगे को सुला क्यूँ नहीं देते


(प्रेरणा: हसरत जयपुरी की "जब प्यार नहीं है तो भुला क्यों नहीं देते")

 अहमद हुसैन और मुहम्मद हुसैन के स्वर में

Sunday, May 18, 2014

राजनैतिक व्यंग्य की दो लाइनाँ

संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र में जनमत की विजय के लिए हर भारतीय मतदाता को बधाई  
ताज़े-ताज़े लोकसभा चुनावों ने बड़े-बड़ों के ज्ञान-चक्षु खोल दिये। कई चुनाव विशेषज्ञों के लिए मोदी और भाजपा की जीत में हर विरोधी का सफाया हो जाना 1977 की चुनावी क्रान्ति से भी अधिक अप्रत्याशित रहा। रविश कुमार नामक रिपोर्टर को टीवी पर मायावती की एक रैली का विज्ञापन सा करते देखा था तब हँसी आ रही थी कि आँख के सामने के लट्ठ को भी तिनका बताने वालों की भी पूछ है हमारे भारत में। अब मायावती के दल का पूर्ण सफाया होने पर शायद रवीश पहली बार अपनी जनमानस विश्लेषण क्षमता पर ध्यान देंगे। क्योंकि खबर गरम है कि हाथी ने इस बार के चुनाव में अंडा दिया है।

इसी बीच अपने से असहमत हर व्यक्ति को फेसबुक पर ब्लॉक करने के लिए बदनाम हुए ओम थानवी पर भी बहुत से चुट्कुले बने। कुछ बानगी देखिये,
  • आठवें चरण के चुनाव में थानवी जी ने 64 सीटों को ब्लाक कर दिया
  • थानवी जी की लेखन शैली की वजह से जनसत्ता के पाठकों में इतना इजाफा हुआ कि आज उसे दो लोग पढ़ते हैं, एक हैं केजरीवाल और दुसरे हैं संपादक जी खुद। बाकी सब को थानवी जी ने ब्लॉक कर दिया है।
  • 16 मई को अगर मोदी पीएम बने तो थानवी जी भारत देश को ब्लाक करके पाकिस्तान चले जायेगे। 

हीरो या ज़ीरो?
जहाँ केजरीवाल के राखी बिडलान और सोमनाथ भारती जैसे साथी अपने अहंकार और बड़बोलेपन के कारण पहचाने गए वहीं स्वयं केजरीवाल ने अल्प समय में भारतीय राजनीति के विदूषक समझे जाने वाले लालू प्रसाद को गुमनाम कर दिया। केजरीवाल की फूहड़ हरकतों और उनसे लाभ की आशा में जुटे गुटों की जल्दबाज़ी ने कार्टूनिस्टों को बड़ा मसाला प्रदान किया। उनका हर असहमत के लिए, "ये सब मिले हुए हैं जी" कहने की अदा हो, अपने साथियों के मुँह पर खाँसते रहने का मनमोहक झटका, हर विरोधी को बेईमान कहने और अपने साथियों को ईमानदारी के प्रमाणपत्र बाँटने का पुरस्कारी-लाल अंदाज़ हो,  या फिर हर वायदे से पलटने का केजरीवाल-टर्न, जनता का मनोरंजन जमकर हुआ। वैसे तो वे 49 दिन के भगोड़े भी समझे जाते हैं लेकिन अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में 400 जमानत जब्त कराने का जो अभूतपूर्व करिश्मा उन्होने कर दिखाया है उसके लिए उनके पार्टी सदस्य और देश कि जनता उन्हें सदा याद रखेंगे।

आज कुछ सीरियस लिखने का मूड नहीं है सो प्रस्तुत है इन्हीं चुनावों के अवलोकन से उपजा कुछ निर्मल हास्य। अगर आपको लगता है कि प्रस्तुत पोस्ट वन्य प्राणियों के लिए अहितकर है तो कृपया अपना मत व्यक्त करें, समुचित कारण मिलने पर पोस्ट हटा ली जाएगी।

दिल्ली छोड़ काशी को धावै,
सीएम रहै न पीएम बन पावै

खाँसियों  का  बड़ा सहारा है
फाँसियों ने तो सिर्फ मारा है

सूली से भय लगता है, थप्पड़ से काम चलाते हैं,
जब तक मूर्ख बना सकते जनता को ये बनाते हैं

टोपी मफ़लर फेंक दियो, झाड़ू दई छिपाय
न जाने किस मोड़ पे मतदाता मिल जाय।

पहले साबरमती उबारी
आई अब गंगा की बारी

इल्मी हारे, फ़िल्मी हारे, हारे बब्बर राज
लोकतन्त्र ऐसा चमका मेरे भारत में आज

स्विट्जरलैंड की खोज में बाबा हुए उदास
कालाधन की खान हैं सब दिल्ली के पास



संबन्धित कड़ियाँ
* क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल
आशा की किरण

Thursday, May 8, 2014

कहाँ गई - कविता

(अनुराग शर्मा)

कभी गाड़ी नदी में, कभी नाव सड़क पर - पित्स्बर्ग का एक दृश्य
यह सच नहीं है कि
कविता गुम हो गई है
कविता आज भी
लिखी जाती है
पढ़ी जाती है
वाहवाही भी पाती है
लेकिन तभी जब वह
चपा चपा चरखा चलाती है

कविता आज केवल
दिल बहलाती है
अगर महंगी कलम से
लिखी जाये तो
दौड़ा दौड़ा भगाती है
थोड़ा-थोड़ा मंगाती है
नफासत की चाशनी में थोड़ी
रूमानियत भी बिखराती है

कविता आजकल
दिल की बात नहीं कहती
क्योंकि तब मित्र मंडली
बुरा मनाती है
इसलिए कविता अब
दिल न जलाकर
जिगर से बीड़ी जलाती है

कविता सक्षम होती थी
गिरे को उठा सकती थी
अब इतिहास हुई जाती है
इब्नबबूता से शर्माती है
बगल में जूता दबाती है
छइयाँ-छइयाँ चलाती है
व्यवसाय जैसे ही सही
अब भी लिखी जाती है


कविता की चिंता छोडकर सुनिए मनोरंजन कर से मुक्त बाल-फिल्म किताब का यह मास्टरपीस

Sunday, March 16, 2014

कालचक्र - कविता

(अनुराग शर्मा)

बनी रेत पर थीं पदचापें धारा आकर मिटा गई
बने सहारा जो स्तम्भ, आंधी आकर लिटा गई

बीहड़ वन में राह बनाते, कर्ता धरती लीन हुए
कूप खोदते प्यास मिटाने स्वयं पंक की मीन हुए

कली खिलीं जो फूल बनीं सबमें खुशी बिखेर गईं
कितनी गिरीं अन्य से पहले कितनी देर सबेर गईं

छूटा हाथ हुआ मन सूना खालीपन और लाचारी है
आगे आगे गुरु चले अब कल शिष्यों की बारी है

मिट्टी में मिट्टी मिलती अब जली राख़ की ढेर हुई
हो गहराई रसातली या शिला हिमालय सुमेर हुई

कालचक्र ये चलता रहता कभी कहीं न थम पाया
आँख पनीली धुंधली दृष्टि, सत्य लपेटे भ्रम पाया

Tuesday, January 14, 2014

एक उदास नज़्म

(अनुराग शर्मा)

यह नज़्म या कविता जो भी कहें, लंबे समय से ड्राफ्ट मोड में रखी थी, इस उम्मीद में कि कभी पूरी होगी, अधूरी ही सही, अंधेर से देर भली ... 



एक देश वो जिसमें रहता है
एक देश जो उसमें रहता है

एक देश उसे अपनाता है
एक देश वो छोड़ के आता है

इस देश में अबला नारी है
नारी ही क्यों दुखियारी है

ये देश भरा दुखियारों से
बेघर और बंजारों से

ये इक सोने का बकरा है
ये नामा, गल्ला, वक्रा है

इस देश की बात पुरानी है
नानी की लम्बी कहानी है

उस किस्से में न राजा है
न ही सुन्दर इक रानी है

हाँ देओ-दानव मिलते हैं
दिन में सडकों पर फिरते हैं

रिश्वत का राज चलाते हैं
वे जनता को धमकाते हैं

दिन रात वे ढंग बदलते हैं
गिरगिट से रंग बदलते हैं

कभी धर्म का राग सुनाते हैं
नफरत की बीन बजाते हैं

वे मुल्ला हैं हर मस्जिद में
वे काबिज़ हैं हर मजलिस में

बंदूक है उनके हाथों में
है खून लगा उन दांतों में

उन दाँतो से बचना होगा
इक रक्षक को रचना होगा
   उस देश में एक निठारी है
जहां रक्खी एक कटारी है

जहां खून सनी दीवारें हैं
मासूमों की चीत्कारें हैं

कितने बच्चों को मारा था
मानव दानव से हारा था

कोई उन बच्चों को खाता था
शैतान भी तब शरमाता था

न उनका कोई ईश्वर है
न उनका कोई अल्ला था

न उनका एक पुरोहित है
न उनका कोई मुल्ला था

न उनका कोई वक़्फ़ा था
न उनकी कोई छुट्टी थी

जिस मिट्टी से वे उपजे थे
उन हाथों में बस मिट्टी थी

वे बच्चे थे मजदूरों के
बेबस और मजबूरों के

जो रोज़ के रोज़ कमाते थे
तब जाके रोटी खाते थे

संसार का भार बंधे सर में
तब चूल्हा जलता है घर मेंं

वे बच्चों को तो बचा न सके
दुनियादारी सिखला न सके

हमें उनके घाव नहीं दिखते
हम कैंडल मार्च नहीं करते

हम सब्र उन्हें सिखलाते हैं
और प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं

Monday, December 30, 2013

प्रेमिल मन - एक कविता

चावल, चीनी और चाय से बनी स्वर्णकण आच्छादित जापानी मिठाई मोची (餅)
(अनुराग शर्मा)

दुश्मनों का प्यार पाना चाहता है
हाथ पे सरसों उगाना चाहता है

इंतिहा मासूमियत की हो गयी है
प्यार में दिल मार खाना चाहता है

इक नदी के दो किनारे लोग नाखुश
हर कोई "उस" पार जाना चाहता है

धूप और बादल में समझौता हुआ है
खेत बस अब लहलहाना चाहता है

जिस जहाँ में साथ तेरा मिल न पाये
दिल वहाँ से छूट जाना चाहता है

बचपने में जो खिलौना तोड़ डाला
मन उसी को आज पाना चाहता है

रात दिन भटका सारे जगत में वो
मन तुम्हारे द्वार आना चाहता है

कौन जाने फिर मनाने आ ही जाओ
दिल हमारा रूठ जाना चाहता है

एक बाज़ी ये लगा लें आखिरी बस
दिल तुम्ही से हार जाना चाहता है

दुश्मनों का साथ देने चल दिया वह
कौन आखिर मात खाना चाहता है

बहर से करते सरीकत क्या कहेंगे
केतली में ज्वार आना चाहता है
सपरिवार आपको, आपके मित्रों, परिजनों और शुभचिंतकों को नव वर्ष 2014 के आगमन पर हार्दिक मंगलकामनाएँ

Tuesday, December 25, 2012

दुखी मन से

कवि नहीं हूँ पर आहत तो हूँ। यूं ही कुछ बिखरे से विचार
(अनुराग शर्मा
लिखा परदेस क़िस्मत में वतन को याद क्या करना
जहाँ बेदर्द हो हाकिम वहाँ फ़रियाद क्या करना
(~ अज्ञात)
(चित्र आभार: काजल कुमार)
गाँव छोड़कर क्यों जाते हैं
शहर की हैवानियत झेलने
हँसा मेरे गाँव का साहूकार
खेत हथियाने के बाद

अपनी इज्ज़त अपने हाथ
हमें तो कुछ नहीं हुआ
कपड़े उघड़े रहे होंगे बोले
मुर्दा खाल उघाड़ते क़स्साब

नज़र नीची रखो, पाँव की जूती
हया, नकाब, बुर्का और हिजाब
थोपकर ही खैरख्वाह बनते हैं
चेहरों पर तेज़ाब फेंकने वाले

घर से निकली ही क्यों
कहता है सौदागर हवस का
भारी छूट पर खरीदते हुए
एक नाबालिग को

दुर्योधन और रावण महान
विदेशी प्रथा है नारी अपमान
भाषण देता देसी पव्वा
सुन रहा है तंबाकू का पान

तुम्हें कर मिले तो कर लो
हमें तो देखना है, देख रहे हैं
देखते रहेंगे, कुछ न करेंगे
खाने कमाने आए थे, खाने दो

बसों में क्यों चढ़ते हैं लोग
मासूमियत से पूछते हैं
ज़ैड सिक्योरिटी पर इतराते
बुलेटप्रूफ शीशों के धृतराष्ट्र

अपनी हिफाज़त खुद करें
यही लिखा था उस बस में
जो अव्यवस्था के जंगल में
चलती है हफ्ते के ईंधन से

मानवता की गली लाशों के बीच
अट्टहास कर रहे हैं कुछ लोग
डॉक्टर ने मोटी रकम लेकर
जन्म से पहले ही कर दिया काम
सारे देश की शुभकामनाओं के बाद भी शनिवार 29 दिसंबर प्रातः हमने उसे खो दिया
सोया देश जागा है। आप भी न्यायमूर्ति जे एस वर्मा समिति को यौन-अपराध में त्वरित न्याय के लिए अपने सुझाव निम्न पते पर भेज सकते हैं:
फैक्स: 011 2309 2675
ईमेल: justice.verma@nic.in

Sunday, October 7, 2012

भारत बोध - कविता

(चित्र, भाव व शब्द: अनुराग शर्मा)

असम धरातल, मरु है विषम ...

इतना ज़्यादा
होकर भी कम

असम धरातल
मरु है विषम

कैसे साथ
निभायेंगे हम

कहीं मिला न
कोई मो सम

कहाँ रहे तुम
कहाँ गये हम

मन हारा और
जीत रहे ग़म

पत्थर आँख न
होती है नम

साँस बची पर
निकला है दम

ज्योतिपुंज न
बने महातम

सर्वम दुःखम
सर्वम क्षणिकम

Saturday, September 1, 2012

दिल यूँ ही पिघलते हैं - कविता

उस आँख में बस मीठे सपने ही पलते हैं
सब अपने हैं उसके, वे भी जो छलते हैं।

(अनुराग शर्मा)


बर्ग वार्ता - पिट्सबर्ग की एक खिड़की
जो आग पे चलते हैं
वे पाँव तो जलते हैं

कितना भी रोको पर
अरमान मचलते हैं

युग बीते हैं पर लोग
न तनिक बदलते हैं

श्वान दूध पर लाल
गुदड़ी में पलते हैं

हालात पे दुनिया के
दिल यूँ ही पिघलते हैं

मानव का भाग्य बली
अपने ही छलते हैं

पत्थर मारो फिर भी
ये वृक्ष तो फलते हैं

शिखरों के आगे तो
पर्वत भी ढलते हैं

मेरे कर्म मेरे साथी
टाले से न टलते हैं।

* सम्बन्धित कड़ियाँ *

Tuesday, July 10, 2012

प्रेम की चुभन - कविता

हम थे वो थीं, और समाँ रंगीन ...
(चित्र व रचना: अनुराग शर्मा)

बेक़रारी मेरे दिल को क्या हो गई
आँख ही आँख में आप क्या कह गये

नज़रों की ज़ुबाँ हमको महंगी पड़ी
सभी समझे मगर इक वही रह गये

पलकें झपकाना भूले हैं मेरे नयन
जादू ऐसा वे तीरे नज़र कर गये

पास आये थे हम फिर ये कैसे हुआ
दर्म्याँ उनके मेरे फ़ासले रह गये

ज़िन्दगानी मेरी काम आ ही गई
जीते जी हम भी घायल हुए मर गये



Friday, June 15, 2012

प्रेम, न्याय और प्रारब्ध - कविता

छोड़ फूलों को परे कांटे जो उठाते हैं
ज़ख्म और दर्द ही हिस्से में उनके आते हैं
(चित्र व शब्द: अनुराग शर्मा)

बेदर्दी है हाकिम निठुर बँटवारा
ज़मीं हो हमारी गगन है तुम्हारा

जहाँ का हरेक ज़ुल्म हँस के सहा
प्यार में बुज़दिली कैसे होती गवारा

सभी कुछ मिटाकर चला वो जहाँ से
उसका रहा तन पर दिल था हमारा

तेरे नाम पर थी टिकी ज़िन्दगानी
नहीं तेरे बिन होगा अपना गुज़ारा

वो दामे-मुहब्बत नहीं जान पाया
बिका कौड़ियों में दीवाना बेचारा